।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 16.12 II Additional II
।। अध्याय 16.12 II विशेष II
।। दर्शनशास्त्र के क्षेत्र – विषय – तर्कशास्त्र ।। विशेष भाग 5, गीता 16.12 ।।
तर्कशास्त्र, अनुमान के वैध नियमों का व्यवस्थित अध्ययन है, अर्थात् ऐसे संबंध जो अन्य तर्कवाक्यों (परिसर) के एक सेट के आधार पर एक तर्क (निष्कर्ष) की स्वीकृति की ओर ले जाते हैं। अधिक मोटे तौर पर, युक्ति का विश्लेषण और मूल्यांकन तर्कशास्त्र है।
यूरोप में तर्कशास्त्र का प्रवर्तक एवं प्रतिष्ठाता यूनानी दार्शनिक अरस्तू (३८४-३२२ ई० पू०) समझा जाता है, यों उससे पहले कतिपय तर्कशास्त्रीय समस्याओं पर वैतंडिक (सोफिस्ट) शिक्षकों, सुकरात तथा अफलातून या प्लेटो द्वारा कुछ चिंतन हुआ था।
भारतीय दर्शन में अक्षपाद गौतम या गौतम (३०० ई०) का न्यायसूत्र पहला ग्रंथ है जिसमें तथाकथित तर्कशास्त्र की समस्याओं पर व्यवस्थित ढंग से विचार किया गया है। उक्त सूत्रों का एक बड़ा भाग इन समस्याओं पर विचार करता है, फिर भी उक्त ग्रंथ में यह विषय दर्शनपद्धति के अंग के रूप में निरूपित हुआ है। न्यायदर्शन में सोलह परीक्षणीय पदार्थों का उल्लेख है। इन में सर्वप्रथम प्रमाण नाम का विषय या पदार्थ है। वस्तुतः भारतीय दर्शन में आज के तर्कशास्त्र का स्थानापन्न ‘प्रमाणशास्त्र‘ कहा जा सकता है। किन्तु प्रमाणशास्त्र की विषयवस्तु तर्कशास्त्र की अपेक्षा अधिक विस्तृत है।
१८वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारतीय दर्शन में ब्रिटिश विद्वानों की रुचि जागी और वे भारतीय दर्शन में निहित निष्कर्ष निकालने की गहरी प्रक्रिया से अवगत हुए। इसी प्रक्रिया में हेनरी कोलब्रुक ने १८२४ में “The Philosophy of the Hindus: On the Nyaya and Vaisesika Systems” की रचना की। इसमें उन्होंने भारतीय निष्कर्ष प्रक्रिया का विश्लेषण प्रस्तुत किया और साथ में उसकी तुलना अरस्तू के तर्कपद्धति से की। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि अरस्तू का न्यायवाक्य (Aristotelian syllogism), भारतीय न्यायवाक्य की व्याख्या नहीं कर सकता। मैक्समूलर ने १८५३ में रचित थॉमसन के “Outline of the Laws of Thought” में एक परिशिष्ट लिखा। इसमें मैक्समूलर ने ग्रीक और भारतीय तर्कशास्त्र को एक ही धरातल पर रखने का प्रत्यत्न किया। उन्होंने लिखा- “जहाँ तक इतिहास हमें इस विषय में निर्णय लेने देता है, तर्कशास्त्र और व्याकरण के विज्ञान केवल दो देशों (हिन्दुओं और यूनानियों) द्वारा खोजे गये या परिक्ल्पित किये गये थे। “
