Notice: Function _load_textdomain_just_in_time was called incorrectly. Translation loading for the wordpress-seo domain was triggered too early. This is usually an indicator for some code in the plugin or theme running too early. Translations should be loaded at the init action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in /home/fwjf0vesqpt4/public_html/blog/wp-includes/functions.php on line 6121
% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  16.18 II

।। अध्याय      16.18 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 16.18

अहङ्‍कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः ।

मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः॥

“ahańkāraḿ balaḿ darpaḿ,

kāmaḿ krodhaḿ ca saḿśritāḥ..।

mām ātma- para- deheṣu,

pradviṣanto ‘bhyasūyakāḥ”..।।

भावार्थ: 

आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य मिथ्या अहंकार, बल, घमण्ड, कामनाओं और क्रोध के आधीन होकर अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ परमात्मा की निन्दा करने वाले ईर्ष्यालु होते हैं। (१८)

Meaning:

Taking refuge in egotism, power, arrogance, desire and anger, these resentful people hate me, who dwells in one’s own and in other’s bodies.

Explanation:

Shri Krishna starts to summarize the list of aasuri sampatti or devilish qualities by highlighting the primary ones. Shree Krishna describes more telltale signs of people possessing demoniac natures. They are vile, malicious, cruel, belligerent, and insolent. Although they do not possess righteous qualities themselves, they enjoy finding fault in everyone else. They consider themselves all-important, and as a consequence of this nature of self- aggrandizement, they are envious of other’s success. If ever they are opposed in their schemes, they become enraged and cause agony to others as well as to their own selves. Consequently, they disregard and disrespect the Supreme Soul who is seated within their own hearts and the hearts of others.

The foremost devilish quality is egotism. Ahamkāram, full of bloated ego, balam, means power; born out of status; then darpam, means arrogance; and kāmam, desire, krōdhaḥ, anger, saṃśritāḥ, all of these will begin to dominate his life. And gradually this will lead to a nāsthika svabhāva also; because it is unconducive to devotion and therefore devotion will gradually get eroded. Considering anything other than the eternal essence as the I is egotism. For most of us, the I am our body and mind. This incorrect understanding comes from avidyaa or ignorance of our true nature. In the Mahabhaarata, ignorance is symbolically represented by the blind king Dhritarashtra, and egotism by his first child Duryodhana, the cause of the Mahabhaarata war.

When egotism or the I notion is strong, one tends to impose one’s will on others. This is balam or power. One tends to disregard one’s duties, rules and norms, lose all sense of right and wrong, due to the strength of egotism. This is darpam or arrogance. Their primary aim of life becomes kaama or selfish desire, resulting in krodha or anger when these desires are not fulfilled. Other devilish tendencies such as hypocrisy, pride and ostentation are variations of these primary qualities. We should always be on the lookout for the rise of such qualities in us.

Shri Krishna goes on to say that such people hate Ishvara who dwells in everyone, including the very people who are harbouring these devilish qualities. They never listen to Ishvara who, as the voice of conscience, pleads them to not fall prey to these qualities. They do not follow the instructions of Ishvara as laid down in the scriptures. Instead, they resent him and hate him, as well as those who follow his path by cultivating divine qualities.

।। हिंदी समीक्षा ।।

वे आसुर मनुष्य जो कुछ काम करेंगे, उस को अहङ्कार, हठ, घमण्ड, काम और क्रोध से करेंगे। जैसे भक्त भगवान् के आश्रित रहता है, ऐसे ही वे आसुर लोग अहंकार, हठ, काम, आदि के आश्रित रहते हैं। उन के मन में यह बात अच्छी तरह से जँची हुई रहती है कि अहङ्कार, हठ, घमण्ड, कामना और क्रोध के बिना काम नहीं चलेगा संसार में ऐसा होने से ही काम चलता है, नहीं तो मनुष्यों को दुःख ही पाना पड़ता है जो इन का (अहङ्कार, हठ आदिका) आश्रय नहीं लेते, वे बुरी तरह से कुचले जाते हैं।

