।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 16.16 II
।। अध्याय 16.16 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 16.16॥
अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः ।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ॥
“aneka-citta-vibhrāntā,
moha- jāla- samāvṛtāḥ..।
prasaktāḥ kāma- bhogeṣu,
patanti narake ‘śucau”..।।
भावार्थ:
अनेक प्रकार की चिन्ताओं से भ्रमित होकर मोह रूपी जाल से बँधे हुए इन्द्रिय-विषयभोगों में आसक्त आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य महान् अपवित्र नरक में गिर जाते हैं। (१६)
Meaning:
Bewildered by innumerable fancies, trapped in the web of delusion, addicted to desires and enjoyments, they descend into a foul hell.
Explanation:
After explaining the nature of demon in last three paragraph, where person unable to thing for God for liberalisation and him all ways busy in his/her materialist desire and work for easy life, shree krishna says he shall be eligible to get result of their delusion by way of sorrow and lower birth and hell.
Shree Krishna says that the demoniac who choose to live in the mesh of delusion created by the ego become bewildered by numerous thoughts of the poorest quality. Consequently, they obscure their own destiny.
A materialistic society will use all its resources only to improve methods of entertainment. That is the indication of a materialist society; whether there is material resources or scientific advancement, all of them will be used to improve only for sense pleasures improvement and they think that is the growth and advancement of the society.
However, in India, any scientific improvement comes, first it will be used in religious field; TV, Rāmayaṇa and Mahābhāratha serials. All swamis will start appearing in TVs. that is our culture; any scientific advancement, we imagine, we think of using for spiritual purpose. That is called a healthy society; a materialistic society will think of improving sense pleasures. Even medical advancement, they want to use the body younger and younger so that again that the body can be used for what; not for spiritual sadhana; how I can be young at the 90th year? Again, for what? I can use my sense organs for sensory pleasures; Even medical advancement is directed towards that; that is the typical materialistic society.
Over 9 percent of the population in western countries is addicted to drugs. Drug addiction begins when a person has some problem, discomfort or sorrow, such as a teenager finding it difficult to fit it or an adult losing his job. Using drugs or alcohol appears to solve the problem, so he uses them repeatedly. At this point, his body gets habituated to the drugs or alcohol and consequently shuts down all logic and reason. The person has become an addict. His sole aim in life is to do whatever it takes to satisfy his cravings.
Shri Krishna summarizes the lifecycle of a person with devilish tendencies, which looks worryingly similar to that of a drug addict. The person in question has an underlying sense of incompleteness or sorrow. Fulfilling a selfish desire, no matter how insignificant, gives him a temporary burst of joy. He wants to repeat this sensation, he wants more of it, and thus becomes addicted to desires and enjoyments. The more he does so, the more power he gives to his emotional mind, and takes power from his reasoning and intellect. He is trapped in the web of delusion. All he can think about now is more and more desires to fulfil, and the means to fulfil them.
Whether or not a drug addict or a highly materialistic person literally falls into hell is a different story. But a life of addiction, a life where inert substances make us dance to their tune, a life where there is no higher aim or goal, and most importantly, a life where the intellect has taken a backseat, is no different than any hell with fire and brimstone in it.
