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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  16.11 II

।। अध्याय      16.11 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 16.11

चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः ।

कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः॥

“cintām aparimeyāḿ ca,

pralayāntām upāśritāḥ..।

kāmopabhoga- paramā,

etāvad iti niścitāḥ”..।।

भावार्थ: 

आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य जीवन के अन्तिम समय तक असंख्य चिन्ताओं के आधीन रहते है, उनके जीवन का परम-लक्ष्य केवल इन्द्रियतृप्ति के लिये ही निश्चित रहता है। (११)

Meaning:

Occupied with infinite worries that end only with death, they treat desire and consumption as the highest, assured that that is all.

Explanation:

So far, we saw how highly materialistic people inflict harm upon society. These materialistic people learn only to depend more and more on external factors; their very acquisition indicate they want happiness and security; depending on external factors. These materialistic people are miserable and unfortunately, they convert other people also to materialism; because that is the most tempting philosophy and therefore, they think life is only this much.

Now, Shri Krishna shows how they cause harm to themselves as well. He says that those devilish individuals, those with aasuri sampatti do not have even a single moment of peace. Their mind is always agitated with an infinite number of anxieties and worries. This state of affairs, this constant state of tension never ends, it goes on all the way till the end of their life.

Materially inclined people often reject the spiritual path on the grounds that it is too burdensome and laborious, and the final goal is too distant. They prefer to pursue the way of the world that promises to provide immediate gratification, but they end up struggling even more in the worldly direction. Their desires for material attainments torment them and they undertake enormous schemes to fulfill their aspirations. When a cherished object is attained, for a moment they experience relief, but then new anguish begins. They are worried about the object being snatched away and they labor to retain it. Finally, when the inevitable separation from the object of attachment takes place, there is only misery.

Every selfish desire comes pre-packaged with the seed of anxiety. Why is this so? In anyone’s life, there will always be one desire or another that remains unfulfilled. It is quite normal. But when we give the utmost importance to desire and consumption, when we make it the ultimate goal of life, our mind is in a constant state of agitation until each desire is fulfilled. And even if we have all the wealth and power in the world, there will always be something that we are missing, which will in turn generate anxiety.

But if our worldview incorporates something higher, if we seek a higher goal than goes beyond materialism, we expand our sense of self, our sense of I. Instead of only thinking about our own well-being, we start caring about our family, our parents, our city, our nation and so on. Now it does not matter if we have to undergo any suffering, because we care about something that is higher than us. The culmination of this expansion of self happens when we begin to have faith in the highest self, Ishvara, the faith that he will ensure our well-being. Consequently, our anxiety about our well-being begins to diminish.

।। हिंदी समीक्षा ।।

किसी ने कहा है कि “चिता दहत निर्जीव, चिंता जीव समेत”, अर्थात चिंता करनेवालों के लिए समस्या का कोई हल नहीं होता, क्योंकि असंतोष ही उन की चिंता मूल कारण है। जो स्वयं नित्य नहीं हो, वह अन्य को स्थायी सुख और शांति किस प्रकार दे सकता है। किंतु इस भौतिकवादी लोग नहीं समझ पाते।

भौतिक प्रवृत्ति वाले लोग प्रायः आध्यात्मिक मार्ग को अत्यन्त बोझिल और श्रमसाध्य मानने के कारण उस की अवहेलना करते हैं और अपने चरम लक्ष्य से दूर हो जाते हैं। वे सांसारिक मार्ग का अनुसरण करना पसंद करते हैं जो उनके अनुसार संभवतः शीघ्र तृप्ति प्रदान करने का भरोसा देता है लेकिन वे अंत तक सांसारिक दिशा में और अधिक संघर्ष करते रहते हैं। भौतिक पदार्थ को प्राप्त करने की इच्छाएँ उन्हें कष्ट देती हैं और वे फिर भी अपनी अभिलाषाओं की पूर्ति हेतु भव्य योजनाएँ बनाते हैं। जब उन्हें मनचाही वस्तु प्राप्त हो जाती है, तब वह कुछ समय के लिए राहत अनुभव करते हैं लेकिन बाद में नई चिंताएँ जन्म लेती हैं। वह सुख-सुविधाओं के छिन जाने की चिंता करने लगते हैं और उन्हें सुरक्षित रखने के लिए परिश्रम करते हैं। अंततः जब आसक्त वस्तु से अपरिहार्य अलगाव हो जाता है तब उन्हें दुख के अलावा कुछ प्राप्त नहीं होता।

