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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  16.14 II

।। अध्याय      16.14 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 16.14

असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि ।

ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी॥

“asau mayā hataḥ śatrur,

haniṣye cāparān api..।

īśvaro ‘ham ahaḿ bhogī,

siddho ‘haḿ balavān sukhī”..।।

भावार्थ: 

आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य सोचते रहते हैं कि वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और उन अन्य शत्रुओं को भी मैं मार डालूँगा, मैं ही भगवान हूँ, मैं ही समस्त ऐश्र्वर्य को भोगने वाला हूँ, मैं ही सिद्ध हूँ, मैं ही सबसे शक्तिशाली हूँ, और मैं ही सबसे सुखी हूँ। (१४)

Meaning:

That enemy was destroyed by me, others will also be destroyed. I am the lord, I am the enjoyer, I have accomplished everything. I am mighty and happy.

Explanation:

If someone harbours an endless list of desires, it is impossible for all of them to be fulfilled. So then, any person who becomes an obstacle to the fulfilment of a desire automatically becomes an enemy. For instance, if another business becomes a competitor to our business, we begin to treat them as enemies instead of improving our products. That leads to all kinds of unethical and illegal ways of getting rid of our competitors, all the way up to physical harm.

Now, many people rise to political power by knocking off their competitors. They begin to think they are above the law. And since they do not believe in god, they think that they themselves are gods, and that only they can control the fate of people. They can take the law into their own hands, because they believe they are the lawmakers. Pleasure and enjoyment is their only goal. Such is the thinking of gangsters, military dictators and criminals. In the Ramayana, Ravaana began to think like this, leading to his downfall.

Initially there may be some guilt; after some time, the heart gets benumbed that there will be no regret or guilt also. Therefore aparānapi, the others also I shall destroy. One I have destroyed all the competitors, I have got the monopoly in that field, I will be number No.1; nobody can come in front of me. aham Īśvaraḥ; a jñāni also says; jñāni is not an asura, aham Īśvaraḥ, I am the Lord; the king, I am the No.1, I am the one who will enjoy all the wealth; and the siddah; I am the most successful person, but how he attained success is a big question. Over how many dead bodies; he has attained success; he is glorified all those happens means what; successful.

The ego creates the biggest untruth in our lives and makes us believe what we are not. Thus, for progress along the saintly path, all the religious traditions and saints urge us to dismantle our egotistic thought patterns. The Tao Te Ching teaches: “Instead of trying to be the mountain, be the valley of the Universe.” [v6] (Chapter 6) Jesus of Nazareth also stated: “When you are invited, go and sit in the lowest place so that when the host comes, he may say to you, friend, move up higher. For everyone who exalts himself will be humbled, and everyone who humbles himself will be exalted.” (Luke 14:10-11) [v7].

Saint Kabir put this very nicely: “Water does not remain above; it naturally flows down. Those who are low and unassuming drink (God’s grace) to their heart’s content, while those who are high and pompous remain thirsty.”

Other materialistic people may not necessarily become dictators but try to project their power and arrogance wherever possible. They say things like they can pick up the phone and call the president of the country. They have accomplished everything there is to accomplish. There is no one mightier than them. They mistake this sense of power for happiness, because they have not experienced what real happiness is. Even a simple act of name dropping indicates a deeper obsession with materialism and power.

।। हिंदी समीक्षा ।।

एक बार जब अत्यधिक लालच हो जाता है, तो स्वाभाविक रूप से मैं अन्य सभी लोगों को अपने प्रतिस्पर्धियों के रूप में देखूंगा। तो लालच का मतलब है कि मैं हर जगह दुश्मन देखता हूं जो मेरे लक्ष्यों में बाधा के रूप में और इसलिए प्रतिस्पर्धा ईर्ष्या में बढ़ जाती है और व्यावसायिक क्षेत्र में, प्रतियोगिता का परिसमापन कार्यक्रम का हिस्सा है और इसलिए अन्य लोगों को खत्म करने के लिए विभिन्न सामान्य और असामान्य तरीकों का उपयोग किया जाता है। इतनी बड़ी-बड़ी कंपनियां छोटों को निगल जाती हैं।

