।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 16.15 II Additional II
।। अध्याय 16.15 II विशेष II
।। दर्शनशास्त्र – भारतीय वैदिक (आस्तिक) दर्शन – न्याय शास्त्र।। विशेष भाग 8, गीता 16.15 ।।
न्याय-विषयक राजनीतिक विचार
यह तय करना मानव-जाति के लिए हमेशा से एक समस्या रहा है कि न्याय का ठीक-ठीक अर्थ क्या होना चाहिए और लगभग सदैव उसकी व्याख्या समय के संदर्भ में की गई है। मोटे तौर पर उसका अर्थ यह रहा है कि अच्छा क्या है इसी के अनुसार इससे संबंधित मान्यता में फेर-बदल होता रहा है। जैसा कि डी.डी. रैफल का मत है-
न्याय द्विमुख है, जो एक साथ अलग-अलग चेहरे दिखलाता है। वह वैधिक भी है और नैतिक भी। उसका संबंध सामाजिक व्यवस्था से है और उसका सरोकार जितना व्यक्तिगत अधिकारों से है उतना ही समाज के अधिकारों से भी है।… वह रूढ़िवादी (अतीत की ओर अभिमुख) है, लेकिन साथ ही सुधारवादी (भविष्य की ओर अभिमुख) भी है।
वह शास्त्र जिस में किसी वस्तु के यथार्थ ज्ञान के लिये विचारों की उचित योजना का निरुपण होता है, न्यायशास्त्र कहलाता है। यह विवेचनपद्धति है। न्याय, छह भारतीय दर्शनों में से एक दर्शन है। न्याय विचार की उस प्रणाली का नाम है जिस में वस्तु तत्व का निर्णय करने के लिए सभी प्रमाणों का उपयोग किया जाता है। वात्स्यायन ने न्यायसूत्र के प्रथम सूत्र के भाष्य में “प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्याय” कह कर यही भाव व्यक्त किया है।
भारत के विद्याविद् आचार्यो ने विद्या के चार विभाग बताए हैं- आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति।
आन्वीक्षिकी का अर्थ है- प्रत्यक्षदृष्ट तथा शास्त्रश्रुत विषयों के तात्त्विक रूप को अवगत करानेवाली विद्या। इसी विद्या का नाम है- न्यायविद्या या न्यायशास्त्र ; जैसा कि वात्स्यायन ने कहा है :
प्रत्यक्षागमाभ्यामीक्षितस्यार्थस्यान्वीक्षणमन्वीक्षा। तया प्रवर्तत इत्यान्वीक्षकी न्यायविद्या न्यायशास्त्रम्। (न्यायभाष्य प्रथम सूत्र)
आन्वीक्षिकी में स्वयं न्याय का तथा न्यायप्रणाली से अन्य विषयों का अध्ययन होने के कारण उसे न्यायविद्या या न्यायशास्त्र कहा जाता है। आन्वीक्षिकी विद्याओं में सर्वश्रेष्ठ मानी गई है। वात्स्यायन ने अर्थशास्त्राचार्य चाणक्य के निम्नलिखित वचन को उद्धृत कर आन्वीक्षिकी को समस्त विद्याओं का प्रकाशक, संपूर्ण कर्मों का साधक और समग्र धर्मों का आधार बताया है-
प्रदीपः सर्वविद्यानामुपायः सर्वकर्मणाम्।
आश्रयः सर्वधर्माणां विद्योद्देशे प्रकीर्तिता ॥ (न्यायभाष्य , सूत्र १)
न्याय के प्रवर्तक गौतम ऋषि कहे जाते हैं। गौतम के न्यायसूत्र अब तक प्रसिद्ध हैं। इन सूत्रों पर वात्स्यायन मुनि का भाष्य है। इस भाष्य पर उद्योतकर ने वार्तिक लिखा है। वार्तिक की व्याख्या वाचस्पति मिश्र ने ‘न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका‘ के नाम से लिखी है। इस टीका की भी टीका उदयनाचार्य कृत ‘ताप्तर्य-परिशुद्धि‘ है। इस परिशुद्धि पर वर्धमान उपाध्याय कृत ‘प्रकाश‘ है।
न्यायशास्त्र के विकास को तीन कालों में विभाजित किया जा सकता है – आद्यकाल, मध्यकाल तथा अंत्यकाल (1200 ई. से 1800 ई. तक का काल)। आद्यकाल का न्याय “प्राचीन न्याय”, मध्यकाल का न्याय “सांप्रदायिक न्याय” (प्राचीन न्याय की उत्तर शाखा) और अंत्यकाल का न्याय “नव्यन्याय” कहा जाएगा।
न्याय” शब्द से वे शब्दसमूह भी व्यवहृत होते हैं जो दूसरे पुरुष को अनुमान द्वारा किसी विषय का बोध कराने के लिए प्रयुक्त होते है। वात्स्यायन ने उन्हें “परम न्याय” कहा है और वाद, जल्प तथा वितण्डा रूप विचारों का मूल एवं तत्त्व निर्णय का आधार बताया है। (न्या.भा. 1 सूत्र)
