।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 16.10 II
।। अध्याय 16.10 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 16.10॥
काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः ।
मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः॥
“kāmam āśritya duṣpūraḿ,
dambha- māna- madānvitāḥ..।
mohād gṛhītvāsad- grāhān,
pravartante ‘śuci- vratāḥ”..।।
भावार्थ:
आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य कभी न तृप्त होने वाली काम-वासनाओं के अधीन, झूठी मान-प्रतिष्ठा के अहंकार से युक्त, मोहग्रस्त होकर ज़ड़ वस्तुओं को प्राप्त करने के लिये अपवित्र संकल्प धारण किये रहते हैं। (१०)
Meaning:
Filled with insatiable desires, with pretentiousness, pride and arrogance, holding untrue views in delusion, they work with impure resolve.
Explanation:
A major aspect of the materialistic world view is greed. Shri Krishna refers to this greed using the phrase duspooram kaamam, meaning selfish desires that can never be satisfied or fulfilled. People who follow the materialistic world view believe that one who is without selfish desires is as good as dead. They do not believe that selfless action, work those benefits someone other than themselves, is worth anything.
There are no limit materialistic desires. Fulfilment of worldly desires can never give total satisfaction. So, it is like mirage water; from distance there seems to be water; when I go near, it recedes further. And similarly, we have a false hope that the fulfilment of materialistic desires will give us satisfaction, but we find once one set of desires are fulfilled; the next set is ready.
Therefore Krishna says, duśpūraṃ; nobody is satiated; and they say it is like pouring ghee into the fire; you want to subside; you want to quench, the fire by offering ghee it will never be extinguished; it only increases; so duśpūraṃ kamaṃ asrithya.
This greed propels them to dambhaha or pretentiousness. They do not see the harm in putting on a show in order to gain favours or get what they want. As they accumulate more wealth and power, they feed their superiority complex, resulting in maanaha or excessive pride. When their pride reaches greater and greater heights, they become drunk with their ill-gotten accomplishments and possessions. This is mada, intoxication.
So, because of satisfying their petty desires, they have got arrogance; arrogance means pomp and show and maan means pride and vanity; abhimaan or ego means; they are full of these negative traits. Because material need makes us feel lacking and its fulfilment satisfies false pride in us. And all this happens because of delusion. What is delusion? Getting limited in the greed of our needs and fulfilment of that. Whatever I will get in life by effort; it will be limited both in time and size. Any karma phala is paricinnam only. I start as a finite being; no matter how many limited goals I add, I only go from limit to limit; infinity will not come. This they do not understand because of delusion.
