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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  15.19 II

।। अध्याय      15.19 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 15.19

यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्‌ ।

स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत॥

“yo mām evam asammūḍho,

jānāti puruṣottamam..।

sa sarva-vid bhajati māḿ,

sarva- bhāvena bhārata”..।।

भावार्थ: 

हे भरतवंशी अर्जुन! जो मनुष्य इस प्रकार मुझको संशय-रहित होकर भगवान रूप से जानता है, वह मनुष्य मुझे ही सब कुछ जानकर सभी प्रकार से मेरी ही भक्ति करता है। (१९)

Meaning:

One who knows me in this manner, without delusion, knows me as the foremost person, he, knowing all, worships me from all viewpoints, O Bhaarata.

Explanation:

Earlier Krishna talked about four layers of bhakthi, artha bhakthi, artharthi bhakthi, jijñāsu bhakthi and jñāni bhakthi; and there Krishna said jñāni bhakthi is the highest bhakthi; that is advaitha bhakthi.

So here the Lord says all the intelligent people of the world will not go after kṣara puruṣaḥ; they will not go after akṣara puruṣaḥ, they will go after uttama puruṣaḥ; puruṣōttamaḥ, the nirguṇam brahma.

Śankarācārya says, the worship will be in the form of the knowledge that that puruṣōttama is none other than I, the ātma caitanyam. That all-pervading consciousness puruṣōttama is I, the consciousness, obtaining within my body, mind complex. And therefore, jñāni worships in the form of advaitha bhakthi. So sarva bhavēna means advaitha bhavēna, abēda bhavēna.

It is said that once a travelling circus came to a village with a most unique attraction known as the tent of mirrors. Anyone who entered it would see a whole army of their own selves due to the mirrors reflecting back and forth indefinitely. A dog entered this tent, saw an infinite number of dogs that looked like him, was afraid and started barking in fear. A passerby went in to see what was going on. Now when he saw himself in those infinite reflections, he thought to himself – I see myself everywhere, how nice this is!

Shri Krishna says that when we see our “I” as no different from anyone or anything else, when we do not pay attention to the name and form but to the self or aatmaa that is the basis of all name and form, that is the correct way of knowing Purushottama, the foremost person. Any other way of conceptualizing Purushottama or the eternal essence will involve some degree of delusion, some trace of name and form involvement. Worship of Ishvara as a deity with name and form is an essential step in the direction of realizing the Purushottama who is beyond all name and form.

When one reaches this conclusion of one’s spiritual journey, there is nothing else left to be known in this world. Such a person becomes sarvavit, all knowing. He will develop sarvaatma bhaava, he will see himself in everything and everyone. So then, no matter the viewpoint, whatever angle, whatever pursuit he will undertake after this knowledge, it will be in worship of this Purushottama. This is the grand message of the Bhagavad Gita.

It is also understood that worship of conscious purushottam is difficult for common people, therefore, while writing Shrimad bhagwad puran, ved vayas has made easy worship of GOD from formless to idol or nirgun to Sagun So that common person can starts his worship and reach the stage of atma chaitanyam say consciousness purushottam. Therefore, As per the Shreemad Bhagavatam, there are three ways to realize God:

vadanti tat tattva- vidas tattvaṁ yaj jñānam advayam

brahmeti paramātmeti bhagavān iti śhabdyate   (1.2.11)

“The knowers of the Truth have stated that there is only one Supreme Entity that manifests in three ways in the world—Brahman, Paramātmā, and Bhagavān.” God exists in three forms Brahman, the formless, omnipotent and omnipresent. The followers of jñāna-yoga worship God as Brahman. The aṣhṭāṅg-yoga seeks God as Paramātmā, the Supreme Soul who resides in the hearts of all living creatures. Whereas Bhagavān is more personal and can be considered the sweetest among his form.

।। हिंदी समीक्षा ।।

पँचदशोSध्याय का उपसंहार करते हुए यह अंतिम श्लोक के पूर्व का श्लोक है। सातवे अघ्याय में ज्ञान-विज्ञान योग के निरूपण करते हुए प्रारम्भ किया गया था उसी का उपसंहार क्षर-अक्षर ज्ञान  को पुरुषोत्तम योग से पूर्ण किया गया। निष्काम कर्म करते रहने से आचरण द्वारा परमेश्वर का ज्ञान होता है एवम उसी से मोक्ष की प्राप्ति भी होती है। मोक्ष भक्ति से भी प्राप्त होता है किंतु गीता ज्ञान-विज्ञान का इतना विस्तृत विवरण भक्ति के लिये नही, वर्णन संसार मे निष्काम कर्मयोग के लिये करती है जिस से इस अश्वत्थव वृक्ष अर्थात संसार वृक्ष में सत्वगुणी -फिर निःसंग हो कर परब्रह को प्राप्त हो।

