।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 15.20 II
।। अध्याय 15.20 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 15.20॥
इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ ।
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत॥
“iti guhyatamaḿ śāstram,
idam uktaḿ mayānagha..।
etad buddhvā buddhimān syāt,
kṛta-kṛtyaś ca bhārata”..।।
भावार्थ:
हे निष्पाप अर्जुन! इस प्रकार यह शास्त्रों का अति गोपनीय रहस्य मेरे द्वारा कहा गया है, हे भरतवंशी जो मनुष्य इस परम-ज्ञान को इसी प्रकार से समझता है वह बुद्धिमान हो जाता है और उसके सभी प्रयत्न पूर्ण हो जाते हैं। (२०)
Meaning:
Thus, this foremost secret has been taught to you by me, O sinless one. Having known this, one becomes wise and accomplishes all his duties, O Bhaarata.
Explanation:
To conclude this chapter Shree Krishna uses the word iti in this verse, which means “these”. This is to imply that, “Arjun, here I have given you the gist of all the hidden knowledge of the Vedic Scriptures. From the description of the nature of this world to the differentiation between matter and spirit. Finally, the realization of the Absolute Truth about Oneself and the Supreme Divine Personality, God. I assure you that whoever espouses this knowledge will be truly enlightened. Their deeds and endeavours will be definitely fruitful and take them towards their ultimate goal, which is God- realization.”
When you ask the question – can you stop working right now and retire, you get a couple of answers. Some people say that they have still so many desires, so many plans to fulfill, that’s why they cannot retire. Other people say that they still have so much to learn from the world, so much knowledge to acquire. Shri Krishna concludes this chapter by asserting that one who has truly understood the teaching of this chapter has accomplished whatever anyone can accomplish in this world, plus he has also known whatever can be known in this world.
Why does he say that whatever has to be known has been covered in this chapter? The highest knowledge to be known in this world is the understanding of three topics. What is the nature of the individual soul (who am I), what is this world and where did it come from, and what is beyond this world (is there a God). Any text that conclusively answers these three questions is termed a shaastra, a science. The fifteenth chapter of the Gita does so, and hence it is worthy of being termed a shaastra.
The method used to reveal Purushottama, the pure eternal essence, is to gradually move from the tangible to the intangible, from the visible to the subtle, from the visible universe to the invisible Prakriti to Purushottama who is beyond both. This method is known as Arundhati nyaaya, the technique of revealing the location of the star known as Arundhati. Here the teacher first points to a tree, then to one of its branches, then to one of its leaves, and then to the star that is right next to the tree. Without doing this step by step revelation, it would not have been possible to reveal the position of the star.
So then, the teaching of this chapter is called the foremost secret. It is secret because such knowledge is not accessible to any of these sense organs. It has to be revealed through a teacher who has had direct experience of the eternal essence. Furthermore, it has to be taught to a student who is straightforward and without sin like Arjuna. Shri Shankaraachaarya goes so far as to say that this chapter summarizes the teachings of all of the Vedic scriptures.
।। हिंदी समीक्षा।।
इस अध्याय का अंतिम श्लोक ‘इति’ शब्द से प्रारंभ होता है जिसका अर्थ ‘ये’ है। श्रीकृष्ण उल्लेख करते हैं कि “मैंने तुम्हें इन बीस श्लोकों में सभी वेदों का सार समझाया है। संसार की प्रकृति की विवेचना से आरंभ करते हुए मैंने तुम्हें पदार्थ और आत्मा के बीच के अंतर का बोध कराया और अंततः परम पुरुष के रूप में परम सत्य की अनुभूति करवायी। अब मैं तुम्हें आश्वस्त करता हूँ कि जो भी इस ज्ञान को अंगीकार करता है वह वास्तव में प्रबुद्ध हो जाएगा। ऐसी आत्मा सभी कार्यों और कर्तव्यों के लक्ष्य को प्राप्त कर लेगी जोकि भगवद्प्राप्ति है।”
पंद्रहवे अध्याय का अंतिम श्लोक एवम अत्यंत महत्वपूर्ण भी। इस अध्याय में परब्रह के गुण, प्रभाव, तत्व एवम रहस्य की बात प्रधानता पूर्वक कही गयी है। जिस को कभी भी अपात्र के सम्मुख प्रकट नहीं करना चाहिये। अपात्र के सामने ज्ञान को प्रकट करना, उस ज्ञान की अवेहलना करने के समान है क्योंकि जिस में विवेक नही वह अक्सर विषय को निर्रथक बहस का विषय बना कर उस विषय की महत्ता नष्ट के देते है। इस को प्रकट करते हुए, परमात्मा अर्जुन को अनघ कहते है, अर्थात जिस का अन्तःकरण शुद्ध एवम निर्मल है एवम जो निष्पाप है, एवम जो इस ज्ञान को सुनने एवम धारण करने के लिये पात्र है।