Shree Krishna says that the demoniac who choose to live in the mesh of delusion created by the ego become bewildered by numerous thoughts of the poorest quality. Consequently, they obscure their own destiny.
।। हिंदी समीक्षा ।।
पिछले तीन पैराग्राफ़ में राक्षस की प्रकृति की व्याख्या करने के बाद, जहां व्यक्ति उदारीकरण के लिए भगवान के लिए काम करने में असमर्थ है और वह अपनी भौतिकवादी इच्छा और आसान जीवन के लिए काम करने में व्यस्त है, श्री कृष्ण कहते हैं कि वह दुख और निचले जन्म और नरक के माध्यम से उनके भ्रम का परिणाम प्राप्त करने के पात्र होंगे। श्री कृष्ण का कहना है कि जो राक्षसी अहंकार द्वारा निर्मित भ्रम के जाल में रहना पसंद करता है, वह सबसे गरीब गुण के कई विचारों से हतप्रभ हो जाता है। नतीजतन, वे अपने भाग्य को अस्पष्ट करते हैं।
एक भौतिकवादी समाज अपने सभी संसाधनों का उपयोग केवल मनोरंजन के तरीकों में सुधार करने के लिए करेगा। यही एक भौतिकवादी समाज का संकेत है; चाहे भौतिक संसाधन हों या वैज्ञानिक उन्नति, उन सभी का उपयोग केवल इन्द्रिय सुखों में सुधार के लिए किया जाएगा और वे सोचते हैं कि यह समाज की वृद्धि और उन्नति है। हालांकि, भारत में कोई भी वैज्ञानिक सुधार आता है, सबसे पहले इसका इस्तेमाल धार्मिक क्षेत्र में किया जाएगा; टीवी, रामायण और महाभारत धारावाहिक। सभी स्वामी टीवी में दिखने लगेंगे। यही हमारी संस्कृति है; कोई भी वैज्ञानिक प्रगति, हम कल्पना करते हैं, हम आध्यात्मिक उद्देश्य के लिए उपयोग करने के बारे में सोचते हैं। जिसे स्वस्थ समाज कहा जाता है; एक भौतिकवादी समाज इंद्रिय सुखों में सुधार करने के बारे में सोचेगा। यहां तक कि चिकित्सा प्रगति भी, वे शरीर का उपयोग छोटे और छोटे शरीर का उपयोग करना चाहते हैं ताकि फिर से शरीर का उपयोग किस लिए किया जा सके; आध्यात्मिक साधना के लिए नहीं; मैं 90 वें वर्ष में कैसे युवा हो सकता हूं? फिर से किस लिए? मैं संवेदी सुखों के लिए अपनी इंद्रियों का उपयोग कर सकता हूं; यहां तक कि चिकित्सा उन्नति भी उसी की ओर निर्देशित है; यही ठेठ भौतिकवादी समाज है।
धन, काम, बल, भोग और ऐष्वर्य की लालसा, मोह एवम कामना तथा उस को छल, बल, काम, क्रोध, धोखा, हत्या या किसी भी प्रकार से प्राप्त करने की चेष्टा से व्यक्ति अपना विवेक खो देता है। उस को संतुष्टि एवम विश्वास भी नही रहता एवम अविवेक में वह स्वयं को ही कर्ता धर्ता मान लेता है। जैसे ही प्रकृति का यह तमो गुण उस को कुछ भी प्रदान करने लायक नहीं रहता तो उस की स्थिति नरक भोगने तुल्य हो जाती है।
अनेक चित्त विभ्रान्ता आत्म केन्द्रित और विषयासक्त पुरुष का मन सदैव अस्थिर रहता है। अनेक प्रकार की भ्रामक कल्पनाओं में वह अपनी मन की एकाग्रता की क्षमता को क्षीण कर लेता है।मोह जाल समावृता यदि ऐसे आसुरी पुरुष का मन सारहीन स्वप्नों में बिखरा होता है, तो उस की बुद्धि की स्थिति भी दयनीय ही होती है। विवेक और निर्णय की उस की क्षमता मोह और असत् मूल्यों में फँस जाती है। आश्रियविहीन बुद्धि किस प्रकार उचित निर्णय और जीवन का सही मूल्यांकन कर सकती है ऐसे दोषपूर्ण मन और बुद्धि के द्वारा जगत् का अवलोकन करने पर सर्वत्र विषमता और विकृति के ही दर्शन होंगे, समता और संस्कृति के नहीं। विषयों में आसक्त जिस पुरुष की बुद्धि मोह से आच्छादित हो और मन विक्षेपों से अशान्त हो, तो उसकी इन्द्रियाँ भी असंयमित ही होंगी।
यदि कार की चालक शक्ति ही मदोन्मत्त हो, तो कार की गति भी संयमित नहीं हो सकती। इस लिए, ऐसे आसुरी स्वभाव के पुरुष विषयभोगों में अत्यधिक आसक्त हो,जाते हैं। वे अपवित्र नरक में गिरते हैं शरीर से थके, मन से भ्रमित और बुद्धि से विचलित ये लोग यहीं पर स्वनिर्मित नरक में रहते हैं तथा अपने दुख और कष्ट सभी को वितरित करते हैं। इस तथ्य को समझने के लिए हमें कोई महान् दार्शनिक होने की आवश्यकता नहीं है। मनुष्य में यह सार्मथ्य है कि वह समता के दर्शन से नरक को स्वर्ग में परिवर्तित कर सकता है और विषमता के दर्शन से स्वर्ग को नरक भी बना सकता है।
