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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  16.23 II

।। अध्याय      16.23 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 16.23

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।

न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्॥

“yaḥ śāstra-vidhim utsṛjya,

vartate kāma- kārataḥ..।

na sa siddhim avāpnoti,

na sukhaḿ na parāḿ gatim”..।।

भावार्थ: 

जो मनुष्य कामनाओं के वश में होकर शास्त्रों की विधियों को त्याग कर अपने ही मन से उत्पन्न की गयीं विधियों से कर्म करता रहता है, वह मनुष्य न तो सिद्धि को प्राप्त कर पाता है, न सुख को प्राप्त कर पाता है और न परम-गति को ही प्राप्त हो पाता है। (२३)

Meaning:

He who dismisses the laws of scripture and conducts himself according to impulses of desire, he neither attains success, nor happiness, nor the supreme goal.

Explanation:

Imagine that we have to assemble a complex piece of furniture. Most people will follow the instructions given in the manual that comes in the box. But, for some reason, let’s say we ignore the manual and build what we want based on a whim. What will be the outcome? We will be unsuccessful in building a functional piece of furniture. Consequently, we will not be happy with this outcome. Without following the manual, we neither gain success nor attain happiness.

Shri Krishna says that if we live our lives based solely on our desires, we will neither attain success in any worldly endeavour, nor will we attain worldly happiness. The supreme goal of self-realization then is totally out of the question. Unfortunately, whenever we feel disillusioned, we usually seek guidance from the latest self-help book or try to emulate the lives of those who have had significant material prosperity. Such guidance may get us temporary happiness in a small part of our life but will never solve our predicament holistically.

So mere change from āsūri sampath to daivi sampath alone is not enough. A good character does not guarantee liberation. A moral or ethical life by itself will not lead to liberation because an ethical life does not remove ignorance. Only difference is that he is an ethically ignorant person. Therefore, if ignorance has to go away, he has to pursue spiritual sadhana. And that he said tatō parāṁ gatim yānti. He will attain param gatim, mōkṣa.

Scriptures are the guide maps given to humans on the journey toward enlightenment. They provide us with knowledge and understanding. They also give us instructions on what to do and what not to do. These instructions are of two kinds—vidhi and niṣhedh. The directives to perform certain activities are called vidhi. The directives not to perform certain activities are called niṣhedh. By faithfully following both these kinds of injunctions, human beings can proceed toward perfection. But the ways of the demoniac are the reverse of the teachings of the scriptures.

And on the other hand, if a person does not change the direction of life, what will happen to him? Statutory warning: one side they will say, every puff (cigarette smoking) is a promise, in big letters, or something, what all slogans are there, and down below they write, cigarette smoking is injurious to your health; Krishna is doing exactly the same thing. The best thing is to follow my teaching; and if you do not follow, the statutory warning.

Shree Krishna declares that those who renounce the authorized path and act according to their whims, impelled by the impulses of their desires, achieve neither true knowledge, nor the perfection of happiness, nor liberation from material bondage.

So then, what is the solution? Shri Krishna points us to the Vedas, the scriptures, as a guide towards checking our selfish desire- oriented life. He is in no way advocating a dogmatic, ideological or blind faith-oriented lifestyle that imposes restrictions upon society. The Gita, in fact, presents the very principles of the Vedas in a format that is meant for practical individuals. The notion of svadharma, of following a career path that is in line with our interests and our qualifications, is a perfect example of guidance from the scriptures.