न्याय के अर्थ का निर्णय करने का प्रयत्न सब से पहले यूनानियों और रोमनों ने किया (यानी जहाँ तक पाश्चात्य राजनीतिक चिंतन का संबंध है)। यूनानी दार्शनिक अफलातून (प्लेटो) ने न्याय की परिभाषा करते हुए उसे सद्गुण कहा, जिसके साथ संयम, बुद्धिमानी और साहस का संयोग होना चाहिए। उन का कहना था कि न्याय अपने कर्त्तव्य पर आरूढ़ रहने, अर्थात् समाज में जिसका जो स्थान है उसका भली- भाँति निर्वाह करने में निहीत है (यहाँ हमें प्राचीन भारत के वर्ण- धर्म का स्मरण हो आता है)। उन का मत था कि न्याय वह सद्गुण है जो अन्य सभी सद्गुणों के बीच सामंजस्य स्थापित करता है। उनके अनुसार, न्याय वह सद्गुण है जो किसी भी समाज में संतुलन लाता है या उसका परिरक्षण करता है। उन के शिष्य अरस्तू (एरिस्टोटल) ने न्याय के अर्थ में संशोधन करते हुए कहा कि न्याय का अभिप्राय आवश्यक रूप से एक खास स्तर की समानता है। यह समानता (1) व्यवहार की समानता तथा (2) आनुपातिकता या तुल्यता पर आधारित हो सकती है। उन्होंने आगे कहा कि व्यवहार की समानता से ‘योग्यतानुसारी (कम्यूटेटिव) न्याय’ उत्पन्न होता है और आनुपातिकता से ‘वितरणात्मक न्याय’ प्रतिफलित होता है।
इस में न्यायालयों तथा न्यायाधीशों का काम योग्यतानुसार न्याय का वितरण होता है और विधायिका का काम वितरणात्मक न्याय का वितरण होता है।
दो व्यक्तियों के बीच के कानूनी विवादों में दण्ड की व्यवस्था योग्यतानुसारी न्याय के सिद्धांतों के अनुसार होना चाहिए, जिसमें न्यायपालिका को समानता के मध्यवर्ती बिंदु पर पहुँचने का प्रयत्न करना चाहिए और राजनीतिक अधिकारों, सम्मान, संपत्ति तथा वस्तुओं के आवंटन में वितरणात्मक न्याय के सिद्धांतों पर चलना चाहिए।
इस के साथ ही किसी भी समाज में वितरणात्मक और योग्यतानुसारी न्याय के बीच तालमेल बैठाना आवश्यक है। फलतः अरस्तू ने किसी भी समाज में न्याय की अवधारणा को एक परिवर्तनधर्मी संतुलन के रूप में देखा, जो सदा एक ही स्थिति में नहीं रह सकती।
रोमनों तथा स्टोइकों (समबुद्धिवादियों) ने न्याय की एक किंचित् भिन्न कल्पना विकसित की। उनका मानना था कि न्याय कानूनों और प्रथाओं से निसृत नहीं होता बल्कि उसे तर्क-बुद्धि से ही प्राप्त किया जा सकता है। न्याय दैवी होगा और सबके लिए समान। समाज के कानूनों को इन कानूनों के अनुरूप होना चाहिए; तभी उनका कोई मतलब होगा, अन्यथा नहीं। मानव- निर्मित कानून वास्तव में कानून हो, इसके लिए यह आवश्यक है कि वह इस कानून और प्राकृतिक न्याय की कल्पना से मेल खाए। इस प्राकृतिक न्याय की कल्पना का विकास सर्वप्रथम स्टोइकों ने किया था और बाद में उसे रोमन कैथोलिक ईसाई पादरियों ने अपना लिया। इस न्याय की दृष्टि में सभी मनुष्य समान थे। अपनी कृति इन्स्टीच्यूट्स में जस्टिनियन तर्क-बुद्धि द्वारा विकसित या प्राप्त कानून तथा आम लोगों के कानून या आम कानून के बीच भेद किया।
फिर धर्म-सुधार आंदोलन, पुनर्जागरण और औद्योगिक क्रांति तक यूरोप में इस क्षेत्र में कुछ खास नहीं हुआ। लॉक, रूसो और कांट – जैसे विचारकों की दृष्टि में न्याय का मतलब स्वतंत्रता, समानता और कानून का मिश्रण था। प्रारंभिक उदारवादियों को सामंतवाद, निरंकुश राजतंत्र और जातिगत विशेषाधिकार अन्यायपूर्ण और इसलिए गैर-कानूनी प्रतीत हुए। उनकी दृष्टि में स्वतंत्रता और समानता के बिना न्याय का कोई मतलब नहीं था। उन्नीसवीं सदी के पूर्व तक न्याय की यही अभिधारणा प्रचलित रही और तब उदारवादी और समाजवादी अथवा मार्क्सवाद चिंतन- धाराओं के बीच असहमति का उदय हुआ।
बेंथम और मिल के उपयोगितावादी (यूटिलिटेरियन) सिद्धांत का बोलबाला हुआ। इस सिद्धांत के अनुसार, जो-कुछ मानव- जाति के सुख या उपयोगिता की अधिकतम वृद्धि में सहायक था वही न्याय था। उनका मानना था कि समस्त प्रतिबंधों की अनुपस्थिति में सुख समाहित हैं, लेकिन तब समाजवादी और मार्क्सवादी यह दलील लेकर सामने आए कि पूंजीवादी सांपत्तिक संबंधों से उत्पन्न गरीबी और असमानता के अतिरेक अन्यायपूर्ण हैं और उनका समर्थन नहीं किया जा सकता। जहाँ तक उदारवादी चिंतन-धाराओं का संबंध है, प्रारंभिक क्लासिकी उदारवादियों का न्याय- विषयक दृष्टिकोण ही बीसवीं सदी के मध्य तक उदारवादियों का मुख्य दृष्टिकोण था। परन्तु केंस की कल्पना के कल्याणकारी राज्यों के उदय के साथ उदारवादी परंपरा में न्याय की एक नई अभिधारणा का