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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  15.14 II

।। अध्याय      15.14 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 15.14

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः ।

प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्॥

“ahaḿ vaiśvānaro bhūtvā,

prāṇināḿ deham āśritaḥ..।।

prāṇāpāna- samāyuktaḥ,

pacāmy annaḿ catur- vidham”..।।

भावार्थ: 

मैं ही पाचन-अग्नि के रूप में समस्त जीवों के शरीर में स्थित रहता हूँ, मैं ही प्राण वायु और अपान वायु को संतुलित रखते हुए चार प्रकार के (चबाने वाले, पीने वाले, चाटने वाले और चूसने वाले) अन्नों को पचाता हूँ। (१४)

Meaning:

Residing in the bodies of all beings, I become Vaishvaanara. In conjunction with Praana and Apaana, I digest the four types of food.

Explanation:

Previously, we saw how Ishvara sustained and nourished all beings on this earth by providing them with nutrition in the form of plant life and vegetation. The energy stored in this food has to be absorbed and assimilated into all living beings. How does that happen? Shri Krishna says that Ishvara manifests himself as Vaishvaanara, the fire inside all living beings which represents the process of metabolism.

Shree Krishna says that God exists inside all living beings as vaiśhvānara, meaning “fire of digestion,” which is ignited by the power of God.  The Bṛihadāraṇyak Upaniṣhad has also stated:

ayam agnir vaiśhvānaro yo ’yam antaḥ puruṣhe yenedam annaṁ achyate (5.9.1)

“God is the fire inside the stomach that enables living beings to digest food.”

Though the scientific community has concluded that the organs of the digestive system such as the stomach, liver, pancreas, gall bladder, etc. secrete digestive juices enabling the digestion of food in living beings. This revelation by God suggests that such an approach is naïve. It is God’s energy which fires up the digestive process in living beings.It is a wonder that we are able to eat such a large variety of food, and yet derive enough energy to keep our bodies running throughout our lives, all due to the functioning of the Vaishvaanara fire. It is supported by two vayus or forces known as the Praana and the Apaana vayus. The Praana vayu brings food towards the digestive organs. Vaishvaanara is the process of digestion and metabolism. The Apaana vayu pushes non- essential portions of the food out into the world.

We also come across the four types of food that are referenced in scriptures. Chaturvidham means four types and annam means food. Food is categorized into four types: 1. Bhojya – Foods that are chewed, such as bread, chapatti, etc.  2. Peya – These are mostly liquid or semi-solid foods which we have to swallow or drink, such as milk, juice, etc.  3. Kośhya – Foods that are sucked, such as sugarcane.  4. Lehya – This includes foods that are licked, such as honey, etc.  The Vaishvaanara fire can convert all these types of food into energy for the body.

So we see that production, distribution and ultimate consumption of energy that happens in us, and happens in any other living being, is nothing but Ishvara. Ishvara is the producer, distributor and consumer. Remembering this topic is a great way to reduce our ego and see our oneness with the world. Many people in India, in fact, chant the 15th chapter before their meals in order to pray for good digestion.

In the last few verses, Shri Krishna has explicated how God supports every aspect of our life. With his energy, He makes the earth habitable, nourishes all vegetation, and even ignites the gastric fire to digest our food. In the next verse, he concludes by stating that He is the master of all knowledge.

।। हिंदी समीक्षा ।।

परमात्मा द्वारा अग्नि के माध्यम बनाते हुए, जीव के प्राण एवम जीवन का माध्यम अपने को कहा है।

शास्त्र में अग्नि तत्व को दो प्रकारों में विभाजित किया गया है; एक को बाह्य अग्नि कहा जाता है, बाहरी अग्नि तत्व; जो कि लोकप्रिय है और शास्त्र कहता है कि एक और आंतरिक अग्नि तत्व है जो हमारे पेट के अंदर है, जिसे अंतर अग्नि कहा जाता है; आंतरिक अग्नि; यह अंतर अग्नि, विभिन्न नामों से जानी जाती है। इसे जठराग्नि कहा जाता है; जठर का अर्थ है पेट;  जठरम का अर्थ है पेट के भीतर; तो जठराग्नि , पेट के भीतर की अग्नि।

