।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 15.10 II
।। अध्याय 15.10 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 15.10॥
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् ।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः॥
“utkrāmantaḿ sthitaḿ vāpi,
bhuñjānaḿ vā guṇānvitam..।
vimūḍhā nānupaśyanti,
paśyanti jñāna- cakṣuṣaḥ”..।।
भावार्थ:
जीवात्मा शरीर का किस प्रकार त्याग कर सकती है, किस प्रकार शरीर में स्थित रहती है और किस प्रकार प्रकृति के गुणों के अधीन होकर विषयों का भोग करती है, मूर्ख मनुष्य कभी भी इस प्रक्रिया को नहीं देख पाते हैं केवल वही मनुष्य देख पाते हैं जिनकी आँखें ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित हो गयी हैं। (१०)
Meaning:
That which leaves, stays and experiences, that which is endowed with gunaas, is not recognized by the deluded. It is seen by those with the eye of wisdom.
Explanation:
So, the previous verses are the preparatory verses. This is the crucial verse. So here alone Krishna says for a discerning mind, Brahman is recognisable in every activity of the individual, in every function of the Jīva. Just as the invisible electricity is discerned in every function of the electrical gadgets; in every function of the Jīva, Brahman is discerned. Of course, directly discern the function from the functions, we discern the cidabhāsa; reflected consciousness; and from the reflected consciousness; we discern the original Conciousness, because we know that the original consciousness alone appears as the reflected consciousness. When you want to apply kumkumam or chandanam or vibhūthi, you see the mirror and you see the face upon the mirror in front of you, and when you want to apply, you see the mirror but apply the tilakam, where? On your face, and not on the mirror, because you know that there is no difference that face and this face. What you see is that face, but what you discern or recognise is this face. And if you find a black dot on your face, but you wipe here. What does it mean? Seeing the ābhāsa mukham, you discern the original mukham. Similarly, I experience the ābhāsa caitanyam, every moment, I understand the original consciousness and therefore Krishna says mature people appreciate God in every breadth.
We saw how a false “I” called the ego is created, by usurping the awareness or sentiency of the eternal essence. All this is possible through the illusory identification of the jeeva with the ego. Shri Krishna now wants to summarize and conclude the topic of the fall of the jeeva by distinguishing between those individuals who recognize, who know the lifecycle jeeva versus those who do not. He says that only those with the eye of wisdom can truly understand the notion of the jeeva as separate and distinct from the physical body, as well as the reason for its existence. Others cannot.
Several experiments have been conducted by scientists to find the soul, but the material instruments of the laboratories are no good to detect it. Hence, they conclude that all the bodily parts working together are the source of life.
Similarly, devoid of spiritual knowledge about the existence of the soul and its functions, the physiologists’ theory is that the physical body itself along with its different parts is the source of life.
Most of us tend to think that the brain is sentient and self- aware, when it is inert and borrows awareness from the jeeva. Most of us think that what we our senses tell us is real, when it is actually nothing but the play of the three gunaas. Most of us derive enjoyment from the world, when our real nature is that of joy. Most of us think that the “I” is our ego, our ahankaara when it is actually the eternal essence. These incorrect beliefs are collectively termed as ajnyaana or ignorance.
Shree Krishna has said that the ignorant (vimūḍh) are unaware of their own divine identity and presume the physical body to be the self. Only someone who has acquired spiritual knowledge understands that it is the soul that gives life to the body. Without the soul, the body is lifeless. When a person dies, the material parts of the body; the heart, brain, lungs, limbs, etc. are there, but they don’t function, as the soul has left the body.
Consciousness is an indication of life or the presence of a soul in a physical body.
The jnyaana chakshu, the eye of wisdom, refers to those people who have removed all of these incorrect notions. They do not hesitate to challenge any thought, idea, concept or emotion since all of this is in the plane of the three gunaas. On the other hand, most of us will not challenge the long-held beliefs about the world that we are programmed with. Since we do not lose our fascination for the world even after being told several times by our scriptures, Shri Krishna addressed us as “vimoodha”, completely deluded. How then, do those select few people gain the eye of wisdom? We will see in the next shloka.