विकास करना आवश्यक हो गया। उस अभिधारणा की शायद सबसे अच्छी व्याख्या रॉल्स-कृत ए थिओरी ऑफ जस्टिस (1971) में हुई है। बीसवीं सदी के अंतिम दशकों में नव- उदारवाद (नियो- लिबरेलिज़्म) तथा जिसे अमेरीका में लिबरटेरियेनिज़्म अर्थात् इच्छास्वातंत्रयवाद की संज्ञा दी गई है उसके उदय के साथ उदारवादी परंपरा में न्याय का एक और सिद्धांत उद्भूत हुआ। दरअसल देखें तो इच्छा स्वातंत्रयवाद का मतलब (वैश्वीकरण तथा अंतर्राष्ट्रीय मुक्त बाजार के हक में दलील जुटाने के लिए किए गए उपयुक्त परिवर्तनों के साथ) मुक्त बाजार, न्यूनतम राज्य और स्वतंत्रता तथा संपत्ति के अविकल अधिकारों के हिमायती प्रारंभिक क्लासिकी उदारवादियों की न्याय की अभिधारणा की ओर लौटना था। यह है ‘न्याय का हकदारी सिद्धांत’ (‘इनटाइटलमेंट थिओरी ऑफ जस्टिस’), जिसे रॉबर्ट नॉजिक ने अपनी कृति ‘एनार्की, स्टेट एंड यूटोपिया’ में लोकप्रिय बनाया।
न्यायशास्त्र का प्रयोजन
न्यायविद् विद्वानों ने निश्रेयस को न्यायशास्त्र के अध्ययन का प्रयोजन माना है। नि:श्रेयस का अर्थ है- अपवर्ग, मोक्ष अर्थात् सब प्रकार के दु:खों की आत्यंतिक निवृत्ति। ऐसी निवृत्ति जिस के बाद कभी किसी प्रकार के दु:ख होने की संभावना ही नहीं रह जाती। यही मनुष्य के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चतुर्विध पुरुषार्थों में सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थ है।
न्यायशास्त्र के अध्ययन से पदार्थों का तत्वज्ञान होता है और उससे आत्मतत्व का साक्षात्कार होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है। तत्व साक्षात्कार से मिथ्याज्ञान की निवृत्ति, मिथ्याज्ञान की निवृत्ति से राग, द्वेष और मोह रूपी दोषों की निवृत्ति, दोषों की निवृत्ति से अर्ध एवं अर्ध रूप प्रवृत्ति की निवृत्ति से पुनर्जन्म का अभाव और पुनर्जन्म के अभाव से समस्त दु:खों से आत्यंतिक मुक्ति होती है। जैसा कि गौतम ने कहा है :
दु:ख जन्मप्रवृत्तिदोष मिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनंतरा पायादप वर्ग:। (न्या.सू., अ. 1 आ. 1 सूत्र 2)
जिन पदार्थों के तत्त्वज्ञान से मोक्ष होता है उनकी संख्या इस शास्त्र में सोलह मानी गई है; उनके नाम ये हैं : प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान।
न्यायशास्त्र के भेद
भारतीय वाङ्मय में न्यायशास्त्र के दो भेद माने जाते हैं- वैदिक न्याय और अवैदिक न्याय। अवैदिक न्याय में बौद्ध न्याय तथा जैन न्याय का समावेश है। वैदिक न्याय में – वैशेषिक न्याय, सांख्य, योग न्याय, पूर्व मीमांसा तथा उत्तर मीमांसा न्याय का समावेश है, किंतु न्यायशास्त्र के नाम से अक्षपाद गौतम के न्यायसूत्र तथा उनके आधार पर निर्मित समस्त प्राचीन अर्वाचीन साहित्य को ही अभिहित किया जाता है।
वैदिक एवं अवैदिक न्याय में अन्तर
वैदिक न्याय में वेद को अकाट्य प्रमाण माना जाता है, किंतु भारतवर्ष में ऐसे भी न्यायशास्त्र प्रचलित हैं, जिन्हें “बौद्धन्याय” और “जैनन्याय” शब्द से व्यवहृत किया जाता है। इन न्यायशास्त्रों में वेद के प्रमाणत्व का बड़े अभिनिवेश से खंडन किया है और इन की अधिकतर मान्यताएँ वैदिक न्याय से अत्यंत विरुद्ध हैं; किंतु यह होने पर भी ये अपने विकास के लिए वैदिक न्याय के निश्चित रूप से अधमर्ण हैं। यद्यपि इन दोनों के साथ चिर संघर्ष के फलस्वरूप वैदिक न्याय का भी पर्याप्त विकास और परिष्कार हुआ है तथापि उसका एक अपना मौलिक रूप भी है जो इनसे नितांत अप्रभावित है, जब कि इन अवैदिक न्यायों के संबंध में ऐसा प्रतीत होता है कि इस की मौलिकता भी वैदिक न्याय से पूर्ण प्रभावित है। 400 ई. से 1200 ई. तक का काल अवैदिक न्याय के उत्कर्ष का काल माना जाता है।
न्याय का प्रादुर्भाव
न्याय शास्त्र का भारतवर्ष में कब प्रादुर्भाव हुआ ठीक नहीं कहा जा सकता। नैयायिकों में जो प्रवाद प्रचलित हैं उन के अनुसार गौतम वेदव्यास के समकालीन ठहरते हैं; पर इस का कोई प्रमाण नहीं है। ‘आन्वीक्षिकी‘, ‘तर्कविद्या‘, ‘हेतुवाद‘ का निदापूर्वक उल्लेख रामायण और महाभारत में मिलता है। रामायण में तो नैयायिक शब्द भी अयोध्याकांड में आया है। पाणिनि ने न्याय से नैयायिक शब्द बनने का निर्देश किया है।
