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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  16.15 II

।। अध्याय      16.15 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 16.15

आढयोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया ।

यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः॥

“āḍhyo ‘bhijanavān asmi

ko ‘nyo ‘sti sadṛśo mayā

yakṣye dāsyāmi modiṣya

ity ajñāna-vimohitāḥ”

भावार्थ: 

आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य सोचते रहते हैं कि मैं सबसे धनी हूँ, मेरा सम्बन्ध बड़े कुलीन परिवार से है, मेरे समान अन्य कौन है? मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और इस प्रकार मै जीवन का मजा लूँगा, इस प्रकार आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य अज्ञानवश मोहग्रस्त होते रहते हैं। (१५)

Meaning:

I am wealthy, I am from a good family, who else is equal to me? I will conduct sacrifice, I will enjoy. In this manner, he is deluded by ignorance.

Explanation:

In the last shloka, we saw the mindset of those who derive pride from their power. Here Shri Krishna describes the mindset of people who derive pride from other things such as wealth and family. An excess of wealth, especially for those who did not come from wealthy families, is the most common source of pride. Such people boast about their latest expensive toy, their net worth, their membership in elite clubs and so on. They are only interested in consumption and enjoyment.

In most cases, when people say “I,” it is their ego speaking, not them. The ego contains personal identifications with opinions, external appearances, resentments, etc. This ego builds a personality of its own, and under its sway, people identify with thoughts, emotions, and bundles of memories, which they see as integral parts of themselves. The ego identifies with owning, but the satisfaction of having is usually short-lived. Concealed within it is a deep-rooted dissatisfaction of “not enough.” This unfulfilled want results in unease, restlessness, boredom, anxiety, and dissatisfaction. Consequently, a much-distorted perception of reality is created, which further alienates their perception of “I” from the real self.

Others derive pride from their ancestry and their lineage. For some, this pride comes from the fact that their ancestors were kings or landowners. For some, this pride comes from the fact that everyone in their family has always been a doctor or a lawyer. Some others even boast about the number of sacrifices they have conducted and amount of charity they have donated. Instead of charity and sacrifice leading to purification of one’s mind, such grandiose spectacles have gaining publicity and favours as their goal.

These are the thoughts of the materialistic people. I am the richest person, and my name occurs in Forbes magazine list.  I belong a noble family, a noble birth; so therefore, he talks about his great grandfather; great great grandfather. so, he only talks about the parampara strongly, abhivādaye is forgotten, he only talks about the great parampara, he has not done anything to preserve this wonderful culture, what a culture which has started from millennia before, all of them have been surrendered at the altar of money-hunt.

Bhr̥thari in his Vairāgya ṣaṭakam looks back: Oh Lord in search money what all I did; I dug all part of earth, hoping to get some wealth from ground; I went in search of all types of ores, to extract the metals, gold, silver, etc.  I went all round the globe in search of the wealth and for this travel, I have to please so many bureaucrats and politicians and counsels and all types of people; I did not propitiate the devathas and gods; I propitiated all these arrogant human beings. pradakṣina, namaskarā, and dakṣiṇā, take them to the hotels and gave them all kinds of treats. What all should not have eaten, I eat, all for the purpose of business promotion. I went to even the black money people to destroy, eat all kinds of things which are banned in the religion, what all should not be drunk, eaten, everything I did contrarily in concentrated form. At least am I happy now; at the far end of my life; I have not improved anything at all; only losing the culture and tradition; is only the thing that happens. You read Bhr̥thari, you will feel like running away; so powerful is his writing.

If we were to summarize the attitude in these three shlokas, it is this – no one is equal to me. I am superior to everyone else. So, the net result is the strengthening, the hardening of the I notion, the ego, the aham. Each step taken towards the ego is one step taken away from self-realization. There is no scope for detachment or renunciation. Attachment grows by leaps and bounds in such people. The root cause of all this is ignorance of one’s true nature.

