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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  17.14 II

।। अध्याय      17.14 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 17.14

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्‌ ।

ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते॥

“deva- dvija- guru- prājña-,

pūjanaḿ śaucam

 ārjavam..।

brahmacaryam ahiḿsā ca,

śārīraḿ tapa ucyate”..।।

भावार्थ: 

ईश्वर, ब्राह्मण, गुरु, माता, पिता के समान पूज्यनीय व्यक्तियों का पूजन करना, आचरण की शुद्धता, मन की शुद्धता, इन्द्रियों विषयों के प्रति अनासक्ति और मन, वाणी और शरीर से किसी को भी कष्ट न पहुँचाना, शरीर सम्बन्धी तप कहा जाता है। (१४)

Meaning:

Worship of the deities, the twice born, teachers and the learned, purity, straightforwardness, chastity and non-violence, these are called penance of the body.

Explanation:

So far, Shri Krishna described the three types of food and worship so that we can use them to analyse the texture of our faith. He now begins the topic of tapas, which means penance or austerity.

The word tapaḥ means “to heat up,” e.g. by placing on fire. In the process of purification, metals are heated and melted, so that the impurities may rise to the top and be removed. When gold is placed in the fire, its impurities get burnt and its luster increases. Similarly, the Vedas state: atapta tanurnatadā mośhnute (Rig Veda 9.83.1) [v3] “Without purifying the body through austerity, one cannot reach the final state of yog.” By sincerely practicing austerity, human beings can uplift and transform their lives from the mundane to the divine. Such austerity should be performed without show, with pure intent, in a peaceable manner, in conformance with the guidance of the spiritual master and the scriptures. Shree Krishna now classifies such austerity into three categories—of the body, speech, and mind. kāyikam means physical austerity; austerities undertaken by the physical body. next one is vāchikam tapa; austerities undertaken at the verbal or oral level; vāk indriya dr̥ṣṭya; vāk tapas, and the third one is mānasam tapaḥ, the austerities based on the mind or the thought level.

Through tapas we ensure that the energy that we derive from consuming food can be conserved and channeled into our actions. This tapas or penance is also of three types, saattvic, raajasic and taamasic. But penance itself needs to be broken down into its three main components first. Here, we examine the first component which is bodily or physical penance, shaaririka tapas.

Penance of the body begins with bowing down to, respecting, and serving our deities, our elders and our teachers. Deities also means the gods representing elemental forces such as Varun, lord of the seas. This means that we should worship and take care of all the natural resource this world has to offer. Offering service to something greater than us also has the effect of checking our aham, our ego, our illusory notion of who we are. It increases our humility and decreases our individuality.

Shaucham refers to purity of our body and our surroundings. If we keep our room unclean or cluttered, it is an indication that our mind is also unclean or is cluttered with useless thoughts. Aarjavam or straightforwardness refers to our posture. We will not be able to meditate unless we are able to maintain an erect posture. This straightforwardness of the body is also a pointer to making our thinking straightforward, without any trace of deceit. Brahmacharyam refers to stopping our checking the excessive straying of our sense organs into their respective objects, like watching too much TV or consuming a lot of rich food. Ahimsa or non-violence prevents us from harming anyone or anything using our body.

।। हिंदी समीक्षा ।।

यज्ञ के पश्चात तप और दान का निरूपण किया गया है। यहां तप के कायिक, मानसी और वाचिक तीन भेद किए गए है और प्रत्येक भेद को सत, रज और तम गुणों में बांटा गया है। 

तप शब्द का अर्थ है “गर्म करना”, जैसे अग्नि पर रखना। शुद्धिकरण की प्रक्रिया में धातुओं को गर्म करके पिघलाया जाता है, ताकि अशुद्धियाँ ऊपर उठकर निकल जाएँ। जब सोने को अग्नि में डाला जाता है, तो उसकी अशुद्धियाँ जल जाती हैं और उसकी चमक बढ़ जाती है। इसी प्रकार वेदों में कहा गया है – आप्ता तनूर्नतादा मोष्णुते (ऋग्वेद 9.83.1)[v3] “तपस्या द्वारा शरीर को शुद्ध किए बिना, कोई योग की अंतिम अवस्था तक नहीं पहुँच सकता।” ईमानदारी से तपस्या करने से मनुष्य अपने जीवन को उन्नत कर सकता है और उसे सांसारिक से दिव्य बना सकता है। ऐसी तपस्या बिना दिखावे के, शुद्ध इरादे से, शांतिपूर्ण तरीके से, आध्यात्मिक गुरु और शास्त्रों के मार्गदर्शन के अनुरूप की जानी चाहिए। श्रीकृष्ण अब ऐसी तपस्या को तीन श्रेणियों में वर्गीकृत करते हैं – शरीर, वाणी और मन। कायिकम् का अर्थ है शारीरिक तपस्या; भौतिक शरीर द्वारा की जाने वाली तपस्या। अगला है वाचिकम् तप; मौखिक या मौखिक स्तर पर की जाने वाली तपस्या; वाक इन्द्रिय दृष्ट्य; वाक तप, और तीसरा है मानसम तप:, मन या विचार के स्तर पर आधारित तपस्या।

