।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 15.12 II
।। अध्याय 15.12 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 15.12॥
यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् ।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्॥
“yad āditya- gataḿ tejo,
jagad bhāsayate ‘khilam..।
yac candramasi yac cāgnau,
tat tejo viddhi māmakam”..।।
भावार्थ:
हे अर्जुन! जो प्रकाश सूर्य में स्थित है जिससे समस्त संसार प्रकाशित होता है, जो प्रकाश चन्द्रमा में स्थित है और जो प्रकाश अग्नि में स्थित है, उस प्रकाश को तू मुझसे ही उत्पन्न समझ। (१२)
Meaning:
That splendour which resides in the sun and illumines the entire world, that which is in the moon and in fire, know that splendour to be mine.
Explanation:
So far, we learned about the nature of the individual soul, the jeeva. But if that is all we focus on, we will have incomplete knowledge about our true nature. When we look around us, we see the world in all its beautiful yet complex glory. We regard ourselves as the physical body and get attracted to our bodily relations, parents, spouse, children, material wealth, etc. We feel they are the most significant. We need to investigate into the true nature of the world and realize our identity and connection with that as well. We also forget that it is God who is the creator and sustainer of the entire universe. With this view in mind, Shri Krishna now begins to explain his connection with the world around us.
He starts this topic by asserting that the splendour of the sun, the moon, and of fire is possible only because of Ishvara’s splendour. The sun, the moon, the planets, stars, the panch mahabhootas (earth, water, air, fire, and ether); in fact, the entire universe is a manifestation of God’s vibhūtis (opulence). It would be very naïve to think that such an amazing celestial arrangement is a result of some random big bang.
And therefore, Krishna wants to take a few important things in the creation, and he points out they are my own manifestation. Just a few samples are taken to point out that Bhagavān is in the form of them and from that you can extend to everything else also. And what are those few samples Bhagavān takes. They are the fundamental, natural forces that we experience all the time, which we have not created, but they are very much part of this creation. Without these natural power or forces or energy, we cannot think of the creation or its survival. What are the natural forces that Krishna takes? He takes three of them. One is sūrya śaktiḥ. The solar energy. The solar power called sūrya śaktiḥ and the second one is the lunar power, the chandra śaktiḥ. Krishna uses the word tējaḥ instead of śaktiḥ. Therefore, sūrya tējaḥ, chandra tējaḥ; tējaḥ is śaktiḥ, energy, power and the third one is agni śaktiḥ and agni tējaḥ. The power of the fire.
We have tremendous awe for the sun’s energy, without which life on this earth will not be possible. Shri Krishna says that the sun’s splendour is not its own. It comes from the splendour of Ishvara. Symbolically, the sun represents the organs of perception such as the eyes, ears, nose and so on. Therefore, whenever any sentient being in this world, from a single celled amoeba to a human being becomes aware of something, that awareness, that consciousness, is the power of Ishvara at work.
So, whenever we see awareness manifest itself in any organism, we should remind ourselves that the one Ishvara giving awareness to us is the same Ishvara giving awareness to the organisms in the world. In this manner, we can realize the identity of our nature with the world through the common link of awareness.
Furthermore, both the moon and fire derive their energy and splendour from the sun. The moon reflects the light of the sun. Fire also is the manifestation of the sun’s energy on a much smaller scale. Therefore, energy in any form, whether it is dazzling like the sun, cooling like the moon, or warm like fire, is nothing but Ishvara’s energy. How does this energy manifest itself in the world? Shri Krishna explains that in the next shloka.