।। हिंदी समीक्षा ।।

जिसे ज्ञान प्राप्त है, वह जानता है कि जीवन नित्य नही है, जो कुछ उस के पास है, वह प्रकृति और ईश्वर प्रदत्त और लोक कल्याण के लिए है, इसलिए वह स्वामी की बजाए, उस के सदुपयोग का दायित्व भाव में रहता है और विन्रम रहता है। किंतु अज्ञानी का व्यवहार किस प्रकार का है, उसे बताते हुए भगवान कहते है।

ज़्यादातर मामलों में, जब लोग “मैं” कहते हैं, तो यह उनका अहंकार बोल रहा होता है, वे नहीं। अहंकार में राय, बाहरी दिखावे, नाराज़गी आदि के साथ व्यक्तिगत पहचान होती है। यह अहंकार अपना खुद का व्यक्तित्व बनाता है, और इसके प्रभाव में, लोग विचारों, भावनाओं और यादों के बंडलों से पहचान करते हैं, जिन्हें वे खुद के अभिन्न अंग के रूप में देखते हैं। अहंकार स्वामित्व के साथ पहचान करता है, लेकिन होने की संतुष्टि आमतौर पर अल्पकालिक होती है। इसके भीतर “पर्याप्त नहीं” का गहरा असंतोष छिपा हुआ है। इस अधूरी इच्छा के परिणामस्वरूप बेचैनी, बेचैनी, ऊब, चिंता और असंतोष होता है। नतीजतन, वास्तविकता की एक बहुत विकृत धारणा बनाई जाती है, जो वास्तविक स्वयं से “मैं” की उनकी धारणा को और भी दूर कर देती है।

ये भौतिकवादी लोगों के विचार हैं। मैं सबसे अमीर व्यक्ति हूँ और मेरा नाम फोर्ब्स पत्रिका की सूची में है। मैं एक कुलीन परिवार से हूँ, एक कुलीन जन्म; इसलिए वह अपने परदादा के बारे में बात करता है; परदादा के परदादा। इसलिए वह केवल परंपरा के बारे में दृढ़ता से बात करता है, अभिवादे को भुला दिया जाता है, वह केवल महान परंपरा के बारे में बात करता है, उसने इस अद्भुत संस्कृति को संरक्षित करने के लिए कुछ नहीं किया है, यह कैसी संस्कृति है जो सहस्राब्दियों पहले से शुरू हुई है, उन सभी को धन-शिकार की वेदी पर आत्मसमर्पण कर दिया गया है।

भृतहरि अपने वैराग्य शतकम् में पीछे मुड़कर देखते हैं और कहते है: “हे प्रभु, धन की खोज में मैंने क्या-क्या नहीं किया; मैंने धरती के सभी भागों को खोद डाला, इस आशा में कि जमीन से कुछ धन मिल जाएगा; मैं सभी प्रकार के अयस्कों की खोज में गया, ताकि धातु, सोना, चांदी आदि निकाल सकूं। मैं खोज में गया। मैं धन की खोज में पूरी दुनिया में घूमा और इस यात्रा के लिए मुझे बहुत से नौकरशाहों और राजनेताओं और सलाहकारों और सभी प्रकार के लोगों को प्रसन्न करना पड़ा; मैंने देवताओं और भगवानों को प्रसन्न नहीं किया; मैंने इन सभी अभिमानी मनुष्यों को प्रसन्न किया।  प्रदक्षिणा, नमस्कार, दक्षिणा, होटलों में ले जाकर उन्हें सब प्रकार के भोज दिए। जो नहीं खाना चाहिए था, वह भी खाया, सब व्यापार संवर्धन के लिए; मैं काले धन वालों को भी नष्ट करने गया, धर्म में वर्जित सब प्रकार की चीजें खाईं, जो नहीं पीना चाहिए, नहीं खाना चाहिए, सब कुछ मैंने एकाग्र रूप में जो करना चाहिए था, इस के विपरीत किया। कम से कम अब मैं खुश तो हूँ; जीवन के अंतिम चरण में, मैंने अपने जीवन में कुछ भी सुधार नहीं किया है और केवल संस्कृति और परंपरा को नहीं खो दिया, यही तो होता है। यदि भौतिकवादी लोग भृतहरि को पढ़ेंगे, तो उन  भी मन भाग जाने को करेगा; उन की लेखनी इतनी शक्तिशाली है।

अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः स्वयं धीराः पण्डितं मन्य७मानाः। जङ्घन्यमानाः परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः ॥

