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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  15.04 II Additional II

।। अध्याय      15.04 II विशेष II

।। ब्रह्म, प्रकृति, जीवन और मैं ।। गीता  विशेष 15.04 ।।

यह मेरी निजी राय या यह समझ ले कि मुझे जो ख्याल या विचार आते है, वही लिखकर समझने की चेष्टा करता हूं। जन्म और बचपन में मुझे ज्ञान अर्थात समझ नही थी या थी, पता नही परंतु शुरुवात के 6 से 8/9 साल में क्या जीवन होता है, इस पर कोई विचार करने की क्षमता ही नहीं थी। प्रकृति जैसा नाच नचा रही थी, वैसा ही कुछ होता था। भूख लगी तो रो लिए, खेलने का मन किया तो खेले, सभी प्रेम करते थे, इसलिए जिद्द भी सभी को अच्छी लगती थी। अपने करने को मन ही था या फिर बड़ों के आदेश। यह मोह, ममता और अपनत्व का अज्ञान ही था या कुछ ओर, पता नहीं।

किंतु जिंदगी ठहरती नही, स्कूल की जिंदगी में घर के कामों, स्कूल की पढ़ाई ने और साथियों के साथ हंसी मजाक। जीवन का लक्ष्य उन सांसारिक उचाइयो को छूना हो गया, जो समय समय पर दिल को प्रभावित करती थी, इसलिए कभी बाक्सर, कभी तांगेवाला, कभी खिलाड़ी, कभी नायक, डॉक्टर, इंजीनियर और न जाने कितने कितने रोल करते थे, किंतु पढ़ाई खत्म खत्म होते होते एक विषय या क्षेत्र में महारत हासिल की। स्वप्न और मन में अपनी श्रेष्ठता के ख्याली पुलाव पकाते रहता था। यहां लक्ष्य ऊंची कमाई और सुख की पारिवारिक जिंदगी हो गया। ज्ञान में भगवान मंदिर, आश्रमों और ग्रंथो के पाठ तक सीमित था, और उस की आराधना में वह सब सुख की आशा थी, जो काम करते करते प्राप्त करने में कठिन होते है। किंतु आत्म विश्वास में परमात्मा हमारे साथ खड़ा है।

जीवन की ढलान पर गीता पढ़ने का अवसर मिला किंतु अश्वत्थ वृक्ष की भांति अनगिनत शाखाओं और पल्लवो के मध्य जीवन इच्छाओं और आकांक्षाओं में व्यतीत हो चुका था और जो बचा है, वह भी इन्ही माया जाल में स्वर्ग- नरक तक ही जीवन सुधारने में लगा है। कभी महसूस ही नही हुआ कि अश्वत्थ वृक्ष के पिंजरे में कैद पक्षी को उन्मुक्त आकाश क्या होता है। पिंजरा भी इतना बड़ा की जिस का कोई छोर नही, तो कैद भी यह भी कभी ज्ञान नहीं हुआ।

अक्सर अकेले में प्रश्न अवश्य उठते थे कि मैं कौन हूं? जीवन मृत्यु क्या है? हमे पूर्व जन्म क्यों याद नही रहता? किसी भले व्यक्ति को क्यो कर कष्ट आता है? यह कष्ट क्या है? आत्मा अमर है और जीव नित्य ? जब जब धर्म की हानि होती है, तो धर्म की रक्षा के लिए परमात्मा प्रकट होते है, तो अभी क्यों नही ??? आदि आदि। लेकिन इन सब प्रश्नों के उत्तर की आवश्यकता ही क्यों है, जब हम कुछ करते ही नही, जो करती है वह प्रकृति करती है, तो जो कुछ भी हो रहा है, वह अच्छा ही हो रहा होगा, जो कुछ भी होगा अच्छा ही होगा। न कुछ हमारा है, न कुछ हमारा था और न ही कुछ हमारा होगा। इस संसार से कुछ भी साथ ले जाने की व्यवस्था नहीं है, किंतु जब तक संसार में है, कीर्तिमान बनकर रह सकते है, यह धरती उन लोगो के लिए ऋणी रहती है जो सृष्टि यज्ञ चक्र में सक्रिय भूमिका निभाते हुए अपने कर्तव्य धर्म का पालन लोकसंग्रह के लिए  करते है। आश्चर्य कभी कभी इस बात का भी होता है कि मनुष्य जितना अपने उद्धार के लिए चिंतित नहीं है, उस से अधिक अन्य के उद्धार के लिए चिंतित रहता है, इसलिए खुद जैसा भी हो, अच्छाई की अपेक्षा उसे अन्य सभी से रहती है।

