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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  16.22 II

।। अध्याय      16.22 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 16.22

एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः ।

आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम्॥

“etair vimuktaḥ kaunteya,

tamo-dvārais tribhir naraḥ..।

ācaraty ātmanaḥ śreyas,

tato yāti parāḿ gatim”..।।

भावार्थ: 

हे कुन्तीपुत्र! जो मनुष्य इन तीनों अज्ञान रूपी नरक के द्वारों से मुक्त हो जाता है, वह मनुष्य अपनी आत्मा के लिये कल्याणकारी कर्म का आचरण करता हुआ परम-गति (परमात्मा) को प्राप्त हो जाता है। (२२)

Meaning:

One who is free from these, the three gates of darkness, does good to himself, O Kaunteya, and with that, attains the supreme goal.

Explanation:

Shri Krishna describes the fate of one who has successfully conquered desire, anger and greed, the three gates of tamas or darkness. He says that such a person, from a practical standpoint, puts his life on the right track, he does good to himself. From an absolute standpoint, such a person attains the supreme goal of self-realization, of oneness with Ishvara, instead of entrapment in the never ending cycle of birth and death.

He only says; you have to change from āsūri sampath to daivi sampath; he does not say how to do that; the religious way of life prescribed in our tradition is meant for that; pañca mahā yajñās prescribed. And therefore having been freed from the tyranny of kāma krōdha and lōbha; what are they?  which are the three gateways, which are the roads to naraka, you turn away from them very carefully.

Shree Krishna gives the result of renouncing lust, anger, and greed. As long as these are present, one is attracted toward preya, or happiness that seems sweet in the present but becomes bitter in the end. But when materialistic yearnings diminish, the intellect, free from the material mode of passion, is able to perceive the shortsightedness of pursuing the path of preya. Then one gets drawn toward shreya, or happiness that is unpleasant in the present but becomes sweet in the end.

With this shloka, the message of the entire sixteenth chapter is summarized and concluded. Most of us, given the materialistic nature of the world, are on the path of preyas, the pleasant, the path of continuous satisfaction of selfish desires. Shri Krishna urges us to slowly tune down the three devilish qualities of desire, anger and greed, so that we can start walking on the path of shreyas or the auspicious, the path of the divine qualities. Only then do we become qualified to attain the supreme goal of self realization.

Having heard this, we probably have a question that arises in our minds. Every second of our lives, we are bombarded with a ton of desires. If our awareness level is high, we can regulate them some of the time, but not all of the time. Furthermore, anger can erupt and take over our mind within a microsecond. How can we, on our own, control desire, anger and greed? It is not easy. Anticipating this question, Shri Krishna answers it in the next shloka.

।। हिंदी समीक्षा ।।

हम ने पहले भी पढा कि प्रकृति अपने त्रियामी गुणों से इस सृष्टि का संचालन करती है। इन मे कोई भी कोई गुण स्थिर नही है। किंतु प्रवृति एवम आदत से यदि सत्व गुण रज के साथ होते है तो वह देवी सम्पद गुण है और यदि यही प्रवृति एवम आदत के साथ तमोगुण एवम रज के साथ ही तो आसुरी सम्पद है। अर्थात प्रवृति एवम आदत से जब गुणों में स्थिरता हो तो यह नई श्रेणी हो जाएगी तो प्रकृति के त्रियामी अस्थिर गुणों से स्थिर गुणों की होगी। देवीसम्पद हो या आसुरी सम्पद बोलने, व्यवहार में, कर्म में एवम लोगो को आकर्षित करने में दोनों ही प्रभावशाली होते है किंतु दोनों का धैय अलग अलग होता है।

श्रीकृष्ण केवल इतना कहते हैं कि तुम्हें आसुरी संपत से दैवी संपत बनना है; वे यह नहीं कहते कि यह कैसे करना है; हमारी परंपरा में निर्धारित धार्मिक जीवन पद्धति उसी के लिए है; पंच महायज्ञ निर्धारित हैं। और इसलिए काम क्रोध और लोभ के अत्याचार से मुक्त होने के बाद; वे क्या हैं? वे तीन प्रवेशद्वार कौन से हैं, जो नरक की ओर जाने वाले मार्ग हैं, तुम उनसे बहुत सावधानी से दूर हो जाते हो।