न्याय के प्रादुर्भाव के संबंध में साधारणतः दो प्रकार के मत पाए जाते हैं-
कुछ पाश्चात्य विद्वानों की धारणा है कि बौद्ध धर्म का प्रचार होने पर उसके खण्डन के लिये ही इस शास्त्र का अभ्युदय हुआ।
पर कुछ भारतीय विद्वानों का मत हे कि वैदिक वाक्यों के परस्पर समन्वय और समाधान के लिये जैमिनि ने पूर्वमीमांसा में जिन युक्तियों और तर्कों का ब्यवहार किया वे ही पहले न्याय के नाम से कहे जाते थे।
आपस्तंब धर्मसूत्र में जो न्याय शब्द आया है उसका पूर्वमीमांसा से ही अभिप्राय समझना चाहिए। माधवाचार्य ने पूर्वमीमांसा का जो सारसंग्रह लिखा उसका नाम
‘न्यायमाला-विस्तार’ रखा।
वाचस्पति मिश्र ने भी ‘न्यायकणिका’ के नाम से मीमांसा पर एक ग्रंथ लिखा है। पर न्याय के प्राचीनत्व से बंगाल का गौरव समझनेवाले कुछ बंगाली पंडितों का कथन है कि न्याय ही सब दर्शनों में प्राचीन है क्योंकि और सब दर्शनसूत्रों में दूसरे दर्शनों का उल्लेख मिलता है पर न्यायसूत्रों में कहीं किसी दूसरे दर्शन का नाम नहीं आया है। यद्यपि यह नहीं कहा जा सकता कि न्याय सब दर्शनों में प्राचीन है, पर इतना अवश्य कह सकते हैं कि तर्क के नियम बौद्ध धर्म के प्रचार से बहुत पूर्व प्रचलित थे, चाहे वे मीमांसा के रहे हों या स्वतंत्र।
हेमचंद्र ने न्यायसूत्रों पर भाष्य रचनेवाले वात्स्यायन और चाणक्य को एक ही व्यक्ति माना है। यदि यह ठीक हो तो भाष्य ही बौद्ध-धर्म-प्रचार के पूर्व का ठहरता है। क्योंकि बौद्ध धर्म का प्रचार अशोक के समय से और बौद्ध न्याय का आविर्भाव अशोक के भी पीछे महायान शाखा स्थापित होने पर हुआ। पर वात्स्यायन और चाणक्य का एक होना हेमचँद्र के श्लोक (जिसमें चाणक्य के आठ नाम गिनाए गए है) के आधार पर ही ठीक नहीं माना जा सकता। कुछ विद्वानों का कथन है कि वात्स्यायन ईसा की पाँचवीं शताब्दी में हुए। ईसा की छठी शताब्दी में वासवदत्ताकार सुबन्धु ने मल्लनाग, न्यायस्थिति, धर्मकीर्ति और उद्योतकर इन चार नैयायिकों का उल्लेख किया है। इनमें धर्मकीर्ति प्रसिद्ध बौद्ध नैयायिक थे। उद्योतकराचार्य ने प्रसिद्ध बौद्ध नैयायिक दिङ्नागाचार्य के ‘प्रमाणसमुच्चय’ नामक ग्रंथ का खण्डन करके वात्स्यायन का मत स्थापित किया। ‘प्रमाणसमुच्चय’ में दिङ्नाग ने वात्स्यायन के मत का खंडन किया था। इससे यह निश्चित है कि वात्स्यायन दिङ्नाग के पूर्व हुए। मल्लिनाथ ने दिङ्नाग को कालिदास का समकालीन बतलाया है, पर कुछ लोग इसे ठीक नहीं मानते और दिङ्नाग का काल ईसा की तीसरी शताब्दी कहते हैं। सुबन्धु के उल्लेख से दिङ्नागाचार्य का ही काल छठी शताब्दी के पूर्व ठहरता है अतः वात्स्यायन को जो उनसे भी पूर्व हुए पाँचवीं शताब्दी में मानना ठीक नहीं। वे उससे पहले हुए होंगे। वात्स्यायन ने दशावयवादी नैयायिकों का उल्लेख किया है, इससे सिद्ध है कि उनके पहले से भाष्यकार नैयायिकों की परम्परा चली आती थी। अस्तु, सूत्रों की रचना का काल बौद्ध धर्म के प्रचार के पूर्व मानना पड़ता है। वैदिक, बौद्ध और जैन नैयायिकों के बीच विवाद ईसा की पाँचवीं शताब्दी से लेकर १३ वीं शताब्दी तक बराबर चलता रहा। इससे खण्डन मण्डन के बहुत से ग्रंथ बने। १४वीं शताब्दी में गंगेशोपाध्याय हुए जिन्होंने ‘नव्यन्याय’ की नींव डाली।
परिचय
गौतम का न्याय केवल प्रमाण, तर्क आदि के नियम निश्चित करनेवाला शास्त्र नहीं है बल्कि आत्मा, इंद्रिय, पुनर्जन्म, दुःख अपवर्ग आदि विशिष्ट प्रमेयों का विचार करनेवाला दर्शन है। गौतम ने सोलह पदार्थों का विचार किया है और उनके सम्यक् ज्ञान द्वारा अपवर्ग या मोक्ष की प्राप्ति कही है। सोलह पदार्थ या विषय ये हैं – प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान। इन विषयों पर विचार किसी मध्यस्थ के सामने बादी प्रतिवादी के कथोपकथन के रूप में कराया गया है।