यहाँ श्रीकृष्ण असुर प्रवृत्ति वाले लोगों के और अधिक भेद खोलने वाले लक्षणों का वर्णन करते हैं। वे अधम-द्वेषपूर्ण, क्रूर, लड़ाकू और धृष्ट होते हैं। यद्यपि उनमें सदाचारिता के गुण नहीं होते किंतु वे सभी में दोष ढूढने में आनंदित होते हैं। ऐसे आसुरी आचरण वाले व्यक्ति स्वयं को अत्यंत महत्वपूर्ण मानते हैं और आत्म अभ्युदय की इस प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप दूसरों की सफलता से ईर्ष्या करते हैं। अगर कभी कोई उनकी योजनाओं का विरोध करता है तब वे क्रोधित होकर दूसरों को कष्ट पहुँचाते हैं और उसी प्रकार से अपनी आत्माओं को कष्ट देते हैं। परिणामस्वरूप वे परमात्मा की उपेक्षा और अपमान करते हैं जो उनके अपने और अन्य लोगों के हृदयों में स्थित है।

सीधे सादे व्यक्ति को संसार में कौन मानेगा इसलिये अहंकारादि के रहने से ही अपना मान होगा, सत्कार होगा और लोगों में नाम होगा, जिस से लोगों पर हमारा दबाव, आधिपत्य रहेगा।

अहंकार, अहंकार से भरा हुआ, बलम्, अर्थात शक्ति; पद से उत्पन्न; फिर दर्पम्, अर्थात अहंकार; और कामम्, इच्छा, क्रोध:, क्रोध, संश्रिता:, ये सभी उसके जीवन पर हावी होने लगेंगे। और धीरे-धीरे यह एक नास्तिक स्वभाव की ओर भी ले जाएगा; क्योंकि यह भक्ति के लिए अनुकूल नहीं है और इसलिए भक्ति धीरे-धीरे क्षीण हो जाएगी।

“हम हम” करने का नाम अहंकार है, जिस के द्वारा अपने में आरोपित किये हुए विद्यमान और अविद्यमान गुणों से अपने को युक्त मानकर मनुष्य हम हैं ऐसा मानता है, उसे अहंकार कहते हैं। यह अविद्या नाम का बड़ा कठिन दोष, समस्त दोषों का और समस्त अनर्थमय प्रवृत्तियोंका मूल कारण है। कामना और आसक्ति से युक्त, दूसरे का पराभव करने के लिये होने वाला बल, दर्प – जिसके उत्पन्न होने पर मनुष्य धर्म को अतिक्रमण कर जाता है, अन्तःकरण के आश्रित उस दोष विशेष का नाम दर्प है तथा स्त्री आदि के विषय में होनेवाला काम और किसी प्रकार का अनिष्ट होने से होने वाला क्रोध, इन सब,दोषों को तथा अन्यान्य महान् दोषों को भी अवलम्बन करनेवाले होते हैं। इसके सिवा वे अपने और दूसरों के शरीर में स्थित, उन की बुद्धि और कर्म के साक्षी, मुझ ईश्वर से द्वेष करनेवाले होते हैं – मेरी आज्ञा को उल्लङ्घन करके चलना ही मुझ से द्वेष करना है, वे वैसा करनेवाले हैं और सन्मार्ग में स्थित पुरुषों के गुणों को सहन न करके, उन की निन्दा करनेवाले होते हैं।

शास्त्र के निषिद्ध कर्म का विवरण आसुरी वृति में करते हुए, परमात्मा कहते है, जो यह सोचता है कि मैं सभी कार्य करने में समर्थ हूं, मुझे किसी की सहायता की जरूरत नहीं, मेरे बिना कोई कार्य नहीं कर सकता, यह सब अहंकार है। जो कुछ भी मैने ऐश्वर्य, धन, कीर्ति अर्जित की है, यह मेरी मेहनत और सूझबूझ का परिणाम है, इस में किसी के सहयोग या भाग्य या पूर्व कर्मफलो या किसी के आशीर्वाद का कोई प्रभाव नहीं है, यह उस का दर्प है। सब को मेरी जरूरत है, मुझे किसी की जरूरत नहीं, यह उस का अहंकार, दर्प युक्त बल है। इन तीनों का मिश्रण होने से काम, क्रोध ग्रसित हो कर, अन्य जीव में मुझे नहीं पहचान पाते और किसी का भी अपमान, मार – पिटाई, यहां तक हत्या तक भी कर देते है। क्रोध में यह अपना आपा तक खो देते है। व्यवहारिक जीवन में इतने सरल स्वरूप में आसुरी वृति का वर्णन पढ़ने के बाद कौन अपनी आसुरी वृति को पहचान नहीं सकता, किंतु जान कर भी लोग इसी वृति से अभिभूत हो कर, पूजा पाठ, यज्ञ और कर्म सांसारिक वस्तु को प्राप्त करने और अन्य को नुकसान पहुंचाने की कामना से साथ करते हुए, स्वयं को धार्मिक भी दिखाते है और लोग भी ऐसा समझे, यह कामना भी करते है।