परमात्मा कहते है “हे कुन्तीपुत्र” ! ये काम आदि दुःख और मोहरूप अन्धकारमय नरक के द्वार हैं इन तीनों अवगुणों से छूटा हुआ मनुष्य आचरण करता है, आत्मकल्याण का साधन करता है। जिसे वह पहले  कामादि के वशमें होने से नहीं करता था, अब उन का नाश हो जाने से करता है और उस साधन से ( वह ) परमगति को अर्थात् मोक्ष को भी प्राप्त कर लेता है।

पूर्वश्लोक में जिन को नरक का दरवाजा बताया गया है, उन्हीं काम, क्रोध और लोभ को यहाँ तमोद्वार कहा गया है। तम् नाम अन्धकार का है, जो अज्ञान से उत्पन्न होता है। तात्पर्य है कि इन काम आदि के,कारण मेरे साथ ये धन सम्पत्ति, स्त्रीपुरुष, घरपरिवार आदि पहले भी नहीं थे और पीछे भी नहीं रहेंगे और अब भी इनसे प्रतिक्षण वियोग हो रहा है अतः इन में ममता करने से आगे मेरी क्या दशा होगी आदि बातों की तरफ दृष्टि जाती ही नहीं अर्थात् बुद्धि में अन्धकार छाया रहता है। अतः इन काम आदि से मुक्त होकर जो अपने कल्याण का आचरण करता है, वह परमगति को प्राप्त हो जाता है। इसलिये साधक को इस बात की विशेष सावधानी रखनी चाहिये कि वह काम, क्रोध और लोभ — तीनों से सावधान रहे।

इन तीनों को साथ में रखते हुए जो साधन करता है, वह वास्तव में असली साधक नहीं है। असली साधक वह होता है, जो इन दोषों को अपने साथ रहने ही नहीं देता कारण कि झूठ, कपट, बेईमानी, काम, क्रोध आदि हमारे साथ में रहेंगे, तो नयी नयी अशुद्धि, नये नये पाप होते रहेंगे, जिस से साधन का साक्षात् लाभ नहीं होगा। यही कारण है कि वर्षोंतक साधन में लगे रहने पर भी साधक अपनी वास्तविक उन्नति नहीं देखते, उन को अपने में विशेष परिवर्तन का अनुभव नहीं होता। इन दोषों से रहित होने पर शुद्धि स्वतःस्वाभाविक आती है। जीव में अशुद्धि तो संसार की तरफ लगने से ही आयी है अन्यथा परमात्माका अंश होनेसे वह तो स्वतः ही शुद्ध है।

श्रीकृष्ण काम, क्रोध और लोभ का त्याग करने का फल देते हैं। जब तक ये मौजूद हैं, तब तक व्यक्ति प्रेय की ओर आकर्षित होता है, अर्थात वह सुख जो वर्तमान में मीठा लगता है, लेकिन अंत में कड़वा हो जाता है। लेकिन जब भौतिकवादी लालसाएँ कम हो जाती हैं, तो बुद्धि, जो वासना के भौतिक गुण से मुक्त होती है, प्रेय के मार्ग पर चलने की अदूरदर्शिता को समझने में सक्षम हो जाती है। तब व्यक्ति श्रेय की ओर आकर्षित होता है, अर्थात वह सुख जो वर्तमान में अप्रिय लगता है, लेकिन अंत में मीठा हो जाता है।

