।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 15.13 II
।। अध्याय 15.13 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 15.13॥
गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा ।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः॥
“gām āviśya ca bhūtāni,
dhārayāmy aham ojasā..।
puṣṇāmi cauṣadhīḥ sarvāḥ,
somo bhūtvā rasātmakaḥ”..।।
भावार्थ:
मैं ही प्रत्येक लोक में प्रवेश कर के अपनी शक्ति से सभी प्राणीयों को धारण करता हूँ और मैं ही चन्द्रमा के रूप से वनस्पतियों में जीवन- रस बन कर समस्त प्राणीयों का पोषण करता हूँ। (१३)
Meaning:
Entering the earth, I sustain all beings with my energy, and having become the nectar- giving Soma, I nourish all vegetation.
Explanation:
In earlier verse, we read about sun, lunar and fire energy of Brahm. Now he explains how his energy work in earth for livelihood.
Physicists devote entire careers to the study of forces. Despite several advances in the field, they are yet to find the grand theory that unifies the different understandings of gravity, electromagnetism, atomic forces and so on. Shri Krishna says that it is Ishvara that enters the earth and sustains every being, every atom in it through his force. Just like there is a force holding our body together, there is a force that holds the earth as one entity. So, whenever we admire the granduer and majesty of earth’s natural wonders, we should not forget that the very same force holds our body together as one cohesive unit.
Shree Krishna has said that it is His energy which has brought about the appropriate physical conditions for life to exist on planet earth. Ever wondered, why ocean water is so salty? God could have made the oceans full of freshwater, but it would have become a breeding ground for diseases. Due to the high salt content of the ocean water, many disease-causing microorganisms cannot survive in it, thereby protecting life. Similarly, several such amazing phenomena make earth inhabitable to a variety of species, of both movable, and static living beings.
Nobel laureate and famous American scientist, George Wald has written in his book, A Universe that Breeds Life: “If anyone of the considerable number of the physical properties of our universe were other than they are, then life, that now appears to be so prevalent, would be impossible, here or anywhere.”
Energy requires a medium to travel from its source to its destination. In order to provide nourishment to all living beings, Ishvara resides in the form of nectar, the sap, the essence of all vegetation. A healthy plant- life in any ecosystem ensures the prosperity of animals, birds and humans that depend upon it. Many commentators including Shri Shankaraacharya have translated Soma to mean the moon. It is said that the moon’s light enhances the nutrional value of all plant life. This sap, this essence within the plants that gives energy to all life also gives us energy. Moreover, many herbs have medicinal value in additional to their nutritional value, providing yet another layer of benefits to all animals and humans.