मनुष्य की रोटी, कपड़ा और मकान, जीवन व्यापन की सब से महत्वपूर्ण चिंता ही जब जीवन का आधार बन जाये तो व्यक्ति का पूरा जीवन इसी चिंता में निकल जाता है कि उस के बिना उस का एवम उस के परिवार का क्या होगा। उसे परमार्थ से कोई लेना देना नही रहता, क्योंकि सांसारिक चिंताए ही उस के लिये जीने के लिये पर्याप्त होती है।

आसुरी सम्पदा वाले मनुष्यों में ऐसी चिन्ताएँ रहती हैं, जिनका कोई मापतौल नहीं है। जब तक प्रलय अर्थात् मौत नहीं आती, तब तक उन की चिन्ताएँ मिटती नहीं। ऐसी प्रलय तक रहने वाली चिन्ताओं का फल भी प्रलय ही प्रलय अर्थात् बार बार मरना ही होता है। चिन्ता के दो विषय होते हैं – एक पारमार्थिक और दूसरा सांसारिक। मेरा कल्याण, मेरा उद्धार कैसे हो परब्रह्म परमात्मा का निश्चय कैसे हो, इस प्रकार जिन को पारमार्थिक चिन्ता होती है, वे श्रेष्ठ हैं।

आसुरी सम्पदावालों को ऐसी चिन्ता नहीं होती। वे तो इससे विपरीत सांसारिक चिन्ताओं के आश्रित रहते हैं कि हम कैसे जीयेंगे अपना जीवन निर्वाह कैसे करेंगे हमारे बिना बड़े बूढ़े किस के आश्रित जीयेंगे हमारा मान, आदर, प्रतिष्ठा, इज्जत, प्रसिद्धि,  नाम आदि कैसे बने रहेंगे मरने के बाद हमारे बाल बच्चों की क्या दशा होगी। मर जायँगे तो धनसम्पत्ति, जमीन जायदाद का क्या होगा, आदि आदि। 

ये भौतिकवादी लोग केवल अधिक से अधिक निर्भर रहना सीखते हैं; अधिक से अधिक बाह्य कारकों पर निर्भर रहना; उनकी यह उपलब्धि ही दर्शाती है कि वे सुख और सुरक्षा चाहते हैं; बाह्य कारकों पर निर्भर रहना।

ये भौतिकवादी लोग दुखी हैं और दुर्भाग्य से वे अन्य लोगों को भी भौतिकवाद में परिवर्तित कर देते हैं; क्योंकि यह सबसे अधिक लुभावना दर्शन है और इसलिए वे सोचते हैं कि जीवन केवल इतना ही है।

ऐसे ही सभी व्यक्ति वस्तु आदि के रहते हुए ही मरते हैं। यह नियम नहीं है कि,धन पास में होने से आदमी मरता न हो। धन पास में रहते रहते ही मनुष्य निधन हो जाता है और धन पड़ा रहता है, काम में नहीं आता।

जीवन निर्वाह चीजों के संग्रह के अधीन नहीं है। परन्तु इस तत्त्व को आसुरी प्रकृतिवाले मनुष्य नहीं समझ सकते। वे तो यही समझते हैं कि हम चिन्ता करते हैं, कामना करते हैं, विचार करते हैं, उद्योग करते हैं, तभी चीजें मिलती हैं। यदि ऐसा न करें, तो भूखों मरना पड़े।

उनका यह निश्चय होता है कि सुख भोगना और संग्रह करना  इसके सिवाय और कुछ नहीं है। इस संसार में जो कुछ है, यही है। अतः उनकी दृष्टि में परलोक एक ढकोसला है। उन की मान्यता रहती है कि मरने के बाद कहीं आना जाना नहीं होता। बस, यहाँ शरीर के रहते हुए जितना सुख भोग लें, वही ठीक है क्योंकि मरनेपर तो शरीर यहीं बिखर जायगा। शरीर स्थिर रहनेवाला है नहीं, आदिआदि भोगों के निश्चय के सामने वे पापपुण्य, पुनर्जन्म आदि को भी नहीं मानते।