जब नाशवान शरीर को ले कर चलने वाला काम, क्रोध, बल, ऐष्वर्य एवम अहंकार में स्वयं को ईश्वर समंझने लगता है तो उस की स्थिति कंस, रावण, हिरण्यकश्यप जैसी हो जाती है, प्रयुक्त स्थान में दुर्योधन भी बोल सकते है और आज के युग मे चीन के नेता शीं या नार्थ कोरिया है किम या isisi जैसे संघटन के नेताओ सी होती है। अयुक्त व्यक्तित्व का पुरुष किसी भी स्थिति में शान्ति और पूर्णता का अनुभव नहीं करता। यदि समस्त वातावरण और परिस्थितियाँ अनुकूल भी हों, तो वह अपनी आन्तरिक पीड़ा और दुख के द्वारा उन्हें प्रतिकूल बना देता है। यदि इन आसुरी गुणों से युक्त केवल एक व्यक्ति भी सुखद परिस्थितियों को दुखद बना सकता है, तो हम उस जगत् की दशा की भलीभांति कल्पना कर सकते हैं जहाँ बहुसंख्यक लोगों की कम अधिक मात्रा में ये ही धारणायें होती हैं। स्वर्ग और नरक का होना हमारे अन्तकरण की समता और विषमता पर निर्भर करता है। इन सब का अंत नरक के समान दुर्गति में होता है।
जब उद्देश्य सत्ता, सुंदरी, धन या अन्य किसी सुख का हो, तो सत्य – असत्य या निहित या निषिद्ध कर्म का विवेक नष्ट हो जाता है, उस के कारण वह कुकर्म अधिक से अधिक करने लग जाता है, कथा है, किसी विद्वान पंडित ने ज्ञानी तत्वविद से पूछा कि किस कारण व्यक्ति नरक के गर्त में गिरता है, इस का उत्तर देने की बजाय, उन्होंने पंडित को कल बुलाया। शाम को एक वैश्या ने पंडित के चरण छू कर पांच सोने के सिक्के चढ़ाए और उस के घर पहुंच भोजन ग्रहण करने को कहा और दक्षिणा में 25 सिक्के देने की बात की। पंडित जी को 25 सोने के सिक्के मिलने के लोभ में उस के घर में भोजन करने में कोई आपत्ति नहीं दिखी। शाम को भोजन करने के वैश्या के घर पहुंचे तो उस ने स्वागत किया और सोने के बर्तनों में भोजन परोसा। सोने के बर्तनों में स्वादिष्ट भोजन पा कर पंडित तृप्त हुए और दक्षिणा में 25 सिक्को का इंतजार कर रहे थे। तभी 25 सिक्के दक्षिणा में देते हुए वैश्या ने सोने के बर्तन भी देने का आग्रह किया, यदि वे एक रात्रि उस के यहां रुक जाए। बर्तन का लालच इतना अधिक था की पंडित जी तैयार हो गए, तब वैश्या ने कहा कि आप का प्रश्न था कि किस कारण से व्यक्ति नरक के गर्त में जाता है, तो उस का उत्तर है, लोभ। जिस के कारण आप जैसा विद्वान पंडित भी मेरे यहां रात्रि विश्राम को तैयार हो गया।
आसुरी वृति को सरलता शब्दो में परमात्मा द्वारा बताए जाने का उद्देश्य इतना ही है कि अपने आत्म विश्वास और ज्ञान पर कभी भी इतना गर्व न करे की हम गलत कर्म को छू कर भी निकल सकते है। न ही अपनी कोई सीमा तय करे कि मैं इतना भर ही करता हूं और इस से अधिक नही, दिन में एक पेग वो भी कभी कभी, रिश्वत जो मर्जी से देता है, उसी से लेता हूं। कानून सम्मत गलत कार्य भी करना चतुराई इस जगत में हो सकती है, किंतु ईश्वर के न्याय में आप नर्क के ही पात्र है। लोकसंग्रह और निष्काम भाव में यदि कुछ कर्म किया जाए, वह फल दायक नही है, किंतु स्वयं को निष्काम कहते हुए भी काम से प्रेरित कार्य करना, नर्क का ही द्वारा है।
मनुष्य के चार पुरुषार्थ कहे जाते है जिन्हे हम धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष कहते है। भौतिकवादी धर्म और मोक्ष को छोड़ कर अर्थ और काम के लिए कर्म करते है। मनुष्य अपनी मर्जी से कर्म करने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन वे अपने कार्यों के परिणामों को निर्धारित करने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं।
परिणाम भगवान द्वारा कर्म के नियम के अनुसार प्रदान किए जाते हैं। रामचरित मानस में कहा गया है:
कर्म प्रधान विश्व करी राखा, जो तस करहीं सो तस फल चाखा।
“इस दुनिया में क्रियाएं महत्वपूर्ण हैं। लोग जो भी कार्य करते हैं, वे उसी फल का स्वाद चखते हैं। ”
इसलिए, सभी को अपने कार्यों के कर्म परिणामों का सामना करना पड़ता है। बाइबल यह भी कहती है: “निश्चित रहो कि तुम्हारा पाप तुम्हें खोज लेगा।” इस प्रकार, अपने अगले जीवन में, परमेश्वर उन लोगों को डालता है जो आसुरी गुणों को अस्तित्व की निम्न अवस्थाओं में विकसित करना चुनते हैं।
सिद्धांत बहुत सरल है: जो लोग सात्विक मानसिकता से बाहर निकलते हैं वे अस्तित्व के उच्च स्तर तक बढ़ जाते हैं; जो राजसी मानसिकता से बाहर निकलते हैं वे मध्य क्षेत्रों में रहते हैं; और जो लोग तामसिक मानसिकता से कार्य करते हैं और पाप की ओर प्रवृत्त होते हैं वे अस्तित्व के निचले स्तरों तक उतरते हैं।
भगवत्प्राप्ति के उद्देश्य से विमुख हुए आसुरी सम्पदावालों के दुराचारों का फल नरकप्राप्ति बताकर, दुराचारों द्वारा बोये गये दुर्भावों से वर्तमान में उनकी कितनी भयंकर दुर्दशा होती है और भविष्य में उसका क्या परिणाम होता है, इसे आगे के श्लोकों में पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 16.16।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)