इस कार्य में शुरू में थोड़ी ग्लानि हो सकती है; कुछ समय बाद हृदय सुन्न हो जाता है कि अब कोई पश्चाताप या ग्लानि भी नहीं रहेगी। इसलिए अपराणापि, दूसरे लोगों को भी मैं नष्ट कर दूँगा। एक तो मैंने सब प्रतियोगियों को नष्ट कर दिया, मुझे उस क्षेत्र में एकाधिकार मिल गया, मैं नंबर एक हो जाऊँगा; मेरे सामने कोई नहीं आ सकता। अहम् ईश्वरः, ज्ञानी भी कहता है; ज्ञानी असुर नहीं है, अहम् ईश्वरः, मैं भगवान हूँ; राजा हूँ, मैं नंबर एक हूँ, मैं ही सारी सम्पत्ति का उपभोग करने वाला हूँ; और मैं ही सिद्धः हूं, मैं सबसे सफल व्यक्ति हूँ, लेकिन उसने सफलता कैसे प्राप्त की, यह बड़ा प्रश्न है। कितनी लाशों पर; उसने सफलता प्राप्त की; उसका महिमामंडन किया गया, ये सब क्या सफलता कहलाई जा सकती है?

बलात्कारी प्रथम बलात्कार के बाद शायद शर्मिंदा और भय ग्रस्त हो, किंतु यदि उस के प्रति कुछ भी कार्यवाही नहीं हो तो वह निरंकुश हो जाता है।

किसी भी वाक्य को संपूर्णता तभी है, जब कर्ता, क्रिया और विषय हो। एक शब्द के वाक्य में भी यह अपरोक्ष रहते ही है। ऐसे ही सांसारिक क्रिया होने के लिए समय, स्थान, कर्ता, प्रेरणा और कर्म रहता है। जैसे बीज बिना धरती, वायु और जल के अंकुरित नही होता, वैसे ही मनुष्य के कर्म भी उस के द्वारा नहीं, उस को निमित्त बना कर प्रकृति द्वारा होते है।

किंतु असुर वृति में जीव द्वारा  अपने को मिथ्या दिग्स्वप्न में बालक के समान महान, अजेय, अमर एवम अपराजित योद्धा समझना एवम यह मानना की संसार के सभी लोग, स्त्रियां, धन दौलत, ऐष्वर्य उसी के निमित है। स्थूल शरीर को नष्ट करते हुए, वह यही समझता है कि किसी की भी मृत्यु उस के हाथ में है।

आसुरी सम्पदा वाले व्यक्ति क्रोध के परायण हो कर इस प्रकार के मनोरथ करते हैं, वह हमारे विपरीत चलता था, हमारे साथ वैर रखता था, उस को तो हमने मार दिया है और दूसरे जो भी हमारे विपरीत चलते हैं, हमारे साथ वैर रखते हैं, हमारा अनिष्ट सोचते हैं, उनको भी हम मजा चखा देंगे, मार डालेंगे। हम ही धन, बल, बुद्धि से ईश्वर की  तरह से समर्थ हैं। हमारे पास क्या नहीं है हमारी बराबरी कोई कर सकता है, हम भोग भोगनेवाले हैं। हमारे पास स्त्री, मकान, कार आदि कितनी भोग सामग्री है। हम सब तरह से सिद्ध हैं। हमने तो पहले ही कह दिया था न वैसे हो गया कि नहीं,  हमारे को तो पहले से ही भूत, भविष्य एवम वर्तमान  दीखता है। जो भी हमारे विरुद्ध जाता है उस का सर्वनाश निश्चित है। ये जो लोग भजन, स्मरण, जप, ध्यान आदि करते हैं, ये सभी किसी के बहकावे में आये हुए मूर्ख लोग हैं। अतः इन की क्या दशा होगी, उस को हम जानते हैं। हमारे समान सिद्ध और कोई है संसार में हमारे पास अणिमा, गरिमा आदि सभी सिद्धियाँ हैं। हम एक फूँक में सब को भस्म कर सकते हैं। जरूरत पड़ने पर मृत्यु तक को हम रोकने की शक्ति रखते है।

हम बड़े बलवान् हैं। अमुक आदमी ने हमारे से टक्कर लेनी चाही, तो उसका क्या नतीजा हुआ आदि। परन्तु जहाँ स्वयं हार जाते हैं, वह बात दूसरों को नहीं कहते, जिस से कि कोई हमें कमजोर न समझ ले। उन्हें अपने हारने की बात तो याद भी नहीं रहती, पर अपने अभिमान की बात उन्हें याद रहती है। 