चिन्ता और व्याकुलता से ग्रस्त ये हतोत्साहित लोग अपने निरर्थक उद्यमों के जीवन को दुख के गलियारे से खींचते हुए मृत्यु के आंगन में ले आते हैं। सामान्य जीवन में, ये चिन्ताएं शान्ति और आनन्द के दुर्ग पर टूट पड़ती हैं और विशेष रूप से तब, जब शक्तिशाली कामनाओं ने मनुष्य को जीतकर अपने वश में कर लिया होता है। अपनी इष्ट वस्तुओं को प्राप्त करने (योग) के लिए परिश्रम और संघर्ष तथा प्राप्त की गयी वस्तुओं के रक्षण (क्षेम) की व्याकुलता, यही मनुष्य जीवन की चिन्ताएं होती हैं। जीवन पर्यन्त की कालावधि केवल इन्हीं चिन्ताओं में अपव्यय करना और अन्त में, यही पाना कि हम उसमें कितने दयनीय रूप से विफल हुए हैं। वास्तव में एक बड़ी त्रासदी है।कामोपभोगपरमा सत्कार्य के क्षेत्र में हो या दुष्कृत्य के क्षेत्र में, मनुष्य को निरन्तर कार्यरत रहने के लिए किसी दर्शन (जीवन विषयक दृष्टिकोण) की आवश्यकता होती है, जिसके बिना उसके प्रयत्न असंबद्ध, हीनस्तर के और निरर्थक होते हैं। आसुरी स्वभाव के लोगों का जीवनदर्शन निरपवादरूप से सर्वत्र एक समान ही होता है। इस श्लोक में चार्वाक मत (नास्तिक दर्शन) को इंगित किया गया है। इस मत के अनुसार काम ही मनुष्य जीवन का परम पुरषार्थ है, अन्य धर्म या मोक्ष कुछ नहीं। इतना ही है सामान्यत, ये भौतिकतावादी मूर्ख नहीं होते? परन्तु वे अत्यन्त स्थूल बुद्धि और सतही दृष्टि से विचार करते हैं। वे यह अनुभव करते हैं कि केवल विषय भोग का जीवन दुखपूर्ण होता है और इस में क्षुद्र लाभ के लिये मनुष्य को अत्यधिक मूल्य चुकाना पड़ता है। फिर भी, वे अपनी अनियंत्रित कामवासना को ही तृप्त करने में रत और व्यस्त रहते हैं। उनसे यदि इस विषय में प्रश्न पूछा जाये, तो उनका उत्तर होगा कि यह संघर्ष ही जीवन है। वह सुख और शान्तिमय जीवन को जानते ही नहीं है। वे प्राय निराशावादी होते हैं और नैतिक दृष्टि से जीवन विषयक गंभीर विचार करने से कतराते हैं। फलत उनमें आत्महत्या और नर हत्या की प्रवृत्तियाँ भी देखी जा सकती हैं। उनकी धारणा यह होती है कि चिन्ता और दुख से ही जीवन की रचना हुई है। जीवन के सतही असामञ्जस्य और विषमताओं के पीछे जो सामञ्जस्य और लय है, उसे वह पहचान नहीं पाते। भविष्य में कोई आशा की किरण न देखकर उनका हृदय कटुता से भर जाता है और फिर उनका जीवन मात्र प्रतिशोधपूर्ण हो जाता है। निष्फल परिश्रम में वे अपनी शक्तियों का अपव्यय करते हैं और अन्त में थके, हारे और निराश होकर दयनीय मृत्यु को प्राप्त होते हैं।

या चिन्ता भूवि पुत्र पौत्र भर्नाव्यापार सम्भाषणे, या चिन्ता धन धान्य यशसाम् लाभे सदा जायते.। सा चिन्ता यदि नंदनंदन पदद्वंद्वार विन्दक्षनं, का चिन्ता यमराज भीम सदनद्वारपरायणे विभो.।। (सूक्ति सुधाकर)

लोग बच्चों और पोते-पोतियों को पाने की इच्छा, व्यावसाय में व्यस्त रहने, धन संपदा संचित करने और यश प्राप्त करने के लिए सांसारिक प्रयासों में अवर्णित चिंताएँ और तनाव झेलते हैं। यदि वे समान अनुपात में भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में अनुराग और उत्साह विकसित करेंगें तब उन्हें कभी पुनः मृत्यु के देवता यमराज के भय की चिंता नहीं करनी पड़ेगी जिसके परिणामस्वरूप वे जन्म और मृत्यु के चक्र को पार कर लेंगे”

किन्तु आसुरी स्वभाव वाले लोग इस अटल सत्य को स्वीकार नहीं करते क्योंकि उनकी बुद्धि यह समझती है कि सांसारिक सुखों में ही परम आनन्द की अनुभूति हो सकती है। वे यह नहीं देख सकते कि मृत्यु धैर्यपूर्वक उन्हें दयनीय नियति में धकेलने और भावी जन्मों में और अधिक कष्टों में डालने की प्रतीक्षा कर रही है।

उपर्युक्त जीवन दर्शन की अभिव्यक्ति को अगले श्लोक में बताते हुये भगवान् कहते हैं

।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 16.11।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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