।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 15.11 II
।। अध्याय 15.11 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 15.11॥
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् ।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः॥
“yatanto yoginaś cainaḿ,
paśyanty ātmany avasthitam..।
yatanto ‘py akṛtātmāno,
nainaḿ paśyanty acetasaḥ”..।।
भावार्थ:
योग के अभ्यास में प्रयत्नशील मनुष्य ही अपने हृदय में स्थित इस आत्मा को देख सकते हैं, किन्तु जो मनुष्य योग के अभ्यास में नहीं लगे हैं ऐसे अज्ञानी प्रयत्न करते रहने पर भी इस आत्मा को नहीं देख पाते हैं। (११)
Meaning:
Those striving yogis realize this as residing within the self. But those with an unprepared mind, though striving, do not see this, devoid of knowledge.
Explanation:
In any difficult endeavour, there are three kinds of people. There are the vast majority who are not interested the least bit in striving for the goal, and blissfully accept their state as a given. There are a small number of people who are putting in great effort or dedication, but not obtaining the desired outcome. A select few, however, are able to channelize their efforts in the right direction and get what they want.
Only acquiring knowledge is not sufficient, it must also be in the proper direction. The common flaw with the human approach is that we tend to use our material senses to understand the divine. We want to decide the correctness and faults in knowledge with our intellect, which has only worldly but no experience of the divine. We believe that things which cannot be perceived by the mind and the senses do not exist.
This approach is well elucidated by Noble laureate and French physiologist, Alexis Carrel. In his book, Man the Unknown, he states: “Our mind has a natural tendency to reject the things that do not fit into the frame of scientific or philosophical beliefs of our time. After all, scientists are only human. They are saturated with the prejudices of their environment and epoch. They willingly believe that facts which cannot be explained by current theories do not exist. At present times, scientists still look upon telepathy and other metaphysical phenomena as illusions. Evident facts having an unorthodox appearance are suppressed.”
Shri Krishna called the vast majority of people, the first category, stuck in the cycle of Prakriti “deluded” in the last shloka. Here, he says that it is the preparation of mind that determines whether or not the efforts taken by yogis – those who are striving for liberation – have a chance of success. One without a prepared mind is termed as “akritaatmaanaha” in this shloka. So then, those of us who are aiming for liberation would not like our striving to be in vain. What should we do?
Like the frog of the well, materialistic people cannot perceive the idea of an eternal soul. Due to their limited experience and lack of spiritual knowledge, they cannot perceive that there is an entire spiritual universe beyond the understanding of their material intellects. Only those who have taken the path of spirituality, endeavor to purify their hearts with humility and faith. A cleansed mind naturally experiences the presence of the soul. Then the knowledge of the scriptures becomes clear to them.
We need to understand what Shri Krishna means by purifying our mind. There are two aspects to this. The first aspect is the degree of selfish desires. Unless we have followed the path of karma yoga and bhakti yoga as laid out in the earlier portions of the Gita, our mind will not be able to properly absorb any scriptural teaching whatsoever. The second aspect is the type of knowledge we are trying to absorb and the method of doing so. A systematic understanding of the scriptures under the guidance of a teacher is the only way. One who does not follow a systematic process of imbibing knowledge is termed “achetasaha”, devoid of wisdom.
Similar to the existence of the soul, the senses cannot perceive the existence of God as well. Only through the eyes of knowledge can one realize God.
The topic of the jeeva is concluded in this shloka. with the message that only those with a pure mind and systematic study will truly understand the nature of the jeeva as the eternal essence as though limited by its upaadhis or conditionings.
