।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 17.13 II
।। अध्याय 17.13 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 17.13॥
विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम् ।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते॥
“vidhi- hīnam asṛṣṭānnaḿ,
mantra- hīnam adakṣiṇam..।
śraddhā- virahitaḿ yajñaḿ,
tāmasaḿ paricakṣate”..।।
भावार्थ:
जो यज्ञ शास्त्रों के निर्देशों के बिना, अन्न का वितरण किये बिना, वैदिक मन्त्रों के उच्चारण के बिना, पुरोहितों को दक्षिणा दिये बिना और श्रद्धा के बिना किये जाते हैं, उन यज्ञ को तामसी यज्ञ माना जाता हैं। (१३)
Meaning:
They call that sacrifice to be taamasic which is contrary to scripture, in which no food is distributed, without chanting of hymns or donations to priests, and performed without faith.
Explanation:
Here, Shri Krishna describes the attitude of taamasic individuals towards action, using the symbolism of a sacrificial ritual once again. He says that taamasic attitude towards action totally disregards shaastra or scripture. Scripture refers to a higher law, any notion of ethics or morality. There is no thought as to the consequence of the action to oneself and to other individuals whatsoever. Any task done without proper planning or performed haphazardly falls into this category.
At every moment in life, individuals have choices regarding which actions to perform. There are proper actions that are beneficial for society and for us. At the same time, there are inappropriate actions that are harmful for others and us. However, who is to decide what is beneficial and what is harmful? And in case a dispute arises, what is the basis for resolving it? If everyone makes their own decisions, then pandemonium will prevail. So, the injunctions of the scriptures serve as guide maps and wherever a doubt arises, we consult these scriptures for ascertaining the propriety of any action. However, those in th the mode of ignorance does not have faith in the scriptures. They carry out religious ceremonies but disregard the ordinances of the scriptures.
Faith is only in exceptional cases, if you use excuses or alternative methods wrongly, you will get negative results; hence it is said that Ashtanam; Mantraheenam etc. i.e. Yagna without proper chanting of mantras is Tamasi.
Shri Rama Rama Rama Rameti, Rame Rama Manorame. Sahasranama Tat Tulyam, Ram Nam Varana Nane.
What does this mantra mean? That you chant Rama three times, and it is equal to Sri Vishnu Sahasranama. Amazing; from tomorrow I will only chant Rama, Rama, Rama and run away. The scripture is very thoughtful, but we should not misuse the option given in the scripture. Mantraheenam is a violation of mantras. The scripture method gives options in special circumstances, but doing puja or yajna with the option is not according to the scripture.
Next, Shri Krishna says that there is no distribution of food in the sacrifice. In the taamasic attitude, the person not only claims the results of the action as their own but goes to great lengths to ensure that no one else gains the benefit of the action, even if it is their due. For instance, if a business has a good year, the owner may hoard the profits instead of giving employees a bonus. Furthermore, the taamasic attitude does give respect or listen to advice of senior people, referred to as “priests” in this shloka.
The main problem with the tamasic attitude is that all actions are performed with lack of faith. In other words, actions are performed for all the wrong reasons – someone else told us to perform the action, we are just doing it for the sake of doing it, we are doing it grudgingly, we are not putting our heart into it, we are not involved in it and so on. The performance of actions is as if it is being done by a lifeless entity, a corpse.
