।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 16.06 II
।। अध्याय 16.06 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 16.6॥
द्वौ भूतसर्गौ लोकऽस्मिन्दैव आसुर एव च ।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ में श्रृणु॥
“dvau bhūta-sargau loke ‘smin
daiva āsura eva ca
daivo vistaraśaḥ prokta
āsuraḿ pārtha me śṛṇu”
भावार्थ:
हे अर्जुन! इस संसार में उत्पन्न सभी मनुष्यों के स्वभाव दो प्रकार के ही होते है, एक दैवीय स्वभाव और दूसरा आसुरी स्वभाव, उनमें से दैवीय गुणों को तो विस्तार पूर्वक कह चुका हूँ, अब तू आसुरी गुणों को भी मुझसे सुन। (६)
Meaning:
In this world, two types of beings have been created, the divine and the devilish. The divine has been described elaborately. The devilish, O Paartha, listen from me now.
Explanation:
Although Shri Krishna had reassured Arjuna in the previous shloka, he knew that all individuals had a mix of divine and devilish qualities in them, including Arjuna. It was not either or. The devilish qualities within Arjuna had erupted at the start of the war in the first chapter, so there was certainly room for improvement. Knowing this, Shri Krishna proceeded to describe the devilish qualities in detail in this chapter.
From our perspective, we are always struggling between progressing on the spiritual journey versus conforming to the prevalent way of life – materialism. While there is nothing inherently wrong with enjoying whatever life has to offer, society urges us sometimes to get carried away with the pursuit of materialism, without pointing out the downside of doing so. It is instructive to see how little has changed between the materialistic worldview of Shri Krishna’s time and the present day.
So, from the next shloka to the end of this chapter, Shri Krishna paints a detailed picture of the materialistic world view that many of us have taken for granted. He describes the way they think and feel, their attitude towards people and objects, and the consequences of their materialistic viewpoint.
।। हिंदी समीक्षा ।।
पूर्व अध्याय में अश्वत्त्व वृक्ष का वर्णन आया था, जिस के मूल में ब्रह्मा अर्थात प्रजापति है, जिन्होंने यह सम्पूर्ण सृष्टि की रचना की। उसी रचना में दो प्रवृतियां उत्पन्न हुई जिन्हें हम ने देवी सम्पदा एवम आसुरी संपदा के नाम से जाना। यह प्रवृतियां प्रत्येक जीव में रहती है क्योंकि देव एवम असुर दोनों ही ब्रह्मा जी की रचना है।
सभी आत्माएँ अपने पिछले जन्मों से अपने स्वभाव साथ लेकर चलती हैं। तदनुसार, जो लोग पिछले जन्मों में सद्गुणों का पालन करते हैं और पुण्य कर्म करते हैं, वे दैवीय स्वभाव के साथ जन्म लेते हैं, जबकि जो लोग पिछले जन्मों में पाप करते हैं और अपने मन को दूषित करते हैं, वे वर्तमान जन्म में भी वही प्रवृत्तियाँ लेकर चलते हैं। यह दुनिया में जीवों के स्वभाव की विविधता को स्पष्ट करता है। दैवीय और आसुरी स्वभाव इस वर्णक्रम के दो चरम हैं।
श्रीवसिष्ठजी कहते हैं ‘श्रीराम! क्षेत्रज्ञ ही वासना का संकलन कर के अहंकारभाव को प्राप्त होता है। अहंकार ही निश्चयात्मक- वृत्ति युक्त होकर, जब निर्णायक एवं विभिन्न कल्पनाओं से युक्त होता है; तब उसे बुद्धि कहते हैं।संकल्प- युक्त बुद्धि ही मन का स्थान ग्रहण करती है तथा घनीभूत विकल्पों से युक्त मन ही धीरे – धीरे इन्द्रियभाव को प्राप्त होता है। अतः जीव के अज्ञान का मूल भाव की शुरुवात अहम भाव से है और यही अहंकार तामसी अर्थात आसुरी वृति का जनक भी है। जब मूल में ही असुर वृति हो, तो देवी सम्पदा के लिए आसुरी वृति के अध्यास की आवश्यकता होती है जो हम अभ्यास और वैराग्य से प्राप्त कर सकते है।