We keep coming back to the theme of ignorance and delusion, of moha, when we analyse the materialistic world view. When one cannot tell right from wrong, one begins to develop views that are not based on truth or rationality, termed in the shloka as moha-asat. It is no surprise that the activities or undertakings of such people are impure, lawless, without any consideration of duty or the big picture. Defrauding others or destroying others property are illegal in the eyes of the law, but perfectly legal from their standpoint.
।। हिंदी समीक्षा ।।
आसुरी प्रवृति अन्तःकरण की होती है, दिखावे की नहीं। दिखावा तो व्यक्ति विशेष सात्विक, सत्य का आचरण करने वाला और बिना काम और लोभ का करता है। इसलिये पूर्व श्लोक से हमे गंभीरता से एक एक प्रवृति को समझना चाहिये, क्योंकि यही प्रवृति मौका देखती है और आदमी को धर दबोचती है। इसलिये कहा भी जाता है, यदि समाज, धर्म, परिवार एवम सरकार का भय न हो, तो क्या हम वही है, जो हम आज हम अपने को सभी के सामने प्रस्तुत कर रहे है। इस प्रवृत्ति की अब और बाते जानते है।
वे आसुरी प्रकृतिवाले कभी भी पूरी न होनेवाली कामनाओं का आश्रय लेते हैं। जैसे कोई मनुष्य भगवान् का, कोई कर्तव्य का, कोई धर्म का, कोई स्वर्ग आदि का आश्रय लेता है। ऐसे ही आसुर प्राणी कभी पूरी न होनेवाली कामनाओं का आश्रय लेते हैं। उन के मन में यह बात अच्छी तरह से जँची हुई रहती है कि कामना के बिना आदमी पत्थर जैसा हो जाता है कामना के आश्रय के बिना आदमी की उन्नति हो ही नहीं सकती आज जितने आदमी नेता, पण्डित, धनी आदि हो गये हैं, वे सब कामना के कारण ही हुए हैं। इस प्रकार कामना के आश्रित रहनेवाले भगवान् को, परलोक को, प्रारब्ध आदि को नहीं मानते।
भौतिकवादी इच्छाओं की कोई सीमा नहीं होती। सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति कभी भी पूर्ण संतुष्टि नहीं दे सकती। तो यह मृगतृष्णा के पानी की तरह है; दूर से पानी लगता है; पास जाने पर पानी दूर चला जाता है और इसी तरह हमें यह झूठी उम्मीद होती है कि भौतिकवादी इच्छाओं की पूर्ति से हमें संतुष्टि मिलेगी, लेकिन हम पाते हैं कि एक इच्छा पूरी होते ही दूसरी इच्छा तैयार हो जाती है।
अक्सर लोग जिन्होंने गीता जैसे ग्रंथो का अध्ययन नही किया होता है, यह प्रश्न करते ही है कि बिना फल की इच्छा के कौन काम कर सकता है। जैसे बिना वेतन के नौकरी कोई नही करना चाहता, वैसे ही बिना स्वार्थ या फल की प्राप्ति के कोई भी किसी कार्य को नही करता, फल ही किसी कार्य को करने की प्रेरणा होता है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं; दुष्पूरं, अर्थात कोई भी तृप्त नहीं होता और वे कहते हैं कि यह अग्नि में घी डालने के समान है। तुम उसे शांत करना चाहते हो और तुम उसे बुझाना चाहते हो, किंतु घी डालने से अग्नि कभी नहीं बुझेगी, वह केवल बढ़ती ही जाएगी, इसलिए यह दुष्पूरं कामं आश्रिता है।
इसलिए अपनी क्षुद्र इच्छाओं को पूरा करने के कारण, उन्हें दंभ मिला है; दंभ का अर्थ है आडंबर और दिखावा और मान का अर्थ है गर्व और मद; अभिमान या अहंकार का अर्थ है; वे इन नकारात्मक लक्षणों से भरे हुए हैं। क्योंकि भौतिक आवश्यकता हमे कमी महसूस करवाती है और उस की पूर्ति हो जाना हमारे अंदर मिथ्या अभिमान की संतुष्टि देता है।और यह सब भ्रम के कारण होता है। भ्रम क्या है? अपनी आवश्यकताओं के लोभ और उस की पूर्ति में सीमित हो जाना। प्रयास से मैं जीवन में जो कुछ भी प्राप्त करूंगा; वह समय और आकार दोनों में सीमित होगा। कोई भी कर्म फल परिचिन्नम ही है। मैं एक ससीम प्राणी के रूप में शुरू करता हूं; कितने भी सीमित लक्ष्य जोड़कर, मैं केवल सीमा से सीमा की ओर जाता हूं; अनंतता नहीं आएगी। यह वे भ्रम के कारण नहीं समझते हैं।
