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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  15.15 II Additional II

।। अध्याय      15.15 II विशेष II

।। व्याख्या – रामसुख दास जी के द्वारा ।। विशेष 15.15 ।।

पीछे के श्लोकों में अपनी विभूतियों का वर्णन करने के बाद अब भगवान् यह रहस्य प्रकट करते हैं कि मैं स्वयं सब प्राणियों के हृदय में विद्यमान हूँ। यद्यपि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि सभी स्थानों में भगवान् विद्यमान हैं, तथापि हृदय में वे विशेष रूप से विद्यमान हैं। हृदय शरीर का प्रधान अङ्ग है। सब प्रकार के भाव हृदय में ही होते हैं। समस्त कर्मों में भाव ही प्रधान होता है। भाव की शुद्धि से समस्त पदार्थ, क्रिया आदि की शुद्धि हो जाती है। अतः महत्त्व भाव का ही है, वस्तु, व्यक्ति, कर्म आदि का नहीं। वह भाव हृदय में होने से हृदय की बहुत महत्ता है। हृदय सत्त्वगुण का कार्य है, इसलिये भी भगवान् हृदय में विशेष रूप से रहते हैं।भगवान् कहते हैं कि मैं प्रत्येक मनुष्य के अत्यन्त नजदीक उस के हृदय में रहता हूँ अतः किसी भी साधक को (मेरे से दूरी अथवा वियोग का अनुभव करते हुए भी) मेरी प्राप्ति से निराश नहीं होना चाहिये। इसलिये पापी – पुण्यात्मा, मूर्ख – पण्डित, निर्धन- धनवान्, रोगी- निरोगी आदि कोई भी स्त्रीपुरुष किसी भी जाति, वर्ण, सम्प्रदाय, आश्रम, देश, काल, परिस्थिति आदि में क्यों न हो, भगवत्प्राप्ति का वह पूरा अधिकारी है। आवश्यकता केवल भगवत्प्राप्ति की ऐसी तीव्र अभिलाषा, लगन, व्याकुलता की है, जिस में भगवत्प्राप्ति के बिना रहा न जाय।

परमात्मा सर्वव्यापी अर्थात् सब जगह समानरूप से परिपूर्ण होने पर भी हृदय में प्राप्त होते हैं। जैसे गाय के सम्पूर्ण शरीर में दूध व्याप्त होने पर भी वह उसके स्तनों से ही प्राप्त होता है अथवा पृथ्वी में सर्वत्र जल रहने पर भी वह कुएँ आदि से ही प्राप्त होता है, ऐसे ही सूर्य, चन्द्र, अग्नि, पृथ्वी, वैश्वानर आदि सब में व्याप्त होने पर भी परमात्मा हृदय में प्राप्त होते हैं।

परमात्मा प्राप्ति सम्बन्धी विशेष बात हृदय में निरन्तर स्थित रहने के कारण परमात्मा वास्तव में मनुष्य मात्र को प्राप्त हैं परन्तु जडता(संसार) से माने हुए सम्बन्ध के कारण जडता की तरफ ही दृष्टि रहने से नित्य प्राप्त परमात्मा अप्राप्त प्रतीत हो रहे हैं अर्थात् उन की प्राप्ति का अनुभव नहीं हो रहा है। जडता से सर्वथा सम्बन्धविच्छेद होते ही सर्वत्र विद्यमान (नित्यप्राप्त) परमात्मा तत्त्व स्वतः अनुभव में आ जाता है। परमात्मा प्राप्तिके लिये जो सत्कर्म, सत्चर्चा और सत्चिन्तन किया जाता है, उस में जडता (असत्) का आश्रय रहता ही है। कारण है कि जडता (स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर) का आश्रय लिये बिना इन का होना सम्भव ही नहीं है। वास्तव में इन की सार्थकता जडता से सम्बन्धविच्छेद कराने में ही है। जडता से,सम्बन्धविच्छेद तभी होगा, जब ये (सत्कर्म, सत्चर्चा और सत्चिन्तन) केवल संसार के हित के लिये ही किये जायँ, अपने लिये नहीं।

