।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 17.01 II
।। अध्याय 17.01 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 17.1॥
अर्जुन उवाच,
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ॥
Arjuna uvāca,
“ye śāstra-vidhim utsṛjya,
yajante śraddhayānvitāḥ..।
teṣāḿ niṣṭhā tu kā kṛṣṇa,
sattvam āho rajas tamaḥ”..।।
भावार्थ:
अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण! जो मनुष्य शास्त्रों के विधान को त्यागकर पूर्ण श्रद्धा से युक्त होकर पूजा करते हैं, उनकी श्रद्धा सतोगुणी, रजोगुणी, तमोगुणी या अन्य किसी प्रकार की होती है? (१)
Meaning:
Arjuna said:
Those who, setting aside laws of scripture, perform worship endowed with faith, O Krishna, what is their position? Is it of sattva, rajas or tamas?
Explanation:
In order to prevent the prompting of actions by selfish desire, we should use the scriptures as a guide to decide what to do or what not to do. This was the concluding message of the previous chapter. Hearing this, the word “shaastra” or scripture stuck in Arjuna’s mind. Perhaps he foresaw that over the course of time, most people will not have access to scriptures. They will not be able to receive the guidance of a real guru who truly cares about their spiritual growth versus extracting money from them. He wanted to know, like all of us do, how to use our judgement without access to scriptural laws.
Let us now investigate what category of people Arjuna is speaking about. There are those who may have access to the scriptures, may even understand the scriptures, but have no inclination of following them. Such people were covered in the last chapter under the category of devilish qualities. Conversely, there are people who understand the scriptures and also conduct their life according to scriptures. These people were covered under the category of divine qualities. This chapter covers those people who do not have access to the scriptures, but yet try to lead their lives through faith, sincerity and honesty.
So then, Arjuna asks this extremely practical question on behalf of common people who have faith in some higher principle. Some may be devotees of Shri Krishna, some of Lord Shiva, some of Lord Ganesha. Some may not have faith in a deity but may have faith in a spiritual text such as the Gita. Some may have not had faith in any of these but may have faith in a friend, spouse or relative who has faith in a deity or a spiritual text. Some may have faith in their nation or in a higher cause such as improving the state of the nation’s education system.
Arjuna says, what is a spiritual way of life; what is a dhārmic way of life, what is daivi sampath, and if you want to diligently avoid āsūri sampath, the best guide is the scriptures. People do not have access of scripture as it is available in Sanskrit at that time, now a days, they do not have time to read and also have low level of understanding. They have got faith in God; they have faith in prayer; they have got faith in pūja and therefore they want to do the pūja but they do not know what is the right method of doing the pūja. So, the faith need to be define for purity. Arjun desires to know the nature of the faith of those who worship without reference to the Vedic scriptures. In particular, he wishes to understand the answer in terms of the three modes of material nature.
Regardless of what their faith is, such people would like to set themselves on a path that gains them happiness in the material world, and also enables them to pursue the supreme goal of self-realization or liberation. In the absence of scripture as the authority, faith determines the course of action for such people. How can they determine whether their faith is saattvic, rajasic or tamasic? How can they ensure that their faith is leading them in the right direction?