किसी विषय में विवाद उपस्थित होने पर पहले इसका निर्णय आवश्यक होता है कि दोनों वादियों के कौन कौन प्रमाण माने जायँगे। इससे पहले ‘प्रमाण‘ लिया गया है। इसके उपरान्त विवाद का विषय अर्थात् ‘प्रमेय‘ का विचार हुआ है। विषय सूचित हो जाने पर मध्यस्त के चित्त में संदेह उत्पन्न होगा कि उसका यथार्थ स्वरुप क्या है। उसी का विचार ‘संशय‘ या ‘संदेह‘ पदार्थ के के नाम से हुआ है। संदेह के उपरान्त मध्यस्थ के चित्त में यह विचार हो सकता है कि इस विषय के विचार से क्या मतलब। यही ‘प्रयोजन‘ हुआ। वादी संदिग्ध विषय पर अपना पक्ष दृष्टान्त दिखाकर बदलाता है, वही ‘दृष्टान्त‘ पदार्थ है। जिस पक्ष को वादी पुष्ट करके बतलाता है वह उसका ‘सिद्धान्त‘ हुआ। वादी का पक्ष सूचित होने पर पक्षसाधन की जो जो युक्तियाँ कही गई हैं प्रतिवादी उनके खण्ड खण्ड करके उनके खण्डन में प्रवृत्त होता है। युक्तियों की खंडित देख वादी फिर से और युक्तियाँ देता है जिनसे प्रतिवादी की युक्तियों का उत्तर हो जाता है। यही ‘तर्क‘ कहा गया है। तर्क द्वारा पंचावयवयुक्त युक्तियों का कथन ‘वाद‘ कहा गया है। वाद या शास्त्रार्थ द्वारा स्थिर सत्य पक्ष को न मानकर यदि प्रतिवादी जीत की इच्छा से अपनी चतुराई के बल से व्यर्थ उत्तर प्रत्युत्तर करता चला जाता है तो वह ‘जल्प‘ कहलाता है। इस प्रकार प्रतिवादी कुछ काल तक तो कुछ अच्छी युक्तियाँ देता जायगा फिर ऊटपटाँग बकने लगेगा जिसे ‘वितण्डा‘ कहते हैं। इस वितण्डा में जितने हेतु दिए जायँगे वे ठीक न होंगे, वे ‘हेत्वाभास‘ मात्र होंगे। उन हेतुओं और युक्तियों के अतिरिक्त जान बूझकर वादी को घबराने के लिये उसके वाक्यों का ऊटपटाँग अर्थ करके यदि प्रतिवादी गड़बड़ डालना चाहता है तो वह उसका ‘छल‘ कहलाता है और यदि व्याप्तिनिरपेक्ष साधर्म्य वैधर्म्य आदि के सहारे अपना पक्ष स्थापित करने लगता है तो वह ‘जाति‘ में आ जाता है। इस प्रकार होते होते जब शास्त्रार्थ में यह अवस्था आ जाती है कि अब प्रतिवादी को रोककर शास्त्रार्थ बन्द किया जाय तब ‘निग्रहस्थान‘ कहा जाता है।
न्याय का मुख्य विषय है प्रमाण । ‘प्रमा’ नाम है यथार्थ ज्ञान का । यथार्थ ज्ञान का जो करण हो अर्थात् जिसके द्वारा यथार्थ ज्ञान हो उसे प्रमाण कहते हैं। विभिन्न दर्शनों में प्रमाणों की संख्या अलग-अलग है। गौतम ने चार प्रमाण माने हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द ।
• सामाजिक न्याय
• न्यायशास्त्र (Jurisprudence)
• न्यायशास्त्र (भारतीय)
• न्याय (बहुविकल्पी)
• मारपीट का अपराध में सज़ा व कानून
• पुलिस गिरफ्तारी पर आपका कानूनी अधिकार
• पुलिस FIR नहीं लिखे तो आपका कानूनी अधिकार
• न्याय क्या है न्याय की परिभाषा
• न्याय की विशेषताएं
• न्याय के मूल आधार
सामाजिक न्याय
एक विचार के रूप में सामाजिक न्याय (social justice) की बुनियाद सभी मनुष्यों को समान मानने के आग्रह पर आधारित है। इसके मुताबिक किसी के साथ सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक पूर्वर्ग्रहों के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए। हर किसी के पास इतने न्यूनतम संसाधन होने चाहिए कि वे ‘उत्तम जीवन’ की अपनी संकल्पना को धरती पर उतार पाएँ। विकसित हों या विकासशील, दोनों ही तरह के देशों में राजनीतिक सिद्धांत के दायरे में सामाजिक न्याय की इस अवधारणा और उससे जुड़ी अभिव्यक्तियों का प्रमुखता से प्रयोग किया जाता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उसका अर्थ हमेशा सुस्पष्ट ही होता है। सिद्धांतकारों ने इस प्रत्यय का अपने-अपने तरीके से इस्तेमाल किया है। व्यावहारिक राजनीति के क्षेत्र में भी, भारत जैसे देश में सामाजिक न्याय का नारा वंचित समूहों की राजनीतिक गोलबंदी का एक प्रमुख आधार रहा है। उदारतावादी मानकीय राजनीतिक सिद्धांत में उदारतावादी-समतावाद से आगे बढ़ते हुए सामाजिक न्याय के सिद्धांतीकरण में कई आयाम जुड़ते गये हैं। मसलन, अल्पसंख्यक अधिकार, बहुसंस्कृतिवाद, मूल निवासियों के अधिकार आदि। इसी तरह, नारीवाद के दायरे में स्त्रियों के अधिकारों को ले कर भी विभिन्न स्तरों पर सिद्धांतीकरण हुआ है और स्त्री-सशक्तीकरण के मुद्दों को उनके सामाजिक न्याय से जोड़ कर देखा जाने लगा है।