।। हिंदी समीक्षा ।।
यज्ञ का अर्थ है समर्पित भाव से कर्म करना। यह यज्ञ भी कायिक, वाचिक और मानसी हो सकता है। इस तीनो प्रकार विस्तृत विवरण तप के साथ किया गया है जिसे हम आगे पढेंगे। अतः जो यज्ञ मन के अधीन हो कर किया जाता है, वह स्वछंद है अर्थात उस यज्ञ में लोकसंग्रह के लिये भी कुछ नही और अपने हित की कामना के लिये भी कुछ नही। वह यज्ञ बिना विधिविधान का, मंन्त्ररहित, दान दक्षिणा रहित, श्रद्धा रहित और निर्रथक या किसी को कष्ट ही देने का होता है। इस प्रकार के यज्ञ को तामसी यज्ञ ही कहा जायेगा।
जीवन में हर पल, व्यक्ति के पास यह चुनने का विकल्प होता है कि उसे कौन से कर्म करने चाहिए। कुछ उचित कर्म ऐसे होते हैं जो समाज और हमारे लिए लाभदायक होते हैं। वहीं, कुछ अनुचित कर्म ऐसे भी होते हैं जो दूसरों और हमारे लिए हानिकारक होते हैं। लेकिन, कौन तय करेगा कि क्या लाभदायक है और क्या हानिकारक? और अगर कोई विवाद उत्पन्न होता है, तो उसे सुलझाने का आधार क्या है? अगर हर कोई अपने-अपने निर्णय लेगा तो कोलाहल मच जाएगा। इसलिए शास्त्रों के आदेश मार्गदर्शक मानचित्र के रूप में काम करते हैं और जब भी कोई संदेह होता है, तो हम किसी भी कार्य की औचित्य का पता लगाने के लिए इन शास्त्रों से परामर्श करते हैं। हालाँकि, अज्ञानी लोग शास्त्रों पर विश्वास नहीं करते हैं। वे धार्मिक अनुष्ठान करते हैं लेकिन शास्त्रों के आदेशों की अवहेलना करते हैं।
आस्था केवल असाधारण मामलों में होती है, यदि आप बहाने या वैकल्पित तरीकों का गलत तरीके से उपयोग करते हैं, तो आपको नकारात्मक परिणाम मिलेंगे; इसलिए अष्टान्नम; मंत्रहीनम आदि अर्थात मंत्रों का उचित जाप किए बिना यज्ञ तामसी होता है, ऐसा कहा जाता है।
श्री राम राम राम रामेति, रामे रामे मनोरमे। सहस्रनाम तत् तुल्यम, राम नाम वराणा नने।।
इस मंत्र का क्या अर्थ है? कि आप तीन बार राम का जाप करते हैं और यह श्री विष्णु सहस्रनाम के बराबर है। अद्भुत; कल से मैं केवल राम, राम, राम का जाप करूंगा और भाग जाऊंगा। शास्त्र बहुत विचारशील है, लेकिन हमें शास्त्र में दिए गए विकल्प का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। मंत्रहीनम, मंत्रों का उल्लंघन है। शास्त्र विधि विशेष परिस्थितियों में विकल्प देता है, किंतु विकल्प से पूजा या यज्ञ करना शास्त्र के अनुसार नहीं है।
ऐसे लोग प्रायः अपनी प्रसिद्धि, मानबड़ाई के लिये वे यज्ञ करते भी हैं तो बिना शास्त्र विधि के, बिना अन्नदान के, बिना मन्त्रों के और बिना दक्षिणा के करते हैं। उन की शास्त्रों पर, शास्त्रोक्त मन्त्रों पर और उन में बतायी हुई विधियों पर तथा शास्त्रोक्त विधिपूर्वक की गयी यज्ञ की क्रिया पर और उस के पारलौकिक फल पर भी श्रद्धाविश्वास नहीं होते। कारण कि उनमें मूढ़ता होती है। उन में अपनी तो अक्ल होती नहीं और दूसरा कोई समझा दे तो उसे मानते नहीं।