मुंडकोपनिषद में इन लोगो की आलोचना में कहा गया है: अविद्या’ के अन्दर बन्द रहने वाले ये लोग जो स्वयं को विद्वान् मानकर सोचते हैː ”हम भी विद्वान् तथा पण्डित हैं”, वस्तुतः मूढ हैं, तथा वे उसी प्रकार चोटें तथा ठोकरें खाते हुए भटकते हैं जैसे अन्धे के द्वारा ले जाया गया अन्धा।

आसुर स्वभाव वाले व्यक्ति अभिमान के परायण हो कर इस प्रकार के मनोरथ करते हैं, कितना सारा धन हमारे पास है कितना सारा सोना चाँदी, बड़ा सा मकान, दूसरा छोर भी न दिखे, ऐसा खेत- जमीन हमारे पास है कितने अच्छे आदमी, ऊँचे पदाधिकारी हमारे पक्षमें हैं हम धन और जन के बलपर, रिश्वत और सिफारिश के बल पर जो चाहें, वही कर सकते हैं। अक्सर वह पूछता रहता है कि आप इतने घूमे फिरे हो, आप को कई आदमी मिले होंगे पर आप बताओ, हमारे समान आपने कोई देखा है!

हम ऐसा यज्ञ करेंगे, ऐसा दान करेंगे कि सब पर टाँग फेर देंगे थोड़ा सा यज्ञ करने से, थोड़ा सा दान देने से,  थोड़े से ब्राह्मणों को भोजन कराने आदि से क्या होता है हम तो ऐसे यज्ञ, दान आदि करेंगे, जैसे आजतक किसी ने न किये हों। क्योंकि मामूली यज्ञ, दान करने से लोगों को क्या पता लगेगा कि इन्होंने यज्ञ किया, दान दिया। बड़े यज्ञ, दान से हमारा नाम अखबारों में निकलेगा। किसी धर्मशाला में मकान बनवायेंगे, तो उस में हमारा नाम खुदवाया जायेगा, जिस से हमारी यादगारी रहेगी। 

डींगें हाँकना एवम अपने किये को इस प्रकार बढ़ा चढ़ा कर बताना की स्वयं ब्रह्मा- विष्णु- महेश भी उस के सामने तुच्छ लगने लगे। हमारे पास कितना सुख है? आराम है। हमारे समान सुखी संसार में कौन है ऐसे व्यक्तियों के भीतर तो जलन होती रहती है? पर ऊपर से इस प्रकार की डींग हाँकते हैं।

वस्तुत: स्थिति यही है कि भौतिकवादी व्यक्ति सन्यास लेता है तो आश्रम खोलने के लिए, मंत्र, यज्ञ और पूजा करता है तो अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए, ज्ञान अर्जित करता है तो प्रसिद्ध होने के लिए और दान आदि करता है तो बड़प्पन और मान के लिए। यह लोग आज अपने चारों ओर है और इन्हें हम पहचान नहीं पाते क्योंकि हम भी इन्हे पूजते है या सम्मान देते है अपनी कामनाओं, लोभ और द्वेष की पूर्ति के लिए। मोक्ष के लिए कौन धर्म का पालन करता है?

हम कितने बड़े आदमी हैं हमें सब तरह से सब सामग्री सुलभ है अतः हम आनन्द से मौज करेंगे। इस प्रकार अभिमान को लेकर मनोरथ करनेवाले आसुर लोग केवल करेंगे, और वो सभी जो हम से सहमत है और हमारे समान विचार रखते है, वह सब करेंगे, ऐसा हम मनोरथ ही करते रहते हैं,  वास्तव में यह लोग करते कराते कुछ नहीं। वे करेंगे भी, तो वह भी नाममात्र के लिये करेंगे। कारण कि तेरहवें, चौदहवें और पन्द्रहवें श्लोक में वर्णित मनोरथ करने वाले आसुर लोग अज्ञान से मोहित रहते हैं अर्थात् मूढ़ता के कारण ही उन की ऐसे मनोरथवाली वृत्ति होती है।