यद्यपि एक विचार के रूप में विभिन्न धर्मों की बुनियादी शिक्षाओं में सामाजिक न्याय के विचार को देखा जा सकता है, लेकिन अधिकांश धर्म या सम्प्रदाय जिस व्यावहारिक रूप में सामने आये या बाद में जिस तरह उनका विकास हुआ, उनमें कई तरह के ऊँच-नीच और भेदभाव जुड़ते गये।
समाज-विज्ञान में सामाजिक न्याय का विचार
उत्तर-ज्ञानोदय काल में सामने आया और समय के साथ अधिकाधिक परिष्कृत होता गया। क्लासिकल उदारतावाद ने मनुष्यों पर से हर तरह की पुरानी रूढ़ियों और परम्पराओं की जकड़न को ख़त्म किया और उसे अपने मर्जी के हिसाब से जीवन जीने के लिए आज़ाद किया। इसके तहत हर मुनष्य को स्वतंत्रता देने और उसके साथ समानता का व्यवहार करने पर ज़ोर ज़रूर था, लेकिन ये सारी बातें औपचारिक स्वतंत्रता या समानता तक ही सिमटी हुई थीं। बाद में उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में कई उदारतावादियों ने राज्य के हस्तक्षेप द्वारा व्यक्तियों की आर्थिक भलाई करने और उन्हें अपनी स्वतंत्रता को उपभोग करने में समर्थ बनाने की वकालत की। कई यूटोपियाई समाजवादियों ने भी एक ऐसे समाज की कल्पना की जहाँ आर्थिक, सामाजिक या सांस्कृतिक आधार पर लोगों के साथ भेदभाव न होता हो। स्पष्टतः इन सभी विचारों में सामाजिक न्याय के प्रति गहरा सरोकार था। इसके बावजूद मार्क्स ने इन सभी विचारों की आलोचना की और ज़ोर दिया कि न्याय जैसी अवधारणा की आवश्यकता पूँजीवाद के भीतर ही होती है क्योंकि इस तरह की व्यवस्था में उत्पादन के साधनों पर कब्ज़ा जमाये कुछ लोग बहुसंख्यक सर्वहारा का शोषण करते हैं। उन्होंने क्रांति के माध्यम से एक ऐसी व्यवस्था कायम करने का लक्ष्य रखा जहाँ हर कोई अपनी क्षमता के अनुसार काम करने और अपनी आवश्यकता के अनुसार चीज़ें हासिल करने की परिस्थितियाँ प्राप्त हों। लेकिन बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में मार्क्सवाद और उदारतावाद का जो व्यावहारिक रूप सामने आया, वह उनके आश्वासनों जैसा न हो कर विकृत था। मार्क्सवाद से प्रेरित रूसी क्रांति के कुछ वर्षों बाद ही स्तालिनवाद की सर्वसत्तावादी संरचनाएँ उभरने लगीं। वहीं उदारतावाद और पूँजीवाद ने आंतरिक जटिलताओं के कारण दुनिया को दो विश्व-युद्धों, महामंदी, फ़ासीवाद और नाज़ीवाद जैसी भीषणताओं में धकेल दिया। पूँजीवाद को संकट से उबारने के लिए पूँजीवादी देशों में क्लासिकल उदारतावादी सूत्र से लेकर कींसवादी नीतियों तक हर सम्भव उपाय अपनाने की कोशिश की गयी। इस पूरे संदर्भ में सामाजिक न्याय की बातें नेपथ्य में चली गयीं या सिर्फ़ इनका दिखावे के तौर पर प्रयोग किया गया। इसी दौर में उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ चलने वाले संघर्षों में मानव-मुक्ति और समाज के कमज़ोर तबकों के हकों आदि की बातें ज़ोरदार तरीके से उठायी गयीं। ख़ास तौर पर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सभी तबकों के लिए सामाजिक न्याय के मुद्दे पर गम्भीर बहस चली। इस बहस से ही समाज के वंचित तबकों के लिए संसद एवं नौकरियों में आरक्षण, अल्पसंख्यकों को अपनी आस्था के अनुसार अधिकार देने और अपनी भाषा का संरक्षण करने जैसे प्रावधानों पर सहमति बनी। बाद में ये सहमतियाँ भारतीय संविधान का भाग बनीं।
इसी के साथ-साथ मानकीय उदारतावादी सिद्धांत में राज्य द्वारा समाज के कुछ तबकों की भलाई या कल्याण के लिए ज़्यादा आय वाले लोगों पर टैक्स लगाने का मसला विवादास्पद बना रहा। कींस ने पूँजीवाद को मंदी से उबारने के लिए राज्य के हस्तक्षेप के ज़रिये रोज़गार पैदा करने के प्रावधानों का सुझाव दिया, लेकिन फ़्रेड्रिख़ वान हायक, मिल्टन फ़्रीडमैन और बाद में रॉबर्ट नॉज़िक जैसे विद्वानों ने आर्थिक गतिविधियों में राज्य के हस्तक्षेप की आलोचना की। इन लोगों का मानना था कि इससे व्यक्ति की स्वतंत्रता और आर्थिक आज़ादी को चोट पहुँचती है। जॉन