जो साधकगण काम, क्रोध और लोभ से मुक्त होने का प्रयत्न करते हैं, वे वास्तव में अभिनन्दन के पात्र हैं। भगवान् श्रीकृष्ण उन्हें आश्वासन देते हैं कि इन अवगुणों के त्याग से उन्हें परम लक्ष्य की प्राप्ति होगी। किसी भी लक्ष्य को पाने के लिए मानसिक और बौद्धिक शक्तियों की आवश्यकता होती है, जो प्राय इन कामादि अवगुणों के कारण व्यर्थ ही क्षीण होती है। इसलिए नरक के इन त्रिविध द्वारों को त्यागने का उपदेश यहाँ दिया गया है। यही मनुष्य के लिए श्रेयस्कर है। श्रेयस् शब्द का अनुवाद नहीं किया जा सकता। संस्कृत के इस शब्द का आशय गंभीर और व्यापक है। श्रेयमार्ग के आचरण से न केवल साधक का ही कल्याण होता है, अपितु अपने आसपास के समाज के कल्याण में भी वह सहायक होता है।

इस प्रकार सही दिशा में उन्नति करता हुआ साधक परम लक्ष्य को प्राप्त होता है। सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विकास कोई एक दिन में घटने वाली आकस्मिक घटना नहीं है। जिस प्रकार, एक फूल की कली शनै शनै खिलती जाती है, उसी प्रकार, अनुशासन, अध्ययन एवं सन्मार्ग के आचरण से पूर्णत्व की प्राप्ति तक का विकास शनै शनै होता है। फूल के विकास की अपेक्षा आत्मविकास कहीं अधिक नाजुक है। इस श्लोक में अवगुणों का त्याग से परा गति की प्राप्ति कही गयी है। परन्तु यहाँ पूछा जा सकता है कि त्याग के द्वारा योग (प्राप्ति) कैसे हो सकता है कुभोजन के त्याग मात्र से पूर्ण स्वास्थ्य की प्राप्ति कैसे संभव है भगवान् कहते हैं कि जो पुरुष इन अवगुणों का त्याग करता है, वह फिर, स्वाभाविक ही अपने आत्मकल्याण के मार्ग का भी अनुसरण करता है,  जिस के फलस्वरूप उसे पूर्णत्व की प्राप्ति होती है। आसुरी सम्पदा के त्याग तथा श्रेय साधन के आचरण का उपाय धर्मशास्त्र में ही बताया गया है। इसलिए शास्त्रों का अध्ययन कर के तदनुसार आचरण ही मनुष्य के लिए श्रेयस्कर है।

अत्यंत गंभीर अध्ययन में मोक्ष की प्राप्ति का अत्यंत सरल, हृदय ग्राही और व्यवहारिक मार्ग उन्नति और व्यक्तित्व विकास का इस एक वाक्य से ज्यादा क्या हो सकता है कि परमात्मा स्वयं कहते है काम, क्रोध और लोभ को त्याग कर जीवन जीने वाला व्यक्ति नरक का द्वार छोड़ कर स्वर्ग के मार्ग पर चल पड़ता है। उस को वेद, यज्ञ, दान, दया, और धर्म कुछ भी नही सीखना है, तीन अवगुण को छोड़ने से ही यह सद्गुण स्वत: ही उस के साथ हो जाते है। काम से अर्थ वासना, मैथुन और आसक्ति ले सकते है, क्रोध मानसिक, वाचिक और आत्मिक हो सकता है और लोभ भी इन्ही तीनो स्वरूप में है। किसी भी व्यापार, व्यवसाय, नौकरी, कानून व्यवस्था और जनकल्याण की सेवा नीति के लिए भी यही तीनो अवगुण बाधक है, सामाजिक, राजनैतिक, पारिवारिक और आर्थिक किसी भी संस्था का पतन इन तीन गुणों से होता है और उन्नति इन तीन गुणों के छोड़ने से होती है।

जो अपने कल्याणके लिये शास्त्रविधिके अनुसार चलते हैं, उन को तो परमगति की प्राप्ति होती है, पर जो ऐसा न कर के मनमाने ढङ्ग से आचरण करते हैं, अपने को सही एवम ज्ञानी समझते है एवम किसी की बात सुनने के तैयार भी नही होते और तर्कहीन व्यर्थ की बहस करने में लगे रहते है,  उन की क्या गति होती है,  यह आगे के श्लोक में पढ़ते  हैं।

।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 16.22।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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