अर्जुन को शुद्ध हृदय, निष्कपट, निस्वार्थ गुणों से युक्त बताया गया। अतः इस ज्ञान का पूरे महाभारत में वह ही केवल मात्र अधिकारी था। ज्ञान धृतराष्ट्र ने भी सुना किंतु जब व्यक्ति ज्ञान का अधिकारी नहीं होता, तो वह ज्ञान को अपने स्वार्थ के अनुकूल उपयोग करता है। आज भी राजनैतिक दल और समाज के स्वार्थी लोग सत्व विचारो और आदर्श गुणों के वाक्यों का प्रयोग अक्सर अपने कपट पूर्ण उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कर के, शब्दों की मर्यादाओं का हनन करते है।
यह परमज्ञान की अंतिम सीमा है जिस को जानने के बाद कुछ भी जानना शेष नहीं रहता। आज के समाज में जो भी ज्ञान प्राप्त होता है वह क्षर या अक्षर अर्थात भौतिक ज्ञान ही होता है। जिस का उद्देश्य मुक्ति की अपेक्षा जीवन में भौतिक सुख और सुविधा का ध्यान रखा जाता है।
इस ज्ञान को गुह्य या रहस्य इस दृष्टि से नहीं कहा गया है कि इस का उपदेश किसी को नहीं देना चाहिये अभिप्राय यह है कि परमात्मा इन्द्रिय अगोचर होने के कारण कोई भी व्यक्ति प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणों के द्वारा उसे अपनी बुद्धि से नहीं जान सकता है। अत वह उसके लिये रहस्य ही बना रहेगा। केवल एक शास्त्रज्ञ और आत्मानुभवी आचार्य के उपदेश से ही परमात्मज्ञान हो सकता है।
अपने पुरुषोत्तम स्वरूप को जानने वाला पुरुष बुद्धिमान् बन जाता है। इसका अर्थ यह है कि इस ज्ञान के पश्चात् वह जीवन में वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप को समझने में और कर्म से संबंधित निर्णय लेने में त्रुटि नहीं करता है। फलस्वरूप वह न स्वयं के लिये भ्रम और दुख उत्पन्न करता है और न ही समाज के अन्य व्यक्तियों के लिये। परमात्मा के ज्ञान का फल है कृतकृत्यता। मन में पूर्ण सन्तोष का वह भाव, जो जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर लेने पर उदय होता है, कृतकृत्यता कहलाता है। तत्पश्चात् उस व्यक्ति के लिये न कोई प्राप्तव्य शेष रहता है और न कोई कर्तव्य। यहाँ इस व्यक्ति के बुद्ध शब्द प्रयोग किया है, कि इस ज्ञान की प्राप्ति से वह बुद्ध हो जाता है।
परब्रह का ज्ञान होने से पन्द्रहवां अघ्याय एक शास्त्र के बराबर माना गया है, इसलिये इस अध्याय को शास्त्रों के श्रेष्ठम अध्यायों में एक माना गया। परब्रह के ज्ञान के बाद कुछ भी जानने को शेष नही रहता। इसलिये गीता में निष्काम कर्मयोग से ज्ञान और फिर परब्रह का ज्ञान एवम मोक्ष ही अंतिम लक्ष्य है, इसलिये निष्काम कर्मयोग द्वारा इस को प्राप्त होना, ज्ञान होना एवम कर्तव्य धर्म की अन्य प्रकार से समाप्ति नही हो सकती।
गीता में भी पंद्रहवे अध्याय के बाद आगे के अध्यायों में अध्याय 2 से 15 तक बताए हुए, कुछ संक्षिप्त वर्णन का ही स्पष्टीकरण ही है, किन्तु ज्ञान का अंतिम अध्याय 15 ही माना गया है।
संवाद में वक्ता और श्रोता में अंतर ज्ञान एवम शब्दो के अर्थ का होता है। इसलिए वक्ता जिस अर्थ, विचार और हेतु के लिए कहता है, वह श्रोता उस का अर्थ अपने ज्ञान के अनुसार, अपने विचारो के अनुसार और अपने हेतु के अनुसार ग्रहण करता है। जब तक श्रोता में भक्ति भाव अर्थात समर्पण, श्रद्धा, प्रेम और विश्वास वक्ता के प्रति नही होगा, वह वक्ता से सुने हुए ज्ञान की तुलना अपने स्वार्थ, अहम और लालसा में करेगा। इसलिए यह गुह्यतम ज्ञान चलते फिरते हर व्यक्ति को नही देना चाहिए। योग्य व्यक्ति के लिए अर्जुन को अनघ कहा है जिस का अर्थ है जो सभी प्रकार के पाप रहित, निषिद्ध कार्य से मुक्त, सदाचारी, शुद्ध, निर्मल, और सात्विक आचरण से युक्त हो।
किसी भी डिग्री या उपाधि का अधिकारी वही व्यक्ति है जो उस श्रेणी का ज्ञान या योग्यता रखता हो। व्यवहारिक जीवन मे अयोग्य व्यक्ति अपने अहम एवम अज्ञान में बिना योग्यता रखे बहस करते है एवम ज्ञानी पुरुषों का अपमान करते है। उन के अहम, योग्यता, आचरण, कामना या धर्म भिन्न होने के कारण एवम अहंकार होने से उन्हें अच्छी या ज्ञान की बाते समझ नही आती क्योंकि उन्होंने अपने आप को बद्ध कर दिया है। अर्जुन जब तक पूर्णतयः शिष्यत्व स्वीकार कर के सुनने को तैयार नही हुआ, भगवान श्री कृष्ण ने उसे भी यह ज्ञान नहीं दिया। क्योंकि जब तक व्यक्ति अपनी महत्वाकांक्षा में बंधा है उस का हश्र भी यह ज्ञान सुन कर धृष्टराष्ट्र जैसा ही होता है। जिस को जिस पर विश्वास होता है, वो उस की बात मानता है, इसलिये यदि किसी गलत व्यक्ति पर विस्वास कर के कार्य किया जाए तो परिणाम दुर्योधन जैसा ही होगा क्योंकि उस का विश्वास शकुनि पर था।
पुरुषोत्तम योग ज्ञान का अंतिम अध्याय भी है, इसलिए अंतिम श्लोक में इति और इदम शब्द और शास्त्र के गुह्यतम ज्ञान को बता कर इस अध्याय को समाप्त भी लिया है।
।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 15.20।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)