किसी विशेष साधन, गुण, योग्यता, लक्षण आदि के बदल में परमात्मा प्राप्ति होगी – यह बिलकुल गलत धारणा है। किसी मूल्य के बदले में जो वस्तु प्राप्त होती है, वह उस मूल्य से कम मूल्य की ही होती है – यह सिद्धान्त है। अतः यदि किसी विशेष साधन, योग्यता आदि के द्वारा ही परमात्मा प्राप्ति का होना माना जाय, तो परमात्मा उस साधन, योग्यता आदि से कम मूल्य के (कमजोर) ही सिद्ध होते हैं, जबकि परमात्मा किसी से कम मूल्य के नहीं हैं। इसलिये वे किसी साधन आदि से खरीदे नहीं जा सकते। इसके सिवाय अगर किसी मूल्य(साधन, योग्यता आदि) के बदले में परमात्मा की प्राप्ति मानी जाय, तो उन से हमें लाभ भी क्या होगा क्योंकि उनसे अधिक मूल्य की वस्तु (साधन आदि) तो हमारे पास पहले से है ही, जैसे सांसारिक पदार्थ कर्मों से मिलते हैं, ऐसे परमात्मा की प्राप्ति कर्मों से नहीं होती क्योंकि परमात्मा प्राप्ति किसी कर्म का फल नहीं है। प्रत्येक कर्म की उत्पत्ति अहंभाव से होती है और परमात्मा प्राप्ति अहंभाव के मिटने पर होती है। कारण कि अहंभाव कृति (कर्म) है और परमात्मा कृतिरहित हैं। कृतिरहित तत्त्व को किसी कृति से कैसे प्राप्त किया जा सकता है। तात्पर्य यह हुआ कि परमात्मा तत्त्व की प्राप्ति मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, शरीर आदि जड पदार्थों के द्वारा नहीं, प्रत्युत जडता के त्यागसे होती है। जब तक मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, शरीर, देश, काल, वस्तु आदि का आश्रय है, तब तक एक परमात्मा का आश्रय नहीं हो सकता। मन, बुद्धि आदि के आश्रय से परमात्मा प्राप्ति होगी – यही साधक की मूल भूल है। अगर जडता का आश्रय और विश्वास छूट जाय तथा एकमात्र परमात्मा का ही आश्रय और विश्वास हो जाय, तो परमात्मा प्राप्ति में देरी नहीं लग सकती।  किसी बात की भूली हुई जानकारी का (किसी कारणसे) पुनः प्राप्त होना,स्मृति कहलाती है। स्मृति और चिन्तन – दोनों में फरक है। नयी बात का चिन्तन और पुरानी बात की स्मृति होती है। अतः चिन्तन संसार का और स्मृति परमात्मा की होती है क्योंकि संसार पहले नहीं था और परमात्मा पहले (अनादिकाल) से हैं। स्मृति में जो शक्ति है, वह चिन्तन में नहीं है। स्मृति में कर्तापन का भाव कम रहता है, जबकि चिन्तन में कर्तापन का भाव अधिक रहता है। एक स्मृति की जाती है और एक स्मृति होती है। जो स्मृति की जाती है, वह बुद्धि में और जो होती है, वह स्वयं में होती है। होनेवाली स्मृति जडता से तत्काल सम्बन्ध विच्छेद करा देती है। भगवान् यहाँ कहते हैं कि यह (होनेवाली) स्मृति मेरे से ही होती है।