अज्ञान एवम अभिमान के मद में यह भूल जाता है कि वह मृत्यु लोक का जीव मात्र है और उद्घोषित करता है कि मैं धन से सम्पन्न हूँ और वंश की अपेक्षा से अत्यन्त कुलीन हूँ अर्थात् सात पीढ़ियों से श्रोत्रिय आदि गुणों से सम्पन्न हूँ। धन और कुल में भी मेरे समान दूसरा कौन है। अर्थात् कोई नहीं है। मैं यज्ञ करूँगा अर्थात् यज्ञ द्वारा भी दूसरों का अपमान करूँगा, नट आदि को धन दूँगा और मोद  अतिशय हर्ष को प्राप्त होऊँगा। एक बार जब यक्ष में युद्धिष्ठर से प्रश्न किया था कि संसार का सब से बड़ा आश्चर्य क्या है? तो युद्धिष्ठर का जवाब था कि “जीव प्रति दिन अपने आस पास लोगो को जन्म और मृत्यु को प्राप्त होते देखता है फिर भी वह अहंकार में अपनी मृत्यु को भूल कर अपने को अमर मान कर मोह, लोभ, राग – द्वेष और अहंकार में जीवन व्यतीत कर देता है।” यह सब जानते है कि इस धरती पर खाली हाथ ही आयेथे और खाली हाथ ही जाना है, हम सब इस धरती में मेहमान है फिर भी काम वासना और धन  और धन संग्रह नहीं छूटता।

अज्ञान और उस से उत्पन्न विपरीत ज्ञान से मोहित तथा गर्व और मद से उन्मत्त आसुरी पुरुष जगत् की ओर इसी भ्रामक दृष्टि से देखता है। ऐसी स्थिति में स्वयं का तथा जगत् के साथ अपने संबंध का त्रुटिपूर्ण मूल्यांकन करना स्वाभाविक ही है। उसे अपने धन, वैभव और कुल का इतना अभिमान होता है कि वह अपने समक्ष सभी को तुच्छ समझता है। स्वयं ही समाज से बहिष्कृत होकर वह मिथ्या अभिमान के महल में रहता है और असंख्य प्रकार की मानसिक यातनाओं का कष्ट भी भोगता रहता है। उसकी महत्त्वाकांक्षा यह होती है कि यज्ञादि के द्वारा वह देवताओं पर भी शासन करे और दान के द्वारा सम्पूर्ण जगत् का क्रय कर ले। इस प्रकार, सम्मानित और पूजित होकर मैं मौज करूँगा। वे अज्ञान के गर्त में पड़े हुए आसुरी पुरुष के कुछ अत्यन्त विक्षिप्ततापूर्ण कथन हैं।

चने के झाड़ पर चढ़ कर बैठे यह लोग, अपने सामने किसी को भी उच्च नही देख सकते, अपनी बुराई नही सुन सकते, सिर्फ और सिर्फ अपनी बड़ाई करवाना और अपने मान सम्मान को पाना इन की कमजोरी है।

आसुरी वृति का इतना बारीक अध्ययन करने का उद्देश्य भी यही है कि हम अपने विचार, आचरण और कमजोरियों को सही पहचान सके और उसे दूर कर सके। इस से अच्छा और सशक्त व्यंग भी उन लोगो पर और क्या हो सकता है, जो भागवद पुराण, राम चरित मानस या रानी सती दादी के भजन, कीर्तन और यज्ञ करते है, तरह तरह के स्वांग रच कर नाटक करते है, बड़ी बड़ी पार्टियां और भव्य पंडाल सजाते है, सुनाने वाले की रुचि अपनी दक्षिणा में होती है, सुनने वाले की रुचि भोजन और नाच गाने में और आयोजन करने वालो की वाह वाह सुनने में। जब तक श्रद्धा, भक्ति, प्रेम, विश्वास और समर्पण नहीं है, यह आडंबर आसुरी वृति के अतिरिक्त कुछ भी नही। धन, ऐश्वर्य और प्रदर्शन से लोग भले ही लोग पूजे जा सकते हो, परमात्मा की पूजा तो प्रेम और श्रद्धा के फूल और पत्ती से हो जाती है।

यदि कहने मात्र से या असभ्य तरीके से धन उत्पन्न कर के सांसारिक सुखों में जीवन आनंदमय हो सकता हो, तो इतने विस्तृत ज्ञान की तलाश कौन करता। परमात्मा से विमुख हुए आसुरी सम्पदावालों को जीते जी अशान्ति, जलन, संताप आदि तो होते ही हैं, पर मरने पर उनकी क्या गति होती है, इस को आगे पढ़ते  हैं।

।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 16.15।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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