।। हिंदी समीक्षा ।।

इस समस्त आसुरी सम्पत्ति के त्याग का और कल्याणमय आचरणों का, मूल कारण शास्त्र है, शास्त्र प्रमाण से ही दोनों किये जा सकते हैं, अन्यथा नहीं। अतः जो मनुष्य शास्त्र के विधान को, अर्थात् कर्तव्य अकर्तव्य के ज्ञान का कारण जो विधि निषेध बोधक आदेश है उस को, छोड़ कर कामना से प्रयुक्त हुआ बर्तता है, वह न तो सिद्धि को, पुरुषार्थ की योग्यता को पाता है, न इस लोक में सुख पाता है और न परम गतिको अर्थात् स्वर्ग या मोक्ष को ही पाता है।

जो लोग शास्त्रविधि की अवहेलना कर के शास्त्र विहित यज्ञ करते हैं, दान करते हैं, परोपकार करते हैं, दुनिया के लाभ के लिये तरह तरह के कई अच्छे अच्छे काम करते हैं परन्तु वह सब करते हैं अर्थात् शास्त्र विधि की तरफ ध्यान न देकर अपने मनमाने ढङ्ग से करते हैं। मनमाने ढङ्ग से करने में  कारण यह है कि उनके भीतर जो काम, क्रोध आदि पड़े रहते हैं, उनकी परवाह कर के वे बाहरी आचरणों से ही अपने को बड़ा मानते हैं। तात्पर्य है कि वे बाहर के आचरणों को ही श्रेष्ठ समझते हैं। दूसरे लोग भी बाहर के आचरणों को ही विशेषता से देखते हैं। भीतर के भावों को, सिद्धान्तों को जाननेवाले लोग बहुत कम होते हैं। परन्तु वास्तव में भीतर के भावों का ही विशेष महत्त्व है।

प्रवृत्त हो कर कार्य करना अर्थात किसी भी कार्य को फल की इच्छा या कामना से करना एवम निवृत हो कर अर्थात निष्काम भाव से कार्य करना, दोनों में अंतर यही है कि प्रथम किये हुए कार्य से सिद्धि प्राप्ति होने पर अहंकार और न होने पर क्रोध उत्पन्न होता है जैसे रोगी अपनी दृष्टि से तो कुपथ्य का त्याग और पथ्य का सेवन करना चाहिए, पर वह आसक्तिवश कुपथ्य ले लेता है, जिस से उसका स्वास्थ्य और अधिक खराब हो जाता है।

ऐसे ही वे लोग अपनी दृष्टि से अच्छे से अच्छे काम करते हैं, पर भीतर में काम, क्रोध और लोभ का आवेश रहने से वे शास्त्रविधि की अवहेलना कर के मनमाने ढङ्ग से काम करने लग जाते हैं, जिस से वे अधोगति में चले जाते हैं।

इसलिए सिर्फ़ आसुरी संपत से दैवी संपत में बदल जाना ही काफ़ी नहीं है। अच्छा चरित्र मुक्ति की गारंटी नहीं देता। नैतिक या नैतिक जीवन अपने आप में मुक्ति की ओर नहीं ले जाएगा क्योंकि नैतिक जीवन अज्ञानता को दूर नहीं करता। बस फ़र्क इतना है कि वह नैतिक रूप से अज्ञानी व्यक्ति है। इसलिए अगर अज्ञानता को दूर करना है, तो उसे आध्यात्मिक साधना करनी होगी। और उसने कहा कि ततो परं गतिं यान्ति। वह परम गति, मोक्ष प्राप्त करेगा।

और दूसरी तरफ़, अगर कोई व्यक्ति जीवन की दिशा नहीं बदलता है, तो उसका क्या होगा? वैधानिक चेतावनी; एक तरफ़ वे कहेंगे, हर कश (सिगरेट पीना) एक वादा है, बड़े-बड़े अक्षरों में, या कुछ और, क्या-क्या नारे हैं, और नीचे वे लिखते हैं, सिगरेट पीना आपके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है; कृष्ण बिल्कुल वही कर रहे हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि मेरी शिक्षा का पालन करें; और अगर आप उसका पालन नहीं करते हैं, तो वैधानिक चेतावनी। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो लोग अधिकृत मार्ग को त्याग देते हैं और अपनी इच्छाओं के आवेगों से प्रेरित होकर अपनी मर्जी के अनुसार कार्य करते हैं, उन्हें न तो सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है, न ही सुख की पूर्णता और न ही भव-बन्धन से मुक्ति मिलती है।