।। हिंदी समीक्षा ।।
एकमात्र ब्रह्म ही प्रत्येक शरीर में चिदभास जीवात्मा के रूप में विद्यमान है। एकमात्र परमात्मा ही प्रत्येक शरीर में जीवात्मा के रूप में निवास करता है और इसीलिए हमारी संस्कृति में, जिस किसी को भी हम देखते हैं, हमारा अभिवादन का तरीका “हाय- हाय” नहीं होता है। चिन्मयानंद कहते हैं कि हम घोड़ों को चलाने के लिए इस का प्रयोग करते हैं। जब हम लोगों से मिलते हैं, तो लोगों से मिलने का भारतीय तरीका नमस्ते है; इसका अर्थ है, तेय नमः, मेरा आपको नमस्कार; हम यदि अच्छी तरह जानते भी हो कि प्रवृति या व्यवहार या वय के अनुसार वह व्यक्ति नमस्कार के योग्य नहीं है, लेकिन फिर भी हम नमस्कार करते हैं, क्योंकि हम जानते हैं कि इस शरीर मन के पीछे, जो कुछ है, वह केवल परमात्मा ही जीवात्मा के रूप में है, अशुद्ध शरीर मन के पीछे; लेकिन परमात्मा, जीवात्मा सदैव शुद्ध है। तो इसलिए, परमात्मा या ब्रह्म जीव रूपेण वर्तते । हम उस ब्रह्म को ही नमन करते है।
मानव रूप में हम अपने मूल और शाश्वत स्वरूप को भूल जाते हैं। हम खुद को भौतिक शरीर मानते हैं और अपने शारीरिक संबंधों जैसे माता-पिता, जीवनसाथी, बच्चे, भौतिक संपत्ति आदि की ओर आकर्षित होते हैं। हमें लगता है कि वे सबसे महत्वपूर्ण हैं। हम यह भी भूल जाते हैं कि यह ईश्वर ही है जो पूरे जड़ और चेतन पदार्थ स्वरूप संपूर्ण ब्रह्मांड का निर्माता और पालनकर्ता है।
सूर्य, चंद्रमा, ग्रह, तारे, पंच महाभूत (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश); वास्तव में, संपूर्ण ब्रह्मांड ईश्वर की विभूतियों (ऐश्वर्य) का प्रकटीकरण है। यह सोचना बहुत ही भोलापन होगा कि ऐसी अद्भुत खगोलीय व्यवस्था किसी यादृच्छिक बिग बैंग का परिणाम है।
ज्ञानी जो परब्रह को प्रकृति के साथ देखता है, तो हो सकता परब्रह के अंश की तुलना प्रकृति के भौतिक साधनों से करने लगे। क्योंकि जब हम किसी भी वस्तु, विचार या भावना को प्रकट करते है तो उसे तुलात्मक बना कर किसी सरल उपलब्ध वस्तु के समान बताने का प्रयत्न करते है। हमारा ज्ञान हमारी भौतिक उपलब्ध साधनों तक सीमित है और विज्ञान के स्वरूप में प्रत्यक्ष देखना चाहते है। किंतु विज्ञान भी जैसे जैसे विकसित होता है, हमारी पूर्व की धारणाएं बदलने लगती है। अतः जो प्रत्यक्ष विज्ञान से परे आध्यात्मिक है, उस को वही जान सकता है जिसे ज्ञान प्राप्त हो जाए और वह ब्रह्मसंध की स्थिति को प्राप्त हो।
प्रभाव और महत्त्व की ओर आकर्षित होना जीव का स्वभाव है। प्राकृत पदार्थों के सम्बन्ध से जीव प्राकृत पदार्थों के प्रभाव से प्रभावित हो जाता है। कारण यह है कि प्रकृति में स्थित होने के कारण जीव को प्राकृत पदार्थों शरीर, स्त्री, पुत्र,धन आदि का महत्त्व दीखने लगता है, भगवान् का महत्व गौण हो जाता है। अतः जीव पर पड़े प्राकृत पदार्थों का प्रभाव हटाने के लिये भगवान् अपने प्रभाव का वर्णन करते हुए यह रहस्य प्रकट करते हैं कि उन प्राकृत पदार्थों में जो प्रभाव और महत्त्व देखने में आता है, वह वस्तुतः (मूल में) मेरा ही है, उन का नहीं। मेरे ही प्रकाश से सब प्रकाशित हो रहे हैं।
