।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 16.05 II
।। अध्याय 16.05 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 16.5॥
दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता ।
मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव॥
“daivī sampad vimokṣāya,
nibandhāyāsurī matā..।
mā śucaḥ sampadaḿ daivīm,
abhijāto ‘si pāṇḍava”..।।
भावार्थ:
दैवीय गुण मुक्ति का कारण बनते हैं और आसुरी गुण बन्धन का कारण माने जाते है, हे पाण्डुपुत्र अर्जुन! तू शोक मत कर, क्योंकि तू दैवीय गुणों से युक्त होकर उत्पन्न हुआ है। (५)
Meaning:
Divine qualities are considered conducive to liberation, devilish qualities to bondage. Do not grieve, O Paandava. You have obtained divine qualities.
Explanation:
The aim of any spiritual text including the Gita is to lead the seeker onto the path of liberation. Shri Krishna now connects this chapter with the aim of the Gita. He says that we can increase the chances of our success in the spiritual path if we cultivate the divine qualities listed in this chapter, while toning down our devilish qualities. In today’s day and age, it is easy to misunderstand some of these devilish qualities as essential for our survival, that without these qualities we will not get ahead in life. but it is not so.
For instance, take the quality of krodha or anger. Whenever we are in a state of anger, our intellect, our power of reasoning shuts down, as described in the second chapter. Our emotional mind takes over, and makes us perform actions that may harm us in the long run.
Therefore, each time we get angry, we weaken our intellect, which is the one faculty that differentiates us from animals and can take us closer to liberation. Akrodha, the divine quality of keeping our anger in check, prevents this from happening. We have to also keep in mind that we have to conduct self-analysis and not apply this teaching to judge some other person.
Developing good qualities and eliminating the bad ones is an integral part of spiritual practice. Many successful persons kept memoirs and diaries to help them develop the virtues they felt were necessary for success. Most people need to slowly develop bhakti through practice, and success in practice will come by possessing saintly qualities and eliminating demoniac ones.
Shri Krishna also anticipates a question arising in Arjuna’s mind. Arjuna would have thought, am I in the divine qualities camp or in the other one. To this end, Shri Krishna consoles Arjuna. He asserts that Arjuna was always endowed with divine qualities, and that those qualities will most definitely lead him towards liberation. He addresses him as Paandava, to remind him that he comes from a lineage that has always demonstrated these divine qualities.
Hence, as a part of our efforts in devotion, we must also keep working on ourselves to develop the divine qualities that Shree Krishna has mentioned in this chapter and shed any demoniac ones.