रॉल्स ने 1971 में अपनी किताब अ थियरी ऑफ़ जस्टिस में ताकतवर दलीलें दीं आख़िर क्यों समाज के कमज़ोर तबकों की भलाई के लिए राज्य को सक्रिय हस्तक्षेप करना चाहिए। अपनी थियरी में रॉल्स शुद्ध प्रक्रियात्मक न्याय की अवधारणा प्रस्तुत करते हुए वितरणमूलक न्याय के लक्ष्य को हासिल करने की कोशिश करते हुए दिखाई देते हैं। अपने न्याय के सिद्धांत में उन्होंने हर किसी को समान स्वतंत्रता के अधिकार की तरफ़दारी की। इसके साथ ही भेदमूलक सिद्धांत के माध्यम से यह स्पष्ट किया कि सामाजिक और आर्थिक अंतरों को इस तरह समायोजित किया जाना चाहिए कि इससे सबसे वंचित तबके को सबसे ज़्यादा फ़ायदा हो।
बाद के वर्षों में रॉल्स के सिद्धांत की कई आलोचनाएँ भी सामने आयीं, जो दरअसल सामाजिक न्याय के संदर्भ कई नये आयामों का प्रतिनिधित्व करती थीं। इस संदर्भ में समुदायवादियों और नारीवादियों की द्वारा की गयी आलोचनाओं का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है। समुदायवादियों ने सामान्य तौर पर उदारतावाद और विशेष रूप से रॉल्स के सिद्धांत की इसलिए आलोचना की कि इसमें व्यक्ति की अणुवादी संकल्पना पेश किया गया है। रॉल्स जिस व्यक्ति की संकल्पना करते हैं वह अपने संदर्भ और समुदाय से पूरी तरह कटा हुआ है। बाद में, 1980 के दशक के आख़िरी वर्षों में, उदारतावादियों ने समुदायवादियों की आलोचनाओं को उदारतावाद के भीतर समायोजित करने की कोशिश की जिसके परिणाम स्वरूप बहुसंस्कृतिवाद की संकल्पना सामने आयी। इसमें यह माना गया कि अल्पसंख्यक समूहों के साथ वास्तविक रूप से तभी न्याय हो सकता है, जब उन्हें अपनी संस्कृति से जुड़े विविध पहलुओं की हिफ़ाज़त करने और उन्हें सार्वजनिक रूप से अभिव्यक्त करने की आज़ादी मिले। इसके लिए यह ज़रूरी है कि इनके सामुदायिक अधिकारों को मान्यता दी जाए। इस तरह सैद्धांतिक विमर्श के स्तर पर बहुसंस्कृतिवाद ने सामाजिक न्याय की अवधारणा में एक नया आयाम जोड़ा।
यहाँ उल्लेखनीय है कि साठ के दशक से ही पश्चिम में नारीवादी आंदोलन, नागरिक अधिकार आंदोलन, गे, लेस्बियन और ट्रांस-जेंडर आंदोलन और पर्यावरण आंदोलन आदि उभरने लगे थे। बाद के दशकों में इनका प्रसार ज़्यादा बढ़ा और इन्होंने सैद्धांतिक विमर्श को भी गहराई प्रदान की। मसलन, नारीवादियों ने उदारतावाद और रॉल्सवादी रूपरेखा की आलोचना की। अपने विश्लेषण द्वारा उन्होंने पितृसत्ता को नारीवादियों के समान हक के रास्ते में सबसे बड़ी रुकावट के रूप में रेखांकित किया। इसी तरह, गे, लेस्बियन और ट्रांस- जेंडर लोगों ने समाज में ‘सामान्य’ या ‘नार्मल’ की वर्चस्वी रूपरेखा पर सवाल उठाया और अपने लिए समान स्थिति की माँग की। नागरिक अधिकार आंदोलनों द्वारा पश्चिम में, ख़ास तौर पर अमेरिकी समाज में काले लोगों ने अपने लिए बराबरी की माँग की। मूल निवासियों ने भी अपने सांस्कृतिक अधिकारों की माँग करते हुए बहुत सारे आंदोलन किये हैं। बहुसंस्कृतिवादियों ने अपनी सैद्धांतिक रूपरेखा में इन सभी पहलुओं को समेटने की कोशिश की है। इन सभी पहलुओं ने सामाजिक न्याय के अर्थ में कई नये आयाम जोड़े हैं। इससे स्पष्ट होता है कि विविध समूहों के लिए सामाजिक न्याय का अलग-अलग अर्थ रहा है।
असल में विकासशील समाजों में पश्चिमी समाजों की तुलना में सामाजिक न्याय ज़्यादा रैडिकल रूप में सामने आया है। मसलन, दक्षिण अफ़्रीका में अश्वेत लोगों ने रंगभेद के ख़िलाफ़ और सत्ता में अपनी हिस्सेदारी के लिए ज़ोरदार संघर्ष किया। इस संघर्ष की प्रकृति अमेरिका में काले लोगों द्वारा चलाये गये संघर्ष से इस अर्थ में अलग थी कि दक्षिण अफ़्रीका में काले लोगों को ज़्यादा दमनकारी स्थिति का सामना करना पड़ रहा था। इस संदर्भ में भारत का उदाहरण भी उल्लेखनीय है। बहुसंस्कृतिवाद ने जिन सामुदायिक अधिकारों पर जोर दिया उनमें से कई अधिकार भारतीय संविधान में पहले से ही दर्ज हैं। लेकिन यहाँ सामाजिक न्याय वास्तविक राजनीति में संघर्ष का नारा बन कर उभरा। मसलन, भीमराव आम्बेडकर और उत्पीड़ित जातियों और