अतृप्त काम वासनाओं को मार्ग प्रदान कर आसुरी मानसिकता वाले लोग भीषण रूप से अपने ईश्वरीय हृदय को दूषित करते हैं। वे पूर्णतया ढोंगी बन जाते हैं और जो वे वास्तव में नहीं हैं वैसा होने का अभिनय करते हैं। उनकी मोहित बुद्धि अनुचित विचारों को अंगीकार करती है और उनका अभिमान उनमें यह भ्रम उत्पन्न करता है कि उनके बराबर कोई नहीं है। क्षणभंगुर सुखों के लिए उनकी बुद्धि तुच्छता, स्वार्थ और अभिमान से ग्रसित हो जाती है। इस प्रकार से वे शास्त्रों की आज्ञाओं का निरादर करते हैं और जो उचित और सत्य है उसके विपरीत आचरण करते हैं।
वे दम्भ, मान और मद से युक्त रहते हैं अर्थात् वे उन की कामनापूर्ति के बल हैं। जहाँ जिन के सामने जैसा बनने से अपना मतलब सिद्ध होता हो अर्थात् धन, मान, बड़ाई, पूजाप्रतिष्ठा, आदरसत्कार, वाह वाह आदि मिलते हों। वहाँ उन के सामने वैसा ही अपने को दिखाना दम्भ है। अपने को बड़ा मानना, श्रेष्ठ मानना मान है। हमारे पास इतनी विद्या, बुद्धि, योग्यता आदि है — इस बात को लेकर नशा सा आ जाना मद है। वे सदा दम्भ, मान और मद में सने हुए रहते हैं, तदाकार रहते हैं।
उन के व्रतनियम बड़े अपवित्र होते हैं जैसे — इतने गाँव में, इतने गायों के बाड़ों में आग लगा देना है इतने आदमियों को मार देना है आदि। ये वर्ण, आश्रम, आचारशुद्धि आदि सब ढकोसलाबाजी है अतः किसी के भी साथ खाओ-पीओ। हम कथा आदि नहीं सुनेंगे हम तीर्थ, मन्दिर आदि स्थानोंमें नहीं जायँगे – ऐसे उन के व्रतनियम होते हैं।ऐसे नियमों वाले डाकू भी होते हैं। उन का यह नियम रहता है कि बिना मारपीट किये ही कोई वस्तु दे दे, तो वे लेंगे नहीं। जबतक चोट नहीं लगायेंगे, घाव से खून नहीं टपकेगा, तब तक हम उसकी वस्तु नहीं लेंगे, आदि।
मूढ़ता के कारण वे अनेक दुराग्रहों को पकड़े रहते हैं। तामसी बुद्धि को लेकर चलना ही मूढ़ता है। वे शास्त्रों की, वेदों की, वर्णाश्रमों की और कुल परम्परा की मर्यादा को नहीं मानते, प्रत्युत इन के विपरीत चलने में, इन को भ्रष्ट करने में ही वे अपनी बहादुरी, अपना गौरव समझते हैं। वे अकर्तव्य को ही कर्तव्य और कर्तव्य को ही अकर्तव्य मानते हैं। हित को ही अहित और अहित को ही हित मानते हैं, ठीक को ही बेठीक और बेठीक को ही ठीक मानते हैं। इस असद्विचारों के कारण उन की बुद्धि इतनी गिर जाती है कि वे यह कहने लग जाते हैं कि मातापिता का हमारे पर कोई ऋण नहीं है। उन्होंने हमारे लिए किया ही क्या है ? उन से हमारा क्या सम्बन्ध है झूठ, कपट, जालसाजी करके भी धन कैसे बचे आदि उनके दुराग्रह होते हैं।
जिस गर्व के साथ एक नितान्त भौतिकवादी व्यक्ति अपनी उपलब्धियों के क्षेत्र में विचरण करता है, उस के आन्तरिक स्वभाव की भयंकर विद्रूपता को, व्यासजी के द्वारा किये गये इस वर्णन से अधिक अच्छी प्रकार से व्यक्त नहीं किया जा सकता। आसुरी पुरुष की मनस्थिति तथा समाज में उसके कर्मों का स्तर का और अधिक स्पष्ट एवं सम्पूर्ण वर्णन पाने के लिए हमें विश्व की सभी भाषाओं के विद्यमान साहित्य में खोजबीन करनी होगी, फिर भी इस सारगर्भित श्लोक के समतुल्य चित्रण पाने में हमें असफलता ही मिलेगी।काममाश्रित्य इच्छाओं की प्रेरणा के बिना कर्म कदापि नहीं हो सकते हैं। इच्छाओं के अभाव में जीवन की उपलब्धियाँ असंभव है। तथापि, कामनाओं का शिकार बने रहने का अर्थ है कर्मों का कोई भयंकर यन्त्र बनना, जो जगत् में अहंकार और अहंकार केन्द्रित मनोद्वेगों के विष का वमन करता रहता है। कामनाओं की तृप्ति के लिए ही जीवन धारण करना अविवेक का लक्षण है क्योंकि कामना का यह विशेष कौशल है कि जैसेजैसे हम उसे तृप्त करते जाते हैं वैसे वैसे ही, वह द्विगुणित होती जाती है। उन्हें तृप्त करना कठिन है, वे दुष्पूर हैं। ऐसी कामनाओं से युक्त पुरुष जब अपने विवेक और सार्मथ्य का उपयोग करता है। तब स्वाभाविक है कि वह अपने मन में तथा बाह्य जगत् में विक्षेप और दुर्व्यवस्था को उत्पन्न करता है। कामना क्या है विषयोपभोग के द्वारा शाश्वत सुख और सन्तोष को प्राप्त करने का जीव का प्रयत्न ही कामना है। जब वह इस प्रकार मोहित हो जाता है, तब वह दम्भ, मद और मान का भी शिकार बन जाता है। उन के द्वारा प्रताड़ित वह अपनी निरंकुश इच्छाओं को तृप्त करने के लिए सतत संघर्ष और परिश्रम करता रहता है।