In this manner, whether it is energy, nourishment or healing, Ishvara is pulsating through us in the very same manner that he is pulsating through the world. Now, this energy needs to be extracted from its source and absorbed into our bodies. We shall see how Ishvara makes this happen in the next shloka.
।। हिंदी समीक्षा ।।
पूर्व श्लोक में सूर्य, चंद्रमा एवम अग्नि के तेज एवम प्रकाश के गुण को स्वयं से प्रकाशित बताने के बाद, परमात्मा ने पृथ्वी एवम चंद्र के धारण एवम पोषण एवम औषधीय गुणों के वर्णन को अपने से उत्पन्न कहा है।
श्री कृष्ण ने कहा है कि यह उनकी ऊर्जा है जिसने पृथ्वी ग्रह पर जीवन के अस्तित्व के लिए उपयुक्त भौतिक परिस्थितियाँ उत्पन्न की हैं। कभी सोचा है कि समुद्र का पानी इतना खारा क्यों है? भगवान समुद्र को मीठे पानी से भर सकते थे, लेकिन यह बीमारियों के लिए प्रजनन स्थल बन जाता। समुद्र के पानी में नमक की मात्रा अधिक होने के कारण, कई रोग पैदा करने वाले सूक्ष्मजीव उसमें जीवित नहीं रह पाते, जिससे जीवन सुरक्षित रहता है। इसी तरह, कई ऐसी अद्भुत घटनाएँ पृथ्वी को विभिन्न प्रजातियों, चल और स्थिर दोनों प्रकार के जीवों के रहने योग्य बनाती हैं।
यह सभी दिशाओं में व्याप्त है और सभी जीव राशियों को ओज या प्राण शक्ति का आशीर्वाद देता है। तो गम विषय, पृथ्वी में प्रवेश करने के बाद, गम का अर्थ है पृथ्वीम्; भूतानि, सूर्य की किरणें या सौर प्रकाश हर प्राणी में प्रवेश करता है, यही कारण है कि हमें सूर्योदय से पहले उठने के लिए कहा जाता है और हमें सुबह की धूप में खुद को उजागर करना चाहिए। और इसलिए वे स्नान के लिए नदियों में जाते हैं; (हम केवल कूवम के साथ क्या कर सकते हैं; वे मंदिर जाते हैं, वे प्रदक्षिणम करते हैं, यह सब हमारे शरीर को सौर ऊर्जा के संपर्क में लाने के लिए है; जिसे प्राणिक ऊर्जा कहा जाता है।
इसीलिए प्राणिक चिकित्सक सूर्य से ऊर्जा खींचने और उसे हमारे प्राण और मनोमय कोष को सौंपने की बात करते हैं। संपूर्ण प्राणमय कोष सूर्य द्वारा पोषित है और इसलिए, भूतानि; अर्थात सभी जीवित प्राणी को मैं पोषित करता हूँ। ओजस अर्थात सूर्य की शक्ति से प्राण कोश से ले कर सभी पांच कोष जिन्हे हम अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश और
आनंदमय कोश जानते है, क्रियाशील है। इसलिए गायत्री मंत्र और आदित्य हृदयम में सूर्य की उपासना की जाती है।
सोम शब्द के सोमवल्ली और चंद्र दोनो अर्थ है, वेदों में वर्णन है चंद्र जिस प्रकार जलात्मक, अंशुमान और शुभ्र है, उसी प्रकार सोमवल्ली भी है और दोनो ही वनस्पति और औषधि के राजा है।
इस लोक के प्राणियों के धारण पोषण करने की पृथ्वी की क्षमता, उष्णता, खनिज द्रव्य आदि सभी भगवान् के ओज स्वरूप हैं। इस का अर्थ यह हुआ कि जो चैतन्य सूर्य की उपाधि में प्रकाश तथा उष्णता के रूप में व्यक्त होता है, वही चैतन्य पृथ्वी में उस की उर्वरा शक्ति और जीवन को धारण करने वाली गुप्त पौष्टिकता के रूप में व्यक्त होता है। रसस्वरूप चन्द्रमा बन कर मैं औषधियों का पोषण करता हूँ वही एक चेतन तत्त्व चन्द्रमा के माध्यम से चन्द्रप्रकाश के रूप में व्यक्त हो कर वनस्पतियों को पौष्टिक तत्त्वों से भर देता है।
प्राकृतिक तथा आयुर्वेदिक चिकित्सक भी कुछ औषधियों को किसी निश्चित अवधि तक चन्द्रमा के प्रकाश में रखते हैं और उन का यह कथन है कि इस से उन औषधियों में रोगोपचार की क्षमता आ जाती है। इस श्लोक में इन सभी तथ्यों को इंगित मात्र किया गया है, जिससे यह सिद्ध होता है कि भगवान् श्रीकृष्ण का कथन अवैज्ञानिक नहीं है। भौतिक जगत् के सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि ये ऊर्जा के स्रोत वस्तुत अनन्तस्वरूप परमात्मा ही हैं। सूर्य में यह प्रकाश है और चन्द्रमा में वह रसस्वरूप पोषक तत्त्व है। वही चैतन्य पृथ्वी में प्रवेश कर समस्त प्राणियों का धारण पोषण करने वाला बन जाता है।
