।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 17.03 II
।। अध्याय 17.03 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 17.3॥
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत ।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ॥
“sattvānurūpā sarvasya,
śraddhā bhavati bhārata..।
śraddhā-mayo ‘yaḿ puruṣo,
yo yac-chraddhaḥ sa eva saḥ”..।।
भावार्थ:
हे भरतवंशी! सभी मनुष्यों की श्रद्धा स्वभाव से उत्पन्न अर्जित गुणों के अनुसार विकसित होती है, यह मनुष्य श्रद्धा से युक्त है, जो जैसी श्रद्धा वाला होता है वह स्वयं वैसा ही होता है। (३)
Meaning:
The faith of each is according to his nature, O Bhaarata. This human being is comprised of faith. As his faith, so is he.
Explanation:
Shri Krishna emphasized the point made in the earlier shloka. The human being is nothing but a bundle of faiths, also known as beliefs, prejudices, customs, culture, tradition, basically everything that is ingrained into us as samskaras or impressions. But where do these impressions come from? Some of these impressions come from external factors, and some of these are present in us right from our birth.
When we see a child prodigy perform a complicated symphony, we may say that she got this skill from nonstop practice since her birth, or we may say that she got it from her practice in a previous life. In any case, her actions are a product of the samskaras or impressions formed through countless hours of practice.
The next question is, is the mind of the children, controlled by the parents or not? or controlled by the genes of the parents or not; genetic study is there nowadays; there is a genetic study of all the criminals. And Hitler’s genes they are making special study, to find out what exactly causes this particular type of thinking. Therefore, what determines if you ask, certainly parents do contribute to the children’s character; the parents’ lifestyle does contribute; the parents’ genes do contribute, but they are all contributory factors, they do not totally determine, because every child comes with a pūrva vāsana also.
A Hiraṇyakaśipu can have Prahlāda; a brāhmaṇa Viśravas r̥ṣī can have a rākṣasā Rāvana; R̥ ṣi can have a rākṣasā Rāvaṇa; Rāvaṇa is a brāhmaṇa putraḥ, Rāvaṇō nāma rākṣasā, it is not nāma rākṣasā; it is rāvanō nama rākṣasā. Therefore, parentage do not totally determine; the pūrva janma also has a say; dependent on innumerable factors, every individual is born with a certain inherited character; dependent on that character by faith.
Every adult human being is a product of his childhood values, his childhood heroes. His childhood models: Your childhood sr̥addhā will determine what type of adult you are going to be; Child is the father of man has come just now; but this was said by Krishna then itself.
Shri Krishna says that faith is according to one’s sattva. Here, sattva is not used in its traditional meaning as a guna like rajas and tamas. Sattva refers to our svabhava, our nature, the bundle of impressions that are stored in our inner instrument, our antaha karana, which is comprised of our mind, intellect, memory and senses. This sattva, this bundle of impressions, makes us choose our actions throughout our lives. Although we think of ourselves as rational individuals, we use logic and reason to justify and rationalize our faith, in a roundabout way.
Shree Krishna states that the quality of our faith decides the direction of our life. In turn, the quality of our faith is decided by the nature of our mind.
Now we come back to the question posed in the previous shloka. How can we assess the texture of our faith, our beliefs and our prejudices? We need to examine our actions. Our faith, our beliefs and our prejudices guide our actions. Therefore, by examining the texture of our actions, we can determine the texture of our faith. Our faith could be saatvic, raajasic or taamasic. Shri Krishna now takes each aspect of our actions and gives us guidelines on how to determine their texture.
