।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 15.16 II Additional II
।। अध्याय 15.16 II विशेष II
।। गीता – विशेष 15.16।।
प्रस्तुत छंद मेरे कॉलेज के मित्र ने मुझे भेजी थी, जो मुझे अच्छी लगी। वस्तुत ज्ञान का अध्ययन जब तक बुद्धि द्वारा किया जाता है तो वह तार्किक दृष्टि से ग्रहण करने और समझने और समझाने योग्य होता है। किंतु यह ज्ञान जीव को ब्रह्मसंध नहीं बनाता। जीव इस ज्ञान से बद्ध जीव के समान होता है जिस में सामान्य तौर में कोई विकार नहीं होता परन्तु विकार का बीज उस में रह ही जाता है। फिर समय, स्थान और परिस्थिति में यह बीच कभी भी पनप सकता है। हम अनेक संत, महापुरुष और संन्यासी आदि को देखते है जो निष्काम कर्मयोगी की भांति संपूर्ण जीवन व्यक्त करते हुए भी कभी कभी नाम, पद या कामना, आसक्ति से पद्चयुक्त हो जाते है। उस का कारण है कि उन का ज्ञान बुद्धि से युक्त होने के बावजूद मन और आत्मा से अज्ञानी ही था। जो ज्ञानी मन, शरीर और बुद्धि से व्यवहार करता है, वह ही ब्रह्मसंध होता है अर्थात उस के विकार के सभी बीज नष्ट हो जाने से उस के व्यवहार में पद, सम्मान, कामना या वासना का कोई प्रभाव नहीं होता। ऐसे ही ब्रह्मसंध पुरुष में एक नाम स्वामी राम कृष्ण परमहंस का भी है।
बाहर
बेहद कोलाहल ।
रे मन
तनिक भीतर चल ।।
गलाकाट
प्रतिस्पर्धाओं में .
स्वर्णिम मृग की
वैदेही कामनाओं में .
बदल
आबोहवा बदल ।
रे मन
तनिक भीतर चल ।।
पल पल रंग बदलते
चेहरे में .
मूल्य दफन
कहीं गहरे में .
निकल
कहीं ओर निकल ।
रे मन
तनिक भीतर चल ।।
जर्जर होते
स्नेहिल धागों में .
मुरझाए मौसम में
खण्डित होते विश्वासों में
टहल
कहीं ओर टहल ।
रे मन
तनिक भीतर चल ।।
घर घर
जलती होली में .
खुशियों से
आँख मिचौली में .
सँभल
शीघ्र सँभल ।
रे मन
तनिक भीतर चल ।।
भीतर तू और
तेरा सांई केवल .
ना कोई परदा
ना कोई छल .
पहल
कर पहल ।
रे मन
तनिक भीतर चल …..
बाहर
बेहद कोलाहल…….
-नरेंद्र राजावत-
।। गीता – विशेष 15.16 ।।
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