जिस के फल पकने से पौधा सूख जाए उसे औषधि कहा जाता है जैसे धान, गेहूं आदि। अन्न जो भोजन के रूप ने खाया जाए। अपने को बोध कराते हुए जो अपने से अतिरिक्त का बोध कराए उसे उपलक्षण कहते है। सभी प्रकार की क्षुधा रूपी रोग का उपचार अन्न रूपी औषधि ही है। औषधि समस्त पदार्थो का बोध कराती है जिस से न केवल रोग, या क्षुधा शांत होती है, बल्कि यह प्राणी की ऊर्जा के लिये खाद्य पदार्थ है। इसलिये समस्त औषधि परब्रह ही उत्पन्न कर के उपलब्ध करवाते है।
पृथ्वी सौर मंडल का महत्वपूर्ण ग्रह है एवम चंद्रमा पृथ्वी का उपग्रह। यह सर्वविदित है कि सूर्य से ले कर समस्त सौर मंडल के ग्रह अपनी धुरी में धूमते है एवम चंन्द्रमा पृथ्वी का या उपग्रह अपने अपने ग्रहों के और सब ग्रह सूर्य के चक्कर अपनी अपनी परिधि में लगाते है। इसी प्रकार समस्त ब्रह्मांड फैला हुआ है। कोई नही बता सकता कि यह किस पर टिका है एवम जिस आकर्षण शक्ति से यह घूमते है वो कहाँ से गति को प्राप्त है। परमात्मा कहते है मैं ही पृथिवी में प्रविष्ट होकर अपने उस बल से, जो कि कामना और आसक्ति से रहित मेरा ऐश्वर्यबल जगत् को धारण करने के लिये पृथिवी में प्रविष्ट है, जिस बल के कारण भारवती पृथिवी नीचे नहीं गिरती और फटती भी नहीं, सारे जगत् को धारण करता हूँ। यही बात वेदमन्त्र भी कहते हैं कि जिस से द्युलोक और भारवती पृथिवी दृढ़ है तथा वह पृथिवीको धारण करता है इत्यादि। अतः यह कहना ठीक ही है कि मैं पृथिवी में प्रविष्ट होकर चराचर समस्त भूतप्राणियों को धारण करता हूँ। परब्रह ही इन सब का जनक है क्योंकि यह सब उसी से उत्पन्न है, इन की ऊर्जा, गति या आकर्षण शक्ति एवम ब्रहांड का आधार यही परब्रह ही है। इस प्रकार संपूर्ण ब्रहाण्ड और उस के गति, आकर्षण और धुरी की शक्ति को परमात्मा ने अपना बताया है। आज भी वैज्ञानिक अपनी बिग बैग सिंद्धान्त में इस को God particle का नाम दिया है। हजारों साल पहले जिस तत्व को ऋषियो ने जिस तत्व की व्याख्या की थी, नासदीय सूक्त में हम ने पढ़ा भी था, उसी परब्रह की खोज आज का विज्ञान भी कर रहा है एवम जिस का अनुसंधान का माध्यम यह वेद ही है।
हमे यह ध्यान रहना चाहिए कि अभी हम परब्रह को जानने की चेष्टा भौतिक साधनों से तुलनात्मक कर रहे है। परमात्मा कहते है मैं ही पृथ्वी में प्रविष्ट होकर अपने उस बल से, जो कि कामना और आसक्ति से रहित मेरा ऐश्वर्यबल जगत् को धारण करने के लिये पृथ्वी में प्रविष्ट है, जिस बल के कारण भारवती पृथ्वी नीचे नहीं गिरती और फटती भी नहीं, सारे जगत् को धारण करता हूँ। यही बात वेदमन्त्र भी कहते हैं कि जिससे द्युलोक और भारवती पृथ्वी दृढ़ है तथा वह पृथ्वी को धारण करता है इत्यादि। अतः यह कहना ठीक ही है कि मैं पृथ्वी में प्रविष्ट होकर चराचर समस्त भूत प्राणियों को धारण करता हूँ तथा मैं ही रसस्वरूप चन्द्रमा होकर पृथ्वी में उत्पन्न होनेवाली धान, जौ आदि समस्त ओषधियोंका पोषण करता हूँ अर्थात् उनको पुष्ट और स्वादयुक्त किया करता हूँ। जो सब रसों का आत्मा है, रस ही जिसका स्वभाव है, जो समस्त रसों की खानि है वह सोम है, वही अपने रस का सञ्चार कर के, समस्त वनस्पतियों का पोषण किया करता है।
नोबेल पुरस्कार विजेता और प्रसिद्ध अमेरिकी वैज्ञानिक जॉर्ज वाल्ड ने अपनी पुस्तक, ए यूनिवर्स दैट ब्रीड्स लाइफ में लिखा है: “यदि हमारे ब्रह्मांड के भौतिक गुणों जो इस पृथ्वी में उपलब्ध है, में से कोई भी अतिरेक गुण इसके अलावा या कम या ज्यादा होता, तो जीवन, जो अब इतना प्रचलित प्रतीत होता है, यहां या कहीं भी असंभव होता।”
आगे अग्नि स्वरूप परब्रह उत्पन्न ऊर्जा के स्वरूप को पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 15.13।।
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