।। हिंदी समीक्षा ।।
मनुष्य की सांसारिक प्रवृत्ति संसार के पदार्थों को सच्चा मानने, देखने, सुनने और भोगने से होती है तथा पारमार्थिक प्रवृत्ति परमात्मा में श्रद्धा करने से होती है। जिसे हम अपने अनुभव से नहीं जानते, पर पूर्व के स्वाभाविक संस्कारों से, शास्त्रों से, संत महात्माओं से सुन कर पूज्यभाव सहित विश्वास कर लेते हैं, उस का नाम है श्रद्धा। श्रद्धा को लेकर ही आध्यात्मिक मार्ग में प्रवेश होता है, फिर चाहे वह मार्ग कर्मयोग का हो, चाहे ज्ञानयोग का हो और चाहे भक्तियोग का हो, साध्य और साधन , दोनों पर श्रद्धा हुए बिना आध्यात्मिक मार्ग में प्रगति नहीं होती।
पुरुषों की गणना करे तो जो शास्त्र ज्ञान लेते है वो ज्ञानविद हो कर गुणातीत हो जाते है। किंतु जो अध्ययन नही करते एवम कर्म एवम अनुभव से अपने अपने स्वभाव के अनुसार श्रद्धा रखते, हम इस अध्याय में उन्ही को समझ रहे है।
दूसरे श्लोक में स्वभावजा और इस श्लोक में सत्व शब्द दोनों एक ही अर्थ अर्थात देह स्वभाव, बुद्धि एवम अन्तःकरण के लिए प्रयुक्त हुए है। सांख्य एवम वेदान्त दोनों मानते है कि स्वभाव का अर्थ प्रकृति और प्रकृति से बुद्धि एवम अन्तःकरण उत्पन्न होते है। इसलिये जिस की जैसी बुद्धि, वैसा ही फल उसे मिलेगा। गीता में भी पूर्व में कहा गया है कि जो जिस भाव एवम श्रद्धा से जिस भी देवता आदि का पूजन करते है, उन्हें उसी भाव एवम श्रद्धा के अनुसार फल मिलता है।
क्योंकि स्वभाव, बुद्धि एवम अन्तःकरण प्रकृति है और जीव परमात्मा का अंश। इसलिये अभ्यास और वैराग्य से प्रकृति को धीरे धीरे बदला जा सकता है। जैसी प्रकृति अर्थात सत- रज- तम वैसी ही श्रद्धा होगी। इसलिये श्रद्धा भी त्रिधा भेद माने गए है जिन्हें सात्विक, राजसी एवम तामसी कह सकते है।
भगवान् यहाँ कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति की श्रद्धा उसके स्वभाव अर्थात् संस्कारों के अनुरूप होती है। निश्चितरूप से यह कह पाना कठिन है कि श्रद्धा हमारे स्वभाव को निर्धारित करती है अथवा हमारा स्वभाव श्रद्धा का निर्धारणकर्ता है। इन दोनों में अन्योन्याश्रय है। तथापि, गीता में स्वभाव को ही श्रद्धा का निर्धारक घोषित किया गया है। यद्यपि, जीवन में अनेक अवसरों पर दुखदायक अनुभवों अथवा अन्य प्रबल कारणों से मनुष्य की एक प्रकार की श्रद्धा खंडित होकर नवीन श्रद्धा जन्म लेती है और उस स्थिति में उसका स्वभाव उस श्रद्धा का अनुकरण भी करता है। परन्तु, सामान्य दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति की श्रद्धा का गुण और वर्ण उसके स्वभाव के अनुरूप ही होता है। श्रद्धा का मूल या सारतत्त्व मनुष्य की उस गूढ़ शक्ति में निहित होता है, जिसके द्वारा वह अपने चयन किये हुए लक्ष्य की प्राप्ति का निश्चय दृढ़ बनाये रखता है। मनुष्य की सार्मथ्य ही लक्ष्य प्राप्ति में उसके विश्वास को निश्चित करती है। तत्पश्चात् यह विश्वास उसकी सार्मथ्य को द्विगुणित कर उस मनुष्य की योजनाओं को कार्यान्वित करने में सहायक होता है। इस प्रकार क्षमता और श्रद्धा परस्पर पूरक और सहायक होते हैं मनुष्य के स्वभाव पर गुणों के प्रभाव का वर्णन पहले किया जा चुका है। पूर्वकाल में अर्जित किसी गुणविशेष के आधिक्य का प्रभाव मनुष्य में उसकी बाल्यावस्था से ही दिखाई देता है। यहाँ प्रयुक्त सत्त्वानुरूपा शब्द के द्वारा इसी तथ्य को इंगित किया गया है।