श्रुति और स्मृति – ये दोनों मेरी आज्ञाएँ हैं। इनका उल्लङ्घन करके जो मनमाने ढंग से बर्ताव करता है, वह मेरी आज्ञाभङ्ग करके मेरे साथ द्वेष रखनेवाला मनुष्य निश्चित ही नरकों में गिरता है। वे अपने अन्तःकरण में विराजमान परमात्मा के साथ भी विरोध करते हैं अर्थात् हृदय में जो अच्छी स्फुरणाएँ होती हैं, सिद्धान्त की अच्छी बातें आती हैं, उन की वे उपेक्षा तिरस्कार करते हैं, उन को मानते नहीं। वे दूसरे लोगों की अवज्ञा करते हैं, उनका तिरस्कार करते हैं, अपमान करते हैं, उन को दुःख देते हैं, उनसे अच्छी तरहसे द्वेष रखते हैं। यह सब उन प्राणियों के रूप में भगवान् के साथ द्वेष करना है।

एक बार अहंकार के वशीभूत हो जाने पर मनुष्य का पशु से भी निम्नतम स्तर तक निरन्तर पतन होता जाता है। कामना से उन्मत्त वह पुरुष सुसंस्कृत मानव की प्रतिष्ठा से पदच्युत हो जाता है और तत्पश्चात् एक प्रभावहीन पशु के समान संदिग्ध रूप में समाज में विचरण करता है ऐसा व्यक्ति शारीरिक दृष्टि से मनुष्य होते हुए भी मानसिक दृष्टि से पशु ही होता है। इस श्लोक में इन्हीं आसुरी लोगों का वर्णन किया गया है। यहाँ उल्लिखित अहंकारादि अवगुणों में से एक अवगुण भी भ्रष्टता के तल तक गिराने के लिए पर्याप्त है, परन्तु भगवान् कहते हैं कि आसुरी पुरुष इन सभी अवगुणों से युक्त होता है। इतना ही नहीं, अपितु वह इन्हें ही श्रेष्ठ गुण मानकर इनका अवलम्बन भी करता है। इनकी अभिव्यक्ति में ही वह सन्तोष का अनुभव करता है।प्राय नवयुवकों को यह उपदेश दिया जाता है कि उन्हें अपनी निम्नस्तर की हीन प्रवृत्तियों के प्रलोभनों का शिकार नहीं बनना चाहिए। कोई स्वच्छन्द प्रवृत्ति का युवक प्रश्न पूछ सकता है कि इस में क्या हानि है गीताचार्य कहते हैं कि सभी सांस्कृतिक मूल्यों का अपमान करते हुए अहंकार स्वार्थ और कामुकता का जीवन जीने का परिणाम सम्पूर्ण नाश है।उपर्युक्त आसुरी गुणों से युक्त लोग जीवन की पवित्रता की उपेक्षा करेंगे और बिना किसी पश्चाताप् के उसे अपवित्र करने में भी संकोच नहीं करेंगे। ये परनिन्दा में प्रवृत्त होंगे और सबके शरीर में स्थित मुझ परमात्मा का द्वेष करेंगे। केवल शुद्धांन्तकरण में ही परमात्मा अपने शुद्ध स्वरूप से व्यक्त होता है, न कि विषय वासनाओं से आच्छादित अशुद्ध अन्तकरण में। सदाचार का पालन चित्त को शुद्ध करता है, परन्तु अनैतिकता और दुराचार, जीवन के सुमधुर संगीत को अपने विकृत स्वरों के द्वारा निरर्थक ध्वनि के रूप में परिवर्तित कर देते हैं। दुराचारी पुरुष स्वयं अशान्त होकर अपने आसपास भी अशान्ति का वातावरण निर्मित करता है।

आगे इन आसुरी लोगो के पतन को पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 16.18।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

Leave a Reply