जोनार्दन गानेरी का विचार है कि जॉर्ज बूली (1815- 1864) और आगस्टस डी मॉर्गन (1806-1871) सम्भवतः भारतीय तर्कप्रणाली से अवगत थे। भारतीय तर्कशास्त्र ने अनेक पश्चिमी विद्वानों को अपनी तरफ खींचा जिसमें १९वीं शताब्दी के अग्रगण्य तर्कशास्त्री जैसे चार्ल्स बाबेज, अगस्टस डी मॉर्गान, जॉर्ज बूल आदि प्रमुख हैं। जॉर्ज बूल की पत्नी मैरी एवरेस्ट बूल जो स्वयं एक महान गणितज्ञ थीं, ने सन १९०१ में “डॉ बोस को लिखे एक खुले पत्र” में यह स्पष्ट किया है कि भारतीय तर्कशास्त्र का जॉर्ज बूल पर गहरा प्रभाव था। इस पत्र का शीर्षक था, ” उन्नीसवीं शताब्दी में भारतीय चिन्तन तथा पश्चिमी विज्ञान”(Indian Thought and Western Science in the Nineteenth Century)।
डी मार्गान ने तो स्वयं ही १८६० में भारतीय तर्कशास्त्र के महत्व के बारे में लिखा था। उन्होंने कहा, दो जातियों (रेसेस) के लोगों ने गणित की आधारशिला रखी है, संस्कृत (बोलने वाले) और ग्रीक बोलने वाले। इन दोनों जाति के लोगों ने अपनी-अपनी स्वतन्त्र तर्कप्रणाली (systems of logic) का विकास किया था।
गणित के विद्वान भारतीय गणित के यूरोपीय गणित पर प्रभव से अवगत हुए। उदाहरण के लिये, हर्मन वील (Hermann Weyl) ने लिखा था, “पिछली शताब्दियों में पूर्वी गणित, ग्रीक विचार (गणित) से विलग होकर अलग रास्ते पर चला। ऐसा लगता है कि इसकी उत्पत्ति भारत में हुई थी और इसमें कुछ और योगदान करते हुए अरबों ने इसे हम तक पहुँचाया। इसमें संख्या की संकल्पना, तार्किक रूप से, ज्यामिति की संकल्पना से अधिक प्राचीन प्रतीत होती है। लेकिन गणित का वर्तमान रुझान स्पष्टतः ग्रीक गणित की ओर लौटता हुआ दिखायी देता है।
तर्कशास्त्र का स्वरूप
आगे हम ‘तर्कशास्त्र’ शब्द का प्रयोग उसके संकीर्ण, आधुनिक अर्थ में करेंगे। इस अर्थ के दायरे में तर्कशास्त्र की परिभाषा क्या होगी? जान स्टुअर्ट मिल के मत में तर्कशास्त्र का विषय अनुमितियाँ हैं, न कि अनुभवगम्य सत्य। तर्कशास्त्र विश्वासों का विज्ञान नहीं है, वह उपपत्ति (प्रूफ) अथवा साक्ष्य (एवीडेंस) का विज्ञान नहीं है। तर्कशास्त्र का क्षेत्र हमारे ज्ञान का वह अंश है, जिसका रूप ‘पूर्वज्ञात सत्यों से अनुमित‘ होता है। तर्कशास्त्र का कार्य किसी सत्य का साक्ष्य जुटाना नहीं है, वह यह आँकने का प्रयत्न है कि किसी अनुमिति के लिये उचित साक्ष्य प्रस्तुत किया गया है या नहीं। संक्षेप में तर्कशास्त्र का काम सही अनुमिति के आधारों की खोज है। तर्कशास्त्र का विषय निश्चयात्मक अनुमितियों और आधारभूत साक्ष्य के संबंधों को स्पष्ट करना अथवा उन नियमों को प्रकाश में लाना है जो सही अनुमान प्रक्रिया को नियंत्रित करते हैं। इसलिए कभी कभी- कहा जाता है कि तर्कशास्त्र एक नियामक (नारमेटिव, आदर्शक, आदर्शान्वेषी) विज्ञान या शास्त्र है, जिसका कार्य अनुमिति या तर्क के आदर्श रूपों को स्थिर करना है। इसके विपरीत भौतिकी या भौतिकशास्त्र, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र आदि यथार्थान्वेषी (पाजिटिव) विज्ञान हैं, जो वस्तुसत्ता के यथार्थ या वास्तविक रूपों या नियमों का अन्वेषण करते हैं।