श्री कृष्ण कहते हैं कि ईश्वर सभी जीवों के अंदर वैश्वानर के रूप में विद्यमान है, जिस का अर्थ है “पाचन अग्नि”, जो ईश्वर की शक्ति से प्रज्वलित होती है। बृहदारण्यक उपनिषद में भी कहा गया है:

अयं अग्निर् वैश्वानरो यो ऽयं अन्तः पुरुषे येनेदं अन्नं अच्यते (5.9.1)

ईश्वर पेट के अंदर की अग्नि है जो जीवों को भोजन पचाने में सक्षम बनाती है।”

हालांकि वैज्ञानिक समुदाय ने निष्कर्ष निकाला है कि पाचन तंत्र के अंग जैसे पेट, यकृत, अमाशय, पित्ताशय आदि जीवों में भोजन के पाचन को सक्षम करने वाले पाचक रसों का स्राव करते हैं। ईश्वर द्वारा यह रहस्योद्घाटन बताता है कि ऐसा दृष्टिकोण भोलापन है क्योंकि यह सजीव अवस्था में ही कार्य करते है, अतः यह ईश्वर की ऊर्जा है जो जीवों में पाचन प्रक्रिया को प्रज्वलित करती है।

भोजन प्राकृतिक देह का ऊर्जा स्थल है, इस से शरीर को वृद्धि, स्वस्थ शरीर और मन और कार्य करने की क्षमता प्राप्त होती है। जैसा भोजन, वैसा मन और शरीर किंतु जब तक यह भोजन पच कर संपूर्ण शरीर में ऊर्जा प्रवाहित नही करता, शरीर की किसी भी क्रिया को करना संभव नही। अतः  शरीर की विभिन्न प्रक्रियाओं में सब से महत्वपूर्ण ऊर्जा को परमात्मा अपने से जोड़ रहे है। घर में रसोईघर और किसी भी गाड़ी के लिए ईंधन के जलने और उस से उत्पन्न ऊर्जा के महत्व को कोई इंकार नहीं कर सकता। पैदल या साइकल पर भी चलने के लिए ऊर्जा लगती है।

अग्नि तत्व चार प्रकार का होता है। 1) भौम – हवन, रसोई आदि में जो उत्पन्न अग्नि है। 2) दिव्य –  जल ही जिस का ईंधन है, जैसे सूर्य में उत्पन्न अग्नि, 3) औदर्य – उदर की अग्नि जिसे जठरानल अग्नि कहते है, जो हमारे भोजन को पचाती है, 4) आकरज अग्नि – जैसे खनिज वगैरह में जो अग्नि लगती है वह आकरज अग्नि है।

शरीर में प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान – ये पाँच प्रधान वायु एवं नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त और धनञ्जय – ये पाँच उपप्रधान वायु रहती हैं। इस श्लोक में भगवान् दो प्रधान वायु – प्राण और अपान का ही वर्णन करते हैं क्योंकि ये दोनों वायु जठराग्नि को प्रदीप्त करती हैं। जठराग्नि से पचे हुए भोजन के सूक्ष्म अंश या रस को शरीर के प्रत्येक अङ्ग में पहुँचाने का सूक्ष्म कार्य भी मुख्यतः प्राण और अपान वायु का ही है।

प्राणी चार प्रकार के अन्न का भोजन करते हैं ,(1) भोज्य – जो अन्न दाँतों से चबाकर खाया जाता है जैसे  रोटी, पुआ आदि (2) पेय – जो अन्न निगला जाता है जैसे खिचडी, हलवा, दूध रस आदि (3) चोष्य – दाँतों से दबाकर जिस खाद्य पदार्थ का रस चूसा जाता है और बचे हुए असार भाग को थूक दिया जाता है जैसे – ऊख, आम आदि। वृक्षादि स्थावर योनियाँ इसी प्रकार से अन्न को ग्रहण करती हैं, (4) लेह्य – जो अन्न जिह्वा से चाटा जाता है जैसे – चटनी, शहद आदि। अन्न के उपर्युक्त चार प्रकारों में भी एक एक के अनेक भेद हैं।

