।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 16.12 II
।। अध्याय 16.12 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 16.12॥
आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः ।
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान्॥
“āśā-pāśa-śatair baddhāḥ,
kāma- krodha- parāyaṇāḥ..।
īhante kāma- bhogārtham,
anyāyenārtha- sañcayān”..।।
भावार्थ:
आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य आशा-रूपी सैकड़ों रस्सीयों से बँधे हुए कामनाओं और क्रोध के आधीन होकर इन्द्रिय-विषयभोगों के लिए अवैध रूप से धन को जमा करने की इच्छा करते रहते हैं। (१२)
Meaning:
Bound by hundred ropes of desires, oriented towards desire and anger, they strive to accumulate wealth by unjust means for sensual consumption.
Explanation:
Every selfish desire carries a seed of anxiety within it, as we have seen. Shri Krishna says that such desires harm us in another manner. We develop attachment towards the desire, we are bound. It is as if a paasha, a lasso, a rope is tied around us on one end, and the desire on the other. Just like a cowboy puts a lasso around a horse and makes it obey his instructions, each desire makes us into a slave, makes us dance to its tune.
Therefore, where a sātvic person disowns everything and place it ownership of God, who by his grace allow him to use on the contrary, the rājasic, tāmasic materialistic people; they hold on to things. So, they are shackled by attachment, and they are rich in kāma and krōdha.
If this is our plight, what to talk of highly materialistic individuals. They have not one but hundreds of such ropes to bind them. If one desire is fulfilled, they have several others waiting in line. If a desire does not get fulfilled, it generates anger and agitation, causing them to inflict harm and pain upon themselves and upon others. They fall into a vicious cycle of desire, anger and greed which, given that they subscribe only to a materialistic viewpoint, is almost impossible to get out of.
It is money, it is accumulation of wealth, artha sanchaayan. But, in order to fulfill the infinite desires that are pulling him in several directions, there arises a need to generate wealth beyond what is legally and ethically possible. Therefore, he resorts to making money using any means necessary, legal or illegal.
So, if one is continually plagued by hundreds of desires, and has a narrow outlook towards the world, what is his solution? The Bhāgavatam states: “One is entitled to keep only as much wealth as is necessary for one’s maintenance (the rest must be given away in charity). If one accumulates more than one’s need, one is a thief in the eyes of God, and will be punished for it.”
।। हिंदी समीक्षा ।।
संसार में धन आनन्द प्राप्त करने का साधन है इसलिए भौतिकवादी लोग जो अतृप्त कामनाओं से प्रेरित होते हैं वे भौतिकतावादी मनुष्य अपने जीवन में धन संग्रह करने को प्राथमिकता देते हैं। वे धन अर्जन के लिए अवैद्य तरीकों को अपनाने में भी संकोच नहीं करते।
आसुरी सम्पत्ति वाले मनुष्य आशारूपी सैकड़ों पाशों से बँधे रहते हैं अर्थात् उन को अनियमित आशा लगी रहती है कि उन के पास इतना धन हो जायगा, इतना मान हो जायगा, शरीर में नीरोगता आ जायगी आदि सैकड़ों आशाओं की फाँसियाँ लगी रहती हैं। आशा की फाँसी से बँधे हुए मनुष्यों के पास लाखों करोड़ों रुपये हो जायँ, तो भी उनका मँगतापन नहीं मिटता उन की तो यही आशा रहती है कि सन्तों से कुछ और तो कुछ और मिल जाय, भगवान् से कुछ और मिल जाय, मनुष्यों से कुछ मिल जाय। इतना ही नहीं पशु पक्षी, वृक्षलता, पहाड़ समुद्र आदि से भी हमें कुछ मिल जाय। इस प्रकार उन में सदा खाऊँ- खाऊँ बनी रहती है। ऐसे व्यक्तियों की सांसारिक आशाएँ कभी पूरी नहीं होतीं। इन का भगवान वास्तव में धन अर्थात पैसा ही होता है।