मनुष्य में दैवी और आसुरी दोनों ही गुण समाहित होते हैं। क्रूरतम कसाई में भी हम कभी-कभी व्यक्तिगत जीवन में दयालुता का गुण पाते हैं। और उच्च आध्यात्मिक साधकों में भी हम सद्गुणों के दोष पाते हैं। कहा जाता है कि सत्ययुग में देवता और राक्षस अलग-अलग ग्रहों (अर्थात अस्तित्व के अलग-अलग तल) पर रहते थे; त्रेतायुग में वे एक ही ग्रह पर रहते थे; द्वापर युग में वे एक ही परिवार में रहते थे; और कलियुग में दैवी और आसुरी दोनों ही प्रकृतियाँ एक ही व्यक्ति के हृदय में सह-अस्तित्व में रहती हैं। यही मानव अस्तित्व की दुविधा है, जहाँ उच्चतर आत्मा उसे ऊपर की ओर भगवान की ओर खींचती है, जबकि निम्नतर आत्मा उसे नीचे की ओर खींचती है।
गुणों का होना या न होना यह दोनो जीव के स्वभाव पर निर्भर है। इस के लिए सूप और छलनी के तुलात्मक अध्ययन से हम समझ सकते है। सूप का स्वभाव अनाज को रख कर थोथा उड़ा देने का है और छलनी का स्वभाव आटा छान कर चोकर को रखने का है। इसलिए जब कोई ज्ञान की बाते की जाती है तो लोग सूप और छलनी के स्वभाव से अनुसार अपने अपने स्वभाव के अनुसार ग्रहण करते है। प्रकृति सभी को समान रूप में पालन करती है।
विश्व में अपने प्रारम्भिक काल से ही एक दूसरे से सर्वदा विपरीत दो प्रकार की शक्तियों का सदैव अस्तित्व रहता आया है। जिसमें से एक शक्ति अच्छाई की प्रतीक होते हुए जीवन में हमें सकारात्मकता का अहसास कराती रहती है। ऐसी शक्तियों में प्रेम, दया, शांति, परोपकार, त्याग, सत्यता, अहिंसा इत्यादि की भावना होती हैं। जबकि इसके विपरीत दूसरी शक्ति बुराई की प्रतीक होते हुए जीवन में हमें नकारात्मकता का अहसास कराती रहती है। ऐसी शक्तियों में घृणा, क्रूरता, अशांति, स्वार्थ सिद्धि, दूसरों से छीनना, असत्यता, हिंसा इत्यादि की भावना होती है।
यह दुनिया दोनों प्रकार के लोगों से मिलकर ही बनी है यह दुनिया अपने प्रारम्भ काल से ही दोनों प्रकार के लोगों से मिलकर ही बनी है और इसमें सदैव दोनों प्रकार के लोगों का अस्तित्व रहता आया है। इसमें से पहले प्रकार के लोगों में ऐसे गुण विधमान होते है जिसे जीवन में हम अच्छाई का प्रतीक मानते है। हम ऐसे लोगों के लिए देवता, धर्मात्मा सज्जन, नायक इत्यादि विशेषणों का उपयोग करते हैं। जबकि दूसरे प्रकार के लोगों में ऐसे गुण विधमान होते है जिसे जीवन में बुराई का प्रतीक माना जाता है। हम ऐसे लोगों के लिए दैत्य, शैतान, दुष्टात्मा, दुर्जन, खलनायक इत्यादि विशेषणों का उपयोग करते हैं।
दोनों प्रकार के लोगों में निरंतर संघर्ष का चलते रहना इस दुनिया के प्रारम्भ काल से ही दोनों प्रकार के लोगों में किसी न किसी रुप में संघर्ष चलता आ रहा है। इन संघर्षों के मूल में यही कारण छिपा होता है की अच्छाई की प्रतीक वाले लोग सुख व शांति के साथ अपना जीवन जीना चाहते है। लेकिन बुराई की प्रतीक वाले लोग न तो स्वयं सुख व शांति के साथ अपना जीवन जीते है तथा न ही दूसरे लोगों को भी सुख व शांति से जीने देते हैं और उन्हें किसी न किसी रुप से परेशान करते रहते है। इस कारण दोनों के बीच समय- समय पर अलग- अलग रुप में निर्णायक संघर्ष की नौबत आती रहती है। यह निर्णायक संघर्ष कभी राम- रावण युद्ध के रुप में तो कभी महाभारत के रुप में तो कभी बड़े आंदोलन के रुप में तो कभी किसी और रूप में सामने आता रहता है, जिस में सदैव अच्छाई की ही जीत होती आईं है। वर्तमान समय में यही बुराई की प्रतीक अलग- अलग रुप में उभर कर जीवन में हमारे सामने आ रही है।
देवासुर संग्रामो से ले कर द्वितीय विश्व युद्ध तक सभी संघर्ष इन दो संपदा के गुणों से युक्त जीव में होता आया है।