परमात्मा का अंश होते हुए भी जीव भूल से परमात्मा से विमुख हो जाता है और अपना सम्बन्ध संसार से मानने लगता है। इस भूल का नाश होने पर मैं भगवान् का ही हूँ, संसार का नहीं ऐसा साक्षात् अनुभव हो जाना ही स्मृति है। स्मृति में कोई नया ज्ञान या अनुभव नहीं होता, प्रत्युत केवल विस्मृति (मोह) का नाश होता है। भगवान् से हमारा वास्तविक सम्बन्ध है। इस वास्तविकता का प्रकट होना ही स्मृति का प्राप्त होना है। जीव में निष्कामभाव (कर्मयोग), स्वरूपबोध (ज्ञानयोग) और भगवत्प्रेम (भक्तियोग) – तीनों स्वतः विद्यमान हैं। जीव को (अनादिकाल से) इन की विस्मृति हो गयी है। एक बार इन की स्मृति हो जाने पर फिर विस्मृति नहीं होती। कारण कि यह स्मृति स्वयं में जाग्रत् होती है। बुद्धि में होनेवाली लौकिक स्मृति (बुद्धि के क्षीण होनेपर) नष्ट भी हो सकती है, पर स्वयं में होनेवाली स्मृति कभी नष्ट नहीं होती। किसी विषय की जानकारी को ज्ञान कहते हैं। लौकिक और पारमार्थिक जितना भी ज्ञान है, वह सब, ज्ञानस्वरूप परमात्मा का अभासमात्र है। अतः ज्ञान को भगवान् अपने से ही होनेवाला बताते हैं। वास्तव में ज्ञान वही है, जो स्वयं से जाना जाय। अनन्त, पूर्ण और नित्य होनेके कारण इस ज्ञान में कोई सन्देह या भ्रम नहीं होता। यद्यपि इन्द्रिय और बुद्धिजन्य ज्ञान भी ज्ञान कहलाता है, तथापि सीमित, अलग (अपूर्ण) तथा परिवर्तनशील होने के कारण इस ज्ञान में सन्देह या भ्रम रहता है जैसे – नेत्रों से देखने पर सूर्य अत्यन्त बड़ा होते हुए भी (आकाशमें) छोटा सा दीखता है इत्यादि। बुद्धि से जिस बात को पहले ठीक समझते थे, बुद्धि के विकसित अथवा शुद्ध होने पर वही बात गलत दीखने लग जाती है। तात्पर्य यह है कि इन्द्रिय और बुद्धिजन्य ज्ञान करणसापेक्ष और अल्प होता है। अल्प ज्ञान ही अज्ञान कहलाता है। इसके विपरीत स्वयं का ज्ञान किसी करण(इन्द्रिय, बुद्धि आदि) की अपेक्षा नहीं रखता और वह सदा पूर्ण होता है। वास्तव में इन्द्रिय और बुद्धिजन्य ज्ञान भी स्वयं के ज्ञान से प्रकाशित होते हैं अर्थात् सत्ता पाते हैं। संशय, भ्रम, विपर्यय (विपरीत भाव), तर्कवितर्क आदि दोषों के दूर होने का नाम अपोहन है। भगवान् कहते हैं कि ये (संशय आदि) दोष भी मेरी कृपा से ही दूर होते हैं।

शास्त्रों की बातें सत्य हैं या असत्य भगवान् को किस ने देखा है संसार ही सत्य है इत्यादि संशय और भ्रम भगवान् की कृपा से ही मिटते हैं। सांसारिक पदार्थों में अपना हित दीखना, उनकी प्राप्ति में सुख दीखना, प्रतिक्षण नष्ट होने वाले संसार की सत्ता दीखना आदि विपरीत भाव भी भगवान् की कृपा से ही दूर होते हैं। गीतोपदेश के अन्त में अर्जुन भी भगवान् की कृपा से ही अपने मोह का नाश, स्मृति की प्राप्ति और संशयका नाश होना स्वीकार करते हैं। यहाँ सर्वैः पद वेद एवं वेदानुकूल सम्पूर्ण शास्त्रों का वाचक है। सम्पूर्ण शास्त्रों का एकमात्र तात्पर्य परमात्मा का वास्तविक ज्ञान कराने अथवा उन की प्राप्ति कराने में ही है।यहाँ भगवान् यह बात स्पष्ट करते हैं कि वेदों का वास्तविक तात्पर्य मेरी प्राप्ति कराने में ही है, सांसारिक भोगों की प्राप्ति कराने में नहीं। श्रुतियों में सकामभाव का विशेष वर्णन आने का यह कारण भी है कि संसार में सकाम मनुष्यों की संख्या अधिक रहती है। इसलिये श्रुति (सब की माता होने से) उन का भी पालन करती है।