।। हिंदी समीक्षा ।।
पूर्व अध्याय में शास्त्रों से मार्गदर्शन लेने की बात कही थी। प्रकृति के सत– रज– तम तीन गुण है जिस के कारण देवीसम्पद एवम आसुरी सम्पद गुण में जीव जीता है। इसलिए दैवीय और आसुरी गुणों में कर्म से कोई वर्गीकरण नही करते हुए प्रकृति के इन तीन गुणों के आधार पर वर्गीकरण किया गया है। सही और गलत को जानने के लिए शास्त्र को पढ़ने की बात भी कही गई है। आध्यात्मिक जीवन पद्धति क्या है; धार्मिक जीवन पद्धति क्या है, दैवी सम्पत्ति क्या है, और यदि आप आसुरी सम्पत्ति से बचना चाहते हैं, तो इसके लिए सबसे अच्छा मार्गदर्शक शास्त्र ही है।
अर्जुन कहते हैं, “उस समय लोगों के पास संस्कृत में उपलब्ध शास्त्रों तक पहुँच नहीं थी, आजकल उनके पास पढ़ने के लिए समय नहीं है और समझ का स्तर भी कम है। उन्हें भगवान पर भरोसा है; उन्हें प्रार्थना पर भरोसा है; उन्हें पूजा पर भरोसा है और इसलिए वे पूजा करना चाहते हैं लेकिन उन्हें नहीं पता कि पूजा करने की सही विधि क्या है। इसलिए, पवित्रता के लिए आस्था को परिभाषित करने की आवश्यकता है। अर्जुन उन लोगों की आस्था की प्रकृति जानना चाहता है जो वैदिक शास्त्रों के संदर्भ के बिना पूजा करते हैं। विशेष रूप से, वह भौतिक प्रकृति के तीन गुणों के संदर्भ में उत्तर समझना चाहता है।
अतः अर्जुन पुनः शंका करने लगते है कि यही शास्त्रों का ज्ञान सही या न हो, किन्तु मन मे श्रद्धा भाव है तो वह किसी को भी जिस के प्रति उस की श्रद्धा है, अज्ञान वश पूजने लग जाता है। आज के समय मे लगभग बहुत लोग इस श्रेणी में ही आते है जो समयाभाव में शास्त्र नहीं पढ़ते, उन्हें जैसा कोई बताए उसे ही श्रद्धा भाव से ग्रहण कर के उस पर अमन करने लग जाते है। उन का यह श्रद्धा भाव सकाम और निष्काम दोनों हो सकता है। श्रद्धा सात्विक गुण भी है, ऐसे में यह भी हो सकता है जिसे वह श्रद्धा भाव से पूज रहे है, स्वयं अज्ञान में हो। वह लोग केवल वृद्ध व्यवहारको आदर्श मानकर, जो श्रद्धापूर्वक देवादिका पूजन करते हैं। तो इस प्रकार से पूजन प्रकृति के किस गुण में आता है। अक्सर लोग कह देते है कि मेरे मन में कोई पाप नहीं था, सामने वाले के मन को मैं नहीं जानता, उस ने गलत काम किया तो उस का फल वह भोगेगा, मैंने कोई गलत नही किया तो मैं उस के काम में क्यों भागीदार बनूं।
व्यवहारिक मुश्किल यह है कि कलियुग में दम्भ, पाखण्ड ज्यादा होने से कई दम्भी और पाखण्डी पुरुष सन्त बन जाते हैं। अतः सच्चे सन्त पहचान में आने मुश्किल हैं। इस प्रकार पहले तो सन्त महात्मा मिलने कठिन हैं और मिल भी जायँ तो उन में से कौन से संत कैसे हैं, इस बात की पहचान प्रायः नहीं होती और पहचान हुए बिना उन का संग कर के विशेष लाभ ले लें, ऐसी बात भी नहीं है। अतः जो शास्त्रविधि को भी नहीं जानते और असली सन्तों का सङ्ग भी नहीं मिलता, परन्तु जो कुछ यजनपूजन करते हैं, श्रद्धा से करते हैं, ऐसे मनुष्यों की निष्ठा कौनसी होती है?