मोहात् परिपूर्ण और तृप्त पुरुष के मन में कामना नहीं हो सकती। जो पुरुष अपने अनन्त स्वरूप को न जानकर स्वयं को परिच्छिन्न जीव ही समझता है, केवल उसे ही विषयों की कामना हो सकती है। इसे ही मोह कहते हैं।असुर लोगों के मन का चरित्र इस श्लोक की द्वितीय पंक्ति में पूर्ण होता है। उन्हें यहाँ अशुचिव्रता कहा गया है। इसका अभिप्राय है कि ऐसे आसुरी स्वभाव के लोग येन केन प्रकारेण अपने ही सुख और शान्ति के लिए प्रयत्न करने में अन्य लोगों का कुछ भी महत्व नहीं समझते हैं। जीवन के सभी आदर्श मूल्यों को ताक में रखकर निर्लज्ज, असहिष्णु और क्रूर तक होकर वे अपने कार्यक्षेत्र में संघर्षरत रहते हैं। कामवासना से मदोन्मत्त और स्वार्थ से संवेदनाशून्य वह व्यक्ति जगत् में पागल के समान अपने चारों ओर रक्त और अम्ल फेंकता हुआ विपत्ति और विनाश का ही कार्य करता है एक व्यष्टि की दृष्टि से यह चित्र हमें एक ऐसे भोगवादी पुरुष को दर्शाता है, जो अपने जीवन का निर्माण कामना से विक्षुब्ध हुए मन की चंचल तरंगों पर करता है। समष्टि की दृष्टि से देखने पर यही शब्द चित्र हमें भौतिकवादी जनसमुदायों और राष्ट्रों की स्थिति का दर्शन कराता है। जीवन की सुन्दरता उस तत्त्वज्ञान की सुन्दरतापर निर्भर करती है, जिस पर जीवन का निर्माण होता है यदि नींव ही असत् हो, तो उसके ऊपर निर्मित ताश का महल अधिक सुदृढ़ नहीं हो सकता। यदि हम इस श्लोक को सूक्ष्मदृष्टि से देख सकें, तो ज्ञात होगा कि इसमें आज के जगत् में सर्वत्र अनुभव हो रहे आर्थिक विघटन, सामाजिक दोष, राजनीतिक उथलपुथल और अशान्ति का सम्पूर्ण विवेचन किया गया है।उपर्य़ुक्त वर्णन के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण अप्रत्यक्ष रूप से एक ऐसे भौतिकवादी पुरुष का चित्रण कर रहे हैं, जो अपने स्वभाव से ही नास्तिक विचारधारा का है तथा भोग के लिए ही कर्म करता है।
उपरोक्त दो श्लोक पढ़ने के बाद हमे कुछ उन लोगो को याद करना पड़ता है, जो अपनी अदृढ़ भावनाओं के कारण रावण, कंस, दुर्योधन एवम आज के युग मे भी उन लोगो की वकालत करते है एवम उन के साथ खड़े होते है, जिन का उद्देश्य सामाजिक व्यवस्था को अपने स्वार्थ के तहस नहस करना होता है। राजनीति अच्छी बात सामाजिक प्राणी के लिये नही भी हो सकती, किन्तु यदि कोई गलत व्यक्ति आप की दया, ममता, सहिनुष्णता को आप की दुर्बलता बना कर उपयोग करता है और आप उस की आसुरी प्रवृति को पहचान नही पाते।
आज के युग में अपने ही बनाए नियम और सिद्धांतो के आधार पर व्रत, नियम और पूजा – पाठ करने वाले, काम, लोभ, मद और अहंकार में अपने ही नैतिक गुणों को बना कर कार्य करने वाले, जैसे शराब का सेवन भी करना और मां दुर्गा की भक्ति भी करना। हिंदू त्योहारों में अक्सर तिथि को ले कर दुविधा उस त्योहार के औपचारिक रूप से मनाने की रहती है, किंतु त्योहार के नियम, आत्मशुद्धि और संयम को ले कर कभी नहीं होती।
सत्कर्म, सद्भाव और सद्विचारों के अभाव में उन आसुरी प्रकृति वालों के नियम, भाव और आचरण किस उद्देश्य को लेकर और किस प्रकार के होते हैं, अब उन को आगे पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 16.10।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)