।। हिंदी समीक्षा ।।
मनुष्य जब मृत्यु को प्राप्त होता है, तो यह शरीर को त्याग देता है, इसे उत्क्रांति कहा गया है। इसी प्रकार शरीर से जो भी तेरा -मेरा मोह माया का व्यवहार होता है एवम उसे वह व्यवहार समझता हुआ विषयो को भोगता हुआ प्रतीत होता है। तृतीय प्रकृति के तीनों गुणों के अंतर्गत वह जो भी कर्म करता है, उसे वह यह मानता है कि वह कर रहा है।
परमात्मा कहते है कि जब जीव मेरा अंश है, नित्य एवम साक्षी है तो यह शरीर त्याग जिसे मृत्यु कहते है अर्थात उत्क्रांति, न ही शरीर मे उस की स्थिति की वह यह शरीर है, न ही प्रकृति के गुणों से उस का व्यवहार एवम विषयो एवम कर्मो का भोग सत्य है। क्योंकि जो अकर्ता है वो कुछ नही करता, इसलिये यह सब उस के प्रकृति के संयोग मात्र से प्रकृति ही करती है।
अतः पिछले श्लोक में हमे ब्रह्म के विषय में बताया गया तो यह श्लोक निर्णायक श्लोक है।अतः यहाँ ही कृष्ण विवेकशील मन के लिए कहते हैं कि व्यक्ति की प्रत्येक गतिविधि में, जीव के प्रत्येक कार्य में ब्रह्म को पहचाना जा सकता है। जिस प्रकार विद्युत उपकरणों के प्रत्येक कार्य में अदृश्य विद्युत को पहचाना जाता है, उसी प्रकार जीव के प्रत्येक कार्य में ब्रह्म को पहचाना जाता है। निःसंदेह, कार्यों से सीधे कार्य को पहचानते हुए, हम चिदभास को पहचानते हैं; प्रतिबिंबित चेतना को; और प्रतिबिंबित चेतना से; हम मूल चेतना को पहचानते हैं, क्योंकि हम जानते हैं कि मूल चेतना ही प्रतिबिंबित चेतना के रूप में प्रकट होती है। जब आप कुमकुम या चंदन या विभूति लगाना चाहते हैं, तो आप दर्पण देखते हैं और आप अपने सामने दर्पण पर चेहरा देखते हैं, और जब आप लगाना चाहते हैं, तो आप दर्पण देखते हैं लेकिन तिलक लगाते हैं, कहाँ? अपने चेहरे पर, दर्पण पर नहीं, क्योंकि आप जानते हैं कि उस चेहरे और इस चेहरे में कोई अंतर नहीं है। आप जो देखते हैं वह वह चेहरा है, लेकिन आप जो पहचानते हैं या पहचानते हैं वह यह चेहरा है। और अगर आपको अपने चेहरे पर एक काला धब्बा दिखाई देता है, लेकिन आप यहाँ पोंछते हैं। इसका क्या मतलब है? आभास मुखम को देखकर, आप मूल मुखम को पहचानते हैं। इसी तरह, मैं आभास चैतन्यम का अनुभव करता हूँ, हर पल, मैं मूल चेतना को समझता हूँ और इसलिए कृष्ण कहते हैं कि परिपक्व लोग हर मोड़ पर ईश्वर की सराहना करते हैं। जब हम गीता पढ़ रहे होते है तो जो यह समझ रहा है, वे ही चिदाभास है।
वैज्ञानिकों ने आत्मा को खोजने के लिए कई प्रयोग किए हैं, लेकिन प्रयोगशालाओं के भौतिक उपकरण इसे खोजने में कारगर नहीं हैं। इसलिए, वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि शरीर के सभी अंग मिलकर ही जीवन का स्रोत हैं। जैसे कार को चलने के लिए इंजन, ईंधन और सभी कलपुर्जों की समन्वयता चाहिए। किंतु उसे चलाने वाला यदि न हो तो वह क्रियाशील नहीं होगी।
इसी प्रकार, आत्मा के अस्तित्व और उसके कार्यों के बारे में आध्यात्मिक ज्ञान से रहित, शरीर विज्ञानियों का सिद्धांत यह है कि भौतिक शरीर अपने विभिन्न भागों के साथ ही जीवन का स्रोत है।