जाननेयोग्य एकमात्र परमात्मा ही हैं, जिन को जान लेने पर फिर कुछ भी जानना बाकी नहीं रहता। परमात्मा को जाने बिना संसार को कितना ही क्यों न जान लें, जानकारी कभी पूरी नहीं होती, सदा अधूरी ही रहती है । अर्जुन में भगवान् को जानने की विशेष जिज्ञासा थी। इसीलिये भगवान् कहते हैं कि सम्पूर्ण वेदों और शास्त्रों के द्वारा जानने योग्य मैं स्वयं तुम्हारे सामने बैठा हूँ।

भगवान् से ही वेद प्रकट हुए हैं। अतः वे ही वेदों के अन्तिम सिद्धान्त को ठीकठीक बताकर वेदों में प्रतीत होनेवाले विरोधों का अच्छी तरह समन्वय कर सकते हैं। इसलिये भगवान् कहते हैं कि (वेदोंका पूर्ण वास्तविक ज्ञाता होनेके कारण) मैं ही वेदों के यथार्थ तात्पर्य का निर्णय करनेवाला हूँ। वेदों के अर्थ, भाव आदि को भगवान् ही यथार्थरूप से जानते हैं। वेदों में कौनसी बात किस भाव या उद्देश्य से कही गयी है वेदों का यथार्थ तात्पर्य क्या है इत्यादि बातें भगवान् ही पूर्ण रूप से जानते हैं क्योंकि भगवान् से ही वेद प्रकट हुए हैं।

वेदों में भिन्नभिन्न विषय होनेके कारण अच्छेअच्छे विद्वान् भी एक निर्णय नहीं कर पाते। इसलिये वेदों के यथार्थ ज्ञाता भगवान् का आश्रय लेने से ही वे वेदोंका तत्त्व जान सकते हैं और श्रुति विप्रतिपत्ति से मुक्त हो सकते हैं।इस (पंद्रहवें) अध्याय के पहले श्लोक में भगवान् ने संसारवृक्ष को तत्त्व से जाननेवाले मनुष्य को वेदवित् कहा था। अब इस श्लोक में भगवान् स्वयं को वेदवित् कहते हैं। इस का तात्पर्य यह है कि संसारके यथार्थ तत्त्व को जान लेनेवाला महापुरुष भगवान् से अभिन्न हो जाता है। संसार के यथार्थ तत्त्व को जानने का अभिप्राय है – संसार की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है और परमात्मा की ही सत्ता है – इस प्रकार जानते हुए संसार से माने हुए सम्बन्ध को छोड़कर अपना सम्बन्ध भगवान् से जोड़ना, संसार का आश्रय छोड़कर भगवान् के आश्रित हो जाना।

भगवान् ने श्रीमद्भगवद्गीता के चार अध्यायों में भिन्नभिन्न रूपोंसे अपनी विभूतियों का वर्णन किया है – सातवें अध्याय में आठवें श्लोक से बारहवें श्लोक तक सृष्टि के प्रधान प्रधान पदार्थों में कारण रूप से सत्रह विभूतियोंका वर्णन कर के भगवान् ने अपनी सर्वव्यापकता और सर्वरूपता सिद्ध की है। नवें अध्याय में सोलहवें श्लोक से उन्नीसवें श्लोक तक क्रिया, भाव, पदार्थ आदिमें कार्य कारण रूप से सैंतीस विभूतियों का वर्णन कर के भगवान् ने अपने को सर्वव्यापक बताया है। दसवें अध्याय का तो नाम ही विभूतियोग है। इस अध्याय में चौथे और पाँचवें श्लोक में भगवान् ने प्राणियों के भावों के रूप में बीस विभूतियों का और छठे श्लोक में व्यक्तियों के रूप में पचीस विभूतियों का वर्णन किया है। फिर बीसवें श्लोक से उन्तालीसवें श्लोक तक भगवान् ने बयासी प्रधान विभूतियों का विशेषरूप से वर्णन किया है।