विज्ञानों का यह वर्गीकरण कुछ हद तक भ्रामक है। तर्कशास्त्र या आचारशास्त्र (नीतिशास्त्र) नियामक शास्त्र है, इस कथन का यह अर्थ लगाया जा सकता है कि उक्त शास्त्र कृत्रिम ढंग से क्षेत्र विशेष में मानव व्यवहार के नियमों का निर्देश करते हैं मानो सही चिंतन एवं सही नैतिक व्यवहार के नियम मानव प्रकृति के निजी नियम न होकर उस पर बाहर से लादे जानेवाले नियम हैं। किंतु बात ऐसी नहीं है। वस्तुतः तर्कशास्त्र उन नियमों को, जो सही चिंतन प्रकारों में स्वतः, स्वभावतः ओतप्रोत समझे जाते हैं, प्रकट रूप में निर्देशित करने का उपकरण मात्र है। विचारशील मनुष्य स्वतः, स्वभावतः सही और गलत चिंतन में, निर्दोष एवं सदोष तर्कना- प्रकारों में अंतर करते हैं। किंतु इस प्रकार का अंतर करते हुए वे किन्हीं नियामक आदर्शों या कानूनों की अवगति या चेतना का परिचय नहीं देते। सही समझे जानेवाले तर्कना प्रकारों का विश्लेषण करके उनमें अनुस्यूत नियमों को सचेत जानकारी के धरातल पर लाना, यही तर्कशास्त्र का काम है। इसी प्रकार आचारशास्त्र भी हमें उन नियमों या आदर्शो की जानकारी देता है, जो हमारे भले बुरे के निर्णयों में, अनजाने रूप में, परिव्याप्त रहते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि विशिष्ट आचार पद्धति, अथवा किसी समाज की आचारसंहिता तथा नैतिक शिक्षा, उस समाज के नैतिक पक्षपातों को प्रकाशित करती है। इसी अर्थ में देशविशेष, कालविशेष अथवा समाजविशेष के नैतिक विचारक अपने देश, युग अथवा समाज के प्रतिनिधि चिंतक होते हैं।
तर्कशास्त्र के संबंध में उक्त मान्यता से एक महत्वपूर्ण निष्कर्ष अनुगत होता है। यदि किन्हीं कारणों से मनुष्य की चिंतन प्रणाली अथवा तर्कप्रणाली में परिवर्तन या विकास हो, तो उसके अनुरूप तर्कशास्त्रीय मंतव्यों में भी परिवर्तन या विकास हो सकता है। तर्कशास्त्र के इतिहास में ऐसा भी होता है कि कालांतर में चिंतन के पुराने मानदंडों या नियमों में संशोधन आवश्यक हो जाता है; नए चिंतनप्रकारों की सृष्टि के साथ साथ नवीन तर्क शास्त्रीय नियमों का निरूपण भी अपेक्षित हो सकता है। यूरोप में जब भौतिक विज्ञान की प्रगति शुरू हुई, तो वहाँ क्रमशः अरस्तू की निगमनप्रणाली की आलोचना और उससे भिन्न आगमनप्रणाली की परिकल्पना और प्रशंसा भी होने लगी। यूरोपीय वैचारिक इतिहास में इस कोटि का कार्य लार्ड बेकन ने किया। बाद में, वैज्ञानिक अन्वेषण प्रणाली का अधिक विश्लेषण हो चुकने पर, यूरोप के तर्कशास्त्रियों ने निगमनमूलक विचारपद्धति (डिडक्टिव सिस्टम) एवं परिकल्पना निगमन प्रणाली (हाइपोथेटिकल डिडक्टिव मेथड) जैसी अवधारणाओं का विकास किया। आगमनात्मक तर्कशास्त्र (इंडक्टिव लॉजिक) में उन नियमों का विचार किया जाता है, जो निरीक्षित घटनाओं या व्यापारों के आधार पर तत्संबंधी सामान्य कथनो की उपलब्धि या निरूपण संभव बनाते हैं। सामान्य कथन प्रायः व्याप्ति वाक्यों का रूप धारण कर लेते हैं। भारतीय प्रमाणशास्त्र में इस प्रश्न को लेकर कि व्याप्ति वाक्य की उपलब्धि कैसे होती है, काफी छानबीन की गई है। ‘जहाँ-जहाँ धूम होता है, वहाँ अग्नि होती है’ – यह व्याप्तिवाक्य है। स्पष्ट ही हमारे निरीक्षण में धूम और अग्नि के साहचर्य के कुछ ही उदाहरण आते हैं। प्रश्न है, कुछ स्थितियों में निरीक्षित दो चीजों के साहचर्य से हम उनके सार्वदेशिक और सार्वकालिक साहचर्य की कल्पना के औचित्य को कैसे सिद्ध कर सकते है? इस समस्या को तर्कशास्त्र में आगमनात्मक प्लुति (इंडक्टिव लीप) की समस्या कहते हैं। परिकल्पना निगमन प्रणाली इस उलझन में पड़े बिना सामान्य कथनों अथवा व्याप्ति वाक्यों की प्रामाणिक प्रकल्पना के प्रश्न का समाधान प्रस्तुत कर देती है। संक्षेप में आधुनिक वैज्ञानिक अन्वेषण की प्रणाली यह है :
निरीक्षित घटनासंहतियों से प्रेरणा लेकर वैज्ञानिक अन्वेषक नियमसूत्रों की परिकल्पना करता है; इसके बाद वह उन परिकल्पनाओं से कुछ ऐसे निष्कर्ष निकालता है, जिनका प्रयागों द्वारा परीक्षण हो सके। जहाँ तक किसी परिकल्पना के निष्कर्ष प्रयोगविधि से समर्थन पाते हैं, वहाँ तक यह समझा जाता है कि वह परिकल्पना परीक्षा में सफल हुई। परिकल्पना में निहित सामान्य नियम अंततः अन्वेषक की स्वच्छंद कल्पना की सृष्टि होता है, ऐसा प्रसिद्ध वैज्ञानिक अलबर्ट आइन्स्टाइन का मत है। प्रकृति के नियम आगमन प्रणाली से अन्वेषित होते हैं, यह मान्यता बहुत हद तक भ्रामक है। कहना यह चाहिए कि अनुभव सामग्री यानी अनुभूत घटना संहतियाँ, प्रशिक्षित वैज्ञानिक को उपयुक्त परिकल्पनाओं या संभाव्य प्राकृतिक नियमों के न्यूनाधिक शक्तिवाले संकेत भर देती हैं।
ऊपर हमने इस बात पर बल दिया कि नई तर्कप्रणालियों के विकास के साथ साथ तर्कशास्त्रीय सिद्धांतों के स्वरूप में भी न्यूनाधिक परिवर्तन होता है। इस दृष्टि से तर्कशास्त्र एक गतिशील विद्या है; वह स्थिर, शाश्वत नियमों का संकलन या उल्लेख मात्र नहीं हैं। वस्तुतः विभिन्न भौतिक, जैव एवं समाजशास्त्रीय विज्ञों के विकास ने तर्कशास्त्र को बहुत प्रभावित किया है। अनुमान और तर्कना की प्रणालियों तथा नियमों से अधिक आज विभिन्न विद्याओं की अन्वेष्ण प्रक्रिया अनुशीलन का विशिष्ट विषय बन गई है। उक्त प्रक्रिया की शास्त्रीय जाँच को रीतिमीमांसा (मेथडॉलॉजी) कहते हैं।