।। हिंदी समीक्षा ।।
श्लोक 1-3 जिन 26 गुणों को हम ने पढ़ा, यदि यह जीव में समाहित है तो उस का भोक्तत्व एवम कर्तृत्त्व भाव का नाश होता है एवम उस अहंता, ममता, स्वार्थ, कामना एवम आसक्ति भी खत्म होती है, जिस के कारण उस मे ज्ञान का उदय होने लगता है और वह मोक्ष के मार्ग को पकड़ लेता है। इसलिये देवी संपदा गुण मोक्ष प्रदान करता है।
इस के विपरीत आसुरी संपदा के गुण तमोगुण प्रवृति है जिस से जीव का विवेक नष्ट होने लगता है एवम उस की रुचि भोग विलास, संग्रह एवम लालसा में बढ़ने लगती है और अपने को श्रेष्ठ एवम कर्ता मान लेने से वह कर्म फल का अधिकारी होता है और जीवन- मरण के कुचक्र में फसा रहता है।
भगवान कृष्ण दो तरह की जीवन शैलियों के बारे में बात कर रहे हैं, एक जो आध्यात्मिकता और मोक्ष के लिए अनुकूल है और दूसरी जो आध्यात्मिक लक्ष्य के लिए अनुकूल नहीं है और इन दो जीवन शैलियों को दैवी संपथ और आसुरी संपथ कहा जाता है। हम मोटे तौर पर आध्यात्मिक- मूल्य- प्रणाली और भौतिकवादी- मूल्य- प्रणाली के रूप में अनुवाद कर सकते हैं। वे कहते हैं कि आसुरी गुण व्यक्ति को जीवन- मरण के बंधन में बांधे रखते हैं, जबकि संत गुणों का विकास व्यक्ति को माया के बंधन से मुक्त करने में मदद करता है।
ज्ञान और अज्ञान में ज्ञान दैवीय संपदा एवम अज्ञान आसुरी संपदा का स्वरूप है। गुणातीत अर्थात मोक्ष होने का मार्ग सात्विक होने से ही प्राप्त होता है, अतः तामसी वृति में जीव विवेक पूर्ण जीवन नही व्यतीत करते हुए, निम्न योनियों के पशुवत जीवन को व्यतीत करता है।
अच्छे गुणों को विकसित करना और बुरे गुणों को खत्म करना आध्यात्मिक अभ्यास का एक अभिन्न अंग है। कई सफल व्यक्तियों ने सफलता के लिए आवश्यक गुणों को विकसित करने में मदद करने के लिए संस्मरण और डायरियाँ रखीं। अधिकांश लोगों को अभ्यास के माध्यम से धीरे-धीरे भक्ति विकसित करने की आवश्यकता होती है, और अभ्यास में सफलता संत गुणों को प्राप्त करने और आसुरी गुणों को खत्म करने से मिलेगी।
कृष्ण ने पहले कहा था, आध्यात्मिक विकास कई जन्मों के माध्यम से होता है। अगर इस जन्म में भी हमारी जीवनशैली ऐसी ही रही, तो हममें धार्मिक या आध्यात्मिक जीवन के प्रति स्वाभाविक झुकाव होगा। इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि अर्जुन युद्ध भूमि में खड़ा है एवम उसे अपनो के विरूद्ध युद्ध करने को कहा जा रहा है, तो क्या वह भी आसुरी गुण से युक्त है? भगवान कहते है कि जब कर्म निष्काम एवम लोकसंग्रह के लिये कर्तव्य धर्म के पालन के लिये किया जाए तो वह देवी संपदा गुणों से युक्त द्वारा किया कर्म है जिस में उसे कोई मोह, ममता, लोभ, स्वार्थ या द्वेष, क्रोध नहीं होता। दैवी सम्पत्ति वाले पुरुषों का यह स्वभाव होता है कि उन के सामने अनुकूल या प्रतिकूल कोई भी परिस्थिति, घटना आये, उन की दृष्टि हमेशा अपने कल्याण की तरफ ही रहती है। युद्ध के मौके पर जब भगवान् ने अर्जुन का रथ दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा किया, तब उन सेनाओं में खड़े अपने कुटुम्बियों को देखकर अर्जुन में कौटुम्बिक स्नेहरूपी मोह पैदा हो गया और वे करुणा तथा शोक से व्याकुल होकर युद्धरूप कर्तव्य से हटने लगे। उन्हें विचार हुआ कि युद्ध में कुटुम्बियों को मारने से मुझे पाप ही