मनुष्य के मन- मस्तिष्क में भी इस महाभारत के संघर्ष का चलना – मनुष्य के मन- मस्तिष्क में भी दुनिया की अच्छाई तथा बुराई दोनों का प्रतिबिंब होता है तथा इसमें भी दुनिया की तरह सदैव दोनों प्रकार के विचार विद्यमान रहते है। अर्थात इसमें भगवान भी मौजूद होता है तो शैतान भी मौजूद होता है। इस में राम भी मौजूद होता है तो रावण भी मौजूद होता है। इस में नायक (हीरो) भी मौजूद होता है तो खलनायक (विलेन) भी मौजूद होता है। इस कारण मनुष्य के मन- मस्तिष्क के अन्दर में भी समय- समय पर दोनों प्रकार के विचारों के बीच संघर्ष रुपी महाभारत चलता ही रहता है। मन- मस्तिष्क में स्थित अच्छे विचार व्यक्ति को अपनी और खींचने का प्रयास करते है जबकि बुरे विचार उसे अपनी और खींचने का प्रयास करते है। लेकिन इन दोनों में से उस व्यक्ति के मन- मस्तिष्क पर जिस का प्रभाव तथा शक्ति अधिक हावी होती है मनुष्य अंतिम तौर उसी और खींचा चला जाता है और अंतिम रूप उसी के अनुरूप कार्य करने लगता है।
अच्छाई- बुराई के संघर्ष में अच्छाई को कैसे हावी रखें – यदि व्यक्ति यह चाहता है की उसके मन- मस्तिष्क में चलने वाले अच्छाई और बुराई रूपी इस संघर्ष में उसके जीवन में सदैव अच्छाई वाली शक्तियाँ ही हावी रहे तो इस के लिए उसे समय- समय पर तथा निरन्तर अच्छे विचारों को अपने मन- मस्तिष्क तक पहुंचाते रहना चाहिये। जिससे जब भी उसके जीवन में अच्छाई तथा बुराई में निर्णायक संघर्ष की नौबत आये तो इसमें सदैव अच्छे विचारों की शक्ति तथा संख्या बल बुरे विचारों की शक्ति तथा संख्या बल से अधिक होने के कारण उस पर सदैव हावी रहे तथा उस व्यक्ति को जीवन में हमेशा अच्छाई के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते रहे।
आज के व्यवहारिक युग में हम महाभारत में भी देखते है कि दुर्योधन के अधर्म के विरुद्ध भी कर्ण, भीष्म, द्रोण और अन्य कई राजा उस से सहमत नहीं होते हुए भी उस के साथ अपने अपने कारणों के कारण खड़े थे। आज भी भ्रष्टाचार, देश विभाजन या अलगाववादी शक्तियों या सनातन धर्म को हानि पहुंचाने वाले लोगों के साथ अनेक हिंदू खड़े है जिन के अपने अपने कारण या मजबूरी है। सत्य या धर्म का हर व्यक्ति साथ देगा, यह मिथ्या धारणा है। राम के साथ युद्ध करते समय रावण गलत है, जानते हुए भी अनेक योद्धाओं ने रावण का साथ दिया। आसुरी प्रवृति के लोग अकेले नहीं होते, उन के साथ उन का समूह होता है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी प्रवृति या संपदा ले कर आता है, इसलिए संघर्ष करने वाले को अच्छे और बुरे दोनों व्यक्तियों से संघर्ष करना होता है। अर्जुन युद्ध में अपने गुरु, पितामह और स्वजनों को देख कर विचलित होता है किंतु उसे भी समझना होगा कि दैवी संपदा से युक्त लोग में भी आसुरी संपदा उन्हे अनुचित कार्यों की ओर प्रेरित कर देती है और ज्ञान के अभाव में वे इसे नहीं समझ पाते या समझाने से भी नियति और प्रवृति से मजबूर हो कर समझने के लिए तैयार नहीं होते। अतः यदि हमे हमारी अच्छाइयां मालूम हो तो भी बुराइयों का भी ज्ञान होना अति आवश्यक है।
जीव परमात्मा का अंश है किंतु स्वभाव परमात्मा के नियमो पर चलने वाली प्रकृति का। उत्पादन की प्रत्येक वस्तु की गुणवंता में अंतर होता ही है। इस लिए उच्च कोटि की वस्तु सात्विक अर्थात दैवीय गुण युक्त हुई और निकृष्ट कोटि की वस्तु तामसी अर्थात आसुरी गुण युक्त वस्तु हुई। आसुरी गुणों की जानकारी भी हम आगे विस्तृत रूप में पढ़ेंगे।
आसुरी प्रवृति का अध्ययन गलत रास्ते मे जाने से बचने के लिये जरूरी है, इसलिये हम आगे इस आसुरी प्रवृति के बारे में पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 16.06।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)