यहाँ एक ज्यादा महत्व का स्पष्टीकरण अपेक्षित है। अनुभव एवं चिंतन के विभिन्न क्षेत्रों में हमारी तर्कना प्रक्रिया एक ही कोटि की नहीं होती। विज्ञान और गणित में तर्कना के तरीके एक प्रकार के हैं। साहित्यसमीक्षा अथवा नैतिक निर्णयों के क्षेत्र में भी ये तरीके काफी भिन्न हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में हम कह सकते है कि कला समीक्षा, साहित्य मीमांसा, नीतिशास्त्र आदि के क्षेत्रो में परीक्षकों के स्वमतस्थापन एवं परमतखंडन की प्रणलियाँ एक ही सी नहीं होतीं। वे काफी भिन्न भी हो सकती हैं और होती हैं। इस स्थिति को निम्नांकित शब्दों में भी प्रकट किया जाता है:
गुणत्मक दृष्टि से भिन्न प्रत्येक कोटि के विषय-विवेचन (डिस्कोर्स) के नियामक मानदंड अथवा नियम बहुत कुछ अलग होते है; अर्थात चिंतन और विवेचन के प्रत्येक क्षेत्र का तर्कनाशास्त्र एक निराली कोटि का होता है। इससे अनुगत होता है कि सब प्रकार के चिंतनविवेचन का नियामक कोई एक तर्कशास्त्र नहीं है।
प्रतीकाश्रित (प्रतीकमूलक) तर्कशास्त्र
बीसवीं सदी में परंपरागत अरस्तू के तर्कशास्त्र से भिन्न प्रतीक मूलक या प्रतीकनिष्ठ तर्कशास्त्र का विकास हुआ है। कुछ परीक्षकों की दृष्टि में यह एक बड़ी घटना है। इस नये तर्कशास्त्र को गणितनिष्ठ तर्कशास्त्र भी कहते हैं। उन्नीसवीं सदी के मध्य में दो अंग्रेज गणिताज्ञों ने तर्कशास्त्र के इस नये रूप का आधार खड़ा किया; ये दो गणितज्ञ थे – आगस्टस डि मार्गन तथा जार्ज बूल। इनका मुख्य अन्वेषण यह था कि अरस्तू के तर्कशास्त्र में जिन अनुमितियों का उल्लेख है, उनमें कहीं अधिक कोटियों की प्रामाणिक अनुमितियाँ हैं। अरस्तू के न्याय-वाक्य (सिलाजिज्म) में प्रकट की जाने अनुमितियों का आधार सिद्धांत वर्गसमावेश का नियम हैं। वैसे अनुमान का प्रसिद्ध उदाहरण हैः सब मनुष्य मरणशील है; यहाँ सुकरात मनुष्य है; इसलिए सुकरात मरणशील है यहाँ मरणशीलता मनुष्य नाम के वर्ग का व्यापक धर्म है; वह उस वर्ग में समावेशित सुकरात का भी धर्म है। मार्गन और बूल ने यह पता चलाया कि अनुमिति का असली आधार विशेष कोटि के संबंध होते है, वर्ग समावेश का नियम इन कई संबंधकें में से एक के अंतर्भूत है। अतः उस नियम को अनुमिति का स्वतंत्र सिद्धांत नहीं मानना चाहिए। दूसरे, ऐसी अनेक अनुमितियाँ होती हैं, जो न्यायवाक्य के रूप में प्रकट नहीं की जा सकती। उदाहरण- ‘क की अवस्था ख से अधिक है और ख की अवस्था ग से अधिक है, इसलिये क की अवस्था ग से अधिक है।’ प्रसिद्ध दार्शनिक एफ्० एच्० ब्रैडले (१८४६- १९२४) ने भी ऐसी अनुमितियों का संकेत किया है, जो अरस्तू के न्यायावाक्य में निवेशित नहीं हो सकतीं।
