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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  17.06 II

।। अध्याय      17.06 II

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता 17.6

कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः

मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्‌यासुरनिश्चयान्

“karṣayantaḥ śarīra- sthaḿ,

bhūta- grāmam acetasaḥ..।

māḿ caivāntaḥ śarīra- sthaḿ,

tān viddhy āsura- niścayān”..।।

भावार्थ: 

ऎसे भ्रमित बुद्धि वाले मनुष्य शरीर के अन्दर स्थित जीवों के समूह और हृदय में स्थित मुझ परमात्मा को भी कष्ट देने वाले होते हैं, उन सभी अज्ञानियों को तू निश्चित रूप से असुर ही समझ। (६)

Meaning:

The collection of elements situated in the body, as well as me who dwells in the body, are weakened by ignorant people. Know them to be of devilish resolves.

Explanation:

Let’s say it is the first day of the new year, and we make a resolution to lose some weight. The very next day, we join a gym for the very first time and spend one hour running on the treadmill. This will not be a good idea. Instead of helping our body, we may harm it. Weight loss, like any other system, requires a combination of knowledge and action. Unless we understand the techniques involved in weight loss, we should avoid starting an exercise regimen.

A similar state is found in some people who practice terrible austerities in the name of worship. Shri Krishna explains their fate here. He says that those who torture the body and mind in the name of austerity are doing nothing but weakening the elements, meaning the organs, in their body. Nowhere in the scriptures does it ask us to harm our body. He goes one step further by asserting that such people are also hurting Ishvara himself. As we saw in the ninth chapter, Ishvara dwells in all of us as the saakshi, the witness of our thoughts and actions.

Shree Krishna says: “O Arjun, you asked me about the status of those who disregard the injunctions of the scriptures and yet worship with faith. I am telling you that faith is visible even in people who perform severe austerities, but it is bereft of a proper basis of knowledge. Such people do possess deep conviction in the efficacy of their practices, but their faith is in the mode of ignorance. Those who abuse and torture their own physical body disrespect the Supreme Soul who resides within. All these are contrary to the recommended path of the scriptures.”

So, destroying the body is never the aim of any kind of worship or fast or tapasya. It is a controlled tapasya that is talked about so that I do not become a slave of the body. The intention is not to torture the body, the intention is to gain control and mastery over it. With a sick body, what kind of sadhana can one do? That is why it is said that the body needs nourishment.

Shri Krishna calls such people achetesaaha which means ignorant, or even unconscious. They chose to ignore Ishvara’s teaching in the form of scriptures. They do not have faith in any ideal except their own preservation. They are driven only by egoism and desire. It is no wonder that their plans, their resolves, will be aasuric or devilish, as explained in the prior chapter. So, the warning to us is clear. As we are conducting the analysis of our faith, we should in no way emulate these people. We should stay away from them.

।। हिंदी समीक्षा ।।

पूर्व के अध्याय में हम ने पढ़ा था कि प्रकृति एवम जीव अर्थात परा एवम अपरा प्रकृति की सृष्टि का आधार है। जीव परमात्मा का अंश है अतः वह पूर्णतः साक्षी, अकर्ता एवम असंग है। जो भी क्रियाएं होती है वो प्रकृति द्वारा ही होती है और जब जीव भ्रमित हो कर स्वयं को कर्ता मान लेता है तो वह प्रकृति के अधीन कार्य करने लगता है। परमात्मा प्रत्येक जीव के हृदय में जीवात्मा के स्वरूप में उपस्थित है।

इसलिए शरीर को नष्ट करना कभी भी किसी भी प्रकार की पूजा या व्रत या तप का उद्देश्य नहीं है। यह एक नियंत्रित तपस्या है जिस के बारे में बात की जाती है ताकि मैं शरीर का गुलाम न बनूं। शरीर को यातना देना इरादा नहीं है, उस पर नियंत्रण और महारत हासिल करना इरादा है। बीमार शरीर के साथ, कोई किस प्रकार की साधना कर सकता है? इसीलिए कहा  गया कि शरीर को पोषण की आवश्यकता है।