इस श्लोक में कथित प्रकार से किया हुआ यज्ञ न यज्ञकर्ता के लिए सुखवर्धक सिद्ध होता है और न समाज के अन्य लोगों के लिए लाभदायक। अन्नदान रहित धर्मशास्त्र की भाषा में, हमारे जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं को अन्न शब्द के द्वारा सूचित किया जाता है। आधुनिक काल की भाषा में भोजन वस्त्र और गृह के द्वारा उन्हें इंगित किया जाता है। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपने पास उपलब्ध वस्तुओं का दान उन लोगों को दें, जिन्हें उन की आवश्यकता होती है। ऐसा दान प्रेम के बिना कभी संभव ही नहीं हो सकता। तमोगुणी पुरुष यज्ञ कर्म के अनुष्ठान में भी शास्त्रोक्त दान नहीं करता है। कर्मकाण्ड के अनुष्ठान में मन्त्रों का उच्चारण तथा शिक्षित पुरोहितों को दक्षिणा देना आवश्यक होता है, परन्तु तमोगुणी पुरुष इन सब नियमों की ओर ध्यान ही नहीं देता है। अत उसके द्वारा अनुष्ठित यज्ञ तामस कहलाता है।
किसी भी कार्य का उद्देश्य या लक्ष्य महत्वपूर्ण है, मनुष्य जीवन मोक्ष प्राप्ति का एक मात्र साधन है, किंतु यही जीवन को प्राप्त करने के बाद पशु – पक्षियो की भांति खाने – पीने, काम – वासना या सत्ता, सुंदरी, घृणा या बदला लेने की भावना से जो भी कृत्य अर्थात यज्ञ संपन्न होगा, वह तामसी होगा। क्योंकि इस के कारण किसी न किसी को तो नुकसान उठाना होता है। अशुद्ध या अर्थहीन शब्दो या अशुद्ध उच्चारण से जो यज्ञ किया जाता है, जिस में दक्षिणा का अभाव हो उसे तामसी कहा गया है, व्यवहार में बिना उचित पारिश्रमिक दिए, गाली गलौच और बल पूर्वक किसी से नैतिक या अनैतिक कार्य करना, तामसी वृति का यज्ञ ही है। बिना सहमति के शादी करना, व्यापार नही समझते हुए भी, कुछ भी अनैतिक तरीके से व्यापार करना आदि तामसी यज्ञ है। आज पैसे का मूल्य विद्वता से अधिक हो गया है, इस के बल पर भव्यता दिखाने हेतु बड़े बड़े यज्ञ, पाठ, भजन या कीर्तन किए जाते है, जिस में भगवान की आराधना के अतिरिक्त मनोरंजन के लिए गाने – बजाने और खाने पर अधिक ध्यान दिया जाता है, शास्त्र विधि को त्याग कर सुविधा के अनुसार मंत्रो का पाठ भी तामसी है।
व्यवहार में जो सुबह उठ कर नियमित दिनचर्या में काम नही करते, वो जो भी काम करते है वो आमोद-प्रोमोद या दूसरे को कष्ट देने के लिये होते है, उन का परिवार, समाज, धर्म और देश के प्रति कोई दायित्व या योगदान नही होता। वो कुछ नही करते है, सिर्फ अपने लिए और दूसरों को नुकसान पहचाने के लिये करते है। मनुष्य में परस्पर सहयोग एवम सामंजस्य होना चाहिये किन्तु इस के कार्य या इन का यज्ञ इनसब के विपरीत ही इन के नियम के अनुसार चलता है, इसलिये यह तामसी श्रेणी में आता है। याद रखिए कि सात्विक कर्म के वृक्ष को उदाहरण की भांति समझाते हुए कहा गया है।
छायामन्यस्य कुर्वन्ति तिष्ठन्ति स्वयमातपे फलान्यपि परार्थाय वृक्षाः सत्पुरुषा इव‘ का मतलब है कि वृक्ष सत्पुरुषों की तरह होते हैं: दूसरे को छाया देते हैं, खुद धूप में खड़े रहते हैं, फल भी दूसरों के लिए होते हैं।
अगले तीन श्लोकों में तप के वास्तविक स्वरूप को दर्शाकर, तत्पश्चात् गुण भेद से त्रिविध तपों का वर्णन को पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 17.13 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)