ऊपर कहा गया है कि नवीन विचारकों के अनुसार अनुमिति का आधार वाक्यों के बीच रहनेवाले कुछ संबंध हैं। स्वयं ‘संबंध’ की अवधारणा को परिभाषित करना कठिन है। संबंधों का वर्गीकरण कई तरह से होता है। कुछ संबंध दो पदों या पदार्थो मे बीच होते हैं, कुछ तीन के, इत्यादि। कोई पदार्थ संबंधग्रस्त है, यदि उसके बारे में कुछ कथन करते हुए किसी दूसरे पदार्थ का उल्लेख आवश्यक हो। ‘राम सीता का पति है’, ‘राजा ने अपने शत्रु को जहर दे दिया’, ‘देवदत्त ने विष्णुदत्त से दस हजार रुपए लेकर मकान खरीद लिया;’ – ये वाक्य क्रमशः द्विमूलक, त्रिमूलक एवं चतुर्मूलक संबंधों को प्रकट करते हैं। एक अन्य वर्गीकरण के अनुसार संबंध सम (सिमेट्रीकल), विषम (अनसिमेट्रिकल), एवं अ-सम-विषम (नॉन्-सिमेट्रीकल) तीन प्रकार के होते हैं। जो संबंध करते है; यथा – राम श्याम का भाई है; देवदत्त विष्णुदत्त का हमउम्र है या सहपाठी है; इत्यादि। विषम संबंध राम सीता का पति है। अ-सम विषम- देवदत्त विष्णुदत्त को प्यार करता है। एक प्रकार के संबंध उत्प्लवी संबंध कहलाते है; उससे भिन्न अनुत्प्लवी। ‘अवस्था में बड़ा होना’ ये सब उत्प्लवी (ट्रांजिटिव) संबंध हैं। यदि क ख से बड़ा, या लंबा या भारी है;और ख ग से तो यह सिद्ध होता है क ग से बड़ा या भारी है। अनुत्प्लवी संबंध- क ख का पिता है और ख ग का; यहाँ यह सिद्ध नहीं होता कि क ग का पिता है। जहाँ हम देखते हैं कि उत्पवी संबंध अनुमिति का हेतु बन जाता है। अरस्तु द्वारा प्रतिपादित वर्ग समावेश का सिद्धांत वस्तुतः उत्प्लवी संबंध का दूसरा उदाहरण आक्षेप संबंध (इंप्लीकेशन) है। यदि वाक्य य वाक्य र को आक्षिप्त करता है और र वाक्य ल को, तो य, ल को आक्षिप्त करता है।
प्रतीकनिष्ठ तर्कशास्त्र की एक अन्य विशेषता यह है कि वहाँ वाक्यों और उनके संबंधों को प्रतीकों के द्वारा व्यक्त किया जाता है। अनुमिति के आधार वाक्यों के विशिष्ट संबंध है; ये संबंध वाक्यों के आकार (फॉर्म) पर निर्भर करते हैं, न कि उनके अर्थों पर। फलतः वाक्यों के अर्थों का विचार किए बिना, उनके आकारों में अनुस्यूत संबंधों को और उनपर आधारित अनुमितियों को, प्रतीकों की भाषा में प्रकट किया जा सकता है। प्रतीकित होने पर विभिन्न संबंधों को संक्षेप में प्रकट किया जा सकता है। यह प्रक्रिया गणित की श्लाघनीय विशेषता है। गणित शास्त्र की उन्नति का एक प्रधान हेतु संख्याओं को दशमलव विधि (डेसमिल सिस्टम) से लिखने का आविष्कार था, यह आविष्कार भारतवर्ष में हुआ। अंकों को लिखने की रोमन प्रणाली में दस, पचास सौ आदि संख्याओं के लिए अलग-अलग संकेतचिन्ह है; इसके विपरीत प्रचलित दशमलव प्रणाली में अंकविशेष का मूल्य उसकी स्थिति के अनुसार होता है और सिफ नौ अंकों तथा शून्य-चिह्न, की मदद से किसी भी संख्या को प्रकट किया जा सकता है। प्रतीकनिष्ठ तर्कशास्त्र में वर्गों, वाक्यों आदि को प्रतीकों में प्रकट करके उनसे संबद्ध