अल्पज्ञान होना स्वाभाविक प्रकृति है, किंतु अल्पज्ञान के साथ  अभिमान होना और किसी की सलाह न मानना अस्वाभाविक क्रिया है। अतः जो अल्पज्ञानी ज्ञानी की बात नही मानता, वो वह  व्यक्ति है जो बीमार हो कर डॉक्टर की नही मानता, आय अर्जित करते समय देश और समाज के नियम नही मानता या समाज में रहते हुए, देश की सरकार का नियम नही मानता। नतीजा शारीरिक और मानसिक कष्ट स्वयं को होता ही है, साथ रहने वालो को भी। परमात्मा का कहा है, वह मुझे भी जो मैं उस के हृदय में रहता हूं, कष्ट देता है। स्वस्थ मन और शरीर प्रकृति का प्रथम नियम है, जो मनमानी तरीके से उपवास, तप करते हुए कष्ट उठा कर, परमात्मा को प्रसन्न करने में लगे है, वे वास्तव में उसे कष्ट ही दे रहे है। अतः शास्त्र का ज्ञान न रखने वाले दम्भ एवम अहंकार में अपने ही मन मर्जी से शरीर को कष्ट देते हुए तप करता है तो यह परमात्मा को ही कष्ट देने के अनुरूप है।

परमात्मा कहते है कि वे अविवेकी मनुष्य, शरीर में स्थित इन्द्रियादि करणों के रूप में परिणत भूतसमुदाय को और शरीर के भीतर अन्तरात्मारूप से स्थित, उन के कर्म और बुद्धि के साक्षी, मुझ ईश्वर को भी, कृश ( तंग ) करते है। मेरी आज्ञा को न मानना ही मुझे कृश करना है इस प्रकार मुझे कृश करते हुए, घोर तप करते हैं। उन को तू आसुरी निश्चयवाले जान। जिनका असुरोंका सा निश्चय हो, वे आसुरी निश्चयवाले कहलाते हैं। उनका सङ्ग त्याग करने के लिये तू उन को जान, और इसे मेरा उपदेश मान।

श्री कृष्ण कहते हैं: “हे अर्जुन! तुमने मुझसे उन लोगों की स्थिति के बारे में पूछा जो शास्त्रों के आदेशों की अवहेलना करते हैं और फिर भी श्रद्धापूर्वक पूजा करते हैं। मैं तुम्हें बताता हूँ कि कठोर तपस्या करने वाले लोगों में भी श्रद्धा दिखाई देती है, लेकिन यह ज्ञान के उचित आधार से रहित होती है। ऐसे लोगों को अपनी साधना की प्रभावकारिता पर गहरा विश्वास होता है, लेकिन उनकी श्रद्धा तमोगुणी होती है। जो लोग अपने भौतिक शरीर का दुरुपयोग करते हैं और उसे पीड़ा पहुँचाते हैं, वे अपने भीतर निवास करने वाले परमात्मा का अनादर करते हैं। ये सभी शास्त्रों द्वारा सुझाए गए मार्ग के विपरीत हैं।”

इसका आशय यह है कि ऐसे साधकों के हृदय में आत्मचैतन्य अपने पूर्ण वैभव एवं सौन्दर्य के साथ व्यक्त नहीं हो पाता। घोर कष्टदायक तप मूढ़ता का लक्षण है, जिस की यहाँ निन्दा की गई है। विवेकपूर्ण संयम तप कहलाता है, न कि निर्मम शारीरिक पीड़ा।

तप अपने अंदर के काम, क्रोध और मोह को गलाने के लिये होता है, यह मोक्ष या मुक्ति का मार्ग है अतः अनावश्यक उपवास, उल्टे-सीधे या कांटो पर लेटना या हट योग करना शास्त्र सम्मत नही है। तप तो ज्ञान का, मुक्ति का, सद्चिदानन्द का मार्ग है, अज्ञान में तो कामना रखते हुए तप करना आसुरी सम्पदा में कदम रखना ही  होगा।

सोलहवें अध्याय के तेईसवें श्लोक में शास्त्रविधि को जानते हुए भी उस की उपक्षा कर के दानसेवा, उपकार आदि शुभकर्मों को करने की बात आयी है, जो इतनी बुरी नहीं है क्योंकि उनके दान आदि कर्म शास्त्र विधियुक्त तो नहीं हैं, पर शास्त्रनिषिद्ध भी नहीं हैं। परन्तु यहाँ जो शास्त्रों में विहित नहीं हैं, उन को ही श्रेष्ठ मानकर मनमाने ढंग से विपरीत कर्म करने की बात है। दोनों में फरक हम दम्भ, कामना एवम अहंकार द्वारा शारीरिक कष्ट देने कर सकते है। इन लोगों को सिद्धि, सुख और परमगति नहीं मिलती।