अर्जुन चाहते है कि भगवान् श्रीकृष्ण विस्तृतरूप से इसका विवेचन करें कि किस प्रकार हम प्रभावशाली और लाभदायक आध्यात्मिक जीवन को अपना सकते हैं। इस के साथ ही अध्यात्मविषयक भ्रान्त धारणाओं का भी वे निराकरण करें।
शास्त्रविधि को त्यागकर प्राय धर्मशास्त्रों से अनभिज्ञ होने के कारण सामान्य जनों को शास्त्रीय विधिविधान उपलब्ध नहीं होते हैं। यदि शास्त्रों को उपलब्ध कराया भी जाये, तो बहुत कम लोग ऐसे होते हैं, जिनमें तत्प्रतिपादित ज्ञान को समझने की बौद्धित क्षमता होती है।
सांसारिक जीवन में कर्मों की उत्तेजनाओं तथा मानसिक चिन्ताओं और व्याकुलता के कारण शास्त्रनिर्दिष्ट मार्ग के अनुसार अपना जीवन सुनियोजित करने की पात्रता हम में नहीं होती। परन्तु, इन सबका अभाव होते हुए भी एक लगनशील साधक को श्रेष्ठतर जीवन पद्धति तथा धर्म के आदर्श में दृढ़ श्रद्धा और भक्ति हो सकती है। इसलिए अर्जुन के प्रश्न का औचित्य सिद्ध होता है। यहाँ प्रयुक्त यज्ञ शब्द से वैदिक पद्धति के होमहवन आदि ही समझना आवश्यक नहीं हैं। गीता सम्पूर्ण शास्त्र है और उसमें उन शब्दों की अपनी परिभाषाएं भी दी गयी है। यज्ञ शब्द की परिभाषा में वे समस्त कर्म समाविष्ट हैं, जिन्हें समाज के लोग अपनी लौकिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए निस्वार्थ भाव से करते हैं। अर्जुन की जिज्ञासा यह है कि जगत् के पारमार्थिक अधिष्ठान को जाने बिना भी यदि मनुष्य यज्ञभावना से कर्म करता है, तो क्या वह परम शान्ति को प्राप्त कर सकता है उसकी स्थिति क्या कही जायेगी अपने प्रश्न को और अधिक स्पष्ट करते हुए वह पूछता है कि ऐसे श्रद्धावान् साधक की निष्ठा कौनसी श्रेणी में आयेगी सात्त्विक, राजसिक या तामसिक? क्या उस की श्रद्धा जीवन के सही दिशा में बढ़ रही जो मोक्ष का मार्ग है या फिर आसुरी सम्पदा की ओर?
अर्जुन का यह प्रश्न आज के युग के लिए अत्यंत प्रासंगिक है क्योंकि पूर्व अध्याय में भगवान कहते है जो शास्त्र विधि त्याग कर अपनी इच्छा अनुसार यजन करता है, उसे न तो सिद्धि मिलती है, न ही सुख और न ही परम गति मिलती है। शास्त्र के अध्ययन के गुरु की जरूरत है, आधुनिक युग में सांसारिक कार्यों से फुरसत भी नही होती। संस्कृत का सही ज्ञान न होने से समझ में भी जल्दी नहीं आते। इसलिए व्यक्ति अपनी अपनी निष्ठा और श्रद्धा से पूजा, यज्ञ, कीर्तन, पाठ आदि करता है। उस की भावना और श्रद्धा भगवान के प्रति होने से वह अच्छी बातो को सुनता भी है और अपनी अभिव्यक्ति भी जहां तक हो सके सात्विक बनाए रखता है। इस में कुछ लोग सत्य में धर्म के प्रति आस्था रखते है, कुछ दिखावे के लिए। कुछ के लिए धर्म व्यवसाय और कुछ के लिए धर्म राजनैतिक आधार भी होता। कुछ अन्य धर्म से घृणा रखते हुए, अपने धर्म का गुणगान करते है। इन सब के द्वारा न तो शास्त्र का अध्ययन किया होता है और न ही उन को उचित गुरु मिलता है। कुछ बिना अध्ययन के लिए पंडित हो कर अपने विचारो और अपनी श्रद्धा और विश्वास के आधार पर उपदेशक, आज के योग में व्हाट्सएप में संदेश भेजनेवाले या एडमिन भी बन जाते है। कुछ लेखक और कुछ धर्म प्रचारक, मठाधीश आदि भी बन कर समाज का मार्ग दर्शन भी करते है। श्रद्धा अर्थात निष्ठा अध्ययन के अभाव में अहम, अंधविश्वास या अति विश्वास में परिणित भी हो जाता। इस से व्यक्ति धर्म भीरू, आलसी, परमात्मा पर अपना कर्म न करते हुए, निर्भर हो कर उसी को दोष भी देने लगता है। मात्र अपने मन के विचारो और सुनी सुनाई बातो के आधार पर पूजा और यजन करने वाले इन भक्तों की क्या गति होती है, इस को अर्जुन द्वारा सब के हित में जानना जरूरी है।
शास्त्रविधि को न जानने पर भी मनुष्य मात्र में किसी न किसी प्रकार की स्वभावता श्रद्धा तो रहती ही है। उस श्रद्धा के श्रद्धात्रयविभाग योग के अध्याय में इस भेद को आगे के श्लोक में बताते हैं।
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 17.01।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)