भगवान् कहते हैं कि उन चारों प्रकार के अन्नों को वैश्वानर (जठराग्नि) रूप से मैं ही पचाता हूँ। अन्न का ऐसा कोई अंश नहीं है, जो मेरी शक्ति के बिना पच सके। पृथ्वी पोषक भोजन देती है, तो प्राण वायु अग्नि से उसे शरीर मे पकाती है, वैश्वानर अर्थात जठराग्नि से भोजन पकता है और प्राण से शरीर के विभिन्न अंगों तक यह पोषक तत्व पहुचता है। अपान वायु अवशिष्ट को बाहर करता है। यह क्रिया जीव के जीवन के सतत रहने की महत्व पूर्ण क्रिया है जो परमात्मा द्वारा ही जीवन के रूप में जीव यह क्रिया की जाती है।

अध्याय चार में स्वयं योगेश्वर श्री कृष्ण ने इंद्रियाग्नि, सयंमाग्नि, योगाग्नि, प्राण- अपानाग्नि, ब्रह्माग्नि इत्यादि तेरह- चौदह अग्नियों का उल्लेख किया, जिन में सब का परिणाम ज्ञान है। ज्ञान ही अग्नि है। परमात्मा ही अग्नि स्वरूप हो कर प्राण-अपान से युक्त बैखरी, मध्यमा, पश्यन्ति एवम परा चार प्रकार तैयार होने वाले अन्न को पचाते है। ब्रह्म ही एक मात्र अन्न है जिसे जीव जप, प्राण- अपान द्वारा ग्रहण करता है और पूर्ण ब्रह्मतत्व को प्राप्त करता है। ब्रह्म तत्व तप की अग्नि से लिया हुआ, मिलता है, पचता है और परिपक्क हो कर जीव को ब्रह्मतत्व से मिला  देता है।

भौतिक विज्ञान के अनुसार भी प्रकृति- जीव के संयोग से उत्पन्न जीव की समस्त क्रियाओं का स्त्रोत ऊर्जा है जिस से वृद्धि, शक्ति एवम क्रिया होती है। यह  ऊर्जा उस भोजन से प्राप्त होती है जो जीव ग्रहण कर के पचा कर उस के पोषक तत्व पूरे शरीर मे संचारित कर सके। अतः उस के लिये अग्नि तत्व भी महत्व पूर्ण है। परमात्मा कहते है, जीव के सभी भोजन को पचाने की क्रिया का अग्नितत्व में ही हूँ अतः जीव की समस्त प्राकृतिक क्रिया का संचार परमात्मा से ही होता है। इसलिये हम जो भी भोजन ग्रहण करते है, हमारी सोच, विचार, अचार एवम समस्त कर्म का स्त्रोत हमारे द्वारा ग्रहण किया अन्न ही है।

अध्याय दस के 41वें श्लोक में प्रत्येक प्राणी के तेज को अपनी उत्पत्ति बताते हुए, उन ऐश्वर्ययुक्त, कांतियुक्त, शक्तियुक्त तेज जो प्रकाशन शक्ति, धारण शक्ति, पोषण शक्ति और पाचन शक्ति आदि से उत्पन्न होता है, परमात्मा अपने स्वरूप का वर्णन सब प्रकार से जानने हेतु बताते है।

पिछले कुछ श्लोकों में श्री कृष्ण ने स्पष्ट किया है कि भगवान किस तरह हमारे जीवन के हर पहलू का समर्थन करते हैं। अपनी ऊर्जा से वे धरती को रहने लायक बनाते हैं, सभी वनस्पतियों का पोषण करते हैं और हमारे भोजन को पचाने के लिए जठराग्नि को भी प्रज्वलित करते हैं। भौतिक स्वरुप में सब ब्रह्मांड में मूल में परमात्मा को समझने के बाद आत्मिक स्वरूप के परब्रह को आगे पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 15. 14।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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