समुदायों के कई नेता समाज के हाशिये पर पड़ी जातियों को शिक्षित और संगठित होकर संघर्ष करते हुए अपने न्यायपूर्ण हक को हासिल करने की विरासत रच चुके थे। इसी तरह पचास और साठ के दशक में राममनोहर लोहिया ने इस बात पर जोर दिया कि पिछड़ों, दलितों, अल्पसंख्यकों और स्त्रियों को एकजुट होकर सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष करना चाहिए। लोहिया चाहते थे कि ये समूह एकजुट होकर सत्ता और नौकरियों में ऊँची जातियों के वर्चस्व को चुनौती दें। इस पृष्ठभूमि के साथ नब्बे के दशक के बाद सामाजिक न्याय भारतीय राजनीति का एक प्रमुख नारा बनता चला गया। इसके कारण अभी तक सत्ता से दूर रहे समूहों को सत्ता की राजनीति के केंद्र में आने का मौका मिला। ग़ौरतलब है कि भारत में भी पर्यावरण के आंदोलन चल रहे हैं। लेकिन ये लड़ाइयाँ स्थानीय समुदायों के अपने ‘जल, जंगल और जमीन’ के संघर्ष से जुड़ी हुई हैं। इसी तरह विकासशील समाजों में अल्पसंख्यक समूह भी अपने ख़िलाफ़ पूर्वग्रहों से लड़ते हुए अपने लिए ज़्यादा बेहतर सुविधाओं की माँग कर रहे हैं। इस अर्थ में सामाजिक न्याय का संघर्ष लोगों के अस्तित्व और अस्मिता से जुड़ा हुआ संघर्ष है।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि सामाजिक न्याय के नारे ने विभिन्न समाजों में विभिन्न तबकों को अपने लिए गरिमामय ज़िंदगी की माँग करने और उसके लिए संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया है। सैद्धांतिक विमर्श में भी यूटोपियाई समाजवाद से लेकर वर्तमान समय तक सामाजिक न्याय में बहुत सारे आयाम जुड़ते गये हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि विकसित समाजों की तुलना में विकासशील समाजों में सामाजिक न्याय का संघर्ष बहुत जटिलताओं से घिरा रहा है। अधिकांश मौकों पर इन समाजों में लोगों को सामाजिक न्याय के संघर्ष में बहुत ज़्यादा संरचात्मक हिंसा और कई मौकों पर राज्य की हिंसा का भी सामना करना पड़ा है। लेकिन सामाजिक न्याय के लिए चलने वाले संघर्षों के कारण इन समाजों में बुनियादी बदलाव हुए हैं। कुल मिला कर समय के साथ सामाजिक न्याय के सिद्धांतीकरण में कई नये आयाम जुड़े हैं और एक संकल्पना या नारे के रूप में इसने लम्बे समय तक ख़ामोश या नेपथ्य में रहने वाले समूहों को भी अपने के लिए जागृत किया है।
प्राकृतिक न्याय
प्राकृतिक न्याय (Natural justice) न्याय सम्बन्धी एक दर्शन है जो कुछ विधिक मामलों में न्यायपूर्ण (just) या दोषरहित (fair) प्रक्रियाएं निर्धारित करने एवं उन्हे अपनाने के लिये उपयोग की जाती है। यह प्राकृतिक विधि के सिद्धान्त से बहुत नजदीक सम्बन्ध रखती है।
आम कानून में ‘प्राकृतिक न्याय’ दो विशिष्ट कानूनी सिद्धांतों को संदर्भित करता है-
1) कोई भी व्यक्ति अपने ही मामले में न्यायधीश या निर्णायक नही रहेगा।
2) दूसरे पक्ष की दलील को सुने बिना निर्णय नही दिया जायेगा।
वैशेषिक दर्शन की ही भांति न्यायदर्शन में भी पदार्थों के तत्व ज्ञान से निःश्रेयस् की सिद्धि बतायी गयी है।
न्यायदर्शन में प्रमाण आदि १६ पदार्थ माने गये हैं, जिनमें ‘प्रमेय’ के अन्तर्गत वैशेषिक दर्शन के सभी छः या सात पदार्थ सम्मिलित कर लिये गये हैं।
१. प्रमाण – ये मुख्य चार हैं – प्रत्यक्ष , अनुमान , उपमान एवं शब्द।
२. प्रमेय – ये बारह हैं – आत्मा, शरीर, इन्द्रियाँ, अर्थ , बुद्धि / ज्ञान / उपलब्धि , मन, प्रवृत्ति , दोष, प्रेतभाव , फल, दुःख और अपवर्ग।
३. संशय
४. प्रयोजन
५. दृष्टान्त
६. सिद्धान्त – चार प्रकार के है : सर्वतन्त्र सिद्धान्त , प्रतितन्त्र सिद्धान्त, अधिकरण सिद्धान्त और अभुपगम सिद्धान्त।
७. अवयव
८. तर्क
९. निर्णय
१०. वाद
११. जल्प
१२. वितण्डता
१३. हेत्वाभास – ये पांच प्रकार के होते हैं : सव्यभिचार, विरुद्ध, प्रकरणसम, साध्यसम और कालातीत।
१४. छल – वाक् छल , सामान्य छल और उपचार छल।
१५. जाति
१६. निग्रहस्थान
।। हरि ॐ तत् सत् ।। गीता विशेष भाग 8, – 16.15 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)