इस पन्द्रहवें अध्याय में बारहवें श्लोक से पन्द्रहवें श्लोकतक भगवान् ने अपना प्रभाव बतलाने के लिये तेरह विभूतियों का वर्णन किया है ।

उपर्युक्त चारों अध्यायों में भिन्नभिन्न रूप में विभूतियों का वर्णन करने का तात्पर्य यह है कि साधक को वासुदेवः सर्वम्, सब कुछ वासुदेव ही है इस तत्त्व का अनुभव हो जाय। इसीलिये अपनी विभूतियों का वर्णन करते समय भगवान् ने अपनी सर्वव्यापकता को ही विशेष रूप से सिद्ध किया है जैसे मेरे से बढ़ कर इस जगत् का दूसरा कोई भी महान् कारण नहीं है।सत् और असत् – सब कुछ मैं ही हूँ। मैं ही सब की उत्पत्तिका कारण हूँ और मेरे से ही सब जगत् चेष्टा करता है। चर और अचर कोई भी प्राणी ऐसा नहीं है, जो मेरे से रहित हो अर्थात् चराचर सब प्राणी मेरे ही स्वरूप हैं।

इसी प्रकार इस पन्द्रहवें अध्याय में भी अपनी विभूतियों के वर्णन का उपसंहार करते हुए भगवान् कहते हैं -मैं सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में सम्यक् प्रकार से स्थित हूँ। तात्पर्य यह हुआ कि सम्पूर्ण प्राणी, पदार्थ परमात्मा की सत्ता से ही सत्तावान् हो रहे हैं। परमात्मा से अलग किसी की भी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। प्रकाश के अभाव (अन्धकार) में कोई वस्तु दिखायी नहीं देती। आँखों से किसी वस्तु को देखने पर पहले प्रकाश दीखता है, उस के बाद वस्तु दीखती है अर्थात् हरेक वस्तु प्रकाश के अन्तर्गत ही दीखती है किन्तु हमारी दृष्टि प्रकाश पर न जाकर प्रकाशित होनेवाली वस्तु पर जाती है। इसी प्रकार यावन्मात्र वस्तु, क्रिया, भाव, आदि का ज्ञान एक विलक्षण और अलुप्त प्रकाश – ज्ञान के अन्तर्गत होता है, जो सब का प्रकाशक और आधार है। प्रत्येक वस्तु से पहले ज्ञान (स्वयंप्रकाश परमात्मतत्त्व) रहता है। अतः संसार में परमात्मा को व्याप्त कहने पर भी वस्तुतः संसार बाद में है और उस का अधिष्ठान परमात्मतत्त्व पहले है अर्थात् पहले परमात्मतत्त्व दीखता है, बाद में संसार। परन्तु संसार में राग होने के के कारण मनुष्य की दृष्टि उस के  प्रकाशक (परमात्मतत्त्व) पर नहीं जाती।

परमात्मा की सत्ता के बिना संसार की कोई सत्ता नहीं है। परन्तु परमात्मा सत्ता की तरफ दृष्टि न रहने तथा सांसारिक प्राणी पदार्थों में राग या सुखासक्ति रहने के कारण उन प्राणी पदार्थों की पृथक् (स्वतन्त्र) सत्ता प्रतीत होने लगती है और परमात्मा की वास्तविक सत्ता (जो तत्त्व से है) नहीं दीखती। यदि संसार में राग या सुखासक्ति का सर्वथा अभाव हो जाय, तो तत्त्व से एक परमात्मा सत्ता ही दीखने या अनुभव में आने लगती है। अतः विभूतियों के वर्णनका तात्पर्य यही है कि किसी भी प्राणी पदार्थ की तरफ दृष्टि जाने पर साधक को एकमात्र भगवान् की स्मृति होनी चाहिये अर्थात् उसे प्रत्येक प्राणी पदार्थ में भगवान् को ही देखना चाहिये।