और इसलिए कृष्ण सृष्टि की कुछ महत्वपूर्ण चीजें लेना चाहते हैं और वे बताते हैं कि वे मेरी अपनी अभिव्यक्ति हैं। बस कुछ नमूने लिए गए हैं यह बताने के लिए कि भगवान उनके रूप में हैं और उससे आप बाकी सभी चीजों को भी आगे बढ़ा सकते हैं। और भगवान ने वे कुछ नमूने क्या लिए हैं। वे मूलभूत, प्राकृतिक शक्तियां हैं जिनका हम हर समय अनुभव करते हैं; जिन्हें हमने नहीं बनाया है, लेकिन वे इस सृष्टि का बहुत बड़ा हिस्सा हैं। इन प्राकृतिक शक्ति या बलों या ऊर्जा के बिना, हम सृष्टि या इसके अस्तित्व के बारे में नहीं सोच सकते। कृष्ण द्वारा ली गई प्राकृतिक शक्तियां कौन सी हैं? वे उनमें से तीन लेते हैं। एक है सूर्य शक्तिः। सौर ऊर्जा। सौर ऊर्जा को सूर्य शक्तिः कहा जाता है और दूसरी चंद्र शक्ति है, चंद्र शक्तिः। कृष्ण शक्तिः की जगह तेजः शब्द का उपयोग करते हैं तेजः का अर्थ है शक्तिः, ऊर्जा, ताकत और तीसरा है अग्नि शक्तिः और अग्नि तेजः। अग्नि की शक्ति। संसार के संपूर्ण पदार्थ और जीव इन तीनों के बिना न तो अस्तित्व में आते और न ही क्रियाशील होते है।
कुवे या तालाब के मेढक को यदि समुद्र का ज्ञान दिया जाए तो वह उस की तुलना कुवे या तालाब से करेगा। अतः प्रकाश और तेज की तुलना का माध्यम सूर्य, चंद्र, तारे और अग्नि, नेत्र से होगा। इसलिए ईश्वर सब के पूर्वजों का भी गुरु है क्योंकि उस का काल से अवच्छेद नहीं है। सम्पूर्ण भौतिक जगत् में सूर्य के समान प्रत्यक्ष प्रभावशाली पदार्थ कोई नहीं है। चन्द्र, अग्नि, तारे, विद्युत् आदि जितने भी प्रकाशमान पदार्थ हैं, वे सभी सूर्य से ही प्रकाश पाते हैं। भगवान् से मिले हुए तेज के कारण जब सूर्य इतना विलक्षण और प्रभावशाली है, तब स्वयं भगवान् कितने विलक्षण और प्रभावशाली होंगे ऐसा विचार करनेपर स्वतः भगवान् की तरफ आकर्षण होता है। सूर्य नेत्रों का अधिष्ठातृदेवता है। अतः नेत्रों में जो प्रकाश (देखने की शक्ति) है वह भी परम्परा से भगवान् से ही आयी हुई समझनी चाहिये। जैसे सूर्य में स्थित प्रकाशिका शक्ति और दाहिका शक्ति, दोनों ही भगवान् से प्राप्त (आगत) हैं, ऐसे ही चन्द्रमा की प्रकाशिका शक्ति और पोषण शक्ति, दोनों (सूर्य द्वारा प्राप्त होने पर भी परम्परा से) भगवत्प्रदत्त ही हैं। जैसे भगवान् का तेज आदित्यगत है, ऐसे ही उन का तेज चन्द्रगत भी समझना चाहिये। चन्द्रमा में प्रकाशके साथ शीतलता, मधुरता, पोषणता आदि जो भी गुण हैं, वह सब भगवान् का ही प्रभाव है। यहाँ चन्द्रमा को तारे, नक्षत्र आदि का भी उपलक्षण समझना चाहिये।चन्द्रमा मन का अधिष्ठातृदेवता है। अतः मन में जो प्रकाश (मनन करने की शक्ति) है, वह भी परम्परा से भगवान् से ही आयी हुई समझनी चाहिये। जैसे भगवान् का तेज आदित्यगत है, ऐसे ही उनका तेज अग्निगत भी समझना चाहिये। तात्पर्य यह है कि अग्नि की प्रकाशिका शक्ति और दाहिका शक्ति, दोनों भगवान् की ही हैं, अग्निकी नहीं। यहाँ अग्नि को विद्युत्, दीपक, जुगनू आदिका भी उपलक्षण समझना चाहिये।अग्नि वाणी का अधिष्ठातृदेवता है। अतः वाणी में जो प्रकाश (अर्थप्रकाश करनेकी शक्ति) है, वह भी परम्परा से भगवान् से ही आयी हुई समझनी चाहिये। जो तेज सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि में है और जो तेज इन तीनोंके प्रकाश से प्रकाशित अन्य पदार्थों (तारे, नक्षत्र, विद्युत्, जुगनू आदि) में देखने तथा सुननेमें आता है, उसे भगवान् का ही तेज समझना चाहिये।