ध्वनि के समान रहने पर, प्रतिक्रिया के दो रूप होते हैं और प्रतिक्रियाओं को मोटे तौर पर तीन में विभाजित किया जाता है; सात्विक प्रतिक्रिया, राजसिक प्रतिक्रिया और तामसिक प्रतिक्रिया। शंकराचार्य इसे सुख, दुःख और मोह प्रतिक्रियाएं कहते हैं। और यहाँ यही कहा गया है, गुणन्वितम्। यहाँ गुण से तात्पर्य विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाओं और इन प्रतिक्रियाओं से है। यहाँ गुण शब्द का अर्थ प्रतिक्रियाएं हैं। जीवात्मा इन तीन गुना प्रतिक्रियाओं से संपन्न है और हर प्रतिक्रिया शरीर में ब्रह्म की उपस्थिति को प्रकट करती है। क्योंकि मृत शरीर में; क्योंकि मृत शरीर को जला दिया जाता है; वे शरीर पर सृजन के समय होम करते हैं; अग्नि जलाई जाती है; उस व्यक्ति की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं; क्यों? क्योंकि शरीर में कोई जीव निवास नहीं करता है। इसलिए प्रत्येक प्रतिक्रिया जीव की उपस्थिति को प्रकट करती है। इसलिए गुणन्वितम्, जीवम्, ये सभी शब्द जीव के विशेषण हैं, जो किसकी छवि है? ब्रह्म। और ऐसा ब्रह्म, ज्ञान चक्षुः पश्यन्ति। परिपक्व लोग पहचानते हैं।
सरल भाषा में हम कह सकते है कि जीव अज्ञान में शरीर अर्थात देह को अपना स्वरूप समझ लेता है और मृत्यु के समय प्रकृति के गुणों के अनुसार मोह, कामना या आसक्ति अथवा अहंकार के भाव में शरीर को त्यागता है, जिस के कारण उस का अंत समय का भाव, आसक्ति या कामना उसे उसी भाव के अनुसार अन्य शरीर में सूक्ष्म शरीर के साथ प्रविष्ट करा देती है। जो जीव निसंग, कामना रहित, यह ज्ञान रखते हुए, शरीर का त्याग करता है कि वह जिस को त्याग रहा है, वह उस का स्वरूप नही, प्रकृति है, वह मुक्त हो जाता है।
हम यही समझते और मानते है कि आत्मा अजर और अमर है, मरता शरीर है, आत्मा पुराने वस्त्र को त्याग कर नए वस्त्र धारण कर लेती है। किंतु वस्तुत: आत्मा अकर्ता और साक्षी है, वह किसी नए शरीर को धारण करने का कर्म या क्रिया करे तो उस का गुणधर्म ही बदल जाएगा। यह कार्य महंत, अहंकार और सूक्ष्म इंद्रियों युक्त सूक्ष्म शरीर का है, जो कामना, आसक्ति और अहम भाव से आत्मा से लिपटा हुआ है। इसलिए अज्ञानी अपने स्वरूप को न समझते हुए, इसे ही अपना स्वरूप मानता है और प्रकृति के त्रय गुणों के समुच्चय से उत्पन्न भाव में जिस भाव में शरीर त्यागता है, सूक्ष्म शरीर उसी भाव को ले कर अगले शरीर में प्रवेश कर जाती है। जो ज्ञानी इस को जानता है, वह पुन: जन्म को प्राप्त नही होता।
शास्त्रों से, प्रवचन से या अध्यास से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह बद्ध ज्ञान है। अर्थात वह वही तक साथ चलता है जब तक प्रकृति से कोई अवसर नहीं मिलता और जब अवसर मिले तो ज्ञान में छुपा या दबा हुआ काम, मोह या स्वार्थ जाग्रत हो जाता है। अतः स्वयं के चैतन्य स्वरूप को प्राप्त किए बिना प्रतिबिंब चेतन पर आधारित ज्ञान भी अधूरा है।
इसलिये जिसे वह मैं-मैं करता हुआ समझता है, वह अज्ञान है। जो ज्ञानी है वह इस समस्त क्रियाओं को जानता है इसलिये साक्षी भाव से होते हुए देखता है।
श्री कृष्ण ने कहा है कि अज्ञानी (विमूढ़) अपनी दिव्य पहचान से अनभिज्ञ रहते हैं और भौतिक शरीर को ही आत्मा मान लेते हैं। केवल वही व्यक्ति जिसने आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर लिया है, वह समझ सकता है कि आत्मा ही शरीर को जीवन देती है। आत्मा के बिना शरीर बेजान है। जब कोई व्यक्ति मरता है, तो शरीर के भौतिक अंग; हृदय, मस्तिष्क, फेफड़े, अंग आदि तो होते हैं, लेकिन वे काम नहीं करते, क्योंकि आत्मा शरीर छोड़ चुकी होती है। चेतना भौतिक शरीर में जीवन या आत्मा की उपस्थिति का संकेत है।