अनुमितियों के नियम प्रतिपादित किए गए हैं। वर्गकलन (कैलकुलस् आफ् क्लासेज) में वर्गों के पारस्परिक संबंधों, विरोध आदि के नियम बतलाए गए हैं। इसी प्रकार वाक्यसंबंधों, विरोध आदि के नियम बतलाए गए हैं। इसी प्रकार वाक्यकलन (कैलकुलस ऑफ प्रापोजीशंस) में वाक्यसंबंधों के नियामक सिद्धातों या नियमों का उल्लेख रहता है। अरस्तू के न्यायवाक्य में सन्निहित सिद्धांत उक्त नियमों में से ही एक है। इससे प्रकट है कि प्रतीकनिष्ठ तर्कशास्त्र का अनुमितिक्षेत्र अरस्तू के तर्कशास्त्र की अपेक्षा कहीं अधिक विस्तृत है।
भारतीय तर्कशास्त्र’ से सीमित अर्थ में ‘न्याय दर्शन’ का बोध होता है। किन्तु अधिक व्यापक अर्थ में इसमें बौद्ध न्याय और जैन न्याय भी समाविष्ट किये जाते हैं। सबसे व्यापक रूप में भारतीय तर्कशास्त्र से अभिप्राय सभी भारतीय विद्वानों द्वारा प्रतिपादित सभी तार्किक (न्यायिक) सिद्धान्तों के सम्मुच्चय से है।
भारतीय तर्कशास्त्र, विश्व के तीन मूल तर्कशास्त्रों में से एक है; अन्य दो हैं, यूनानी और चीनी तर्कशास्त्र। भारतीय तर्कशास्त्र की यह परम्परा नव्यन्याय के रूप में आधुनिक काल के आरम्भिक दिनों तक जारी रही।
इस लौकिक और अलौकिक जगत के प्रत्येक पहलू के पीछे कोई ना कोई तर्क मौजूद है, जिसे विभिन्न विद्वानों ने अपनी-अपनी बौद्धिक क्षमता और अनुसंधानों के अनुरूप प्रस्तुत किया है। तर्क युक्ति और विचार के मूल्यांकन का एक विज्ञान है।
आलोचनात्मक सोच मूल्यांकन की एक ऐसी प्रक्रिया है जो सत्य को असत्य से, उचित को अनुचित से अलग करने के लिए तर्क का उपयोग करती है। तर्कशास्त्र का कार्य किसी सत्य के साक्ष्य जुटाना नहीं है, बल्कि यह आंकना है कि अनुमिति के लिये उचित साक्ष्य प्रस्तुत किए गए हैं या नहीं। भारतीय और पाश्चात्य जगत में इसमें पर्याप्त भिन्नता देखने को मिलती है।
पाश्चात्य जगत में तर्कशास्त्र के प्रणेता यूनानी दार्शनिक अरस्तू को माना जाता है। किंतु अरस्तु द्वारा प्रस्तुत की गईं ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में विभाजन को ‘एनालिटिक्स’ (Analytics) (विश्लेषिकी) नाम दिया गया। तर्क के लिए प्रयोग किया जाने वाले शब्द ‘लॉजिक’ (Logic) का प्रयोग सर्वप्रथम रोमन लेखक सिसरो (106-43 ई० पू०) द्वारा किया गया, यद्यपि वहाँ उसका अर्थ कुछ भिन्न है। अरस्तू के अनुसार तर्कशास्त्र में पद (टर्म्स/Terms), वाक्य या कथन, अनुमान और उसके विविध रूप (जिन्हें न्यायवाक्यों के रूप में प्रकट किया जाता है) को महत्व दिया गया। अरस्तू के तर्कशास्त्र का प्रधान प्रतिपाद्य विषय न्यायवाक्यों में व्यक्त किए जानेवाले अनुमान हैं; इनके अनुसार सही अनुमान 19 प्रकार के होते हैं, जो चार तरह की अवयवसंहतियों में प्रकाशित किए जाते हैं।