परमात्मा अर्जुन के भ्रम को नष्ट करना चाहते जिस से उसे ज्ञात हो कि जगतपिता परमात्मा न केवल जीव का पिता है अपितु समस्त ब्रह्माण्ड में जो जड़ – चेतन प्रकृति है, वह सब उसी से प्रकाशित है।
कुछ अज्ञानी लोग सत्य वही मानते है जिसे प्रयोग द्वारा प्रत्यक्ष प्रमाणित किया जाए। भौतिक या वैज्ञानिक जीवन का आधार प्रमाण है, किन्तु जब अन्वेषण एवम कठिन परिश्रम से उन तथ्यों में कुछ को अविष्कार किया जाता है तो कौन कह सकता है कि यह पहले नही थी। अंतर सिर्फ यही है कि जिसने खोज की, उस ने प्रत्यक्ष किया। परंतु वह प्रत्यक्ष निश्चित विधि एवम उपकरण से ही है, उसी प्रकार परब्रह भी प्रत्यक्ष एक निश्चित विधि से ही है, जिसे हम ने अभी तक पढ़ा भी है कि ज्ञानी किस प्रकार परब्रह का अनुभव करते है।
परमात्मा कहते है जो तेज दीप्ति प्रकाश सूर्य में स्थित हुआ अर्थात् सूर्य के आश्रित हुआ समस्त जगत् को प्रकाशित करता है, जो प्रकाश करने वाला तेज शशाङ्क चन्द्रमा में स्थित है और जो अग्नि में वर्तमान है, उस तेज को तू मुझ परब्रह की अपनी ज्योति समझ। अथवा जो तेज यानी चैतन्यमय ज्योति, सूर्यमें स्थित है तथा जो चन्द्रमा और अग्नि में स्थित है, उस तेज को तू मुझ परब्रह की स्वकीय ( चेतनमयी ) ज्योति समझ।
सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि क्रमशः नेत्र मन और वाणी के अधिष्ठाता एवं उन को प्रकाशित करने वाले हैं। मनुष्य अपने भावों को प्रकट करने और समझने के लिये नेत्र, मन (अन्तःकरण) और वाणी इन तीन इन्द्रियों का ही उपयोग करता है। ये तीन इन्द्रियाँ जितना प्रकाश करतीं हैं, उतना प्रकाश अन्य इन्द्रियाँ नहीं करतीं। प्रकाशका तात्पर्य है – अलग अलग ज्ञान कराना। नेत्र और वाणी बाहरी करण हैं तथा मन भीतरी करण है। करणों के द्वारा वस्तु का ज्ञान होता है। ये तीनों ही करण (इन्द्रियाँ) भगवान् को प्रकाशित नहीं कर सकते क्योंकि इन में जो तेज या प्रकाश है, वह इनका अपना न होकर भगवान् का ही है।
सूर्य सौर मंडल का प्रमुख है जिस के इर्दगिर्द पूरा सौर मंडल घूमता है। इसी के प्रकाश से पृथ्वी पर जीवन है। चंद्र पृथ्वी का उपग्रह है, जो मन की भावनाओ एवम पृथ्वी पर कई तत्वों को नियंत्रित करता है एवम रात्रि में प्रकाश का माध्यम भी है। अग्नि पृथ्वी पर भोजन एवम प्रकाश का माध्यम है। यह तीनों तत्व स्वच्छ, शुद्ध एवम पोषकता के प्रतीक है, इसलिये मनुष्य इन के तेज से प्रभावित है। इसलिये परमात्मा कहते है जिस परब्रह को ज्ञानी जानते है उस का प्रकाश, स्वच्छता एवम तेज इन पर निर्भर नहीं है वरन यह उस पर निर्भर है। वह स्वयं में तेजोमय, प्रकाशमान, शुद्ध एवम स्वच्छ है।
पुरुषोत्तम योग में परब्रह के स्वरूप की तुलनात्मक व्याख्या चार श्लोकों में की गई है, इसलिये आगे अगली व्याख्या पढ़ते है, जिस से हमारी शंकाओं का निर्मूलन हो।
।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 15.12।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)