।। हिंदी समीक्षा ।।
कई एक प्रयत्न करनेवाले, समाहितचित्त योगीजन, इस आत्मा को, जिस का कि प्रकरण चल रहा है, अपने अन्तःकरण में स्थित देखते हैं अर्थात् यही मैं हूँ इस प्रकार आत्मस्वरूप का साक्षात् किया करते हैं। परंतु जिन्होंने तप और इन्द्रियजय आदि साधनों द्वारा अपने अन्तःकरण का संस्कार नहीं किया है, जो बुरे आचरणों से उपराम नहीं हुए हैं, जो अशान्त और घमण्डी हैं, वे अविवेकी पुरुष, शास्त्रादि के प्रमाणों से प्रयत्न करते हुए भी, इस आत्मा को नहीं देख पाते।
व्यावहारीरिक, आध्यात्मिक एवम सांसारिक दृष्टिकोण से यह श्लोक अत्यंत महत्वपूर्ण व्याख्यान है कि ज्ञान द्वारा सफलता का अधिकारी कौन होता है।
केवल ज्ञान प्राप्त करना ही पर्याप्त नहीं है, यह उचित दिशा में भी होना चाहिए। मानवीय दृष्टिकोण में आम दोष यह है कि हम ईश्वर को समझने के लिए अपनी भौतिक इंद्रियों का उपयोग करते हैं। हम ज्ञान की शुद्धता और त्रुटि का निर्णय अपनी बुद्धि से करना चाहते हैं, जिसके पास केवल सांसारिक अनुभव है, ईश्वर का कोई अनुभव नहीं है। हम मानते हैं कि जो चीजें मन और इंद्रियों द्वारा नहीं देखी जा सकतीं, उनका अस्तित्व ही नहीं है।
इस दृष्टिकोण को नोबेल पुरस्कार विजेता और फ्रांसीसी फिजियोलॉजिस्ट एलेक्सिस कैरेल ने अच्छी तरह से स्पष्ट किया है। अपनी पुस्तक, मैन द अननोन में, वे कहते हैं: “हमारे दिमाग में उन चीजों को अस्वीकार करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति है जो हमारे समय की वैज्ञानिक या दार्शनिक मान्यताओं के ढांचे में फिट नहीं होती हैं। आखिरकार, वैज्ञानिक केवल इंसान ही हैं। वे अपने परिवेश और युग के पूर्वाग्रहों से भरे हुए हैं। वे स्वेच्छा से मानते हैं कि ऐसे तथ्य जो वर्तमान सिद्धांतों द्वारा समझाए नहीं जा सकते, वे मौजूद नहीं हैं। वर्तमान समय में, वैज्ञानिक अभी भी टेलीपैथी और अन्य आध्यात्मिक घटनाओं को भ्रम के रूप में देखते हैं।अपरंपरागत दिखने वाले स्पष्ट तथ्यों को दबा दिया जाता है।”
कुएँ के मेंढक की तरह भौतिकवादी लोग शाश्वत आत्मा के विचार को समझ नहीं पाते। अपने सीमित अनुभव और आध्यात्मिक ज्ञान की कमी के कारण, वे यह नहीं समझ पाते कि उनकी भौतिक बुद्धि की समझ से परे एक संपूर्ण आध्यात्मिक ब्रह्मांड है। केवल वे लोग जिन्होंने अध्यात्म का मार्ग अपनाया है, विनम्रता और विश्वास के साथ अपने हृदय को शुद्ध करने का प्रयास करते हैं। शुद्ध मन स्वाभाविक रूप से आत्मा की उपस्थिति का अनुभव करता है। तब उन्हें शास्त्रों का ज्ञान स्पष्ट हो जाता है।
जब आप कोई मूर्ति देखते है, उसे आस्था न होने से सांसारिक दृष्टिकोण से परखते है। परंतु वही मूर्ति मंदिर में हम परमात्मा के स्वरूप में देखते है किंतु मन में अभाव, द्वंद, राग – द्वेष होने से हम उस मूर्ति से प्रकृति के दुख दूर करने और सुख की उपासना करते है। मोक्ष के दृष्टिकोण से कोई विरला ही मूर्ति के दर्शन आत्म स्वरूप में करते जिन्हे हम मीरा, रामकृष्ण परमहंस आदि नाम से जानते है।
जब जीवन के समस्त द्वंद फंद को त्याग कर एकाग्र चित्त से जो अध्ययन, अन्वेषण या परब्रह्म को प्राप्त करने की यत्न करता है वो ही परब्रह्म, अन्वेषण या अपने व्यवसाय या व्यापार में सफल होता है। इस के लिये शुद्ध द्विवेष रहित चित्त होना चाहिए एवम जिस के अंदर कोई भी कामना या आसक्ति न हो। स्थिर एवम स्वच्छ जल में ही तल को हम देख पाते है। अन्वेषण करने वाले वैज्ञानिक अपने धैय के साथ काम मे लगे रहते है फिर कब सफलता हाथ लगे, इस की चिंता नहीं करते।
पूर्व श्लोक में ज्ञानी जीव ही जीव एवम प्रकृति की प्रक्रिया को अलग अलग देख सकता है। वह ज्ञानी जीव जो अनन्य भक्ति भाव से पूर्ण समर्पित हो कर शुद्ध चित्त के साथ परब्रह्म का ध्यान करते है, वो ही पूर्व श्लोक में बताए हुए जीव एवम प्रकृति में दोनों को पृथक पृथक समझ पाते है।