इसलिए ये भौतिकवादी लोग अनगिनत आसक्तियों, यानी रस्सियों या बेड़ियों से बंधे हुए हैं। ये भौतिक रस्सियाँ नहीं हैं; बल्कि आसक्ति की रस्सियाँ हैं। इसलिए, जहाँ एक सात्विक व्यक्ति हर चीज़ को त्याग देता है और उसे भगवान के स्वामित्व में छोड़ देता है, जो अपनी कृपा से उसे उपयोग करने की अनुमति देते हैं, वहीं दूसरी ओर, राजसिक, तामसिक भौतिकवादी लोग; वे चीज़ों को पकड़ कर रखते हैं। इसलिए वे आसक्ति से बंधे हुए हैं और वे काम और क्रोध से भरपूर हैं।
श्रीमदभगवद पुराण में लिखा है आशा हि परम दुखम अर्थात सभी दुख का मूल कारण उस वस्तु की प्राप्ति की आशा करना, जिस का मिलना मात्र संयोग ही है। जो प्राप्त है, वही पर्याप्त है, यही सुख का मूल है। किंतु जब तक मन में संतोष और आशा का त्याग न हो तो दुख ही दुख है, यही आसुरी वृति भी है।
उन का परम अयन, स्थान काम और क्रोध ही होते हैं अर्थात् अपनी कामना पूर्ति के करने के लिये और क्रोधपूर्वक दूसरों को कष्ट देने के लिये ही उन का जीवन होता है। काम क्रोध के परायण मनुष्यों का यह निश्चय रहता है कि कामना के बिना मनुष्य जड हो जाता है। क्रोध के बिना उस का तेज भी नहीं रहता। कामना से ही सब काम होता है, नहीं तो आदमी काम करे ही क्यों कामना के बिना तो आदमी का जीवन ही भार हो जायगा। संसार में काम और क्रोध ही तो सार चीज है। इसके बिना लोग हमें संसार में रहने ही नहीं देंगे। क्रोध से ही शासन चलता है, नहीं तो शासक को मानेगा ही कौन क्रोध से दबाकर दूसरोंको ठीक करना चाहिये, नहीं तो लोग हमारा सर्वस्व छीन लेंगे। फिर तो हमारा अपना कुछ अस्तित्व ही नहीं रहेगा, आदि।
आसुरी प्रकृतिवाले मनुष्यों अपना भविष्य हमेशा असुरक्षित लगता है, बड़प्पन दिखाने और असुरक्षा की भावना के कारण, इन का उद्देश्य धन का संग्रह करना और विषयों का भोग करना होता है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये वे बेईमानी, धोखेबाजी, विश्वासघात, टैक्स की चोरी आदि कर के दूसरों का हक मारकर मन्दिर, बालक, विधवा आदि का धन दबाकर और इस तरह अनेक अन्यान्य पाप करके धन का संचय करना चाहते हैं। कारण कि उन के मन में यह बात गहराई से बैठी रहती है कि आजकल के जमाने में ईमानदारी से, न्याय से कोई धनी थोड़े ही हो सकता है ये जितने धनी हुए हैं, सब अन्याय, चोरी, धोखेबाजी कर के ही हुए हैं। ईमानदारी से, न्याय से काम करने की जो बात है, वह तो कहने मात्र की है काम में नहीं आ सकती। यदि हम न्याय के अनुसार काम करेंगे, तो हमें दुःख पाना पड़ेगा और जीवन धारण करना मुश्किल हो जायगा। ऐसा उन आसुर स्वभाव वाले व्यक्तियों का निश्चय होता है।
अविवेक से मोह, मोह से कामना और फिर कामना की पूर्ति हेतु आशा को जगाना। तब ऐसा लगने लगता है कि आशा ही जीवन है, जब कि यही आशा उस के अंदर अतृप्त कामनाओं, चिंताओं एवम क्रोध का मूल होती है। मोह एवम काम से विवेक नष्ट हो जाता है और यह शरीर एवम इस की आवश्यकता ही सर्वपरि हो जाती है, जिस के मनुष्य दर दर भटकता है। इस दर दर में वह मंदिर, सत्संग, साधु-संतों के पास भटकता है और कभी कभी दुष्ट लोगो के चक्कर मे भी पड़ जाता है।