वर्तमान में समाज की दशा बड़ी विचित्र है। प्रायः सब लोगों के अन्तःकरण में रुपयों का बहुत ज्यादा महत्त्व हो गया है। रुपये खुद काम में नहीं आते, प्रत्युत उन से खरीदी गयी वस्तुएँ ही काम में आती हैं परन्तु लोगों ने रुपयों के उपयोग को खास महत्त्व न देकर उन की संख्या की वृद्धि को ही ज्यादा महत्त्व दे दिया इसलिये मनुष्य के पास जितने अधिक रुपये होते हैं, वह समाज में अपने को उतना ही अधिक बड़ा मान लेता है । इस प्रकार रुपयों को ही महत्त्व देनेवाला व्यक्ति परमात्मा के महत्त्व को समझ ही नहीं सकता। फिर परमात्मा प्राप्ति के बिना रहा न जाय – ऐसी लगन उस मनुष्य के भीतर उत्पन्न हो ही कैसे सकती है जिस के भीतर यह बात बैठी हुई है कि रुपयों के बिना रहा ही नहीं जा सकता अथवा रुपयों के बिना काम ही नहीं चल सकता, उस की परमात्मा में एक निश्चयवाली बुद्धि हो ही नहीं सकती। वह यह बात समझ ही नहीं सकता कि रुपयों के बिना भी अच्छी तरह काम चल सकता है। जिस प्रकार व्यापारी को (एकमात्र धन प्राप्ति का उद्देश्य रहने पर) माल लेने, माल देने आदि व्यापारसम्बन्धी प्रत्येक क्रिया में धन ही दीखता है, इसी प्रकार परमात्मा तत्त्व के जिज्ञासु को (एकमात्र परमात्मा प्राप्ति का उद्देश्य रहने पर) प्रत्येक वस्तु, क्रिया आदि में तत्त्वरूप से परमात्मा ही दीखते हैं। उस को ऐसा अनुभव हो जाता है कि परमात्मा के सिवाय दूसरा कोई तत्त्व है ही नहीं, हो सकता ही नहीं।

अर्जुन ने चौदहवें अध्याय में गुणातीत होने का उपाय पूछा था। गुणों के सङ्ग से ही जीव संसार में फँसता है। अतः गुणों का सङ्ग मिटाने के लिये भगवान् ने यहाँ अपने प्रभाव का वर्णन किया है। छोटे प्रभाव को मिटाने के लिये बड़े प्रभाव की आवश्यकता होती है। अतः जब तक जीव पर गुणों (संसार) का प्रभाव है, तब तक भगवान् के प्रभाव को जानने की बड़ी आवश्यकता है। अपने प्रभाव का वर्णन करते हुए भगवान् ने (इस अध्याय के बारहवें से पंद्रहवें श्लोक तक) यह बताया कि मैं ही सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता हूँ मैं ही पृथ्वी में प्रवेश कर के सब प्राणियों को धारण करता हूँ मैं ही पृथ्वी पर अन्न उत्पन्न कर के उस को पुष्ट करता हूँ जब मनुष्य उस अन्न को खाता है, तब मैं ही वैश्वानर रूप से उस अन्न को पचाता हूँ और मनुष्य में स्मृति, ज्ञान और अपोहन भी मैं ही करता हूँ। इस वर्णन से सिद्ध होता है कि आदि से अन्त तक, समष्टि से व्यष्टि तक की सम्पूर्ण क्रियाएँ भगवान् के अन्तर्गत, उन्हीं की शक्ति से हो रही हैं। मनुष्य अहंकार वश अपने को उन क्रियाओँ का कर्ता मान लेता है अर्थात् उन क्रियाओं को व्यक्तिगत मान लेता है और बँध जाता है।

।। रामसुखदास की व्याख्या ।।  गीता – विशेष 15.15 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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