कुछ लोग वर्षों परमात्मा की सेवा करते है, ध्यान एवम ज्ञान योग से परमात्मा की खोज में जीवन व्यतीत करते है, भजन, कीर्तन एवम प्रवचनों के मध्य सत्संग करते है, किन्तु यदि वह किसी आसक्ति, लोभ या कामना अथवा अहम में रहते है, वो परब्रह्म के ब्रह्म स्वरूप को वर्षों की मेहनत के वावजूद भी नही प्राप्त कर पाते क्योंकि उन का अन्तःकरण चित्त शुद्ध नही है।
जब तक दर्पण में मलिनता रहती है, कोई चेहरा स्पष्ट नहीं दिखता। जीव का मन ही दर्पण है, जब तक वह मलिन है। सांसारिक राग के कारण वैराग्य होते हुए भी जीव को परब्रह्म नही दिखता।
पूर्व श्लोक में विमूढ़ शब्द को पढ़ा था। जिस का अन्तःकरण मलिन एवम विक्षप्त हो अर्थात अकृतात्मा हो एवम जिस में बोधशक्ति का अभाव हो अर्थात अचेतस हो। ऐसे दोष से युक्त जीव प्रकृति के तीनों गुणों से बंधा रहता है, इसलिये विमूढ़ है क्योंकि जब तक बंधन में है तब तक अपने को किंतना भी समझदार, ज्ञानी एवम पारखी माने, वह परब्रह्म को समझ ही नही सकता। इसलिये ऐसे लोग परमात्मा के विषय मे बहस इसप्रकार करते है कि स्वयं परमात्मा का दायित्व है कि वो उन्हें सिद्ध हो कर बताए। यह लोग अहम में इतनी बहस करते है, मानो यह यदि परब्रह्म को मान्यता नहीं देंगे तो परब्रह्म ही नही सत्यापित नही होगा।
जानना, मानना और समाहित होने में अंतर को समझने के लिए हम कह सकते है कि शराब स्वास्थ्य के हानिकारक है, यह जानते हुए भी आदत से विवश लोग शराब पीते है, वह जानने वाले अज्ञानी है, शराब पीने की लालसा है किंतु स्वास्थ्य या किसी अन्य कारण से नही पी सकते, यह मानने वाले अज्ञानी है और शराब पीने को उपलब्ध न हो, इसलिए नही पी रहे, यह जानने, मानने और समझने वाले अज्ञानी है। ज्ञानी वह है, जिस के मन और बुद्धि में शराब को देख कर कोई भी लालसा, कामना या विरक्ति की भावना ही उत्पन्न न हो। जो अपने अहम को छोड़ने के लिए योग, तप, भजन – कीर्तन करते है, वह वास्तव में अहम हो छोड़ने के लिए पकड़ कर बैठे होते है।
परमात्मा को प्राप्त करने वाला वही है जिस ने अपने यथार्थ स्वरूप को जान लिया है, कि ” यह मैं हूं” इसे के लिए उस ने न कुछ छोड़ा है और न ही कुछ प्राप्त क्या है। जो प्रकृति के तीन गुणों में रहता है, वह मुक्त नहीं है, चाहे शुद्ध सात्विक ही क्यों न हो, परमात्मा को जानने वाला गुणातित ही होता है। आत्मा के अस्तित्व की तरह, ईश्वर के अस्तित्व को भी इन्द्रियाँ नहीं समझ सकतीं। केवल ज्ञान की आँखों से ही ईश्वर को पाया जा सकता है।
व्यवहारिक जीवन मे राजनीतिक, व्यावसायिक या अध्ययन सम्बंधित ज्ञान में प्रायः इस प्रकार के लोग निर्रथक बहस में रहते है। वो परब्रह्म को नही जानते हुए भी अहम में उस से ऊपर अपने को रखते है, रावण, कंस या हिंरकश्यप इस के साक्षात उदाहरण है। समहितचित्त हुए बिना ज्ञान जब अहंकार का माध्यम बन जाये तो वह विमूढ़ता ही है, फिर कैसे उसे अन्तःकरण में परब्रह के स्वरूप का ज्ञान होगा।
इसलिये परमात्मा ने इस श्लोक से स्पष्ट किया कि उस को जानने वाला कौन हो सकता है, अन्य चाहे वर्षों या जन्म-जन्मांतर तक तप करें, जब तक शुद्ध चित का नहीं होगा, परब्रह्म को नही जान पायेगा। हमे इस तथाकथित बाबा, साधु, प्रवचको एवम मंडलाधीश लोगो को पहचान कर सच्चे व्यक्ति को ही गुरु बनाना चाहिये। गुरु बनाने की होड़ में जो लोग गुरु लोगो की भीड़ लगा लेते है, वो शिष्य भी विमूढ़ ही है।
व्यवहारिक उदाहरण सोशल मीडिया भी है जिस में कुछ लोग पोस्ट सिर्फ इसलिए करते है कि उन्हें संपर्क में रहना है। कुछ लोग सामाजिक चेतना के प्रति जागरूक है किंतु सही और गलत को समझे या विचारे बिना, पोस्ट को इधर उधर करते है। कुछ ही लोग स्थान, समय और व्यक्ति को समझ कर सही पोस्ट करते है।
आगे हम चित्तशुद्धि अर्थात् अहंकार और स्वार्थजनित विक्षेपों का अभाव तथा वेदान्त प्रमाण के द्वारा आत्मानात्मविवेक, जिसके द्वारा अज्ञान आवरण नष्ट हो जाता है, परब्रह पर विचार करते हुए उन के बारे में पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 15.11।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)