अतः यहाँ भगवान कहते हैं कि संसार के सभी बुद्धिमान लोग क्षर पुरुष: के पीछे नहीं जायेंगे; वे अक्षर पुरुष: के पीछे नहीं जायेंगे, वे उत्तम पुरुष: के पीछे जायेंगे; पुरुषोत्तम:, निर्गुण ब्रह्म ।

शंकराचार्य कहते हैं, पूजा इस ज्ञान के रूप में होगी कि वह पुरुषोत्तम कोई और नहीं बल्कि मैं, आत्म चैतन्यम हूँ। वह सर्वव्यापी चेतना पुरुषोत्तम मैं हूँ, चेतना, जो मेरे शरीर, मन परिसर के भीतर मौजूद है। और इसलिए, ज्ञानी अद्वैत भक्ति के रूप में पूजा करते हैं। तो सर्व भावना का अर्थ है अद्वैत भावना, अभेद भावना।

जो कोई अज्ञान से रहित हुआ पुरुष, उपर्युक्त विशेषणों से युक्त मुझ पुरुषोत्तम ईश्वर को, निःसंग  प्रकार से यह जानता है कि यह ( पुरुषोत्तम ) मैं हूँ,  वह सर्वज्ञ है वह सर्वात्मभाव से सबको जानता है, अतः सर्वज्ञ है और हे भारत ( वह ) सब भूतों में स्थित मुझ परमात्मा को ही सर्वभाव से  सब का आत्मा समझकर भजता है।

ज्ञानेश्वर जी कहते है कि अपने आप को सर्वव्यापक, अद्वितीय और स्वयं सिद्ध सच्चिदानंद समझता है, जो स्वयं को मुझ से अलग नहीं मानता तथा जो मेरे आत्मस्वरुप को अच्छी तरह पहचानता है, उसी के बारे में यह समझना चाहिए कि उस ने सब कुछ जान लिया है। गगन के आलिंगन के लिए गगन ही उपयुक्त है और अमृत में अमृत मिलने से एक रस होता है। अतः उस के विषय में यह कहना भी यथेष्ट नही है, क्योंकि शब्दो का विषय होनेवाला जो द्वैत भाव है, वह भी उस में अवशिष्ट ही नहीं रह पाता।

यह भी अनुभव में आया है कि भक्ति भाव की पराकाष्ठा में कुछ अज्ञानी अपने को परमात्मा भी घोषित कर देते है किंतु द्वैत भाव और प्रकृति से सम्बन्ध रहने से यह भी अज्ञान की पराकाष्ठा ही सिद्ध होती है।

जिस पुरुष ने अपने शरीर, मन और बुद्धि तथा उन के द्वारा अनुभव किये जाने वाले विषयों, भावनाओं एवं विचारों के साथ मिथ्या तादात्म्य को सर्वथा त्याग दिया है एवम जो संशय, मोह एवम विपर्यय से मुक्त हो वही असंमूढ अर्थात् संमोहरहित पुरुष है। इस प्रकार मुझे जानता है यहाँ जानने का अर्थ बौद्धिक स्तर का ज्ञान नहीं वरन् आत्मा का साक्षात् अपरोक्ष अनुभव है। स्वयं को परमात्मस्वरूप से जानना ही वास्तविक बोध है। क्योंकि अहम ब्रह्मास्मि कहने वाला ही, अनात्मा के तादात्म्य को त्याग कर, जिसने मुझ परमात्मा के साथ पूर्ण तादात्म्य स्थापित कर लिया है, वही सर्वविद है। जो मुझे पूर्ण हृदय से भजता है। प्रिय से तादात्म्य ही सर्वत्र प्रेम का मापदण्ड माना जाता है। अधिक प्रेम होने पर अधिक तादात्म्य होता है। इसलिये, अंकगणित की दृष्टि से भी पूर्ण तादात्म्य का अर्थ होगा पूर्ण प्रेम अर्थात् पराभक्ति।यह पुरुषोत्तम ही चैतन्य स्वरूप से तीनों काल में समस्त घटनाओं एवं प्राणियों की अन्तर्वृत्तियों को प्रकाशित करता है। इसलिये वह सर्वज्ञ कहलाता है। जो भक्त इस पुरुषोत्तम के साथ पूर्ण तादात्म्य कर लेता है, वह भी सर्ववित् कहलाता है। इस अध्याय की विषय वस्तु भगवत्तत्त्वज्ञान है।