आज के समय मे जिस सिंद्धान्तों को ले कर लोग बाते एवम आचरण करते है, उस का व्यवहारिक वर्णन इस के अधिक क्या होगा। आसुरी लोगों के स्वभाव को अधिक स्पष्ट करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण इस श्लोक में उनके कार्य कलापों का वर्णन करते हैं। सैकड़ों आशापाशों से बन्धे हुए पुरुष की मानसिक और बौद्धिक क्षमताओं का ह्रास होता रहता है। फिर वह अशान्त पुरुष प्रत्येक वस्तु, व्यक्ति और घटना के साथ अपने धैर्य को खोकर अपने विवेक और मानसिक सन्तुलन को भी खो देता है। उत्तेजना और सतत असन्तोष से ग्रस्त यह पुरुष काम और क्रोध के वशीभूत हो जाता है। कामना के अतृप्त या अवरुद्ध होने पर क्रोध उत्पन्न होना निश्चित है। कामना की पूर्ति के लिए वह संघर्ष करता है, परन्तु प्रतिस्पर्धा से पूर्ण इस जगत् में सदैव इष्ट प्राप्ति होना असंभव है और ऐसी परिस्थति में उसकी कामना उन्मत्त और उद्वेगपूर्ण क्रोध में परिवर्तित हो जाती है। अथक परिश्रम के द्वारा वे अपनी नित्य वर्धमान कामना को सन्तुष्ट करने में प्रयत्नशील होते हैं। भोग के लिए विषयों का परिग्रह आवश्यक होता है। वे शान्ति और सुख को खोजने के स्थान पर उस एक संज्ञाविहीन तृष्णा को तृप्त करने का प्रयत्न करते रहते हैं, जो कि एक दीर्घकालीन असाध्य रोग के समान होती है। अपनी मनप्रवृत्तियों का निरीक्षण अध्ययन एवं यथार्थ निर्णय पर पहुँचने के लिए आवश्यक मन सन्तुलन का उन में सर्वथा अभाव होता है। इच्छापूर्ति की विक्षिप्त भागदौड़ में वे जीवन के दिव्यतत्त्व से पराङ्मुख हो जाते हैं और सत्यासत्य के विवेक की भी उपेक्षा करते हैं। कामना से प्रेरित होने पर वे अन्यायपूर्वक अर्थ का संचय करने में व्यस्त हो जाते हैं।यद्यपि आसुरी लोगों के इन लक्षणों को पाँच हजार वर्षों पूर्व लिखा गया था, परन्तु आश्चर्य है कि इस खण्ड को पढ़ने पर ऐसा प्रतीत होता है, मानो यह आज के युग की कटु किन्तु सत्य आलोचना है इस प्रकार, यदि गीता के विद्यार्थी आज के गौरवशाली विज्ञान, भौतिक समृद्धि, लौकिक उपलब्धि और राजनीतिक मुक्ति के युग का परीक्षण करें, तो इस युग को आसुरी श्रेणी में ही मान्यता प्राप्त होगी। औद्योगिक संस्थानों के व्यापक प्रसार के चीखते हुए भोपुओं की कर्णकटु ध्वनि और आधुनिक वैज्ञानिक अस्त्रों के भयानक धमाके के मध्य तथा हमारे द्वारा आविष्कृत स्वविनाश की प्राकृतिक शक्तियों के कोलाहल में, हमे सुदूर काल के ज्ञानी पुरुषों के द्वारा उद्घोषित सत्य ही दिखाई देता है।
अत्याधिक धन का संग्रह वास्तव में मनुष्य के उपयोग में नही आता, या तो उस के मरने के बाद उस के आसपास के लोगो में बट जाता है और जीते जी देश के कानून का भय लगा ही रहता है। अनैतिक धन के खोने के अतिरिक्त कारावास का दंड भी भोगने लगा देता है।
पूर्व श्लोक से साथ इस श्लोक को पढ़ने से ज्ञात होगा कि असुर वृति में ज्ञान का अभाव होने से, उन्हे यह जगत और परमात्मा पर विश्वास या श्रद्धा नही रहती। इसलिए अपने तन को वे लोग भी विलास में सुख भोगने में लगा देते है। क्योंकि प्राकृतिक सुख क्षणिक होते है, इसलिए वे असंतुष्ट रहते है। इस से अविवेक उत्पन्न होता है और विवेक से काम, क्रोध, लोभ और चिंताएं उत्पन्न हो जाती है। सुख पाने की चेष्टाएं उन में कर्मफल की आशा के अनुरूप पाने की होती है और फिर और – और की रट शुरू हो जाती है। असुरक्षा, चिंता और अविश्वास के कारण वह संग्रह करने लगता है। इस के लिए वह समस्त मर्यादाओं को भंग कर के, निषिद्ध कार्य को करने और झगड़े आदि शुरू कर देता है। झूठे अभिमान के सहारे अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने लगता है।
श्रीमद्भागवतम् में वर्णन किया गया है; यावद् भ्रियेत जठरं तावत् स्वत्वं हि देहिनाम्।अधिकं योऽभिमन्येत से स्तेनो दण्डमर्हति ।।(श्रीमद्भागवतम्-7.14.8)
“कोई भी उतना धन रखने का अधिकारी है जितना उसकी देखभाल के लिए पर्याप्त है और शेष धन पुण्य कार्यों के लिए दान करना चाहिए। यदि कोई अपनी आवश्यकताओं से अधिक संग्रह करता है तब वह भगवान की दृष्टि में चोर कहलाता है और इसके लिए उसे दण्ड भोगना पड़ेगा।
आशा और कामनाओं के बंधन के परिणाम स्वरूप होने वाले उस के अन्य भाव को हम आगे के श्लोक में पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 16.12।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)