मनुष्य के जीवन में श्रद्धा की बड़ी मुख्यता है। मनुष्य जैसी श्रद्धावाला है, वैसा ही उस का स्वरूप, उस की निष्ठा है। वह आज वैसा न दिखे तो भी क्या पर समय पाकर वह वैसा बन ही जायगा। आजकल साधक के लिये अपनी स्वाभाविक श्रद्धा को पहचानना बड़ा मुश्किल हो गया है। कारण कि अनेक मत मतान्तर हो गये हैं। कोई ज्ञान की प्रधानता कहता है, कोई भक्ति की प्रधानता कहता है, कोई योग की प्रधानता कहता है, आदि आदि। ऐसे तरह तरह के सिद्धान्त पढ़ने और सुनने से मनुष्य पर उनका असर पड़ता है, जिस से वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है कि मैं क्या करूँ मेरा वास्तविक ध्येय, लक्ष्य क्या है मेरे को किधर चलना चाहिये ऐसी दशा में उसे गहरी रीति से अपने भीतर के भावों पर विचार करना चाहिये कि सङ्ग से बनी हुई रुचि, शास्त्र से बनी हुई रुचि, किसी के सिखाने से बनी हुई रुचि, गुरु के बताने से बनी हुई रुचि, ऐसी जो अनेक रुचियाँ हैं, उन सब के मूल में स्वतः उद्बुद्ध होनेवाली अपनी स्वाभाविक रुचि क्या है। मूल में सब की स्वाभाविक रुचि यह होती है कि मैं सम्पूर्ण दुःखों से छूट जाऊँ और मुझे सदा के लिये महान् सुख मिल जाय। ऐसी रुचि हरेक प्राणी के भीतर रहती है। मनुष्यों में तो यह रुचि कुछ जाग्रत् रहती है। उन में पिछले जन्मों के जैसे संस्कार हैं और इस जन्म में वे जैसे माता पिता से पैदा हुए जैसे वायुमण्डल में रहे, जैसी उन को शिक्षा मिली, जैसे उन के सामने दृश्य आये और वे जो ईश्वर की बातें, परलोक तथा पुनर्जन्म की बातें, मुक्ति और बन्धन की बातें, सत्सङ्ग और कुसङ्ग की बातें सुनते रहते हैं, उन सब का उन पर अदृश्यरूप से असर पड़ता है। उस असर से उन की एक धारणा बनती है। उन की सात्त्विकी, राजसी या तामसी, जैसी प्रकृति होती है, उसी के अनुसार वे उस धारणा को पकड़ते हैं और उस धारणा के अनुसार ही उनकी रुचि श्रद्धा बनती है। इस में सात्त्विकी श्रद्धा परमात्मा की तरफ लगाने वाली होती है और राजसी – तामसी श्रद्धा संसार की तरफ।गीता में जहाँ कहीं सात्त्विकता का वर्णन हुआ है, वह परमात्मा की तरफ ही लगानेवाली है। अतः सात्त्विकी श्रद्धा पारमार्थिक हुई और राजसी – तामसी श्रद्धा सांसारिक हुई अर्थात् सात्त्विकी श्रद्धा दैवी सम्पत्ति हुई और, राजसी – तामसी श्रद्धा आसुरी सम्पत्ति हुई।
श्रद्धा को जल के समान समझे तो यह विशुद्ध हो संभव नही, अतः प्रकृति के तीन गुणों का इस पर प्रभाव रहेगा। मिर्ची से मिल कर जल तीखा और गन्ने के रस से मिल कर जल मीठा होगा ही। जैसे पुष्प को देख कर वृक्ष को पहचान सकते है, वैसे ही मनुष्य के संभाषण और व्यवहार को देखकर उस का अंतकरण पहचाना जा सकता है। स्वभाव मुख्यत: बुद्धि से नियंत्रित है, इसलिए जिस की जैसी बुद्धि होगी उसे वैसा ही फल मिलेगा, और बुद्धि का वैसा होना प्रकृति या स्वभाव पर निर्भर है। इसलिए बुद्धि कैसे सुधर जाए, तो समझे कि आत्मा तो स्वतंत्र, नित्य और अकर्ता है, इसलिए जो कुछ करती है वह प्रकृति करती है। अतः बुद्धि का सुधार अभ्यास और वैराग्य भाव से बदला जा सकता है। आज यदि हम जो कुछ है, वो हमारे बुजुर्ग के संस्कार, और दिए ज्ञान से है किंतु इस पर प्रभाव समय, समाज, परिस्थिति और आधुनिकता के बहाव में सामाजिक, आर्थिक और भौतिक बदलाव का प्रभाव भी है। भारत में नई पीढ़ी को पुराने संस्कारों और शास्त्रों के सही ज्ञान का अभाव होने से, इन की श्रद्धा आज के युग की सामाजिक, आर्थिक और भौतिक वातावरण से अतिभौतिकवादी गई है। कुछ वर्ग में असुर वृति की श्रद्धा बचपन से पीढ़ी को मिलने से उन की श्रद्धा भी तामसी हो गई है। बुजुर्गो का अपमान, अश्लीलता, लोभ, अहंकार और अपने को दूसरो से अधिक बुद्धिमान समझने और पैसे का मूल्य नैतिकता से अधिक समझना आज की पीढ़ी की श्रद्धा आधुनिकता के चक्कर में सिनेमा, TV और संवाद की अति सुलभता बिना शास्त्र ज्ञान के भौतिकवादी अर्थात तामसी ही कह सकते है, जिस में उन का पूजन, यजन और सामाजिक कार्य भी सम्मलित है।