हमारे पास कितना सुख है? आराम है। हमारे समान सुखी संसार में कौन है ऐसे व्यक्तियों के भीतर तो जलन होती रहती है? पर ऊपर से इस प्रकार की डींग हाँकते हैं।

अमुक  नामक दुर्जय शत्रु तो मेरे द्वारा मारा जा चुका, अब दूसरे पामर निर्बल शत्रुओं को भी मैं मार डालूँगा, यह बेचारे गरीब मेरा क्या करेंगे जो किसी तरह भी मेरे समान नहीं हैं। मैं ईश्वर हूँ, भोगी हूँ, सब प्रकार से सिद्ध हूँ तथा पुत्रपौत्र और नातियों से सम्पन्न हूँ। मैं केवल साधारण मनुष्य ही नहीं हूँ, बल्कि बड़ा बलवान् और सुखी भी मैं ही हूँ, दूसरे सब तो भूमि पर भाररूप ही उत्पन्न हुए हैं।

इस श्लोक का अनुवाद ही इसकी व्याख्या भी है और बहुसंख्यक लोगों के जीवन की भी यही व्याख्या है सारांशत, यह अभिमानी जीव की सफलता का गीत है, जिसे एक नितान्त आसुरी पुरुष अपने मन में सदैव गुनगुनाता रहता है। इस आसुरी लोरी के मादक प्रभाव में, मनुष्य के श्रेष्ठ और दिव्य संस्कार उन्माद की निद्रा में लीन हो जाते हैं। अक्सर मुढ़ अभिमानी थोड़ी से सफलता में, कभी कभी साधु-संत छोटी-मोटी सिद्धियां हासिल कर के अभिमान में मद मस्त हो कर यह उजुल फजूल बक बक कर के लोगो को प्रभावित भी करते है और उन्हें इनको पूजने को कह कर धन दौलत भी ऐंठते है। ईश्वर के नाम पर स्वयं को ईश्वर के स्थान पर स्थापित कर के अपने आश्रम चला कर उसे भोग-विलास का अड्डा बनाते है।

अहंकार हमारे जीवन में सबसे बड़ा असत्य पैदा करता है और हमें वह विश्वास दिलाता है जो हम नहीं हैं। इसलिए, संत मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए, सभी धार्मिक परंपराएँ और संत हमें अपने अहंकारी विचार पैटर्न को खत्म करने का आग्रह करते हैं।

ताओ ते चिंग सिखाता है: “पहाड़ बनने की कोशिश करने के बजाय, ब्रह्मांड की घाटी बनो।” [v6] (अध्याय 6)

नासरत के यीशु ने भी कहा: “जब तुम्हें आमंत्रित किया जाता है, तो सबसे नीचे जाकर बैठो ताकि जब मेजबान आए, तो वह तुमसे कहे, दोस्त, ऊपर चढ़ो। क्योंकि जो कोई अपने आप को बड़ा बनाएगा, वह छोटा किया जाएगा और जो कोई अपने आप को छोटा बनाएगा, वह बड़ा किया जाएगा।” (लूका 14:10-11) [v7]

संत कबीर ने इसे बहुत अच्छी तरह से कहा:

ऊंचे पानी न टिके ,नीचे ही ठहराय , नीचा होय सो भरि पिये ,ऊंचा प्यासा जाय।

पानी ऊपर नहीं रहता; यह स्वाभाविक रूप से नीचे बहता है। जो लोग छोटे और विनम्र हैं वे अपने दिल की इच्छा के अनुसार (भगवान की कृपा) पीते हैं, जबकि जो लोग ऊँचे और घमंडी हैं वे प्यासे ही रह जाते हैं।”

संक्षेप में मिथ्या अहंकार, क्रोध, द्वेष, वैर, किसी को नीचा दिखाना, झगड़ा, मार पिटाई, वर्चस्व के लिए अपने जैसे विचारो के लोगो का संघठन बना कर अत्याचार करना, अपने विचारो और मतों को मनवाने के लिए बल  का प्रयोग  जिस में हम धर्म के नाम पर अनगिनत अत्याचारों को शामिल कर सकते है, आसुरी वृति का ही परिचय है।

असुर वृति को अधिक सरलता से स्पष्ट करते हुए, आगे भगवान क्या कहते है, पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 16.14 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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