गीताचार्य भगवान् श्रीकृष्ण का उपदेश यह है कि कामक्रोधादि आत्मघातक अवगुणों के त्याग से आन्तरिक शक्तियों का जो संचय किया जाता है, उसका आत्मोन्नति के लिए सदुपयोग करना चाहिए। ऐसा न करने पर मनुष्य का जो पतन होता है, उस से पुन ऊपर उठना अति कठिन हो जाता है। रावणादि के समान असुरों का चरित्र इस तथ्य का विशिष्ट प्रमाण है। ये असुर तपश्चर्या के द्वारा असीम शक्तियां प्राप्त करते थे, परन्तु उसके दुरुपयोग करके वे आत्मनाश ही करते थे उनकी शक्तियां ऐसी अद्भुत और भयंकर थीं कि उन्होंने अपनी पीढ़ी को हिला दिया था और उसे चूरचूर कर पृथ्वी की धूल चटा दी थी।

स्वयं को तथा इस जगत् को अनर्थ से सुरक्षित रखने के लिए लोगों को गम्भीर चेतावनी की आवश्यकता है। इन अन्तिम दो श्लोकों में यही चेतावनी दी गयी है। जो पुरुष शास्त्रविधि की उपेक्षा करके अपनी स्वच्छन्द प्रकृति के अनुसार ही काम करता है, उसे वस्तुत किसी प्रकार का भी लाभ नहीं होता। यहाँ शास्त्र शब्द से कठिन और विस्तृत कर्मकाण्ड को ही समझना आवश्यक नहीं है, जिसका अनुष्ठान और उपदेश रूढ़िवादी लोग विशेष बल देकर करते हैं। ब्रह्यविद्या का तथा तत्प्राप्ति के साधनों का उपदेश जिन ग्रन्थों में दिया गया है उन्हें यहाँ शास्त्र कहा गया है। ऐसे ग्रन्थ मुख्यत वेद एवम उपनिषद् हैं। वेदान्त के प्रतिपाद्य विषय तथा परिभाषिक शब्दावली का वर्णन करने वाले ग्रन्थों को प्रकरण ग्रन्थ कहा जाता हैं। गीता में ब्रह्मविद्या तथा तत्प्राप्ति के साधन उपदिष्ट है, इसलिए गीता भी शास्त्र ही है। कुछ शास्त्रों एवम पुराणों मे किदवंतीय एवम आपसी घटना क्रम दिए है, जिन्हें कालांतर में राजनीति के चलते संदिग्ध एवम विरोधी भी बना दिया गया है। व्यक्ति जिस का अन्तःकरण शुद्ध न हो, अध्ययन की कमी हो एवम अन्तःकरण में काम, क्रोध या लोभ भरा हो, वो लोग शास्त्रों का भी मन माना अर्थ निकालते रहते है, इस लोगो को समझना एवम इन से बचना जरूरी है। यह छद्म वेश में साधु, सन्यासी, बुद्धिजीवी,  सामाजिक नेता जैसे रोल में मिलते रहते है। यह लोग कर्मकांडी एवम अनुसंधानों से सिद्धि या परमात्मा से वर तो प्राप्त कर लेते है किंतु कामना के रहते उस के दुरुपयोग में लग जाते है एवम स्वयम को ईश्वर मानने लग जाते है। यह लोग ईश्वर के प्रति दासभाव न रखते हुए उन्हें अपना प्रतिद्वन्दी मानने लग जाते है। कई संतो को ईश्वर के सानिध्य, वार्तालाप एवम नियति अर्थात प्रकृति के विरुद्ध भी कर्म फल की रेखा को बदलने का दावा करते भी सुना जा सकता। किन्तु लोभ एवम काम इन का पीछा नही छोड़ता और यह अंत मे दुख को हो प्राप्त होते है।