अगला सवाल यह है कि बच्चों का मन, माता-पिता द्वारा नियंत्रित होता है या नहीं?; या माता-पिता के जीन द्वारा नियंत्रित होता है या नहीं; आजकल आनुवंशिक अध्ययन होते हैं; सभी अपराधियों का आनुवंशिक अध्ययन होता है। और हिटलर के जीन का वे विशेष अध्ययन कर रहे हैं, ताकि पता लगाया जा सके कि वास्तव में इस विशेष प्रकार की सोच का क्या कारण है। इसलिए अगर आप पूछें तो क्या निर्धारित करता है, निश्चित रूप से माता-पिता बच्चों के चरित्र में योगदान करते हैं; माता-पिता की जीवन शैली योगदान करती है; माता-पिता के जीन योगदान करते हैं, लेकिन वे सभी सहायक कारक हैं, वे पूरी तरह से निर्धारित नहीं करते हैं, क्योंकि हर बच्चा एक पूर्व वासना के साथ भी आता है।
हिरण्यकशिपु का जन्म प्रह्लाद से हो सकता है; ब्राह्मण विश्रवा ऋषि का जन्म राक्षस रावण से हो सकता है; ऋषि का जन्म राक्षस रावण से हो सकता है; रावण ब्राह्मण पुत्र है, रावणो नाम राक्षस, यह नाम राक्षस नहीं है; यह रावणो नाम राक्षस है। इसलिए माता-पिता पूरी तरह से निर्धारित नहीं करते हैं; पूर्वजन्म का भी महत्व है; असंख्य कारकों पर निर्भर करते हुए, प्रत्येक व्यक्ति एक निश्चित वंशानुगत चरित्र के साथ पैदा होता है; उस चरित्र पर निर्भर करता है अर्थात श्रद्धा कार्य करती है।
यहां यह भी स्पष्ट है कि वर्ण व्यवस्था जो कर्म पर आधारित थी, वंशानुगत होने से अपभ्रंश हो गई। क्योंकि प्रत्येक वर्ण के जीव की श्रद्धा, स्वभाव और गुण से उस का कार्य क्षेत्र तय होता था, जन्म से कोई किसी भी वर्ण का अधिकारी नहीं था।
हर वयस्क मनुष्य अपने बचपन के संस्कारों की उपज होता है; अपने बचपन के नायकों की; अपने बचपन के आदर्शों की; आपकी बचपन की श्रद्धा तय करेगी कि आप किस प्रकार के वयस्क बनने जा रहे हैं; बच्चा ही मनुष्य का पिता है, ये अभी आया है; लेकिन ये कृष्ण ने तब ही कह दिया था।
श्री कृष्ण कहते हैं कि हमारी आस्था की गुणवत्ता हमारे जीवन की दिशा तय करती है। बदले में, हमारी आस्था की गुणवत्ता हमारे मन की प्रकृति से तय होती है। इसलिए
अपने विचारों पर ध्यान दें, वे आपके शब्द बन जाते हैं; अपने शब्दों पर ध्यान दें, वे आपके कार्य बन जाते हैं; अपने कार्यों पर ध्यान दें, वे आपकी आदत बन जाते हैं; अपनी आदत पर ध्यान दें, यह आपका चरित्र बन जाता है; और अपने चरित्र पर ध्यान दें, यह आपका भावी व्यक्तित्व बन जाता है।
दैवीसम्पत्ति को प्रकट करने और आसुरी सम्पत्ति का त्याग करने के उद्देश्य से सत्रहवाँ अध्याय चला है। कारण कि कल्याण चाहनेवाले मनुष्य के लिये सात्त्विकी श्रद्धा (दैवीसम्पत्ति) ग्राह्य है और राजसी – तामसी श्रद्धा (आसुरीसम्पत्ति) त्याज्य है।
श्रद्धा स्थिर नही है, यह ज्ञान, परिस्थिति, किसी अप्रत्याशित घटना से, अभ्यास या संगति से बनती -बिगड़ती रहती है। श्रद्धा अर्थात स्वभाव अंत: प्रकृति ही है और प्रकृति त्रिधा अर्थात सत, रज और तम है, इसलिए श्रद्धा भी में यही तीन भेद है। अपने इष्ट के यजन पूजन द्वारा मनुष्यों की निष्ठा अर्थात श्रद्धा के भेद की पहचान किस प्रकार होती है, अब उस को पढ़ते हैं।
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 17.03।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)