यह एक सर्वत्र अनुभव सत्य है कि सामान्य बुद्धि का पुरुष यद्यपि वस्तु को देखता है, तथापि उसे पूर्ण तथा यथार्थ रूप से समझ नहीं पाता है। वस्तु का वास्तविक ज्ञान केवल उस विषय के ज्ञानियों को ही उपलब्ध होता है।प्रत्येक व्यक्ति किसी साहित्यिक रचना को पढ़ सकता है, परन्तु एक भाषाविद् पुरुष ही उस रचनाकार की दृष्टि को यथार्थत समझकर उसका पूर्ण आनन्द अनुभव कर सकता है। एक जौहरी ही मणियों के गुणस्तर और वास्तविक मूल्य को आंक सकता है। अन्य लोग केवल देख ही सकते हैं। सभी लोग संगीत सुन सकते हैं, किन्तु एक कुशल संगीतज्ञ ही किसी सर्वोत्कृष्ट गायन की शास्त्रीय सूक्ष्मता एवं सुन्दरता का आनन्द उठा सकता है। इसी प्रकार इसी चैतन्य आत्मा की उपस्थिति से ही हम विषय, भावनाओं और विचारों का अनुभव करते हैं। परन्तु केवल आत्मज्ञानी पुरुष ही इसे पहचानते हैं और स्वयं आत्मस्वरूप बनकर जीते हैं।
आत्मा तो नित्य विद्यमान है। इसका अभाव कभी नहीं होता। देहत्याग के समय सूक्ष्म शरीर को चेतनता प्रदान करने वाला आत्मा ही होता है। एक देहविशेष के जीवन काल में आत्मा ही समस्त अनुभवों को प्रकाशित करता है। सुखदुखात्मक मानसिक अनुभवों तथा बुद्धि के निर्णयों का प्रकाशक भी आत्मा ही है। इसी प्रकार क्षणक्षण परिवर्तनशील हमारे मन के सात्त्विक (शांति), राजसिक (विक्षेप) और तामसिक (मोहादि) भावों का ज्ञान भी चैतन्य के कारण ही संभव होता है फिर भी अविवेकी जन उसे पहचान नहीं पाते जिसकी उपस्थिति से ही कोई अनुभव संभव हो सकता है। सामान्य जन अपने अनुभवों तथा उनके विषयों के प्रति ही इतने अधिक आसक्त और व्यस्त हो जाते हैं कि उनका सम्पूर्ण ध्यान बाह्य विषयों और सुन्दर संरचनाओं की सुन्दरता में ही आकृष्ट रहता है। वे उस आत्मा की उपेक्षा करते हैं तथा उसे पहचान नहीं पाते, जिसकी उपस्थिति से ही कोई अनुभव संभव हो सकता है। इनके सर्वथा विपरीत वे ज्ञानीजन हैं, जो नाम और रूपों के विस्तार से विरक्त होकर इस विस्तार के सार तत्त्व उस ब्रह्म को देखते हैं, जो उनके हृदय में आत्मरूप से स्थित सभी को प्रकाशित करता है। इस आत्मतत्त्व का दर्शन वे ज्ञानचक्षु से करते हैं। ज्ञानचक्षु कोई अन्तरिन्द्रिय नहीं हैं। विवेक वैराग्य आदि गुणों से सम्पन्न साधक जब वेदान्त प्रमाण के द्वारा आत्मविचार करता है, तब उस विचार से प्राप्त आत्मबोध ही ज्ञानचक्षु है।
ज्ञानी जो जानता है वो शरीर के प्रत्येक भोग को अकर्ता भाव से स्वामी हो कर भोगता है अर्थात शरीर छोड़ कर जाते समय, शरीर में रहते समय और विषयों का उपभोग करते समय हरेक अवस्था में ही वह आत्मा वास्तव में प्रकृति से सर्वथा अतीत, शुद्ध, बोध स्वरूप और असंग ही है, ऐसा समझते है और फिर शरीर को त्याग देता है और अज्ञानी शरीर को गुलामी या दासत्व भाव से भोगता है और शरीर के त्याग के समय दुखी होता है।
यहाँ अज्ञानी को विमूढ़ कहा है, क्योंकि अज्ञान में विवेक खत्म हो जाता है और यह अज्ञानी स्वयं को ज्ञानी समझने लगता है। इस प्रकार का ज्ञानी जो स्वयं अज्ञान में है, संसार को ज्ञान भी देने लगता है और सत्य को स्वीकार करने से इनकार कर देता है। इसे ही विमूढ़ता कहते है जहाँ विवेक या कुछ भी समझने के रास्ते बंद कर के ज्ञानी की भांति व्यवहार करना। इसलिये जिसे शरीर से मोह या आसक्ति है उस के यह ज्ञान अव्यवहारिक होता है। उस के शरीर को प्राप्त करना, धारण करना, उस का उपभोग करना एवम उस का त्याग करना ही सही होता है एवम उस को अपने नित्य, अकर्ता, साक्षी एवम परब्रह्म के अंश होने का ज्ञान ही नही होता, जब तक उस की आसक्ति एवम मोह का त्याग न हो एवम विवेक का जागरण न हो।
आगे हम पढ़ते है इस को किस प्रकार जाना जा सकता है।
।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 15.10।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)