भारतीय प्राचीन दर्शन में तर्कशास्त्र नाम का कोई भी स्वतंत्र शास्त्र उपलब्ध नहीं है। अक्षपाद गौतम (३०० ई०) का न्यायसूत्र पहला ऐसा ग्रंथ है, जिसमें तर्कशास्त्र से संबंधित पहलुओं पर व्यवस्थित ढंग से विचार किया गया है। भारतीय तर्क में प्रमाणशास्त्र का विशेष महत्व है, जो ज्ञान के विषय (प्रमाता), ज्ञान की वस्तु (प्रमेय) और वैध ज्ञान (प्रमाण) के त्रुटिपूर्ण अनुभूति और सत्य के विभिन्न सिद्धांतों से संबंधित है। भारतीय दर्शन में तर्क प्रमाणशास्त्र का हिस्सा है। गौतम के ‘न्यायसूत्र‘ में प्रमा या यथार्थ ज्ञान के उत्पादक विशिष्ट या प्रधान कारण ‘प्रमाण‘ कहलाते हैं; उनकी संख्या चार है, अर्थात् प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द। भट्ट मीमांसा और वेदान्तियों ने इसमें अर्थापत्ति व अनुपलब्धि को भी जोड़ा है। न्याय के अनुसार अनुमान दो प्रकार (परार्थानुमान तथा स्वार्थानुमान) के होते हैं। किसी वस्तु का प्रत्यक्ष ज्ञान होने से, उस वस्तु से सम्बन्धित जिस वस्तु का ज्ञान होता है, उसे अनुमान कहते हैं। जैसे पर्वत के ऊपर धूम्र को देखकर वहां अग्नि के होने का अनुमान लगाया जा सकता है।
निगमनात्मक तर्क प्रस्ताव के प्रमाण के रूप में उपयोगी साबित हो सकता है। किंतु वास्तविक ज्ञान कैसे प्राप्त होता है यह एक गंभीर प्रश्न है। पाश्चात्य जगत में तर्क-वितर्क के दौरान तर्कों की प्रस्तुति हेतु अरस्तू के न्याय का उपयोग किया गया और अन्यों के लिए अनुमान का उपयोग किया गया। लेकिन भारतीय मेटालॉजिक (Metalogic) की प्राथमिक चिंता अनुमान के साथ स्वयं के लिए थी। अनुमान के बोधक न्यायवाक्य में पाँच वाक्य होते हैं जो क्रमशः प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय तथा निगमन कहलाते हैं। वेदांतियों के अनुसार इन पाँचों में से शुरू या बाद के तीन वाक्य अनुमान के लिये पर्याप्त हैं। अनुमान को ज्ञान का स्त्रोत मानने पर विभिन्न वेदांतवादियों द्वारा गंभीर सवाल उठाए गए। औपचारिक निगमनात्मक प्रणाली के स्थान पर अनुभूति के अध्ययन पर बल दिया गया। इसलिए भारतीय तर्क को अनुभूति का तर्क माना जाता है। गिल्बर्ट हरमन की तरह भारतीय तर्क में, तर्क और नतीजे के बीच भेद नहीं पाया गया। भारतीय तर्क का विचार से संबंध है, यह विचार अंत में जाकर वैध ज्ञान में परिवर्तित हो जाता है।
तर्कशास्त्र का अध्ययन-क्षेत्र
तर्कशास्त्र के अध्ययन-क्षेत्र के अन्दर मुख्यतः निम्नलिखित का समावेश है-
1. युक्ति, तर्कवाक्य तथा पद का अध्ययन
2. परिभाषा, विभाजन, वर्गीकरण, व्याख्या आदि सहायक क्रियाओं का अध्ययन
3. विचार तथा भाषा का अध्ययन
।।हरि ॐ तत् सत् ।। गीता विशेष भाग 5, 16.12 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)