यह स्पष्ट है कि शास्त्र ज्ञान या गुरु के अभाव में मनुष्य जो कुछ भी करता है वो उस के दम्भ एवम अति आत्मविश्वास से करता है, जो लाभदायक कम नुकसानदायक ज्यादा होता है। जैसे जिस ने ड्राविंग क्लास नही लगाई और न ही कार चलाने का प्रशिक्षण लिया है और आत्मविश्वास ले कर कार चलाने लगे तो निश्चित ही दुर्घटना को ही आमंत्रण होगा।

अतः तामसी वृति के इन अहंकारी मनुष्य को भगवान ने असुर तक की संज्ञा दे दी है। रावण ने अपने सर को काट काट कर शिव को समर्पित करते हुए, अनेक शारीरिक कष्ट के साथ तप किया। किंतु उस का तप शास्त्र के अनुकूल न होने से भी शिव और ब्रह्मा से वरदान पा कर भी अहंकार के कारण वह असुर ही रहा। यद्यपि उस का जन्म उच्च कुल में भी हुआ था। इसलिए शक्ति प्राप्त करने के बाद वह हत्या, अपने राज्य के विस्तार एवम सुख भोग की ओर लालायित रहता था।

व्यवहार में कुछ मनुष्य तप आदि की ऐसी विधियों को इजाद कर लेते है, जिस से वह अपने राजनैतिक, सामाजिक और व्यवसायिक स्वार्थ की पूर्ति कर सके, जैसे संगीत और गीत के विवाह वेदी पर मंत्रोपचार, श्रीमद भा में तरह तरह के नाच गान, किस्से कहानियां एवम नाटक आदि। इसे आध्यात्मिक उन्नति या सात्विक वृति से कार्य न हो कर राजनैतिक या सामाजिक उद्देश्य की अधिक पूर्ति होती है। इस से सुनने और सुनाने वालो के गर्व, अहंकार, काम और भोग के प्रति आसक्ति की पूर्ति होती है। यह शास्त्र विहीन कार्य ही असुर प्रवृति कहा गया है। क्योंकि यह हृदय में स्थित परमात्मा को भी कष्ट देने वाला है।

क्या हम यह मान ले कि भजन, कीर्तन, कथा – प्रवचन, तप – उपवास असुर वृति है, तो यह गलत होगा। परमात्मा यह समस्त कार्य ज्ञानी पुरुषो के निर्देश एवम दंभ और अहंकार को त्याग कर सात्विक तरीके से करने को कहते है। जिसे से मनुष्य काम, क्रोध और लोभ से दुर्गुणों से बचा रहे, उस का आध्यात्मिक विकास हो, भजन चैतन्य महाप्रभु, मीरा और रविदास जी भी करते थे, किंतु उन में दिखावा या अहंकार की जगह विनम्रता थी। कथा डोंगरे महाराज भी करते है किंतु उन्हें भव्यता या पंडाल की सुविधा की शर्त नही थी। प्रवचन रामसुखदास जी भी देते थे, किंतु उन्हें कोई धन या प्रसिद्धि की लालसा नहीं थी। किसी के धार्मिक कृत्यों के प्रति उपेक्षा या तिरस्कार भाव का रखना भी अज्ञान और दंभ है, यदि उस भाव में अहंकार या अपने ज्ञान के प्रदर्शन का दंभ हो। इसलिए जो व्यक्ति शास्त्र विहित तप, भजन, कीर्तन, उपवास या कथा कीर्तन करते है, उस में सदगुणी हमेशा अपने स्वभाव और गुण से उस का लाभ ग्रहण करते है, वे आलोचना नहीं करते।

स्वस्थ मन में स्वस्थ विचार और ज्ञान का निवास है। तप, उपवास,  आदि में न खाना, या असंतुलित भोजन खाना, सामान्य जीवन में गरिष्ठ या सुपाच्य भोजन खाना, निषिद्ध भोजन को खाना, शरीर को बीमार, अशक्त, निकम्मा कर देना, उस देवताओं और प्रकृति का अपमान है, जिन्होंने किसी को अपने योग्य शरीर दे कर प्रकृति का आनंद लेते हुए, कर्म करने को जन्म दिया है। इसलिए अगर कोई मनुष्य किसी प्रकार भी यजन न करे, तो उसकी श्रद्धा कैसे पहचानी जायगी, इसे बताने के लिये भगवान् आहार की रुचि से आहारी की निष्ठा की पहचान का प्रकरण आगे पढ़ते हैं।

।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 17.06।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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