गीता में पुरुषोत्तम ज्ञान श्रद्धा, भक्ति, स्मरण, समपर्ण, ज्ञान, ध्यान एवम निष्काम हो कर कर्म करना है। जहाँ अहम, कामना, आसक्ति एवं भोक्तत्व भाव न हो। यह कर्म कांड पर विश्वास नही करती। एक सुदृढ सम्पूर्ण समर्पित व्यक्तिव ही इस का आधार है। एक बंदर की भांति मटके में मुट्ठी भर चने हाथ मे ले कर यदि हाथ बाहर न निकले तो दोष मटके या चने का नही है, दोष उस लालसा का है जिसे हम सही समझ कर पकड़े हुए है और वास्तव में सही नही है। संसार मे जीवन के हमारे तर्क का यही आधार भी है किंतु ज्ञान निरूपण जीवन की हम कल्पना एक सन्यासी, योगी या बाबा जी जैसी करते है तो यही हाल होता है। ज्ञान रूपेण व्यक्तित्व की छवि रामकृष्ण परमहंस, शंकराचार्य, संत ज्ञानेश्वर,  विवेकानंद, दयानंद, बाल गंगाधर तिलक, चाणक्य, चंद्रगुप्त, बुद्ध, महावीर, नानक, तुलसीदास, सूरदास, शिवाजी, महाराणा प्रताप, लाल बहादुर शास्त्री, भगत सिंह, सरदार पटेल, dr अब्दुलकलाम, होमी जहांगीर भामा  आदि आदि अनगिनत महान आत्माओं से करते है तो हमे अपने तर्को से निरुत्तर ही होना पड़ता है। परमात्मा को साक्षात जानने वाले यह लोग ही कर्मयोगी, अवतरित आत्माएं जीव थी वो बार बार नही आती।

जब मैं था तब हरि नहीं ,अब हरि हैं मैं नांहि।  सब अँधियारा मिटी गया , जब दीपक देख्या माँहि।। कबीर जी के इस दोहे और आदिगुरु शंकराचार्य जी के विवेक चूड़ामणि से कुछ सुक्त से हम इसे अधिक स्पष्ट समझ पाएंगे।

जिसे देह, इन्द्रियों आदि में मैं- मेरापन का भाव तथा अन्य वस्तुओं में इदम् (यह) भाव कभी भी नहीं होता , वह पुरुष जीवनमुक्त माना जाता है  ।।

जो अपनी प्रज्ञाके द्वारा अपनी अन्तरात्मा और ब्रह्म तथा ब्रह्म और सृष्टिके बीच- कभी भी कोई भेद नहीं  रखता,  वह पुरुष जीवनमुक्त माना जाता है ।।

जिस  व्यक्ति को ब्रह्मतत्त्व को जान लेने पर पहले- अज्ञानकाल के समान संसारके विषयों में आसक्ति नहीं रहती; पर यदि संसार में ऐसी प्रवृत्ति देखने में आती है, तो फिर मानना चाहिए कि उसे ब्रह्मभाव का बोध नहीं हुआ है, वह तो अभी बहिर्मुखी है ।।

जग जानेपर जैसे स्वप्नावस्था में किए हुए सारे भले-बुरे कर्म लुप्त हो जाते हैं,  वैसे ही ‘ अहं ब्रह्मास्मि ‘ ( मैं ब्रह्म हूँ ) का ज्ञान होने पर अनन्त कल्पों के संचित हुए कर्म भी नष्ट हो जाते हैं  ।।

ब्रह्म सत्, चित्, घनानन्दस्वरूप, नित्य, अक्रिय और एक अद्वितीय है, इसमें  नानात्व का  लेशमात्र  भी नहीं है ।।

ब्रह्म सबका अन्तर्यामी, एकरस (घनीभूत), परिपूर्ण, अनन्त , सर्वव्यापी ,  एक और अद्वैत  है, इसमें  नानात्व का लेशमात्र भी नहीं है ।।

ब्रह्म सबका स्वरूप होने के कारण न त्याज्य है, न ग्राह्य है, न किसी में स्थित होने योग्य है; यह एक और अद्वैत है; इसमें नानात्व का लेशमात्र भी नहीं है ।।

ब्रह्म निर्गुण, निरवयव, सूक्ष्म, निर्विकल्प , निरंजन, एक और अद्वैत है। इसमें  नानात्व का लेश तक नहीं  है ।।

