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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  16.B II Preamble II

।। अध्याय      16.B II प्रस्तावना II

Preamble: Chapter Sixteen “The Devine and Demoniac Nature’s ” – Daivasura Sampad Vibhag Yog.

This chapter expounds on the two kinds of human nature—the saintly and the demoniac. Shree Krishna explains that the saintly nature develops in humans by cultivating the modes of goodness, by following the instructions given in the scriptures, and purifying the mind with spiritual practices. Such behaviour attracts daivī sampatti or godlike qualities, eventually leading to God-realization. Contrary to this, the demoniac-nature develops by associating with modes of passion and ignorance and materially focused lifestyles that breed unwholesome traits in human personality. This leads the soul finally to a hell-like existence.

Shree Krishna enumerates the saintly virtues of those endowed with a divine nature and then describes the demoniac qualities that should be shunned consciously. Else, these will drag the soul further into ignorance and samsara or the cycle of life and death. In the end, Shree Krishna declares that the knowledge of the scriptures helps in overcoming ignorance and passion. They also guide us to make the right choices in life. Therefore, we must understand their teachings and injunctions and accordingly perform our actions in this world.

Courtesy (for Preamble): The Songs of GOD by Swami Mukundananda ji.

।। प्रस्तावना – षोडशोSध्याय ” दैवासुरसम्पदविभागयोग” ।।

इस अध्याय का नाम दैवासुरसम्पद विभागयोग रखा गया है। सातवे अध्याय से अभी पंद्रहवे अध्याय तक ज्ञान, क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ एवम परब्रह को हम ने पढ़ा। इस के मध्य उन मूढ़ व्यक्तियों का भी संक्षिप्त वर्णन आया जो तमोगुण से युक्त हो कर इस संसार के दुखों भोगते है। भगवान ने जो यह बिल्कुल संक्षेप में कहा था, कि राक्षसी मनुष्य मेरे अव्यक्त और श्रेष्ठ स्वरूप को नही पहचानते, उसी का स्पष्टीकरण करने के लिये इस अध्याय का निरूपण किया गया है।

पुरुषोत्तम योग पूर्णब्रह्म का संपूर्ण ज्ञान है, अतः ज्ञान के विषय में इस से अधिक कुछ कहने और जानने को शेष नहीं रहता। किंतु जैसे किसी भी व्याख्यान में संपूर्ण भाषण के बाद प्रश्नोत्तर का कार्यक्रम कुछ विषय को अधिक स्पष्ट करने और सुनने वालों की जिज्ञासा और दुविधाओं को निराकरण किया जाता है, वैसे ही आगे तीन अध्याय में हम गीता में आए संक्षिप्त विवरण का विस्तृत विवेचन भगवान श्री कृष्ण से सुनेगे। व्यवहारिक जीवन में गीता के ये तीनों अध्याय अत्यंत महत्वपूर्ण है, जो हमारी जीवन शैली को ज्ञान, भक्ति और निष्काम कर्मयोगी को किस प्रकार प्राप्त करे, बतलाती है। अंतिम अध्याय में गीता का उपसंहार भी है।

ज्ञान की प्राप्ति हमारे अन्तःकरण में प्रकाश पैदा करती है किंतु ज्यामिति का नियम है जैसे जैसे किसी गोलाकार आकृति में वृद्धि होती है वैसे वैसे उस की बाहरी सतह भी बढ़ती है अर्थात व्यक्तिगत ज्ञान की वृद्धि से हमे अज्ञान का भी पता चलता है जिसे हम नही जानते। एक सफल योद्धा होने के नाते हमे सक्षम, कुशल, चतुर एवम निपुण होना ही चाहिये किन्तु हमे शत्रु के गुण, निपुणता एवम कमजोरियों का ज्ञान होना भी आवश्यक है। यह अध्याय हमारे उन अवगुणों पर प्रकाश डालता है जिस के कारण हम अपने को ज्ञानी मानते हुए भी अज्ञान में भटक रहे है।

प्रकाश ज्ञान का प्रतीक है और अंधकार प्रकाश का अभाव है, अंधकार स्वयं में कोई स्वरूप नही है। प्रकृति के तीन गुणों में सात्विक होना, सत्य के मार्ग में तत्व ज्ञानी होने की ओर का प्रतीक है और इस की विपरीत अवस्था आसुरी वृति सात्विक गुणों का अभाव है। परमात्मा सभी के हृदय में रहता है किंतु क्रिया प्रकृति ही परमात्मा की योगमाया में नियम बद्ध हो कर करती है। प्रत्येक जीव को कर्म के अधिकार है, इसलिए फल का निर्धारण प्रकृति करती है, उस के परमात्मा जितना अच्छे कर्म के लिए जिम्मेदार नहीं है, उतना ही निषिद्ध कर्म के लिए भी उत्तरदायी नही है। इसलिए आसुरी वृति दैवीय गुणों का अभाव है, स्वयं में कोई गुण नहीं। जो मनुष्य निर्धनता, आसक्ति, क्रोध, लोभ, मोह, घृणा आदि में जीवन व्यतीत करता है, उस में सात्विक गुणों का अभाव है, अज्ञान है।

24 श्लोकों में सिमटे, इस अध्याय में देवी संपदा के गुण एवम आसुरी गुणों को जानेगे। देवी संपदा के गुण वही है जिन्हें हम पहले भी कई बार पढ़ चुके है। आसुरी गुण हमे बताता है हम कब गलत दिशा में बढ़ते है, यह गुण व्यक्तित्व विकास के लिये जानना अत्यंत आवश्यक है।

अध्याय के प्रारंभ में दैवी संपद गुणों का वर्णन, फिर दैव और असुर दो सर्गो का संकेत करते हुए आसुर प्रकृति वाले मनुष्यों के दुर्भाव, दुर्गुण और दुराचार का तथा उन लोगो की दुर्गति का वर्णन है। अंत में शास्त्रानुकूल कर्म की प्रेरणा करते हुए अध्याय को समाप्त किया गया है।

।। हरि ॐ तत सत ।। प्रस्तावना गीता अध्याय 16 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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