उदाहरण के लिए, जैसे अध्ययन करने वाला विद्यार्थी जब मन लगा कर पढ़ाई कर रहा हो तो वह अपने कर्तव्य कर्म का तप कर रहा होता है। अतः यज्ञ-याग आदि कर्म, वेदाध्ययन अथवा चातुर्वर्ण्य अर्थात चार वर्णों के  अनुसार अपने कर्म को करना एवम उस मे पारंगत होना ही तप है। ब्राह्मण के ब्रह्म ज्ञान, वेद एवम यज्ञ करना, क्षत्रिय के दुसरो की रक्षा करना, वैश्य के लिये व्यापार करना एवम शुद्र के लिये सेवा करना ही तप है। हर जीव को अपना कर्म निर्धारित करने का अधिकार है, क्योंकि यह जन्म से नही तय होता। गीता में तप पतंजलि योग के तप से मनु द्वारा किया हुआ तप का व्यापक अर्थ यज्ञ – याग, वेदाध्ययन एवम वर्ण के अनुसार कर्तव्य धर्म का पालन ही तप है।  तप के तीन स्वरूप है जिसे हम कायिक, वाचिक और मानसिक भेदो से समझ सकते है। यह श्लोक कायिक तप का वर्णन करता है।

शास्त्रों और पुस्तकों से हमे ज्ञान प्राप्त होता है। जिन से हम कुछ सीखते है, उन का स्थान गुरु के स्थान पर होता है, इसलिए ज्ञान देने वाली पुस्तकों को हम मस्तक से छूते है। आंखों से लगाते है और कभी पांव नहीं लगाते। गंदा नहीं करते।

अन्य उदाहरण में हम अपने धार्मिक रीति रिवाज को ले, रीति रिवाज कोई अवांछित कार्य या अर्थविहीन कार्य नहीं है। रीति रिवाज से हमारा आलस्य दूर होता है, हम एक साथ कार्य करने से नजदीक आते है। ईश्वर के प्रति समर्पित भाव होने से हमे अपने ब्रह्म स्वरूप का भान और नश्वरता का बोध रहता है और हम अपने को ईश्वर से जोड़े रखते है। सब प्राणियों के प्रति सद्भावना उत्पन्न होती है। साथ साथ धार्मिक अनुष्ठान करने से जितना समय लगता है, घर के लोग साथ रहते है। सभी प्राणियों से अपना संबंध जुड़ता है। फिर रीति रिवाज में नमस्ते कहना, पांव छूना, मंदिर की प्रदक्षिणा करना आदि एक प्रकार से व्यायाम भी है। अतः रीति रिवाज को यदि लग्न और श्रद्धा से पूर्ण किया जाए और उस का मजाक नहीं बनाया जाए तो यह जीव को तामसी प्रवृति की ओर बढ़ने से भी रोकता है।

देव, द्विज, गुरु और ज्ञानी जनों का पूजन यह दो गुण, अपने आराध्य के साथ तादात्म्य बनाये रखने की साधना पूजा कहलाती है। इस पूजा के फलस्वरूप पूजक अपने आराध्य के गुणों से सम्पन्न हो जाता है। नैतिक विकास एवं सांस्कृतिक उन्नति का उपाय यह पूजन ही है। यह बहुत कुछ चुम्बकीकरण की स्पर्शविधि के समान ही है। जो पुरुष अपने व्यक्तित्व के प्रतिबन्धनों से मुक्त होना चाहता है, उसको अपने आराध्य आदर्श (देव) के प्रति श्रद्धा और भक्ति, आदर और सम्मान का भाव होना अत्यावश्यक है। उसी प्रकार, जिन सत्पुरुषों ने इस आदर्श को प्रस्तुत किया उन द्विजों (ब्राह्मणों) के प्रति तथा उपदेष्टा गुरु और इस आदर्श के अनुमोदक ज्ञानी जनों के प्रति भी वही भक्ति भाव होना चाहिए। द्विज इस शब्द का वाच्यार्थ है वह व्यक्ति जो दो बार जन्मा हो अर्थात जिस का यज्ञोपित संस्कार हुआ हो और उस में जनेऊ धारण किया हो। यह शब्द ब्राह्मणों का सूचक है और ब्रह्मवित् पुरुष को ही ब्राह्मण कहते हैं। माता के गर्भ से जन्म लेने पर सभी मनुष्य एक समान ही होते हैं। यद्यपि सबमें बौद्धिक क्षमता और सुन्दरता होती है, परन्तु उसके साथ ही अनेक नैतिक दोष भी होते हैं। हम एक गर्भ से तो मुक्त होते हैं परन्तु प्रकृति की जड़ उपाधियों के गर्भ में बन्धे ही रहते हैं इन उपाधियों के तादात्म्य से स्वयं को मुक्त कर अपने आत्मस्वरूप के परमानन्द में निष्ठा प्राप्त करना ही दूसरा जन्म माना जाता है। इसलिए आत्मानुभवी पुरुष को द्विज कहा जाता है। अतः प्रथम गुण परमात्मा पर श्रद्धा एवम विश्वास, अपने से बड़ो का सम्मान एवम ज्ञान को विन्रमता के ग्रहण करना तथा सात्विक जीवन व्यतीत करना है। हम जो भी कार्य करे उसे पूर्ण रूप से समर्पित भाव से सीख कर विधि-विधान को समझ कर करे। शल्य चिकित्सा और युद्ध मे तलवार चलाना दोनों ही अलग अलग कौशल है।