श्रीमद्भगवद् गीता की रचना का आधार निष्काम कर्मयोग था। निष्काम कर्मयोग को ज्ञान, सन्यास और भक्तियोग का आधार बनाते हुए, हम ने पढ़ा की जीव का अंतिम धैय मोक्ष की प्राप्ति है और वह तभी संभव है, जब जीव अपने अज्ञान को त्याग कर ज्ञान को प्राप्त हो। किंतु सभी अर्जुन जैसे कर्मयोगी नहीं होने से श्रीमद्भागवाद पुराण की रचना करते हुए, महर्षि वेद व्यास जी ने भक्ति मार्ग को अपनाते हुए सगुण से निर्गुण की भक्ति का मार्ग दिखाया।

श्रीमद्भागवतम् के अनुसार, ईश्वर को प्राप्त करने के तीन तरीके हैं:

वदन्ति तत्त्व-विद्या तत्त्वं यज् ज्ञानं अद्वयम् ब्रह्मेति परमात्मेति भगवान् इति शब्द्यते (1.2.11)

सत्य के ज्ञाताओं ने कहा है कि केवल एक ही परम सत्ता है जो संसार में तीन तरह से प्रकट होती है-ब्रह्म, परमात्मा और भगवान।”

भगवान तीन रूपों में विद्यमान हैं – ब्रह्म, निराकार, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी। ज्ञान- योग के अनुयायी भगवान की पूजा ब्रह्म के रूप में करते हैं। अष्टांग-योग भगवान को परमात्मा के रूप में खोजता है, जो सभी जीवित प्राणियों के हृदय में निवास करने वाला सर्वोच्च आत्मा है। जबकि, भगवान अधिक व्यक्तिगत हैं और उन्हें उनके रूपों में सबसे मधुर माना जा सकता है।

जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज ने अपनी पुस्तक भक्ति शतक में इस बात का विस्तृत विवरण दिया है कि भगवान की प्राप्ति सर्वोच्च क्यों है। उन्होंने श्रीमद्भागवतम् के इसी श्लोक 1.2.11 को उद्धृत करते हुए कहा है:

तीन रूप श्री कृष्ण को, वेदव्यास बताय, ब्रह्म और परमात्मा, अरु भगवान कहाय। (भक्ति शतक श्लोक 21)”

“वेद व्यास ने घोषणा की है कि परम भगवान तीन तरीकों से प्रकट होते हैं-ब्रह्म, परमात्मा और भगवान।” फिर वे परम सत्य की इन तीन अभिव्यक्तियों का वर्णन करते हैं।

सर्वशक्ति सम्पन्न हो, शक्ति विकास न होय, सत् चित आनन्द रूप जो, ब्रह्म कहावे सोया।    (भक्ति शतक श्लोक 22)

 “ब्रह्म के रूप में, भगवान की अनंत ऊर्जाएँ सभी गुप्त हैं।   वह केवल शाश्वत ज्ञान और आनंद प्रदर्शित करता है।

सर्वशक्ति संयुक्त होय, नाम रूप गुण होय, लीला परिकर रहित होय, परमात्मा है सोया।    (भक्ति शतक श्लोक 23)

 “परमात्मा के रूप में, भगवान अपना रूप, नाम और गुण प्रदर्शित करते हैं।   लेकिन वह लीलाओं में संलग्न नहीं है, न ही उसके कोई सहयोगी हैं।”

सर्वशक्ति प्रकट्य हो, लीला विविध प्रकार, विहार परिकर संग जो, तेहि भगवान पुकार।    (भक्ति शतक छंद 24)

 “भगवान का वह पहलू जिसमें वह अपनी सभी ऊर्जाओं को प्रकट करते हैं और अपने भक्तों के साथ विभिन्न प्रेमपूर्ण लीलाओं में संलग्न होते हैं, भगवान कहलाते हैं।”

अतः मार्ग सन्यास, भक्ति, कर्म, बुद्धि या ज्ञान  में किसी भी योग का हो, सत्य एक ही परब्रह्म है। जो परब्रह्म के इस स्वरूप को अनुभव, अभ्यास और वैराग्य द्वारा प्राप्त करता है, वहीं मोक्ष को भी प्राप्त करता है, यही क्षर, अक्षर और उत्तम पुरुष में पुरुषोत्तम है।

परमात्मा ने अपने पुरुषोत्तमत्व को सिद्ध किया। ऐसा वर्णन करने का तात्पर्य और प्रयोजन क्या है, इस को हम आगे के श्लोक में पढ़ते हैं।

।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 15.19।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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