शास्त्र मानव को ज्ञान की ओर यात्रा पर दिए गए मार्गदर्शक मानचित्र हैं। वे हमें ज्ञान और समझ प्रदान करते हैं। वे हमें यह भी निर्देश देते हैं कि क्या करना है और क्या नहीं करना है। ये निर्देश दो प्रकार के हैं- विधि और निहद। कुछ गतिविधियों को करने के निर्देशों को विधि कहा जाता है। कुछ गतिविधियों को न करने के निर्देशों को निहद कहा जाता है। इन दोनों प्रकार के निषेधाज्ञाओं का ईमानदारी से पालन करके, मनुष्य पूर्णता की ओर बढ़ सकता है। लेकिन आसुरी के तरीके शास्त्रों की शिक्षाओं के विपरीत हैं।

अर्जुन ने प्रथम अध्याय में शास्त्र के उदाहरण दे कर युद्ध त्याग की बात कही थी। भगवान श्री कृष्ण भी शास्त्र के अनुसार कर्म करने की आज्ञा दे रहे है। दोनो परिस्थितियों में अंतर मानसिक स्थिति का है। प्रथम अध्याय में अर्जुन विवेक हीन हो कर मोह, भय और माया से वशीभूत हो कर शास्त्रों की बात कह रहा था, जिस में शास्त्र विहित कर्म में उस का स्वार्थ छुपा था, किंतु यहां भगवान विवेकशील हो कर, काम, क्रोध और लोभ से मुक्त शास्त्र की आज्ञा पालन की बात कह रहे है। अतः किसी भी निर्देश का पालन शांत चित्त में काम, क्रोध और लोभ से रहित हो विवेक से करना चाहिए। लोग अपने स्वार्थ के लिए शास्त्रों या उच्च कोटि के शब्दो या वाक्यों का प्रयोग करते है, वो असुर वृति का ही पालन करते है, फिर चाहे वो कितना भी तप, पूजा, यज्ञ और प्रवचन करे। रावण या अन्य असुर भी तप और  देव पूजन से वरदान प्राप्त कर के अत्याचार करते थे। वे लोग भी शास्त्र के ज्ञाता होते थे और अपनी बात शास्त्र के नियमो का उद्धरण दे कर करते थे। आज के युग में भी बिना पढ़े यदि कोई शास्त्र का ज्ञान सोशल मीडिया में प्रचारित करता है तो उस की वृति भी समझना चाहिए।

प्रभु के प्रति श्रद्धा, विश्वास, प्रेम यदि सात्विक और निर्मल है, तो उसे स्मरण करने वाला और समर्पित मनुष्य की तामसी या आसुरी वृति भी क्षीण होती रहती है। इसलिए जो सात्विक श्रद्धा, प्रेम और विश्वास से परमात्मा को स्मरण करते है,उन का योगक्षेम परमात्मा स्वयं करते है और उन्हें ज्ञान भी प्रदान करते है।

काम कारत प्रस्तुत खण्ड में काम, क्रोध और लोभ के त्याग का उपदेश दिया गया है। हमने यह देखा कि क्रोध और लोभ का मूल कारण काम ही है। इसलिए, भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ केवल काम का ही उल्लेख करते हुए कहते हैं कि काम से प्रेरित मनुष्य को परम लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती। वह न सिद्धि प्राप्त करता है न सुख और न परा गति। गीता के उपदेश का पालन न करने से क्या हानि होगी इसका उत्तर यह है कि कामना से प्रेरित, लोभ से प्रोत्साहित और क्रोध से विक्षिप्त पुरुष सदैव अशान्ति और क्रूर मनाद्वेगों से पूर्ण जीवन को ही प्राप्त करता है। ऐसा पुरुष न सुख प्राप्त करता है और न आत्मविकास।

।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 16.23।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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