तृतीय कायिक तप शौच और सरलता शरीर की स्वच्छता के साथ साथ आस पास के वातावरण की स्वच्छता की ओर भी साधक को ध्यान देना चाहिए। यह बाह्य शुद्धि ही यहाँ शौच शब्द से इंगित की गयी है। उसी प्रकार साधक के बाह्य व्यवहार में सरलता होनी चाहिए। कुटिलता के कारण व्यक्तित्व के विभाजन की आशंका बनी रहती है। ऐसे विभाजित पुरुष के मन का सन्तुलन, सार्मथ्य और शान्ति नष्ट हो जाती है।

चतुर्थ तप ब्रह्मचर्य सदैव ब्रह्मस्वरूप में रमने के स्वभाव को ही ब्रह्मचर्य कहते हैं।यह रमण तब तक संभव नहीं हो सकता जब तक हमारा शरीर और मन विषयोपभोगों से विरत नहीं होता है। इसलिए, इन्द्रियों व मन के संयम को भी ब्रह्मचर्य की संज्ञा प्रदान की गयी है। जैसे, मेडिकल कालेज में प्रवेश प्राप्त कर लेने पर ही विद्यार्थी को डाक्टर कहा जाने लगता है क्योंकि उसका साध्य तब दूर नहीं रह जाता। ब्रह्मचर्य के बिना एक्रागता संभव नही। एक पत्नी या एक पति व्रत भी ब्रह्मचर्य ही है।

कायिक तप में अगला गुण अहिंसा बताया गया है, अहिंसा किसी भी प्राणी को पीड़ा न पहुँचाने का नाम ही अहिंसा है। जीवन में, जाने या अनजाने किसी प्राणी को कदापि शारीरिक पीड़ा न पहुँचाना असम्भव है। परन्तु अपने मन में हिंसा का भाव कभी न आने देना चाहिए और तब अपरिहार्य शारीरिक पीड़ा भी कल्याण कारक हो सकती है। उदाहरणार्थ एक शल्य चिकित्सक के द्वारा रोगी को दिया गया शारीरिक कष्ट रोगी के लिए कल्याण कारक ही सिद्ध होता है। उस चिकित्सक की दृष्टि से यह अहिंसा ही है। मन मे निर्दयता या क्रूर भाव, मानसिक अशांति लाता है इसलिये शरीर से हिंसा न हो यही तप है।

इसके अतिरिक्त शरीर की ऐंठ अकड़ का त्याग कर के उठने, बैठने आदि शारीरिक क्रियाओं को सीधी सरलता से करने का नाम आर्जव है। अभिमान अधिक होने से ही शरीर में टेढ़ापन आता है। अतः जो अपना कल्याण चाहता है, ऐसे साधक को अपने में अभिमान नहीं रखना चाहिये। निरभिमानता होने से शरीर में और शरीर की चलने, उठने, बैठने, बोलने, देखने आदि सभी क्रियाओं में स्वाभाविक ही सरलता आ जाती है, जो तप का आर्जव स्वरूप है।

उपर्युक्त पूजनादि साधनाओं में शरीर की प्रधानता होने से उन्हें शरीर तप कहा गया है। ऐसे समस्त कार्य और करणों से जो कर्ता द्वारा किये जायँ वे शरीरसम्बन्धी तप कहलाते हैं।तप का अर्थ शरीर उत्पीड़न ही नहीं है। वस्तुत, तप तो वह विवेकपूर्ण जीवन पद्धति है, जिसके द्वारा हम अपनी समस्त शक्तियों के अपव्यय को अवरुद्ध कर उनका संचय कर सकते हैं। नई शक्तियों को प्राप्त कर उनका संचय करना और तत्पश्चात् उनका रचनात्मक कार्यों में प्रयोग करना यह सम्पूर्ण योजना तप शब्द के व्यापक अर्थ में समाविष्ट है। ऐसे विवेकपूर्ण तप को यहाँ वास्तविक शरीर तप के रूप में प्रमाणित किया गया है।

तप के समस्त प्रकार पढ़ने के बाद ही हम उसे के प्राकृतिक गुणों को जानेगे।

।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 17.14।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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