लगेगा, जिस से मेरे कल्याण में बाधा लगेगी। इन्हें मारने से हमें नाशवान् राज्य और सुख की प्राप्ति तो हो जायगी, पर उस से श्रेय(कल्याण) की प्राप्ति रुक जायगी। इस प्रकार अर्जुन में कुटुम्ब का मोह और पाप (अन्याय, अधर्म) का भय – दोनों एक साथ आ जाते हैं। उनमें जो कुटुम्ब का मोह है, वह आसुरीसम्पत्ति है और पाप के कारण अपने कल्याण में बाधा लग जाने का जो भय है, वह दैवी सम्पत्ति है। इस में भी एक खास बात है। अर्जुन कहते हैं कि हमने जो युद्ध करने का निश्चय कर लिया है, यह भी एक महान् पाप है। वे युद्धक्षेत्र में भी भगवान् से बारबार अपने कल्याण की बात पूछते हैं। यह उन में दैवी सम्पत्ति होने के कारण ही है। इस के विपरीत जिन में आसुरी सम्पत्ति है, ऐसे दुर्योधन आदि में राज्य और धन का इतना लोभ है कि वे कुटुम्ब के नाश से होनेवाले पाप की तरफ देखते ही नहीं । इस प्रकार अर्जुन में दैवीसम्पत्ति आरम्भ से ही थी। मोहरूप आसुरी सम्पत्ति तो उन में आगन्तुक रूप से आयी थी, जो आगे चलकर भगवान् की कृपा से नष्ट हो गयी। इसीलिये यहाँ भगवान् कहते हैं कि भैया अर्जुन तू चिन्ता मत कर क्योंकि तू दैवीसम्पत्ति को प्राप्त है।
प्रस्तुत श्लोक यह स्पष्ट करता है कि व्यक्ति के गुण उस के कर्म से नही, बल्कि उस के उद्देश्य, लक्ष्य एवम अन्तःकरण की भावनाओ से तय होते है। हमारे व्यक्तिगत जीवन मे जब हम आसुरी प्रवृति के लोगो के सम्मुख हो तो भी निष्काम भाव से हमे हमारे कर्तव्य धर्म को नही छोड़ना चाहिये। युद्ध भूमि में अपनी मातृभूमि की रक्षा या समाज मे सामाजिक मूल्यों की रक्षा के लिये आसुरी गुण बिना अन्तःकरण में प्रवेश किये, का पालन करना भी देवीसम्पदा गुण ही है।
हिन्दुओं की दृष्टि में, पापी पुरुष कोई मानसिक रूप से कुष्ठ रोगी नहीं है और न ही वह सर्वशक्तिमान् ईश्वर की विफलता का द्योतक है। वेदान्ती लोग असुर या राक्षस को ईश्वर के लिए नित्य चुनौती के रूप में नहीं देखते हैं।दुर्बलता और अज्ञान से युक्त शुभ ही अशुभ कहलाता है और इन दोषों से मुक्त अशुभ ही शुभ बन जाता है। धूलि से आच्छादित दर्पण अपने समक्ष स्थित वस्तु को प्रतिबिम्बित नहीं कर पाता परन्तु इसका कारण दर्पण की अक्षमता न होकर उस पर धूलि का आच्छादन है, जो वस्तुत उससे भिन्न है। दर्पण को स्वच्छ कर देने पर उसमें वस्तु का प्रतिबिम्ब स्पष्ट प्रकाशित होता है। इसी प्रकार, एक दुराचारी पुरुष के हृदय में भी सच्चित्स्वरूप आत्मा का प्रकाश विद्यमान होता है। परन्तु, दुर्भाग्य है कि वह प्रकाश उस पुरुष की अपनी ही मिथ्या धारणाओं एवं असत् मूल्यों के कारण आच्छादित रहता है।
एक दुराचारी पुरुष के हृदय में भी सच्चित्स्वरूप आत्मा का प्रकाश विद्यमान होता है। परन्तु, दुर्भाग्य है कि वह प्रकाश उस पुरुष की अपनी ही मिथ्या धारणाओं एवं असत् मूल्यों के कारण आच्छादित रहता है। सम्पूर्ण प्राणियों में चेतन और जड – दोनों अंश रहते हैं। उन में से कई प्राणियों का जडता से विमुख होकर चेतन (परमात्मा) की ओर मुख्यता से लक्ष्य रहता है और कई प्राणियों का चेतन से विमुख हो कर जडता (भोग और संग्रह) की ओर मुख्यतासे लक्ष्य रहता है। इस प्रकार चेतन और जड की मुख्यता को लेकर प्राणियों के दो भेद हो जाते हैं, जिन को हम आगे के श्लोक में पढ़ते हैं।
।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 16.05।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)