यह प्रकृति निरंतर क्रियाशील है, इसलिए इस को कर्म भी कहते है। जड़- चेतन निरंतर अपने अपने कर्म में लगे है, सूर्य अपनी धुरी पर घूमता है, रोज निकल कर जगत को प्रकाशित करता है। यह जीवन का आधार सूर्य ही है, फिर प्रकृति प्राण वायु, अन्न, जल सभी उपलब्ध करती है। जीव भी प्रकृति ही है, वह भी इसी में क्रियाशील है। किंतु बुद्धि, अहम और कामनाओं से ग्रस्त हो कर वह निरंतर प्रपंच रचता रहता है। इसलिए स्थान, धर्म, स्वार्थ, लोभ, मोह और वासना में एक दूसरे के साथ भी है और एक दूसरे के विरुद्ध भी। विश्व में मनुष्य ही एक दूसरे को हत्या जिन आकांक्षाओं के रहते करता है, वह समय के काल में समा जाती है। वह अज्ञानी अहम में अपने स्वरूप को भूल कर जो मेरा मेरा करता है, वही उस के पतन का कारण भी बनता है। यह एक विचित्र और कटु सत्य है, जो अवसान काल में ही समझ में आता है। यही शायद योग माया है।

मृत्यु को जिस ने बहुत पास से देखा हो, वह जानता है कि जगत मिथ्या ही सही, किंतु गतिशील और परिवर्तन से परे नहीं है। जब आप सोते है तो जगत से परे हट जाते है और उठने के बाद पुनः जुड़ जाते है। आप के हटने और जुड़ने से , गतिशीलता या परिवतनशीलता में कोई अंतर नही पड़ता और यह वैसे ही चलता है जिसे आप के रहते था और आप के नहीं रहने के बाद। अतः जगत से हम जुड़े है , जगत हम से नहीं। जीव शाश्वत है, किंतु जीवन नही। बस एक नहीं टूटने वाली नींद भर की देरी है और कोई अंतर नहीं। फिर नित्य सोना, जागना और कुछ करते रहना, खाना पीना, घूमना या कुछ भी करना और आपसी व्यवहार, सभी मिथ्या है और सत्य होने का भ्रम और यही भ्रम को अपने दिल से लगाए हम जीवन जीते है। फिर सत्य क्या है?

ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या। किंतु जब कल दांत में दर्द हो रहा था, तो उस की पीड़ा ने यह भी समझा दिया कि प्रकृति प्रदत्त शरीर और सुख- दुख, भूख- प्यास, मोह -ममता भी जीवन से नही छूट सकते। जगत मिथ्या नही, यह भी सत्य है, जब तक प्रकृति में हम जीवित है, यह घर, परिवार, व्यवसाय, स्वास्थ्य, समाज, देश, राजनीति, पद, सम्मान सभी इस भौतिक शरीर के लिए आवश्यक है। सत्व इसी में है कि हम कर्मठ, विद्वान और जिम्मेदार बने। अर्थात त्रिगुणात्मक प्रकृति में सत्व और राजस गुणों से युक्त।आखिर युद्ध भूमि में अर्जुन ने मोक्ष के लिए नही, अपने सात्विक अधिकारों के लिए अपने लोगो से लड़ा था। इसी कारणों से भगवान राम ने रावण को सीता के अपहरण के लिए मारा था। भगवान कृष्ण ने जो भी लीलाएं की, वह प्रकृति के सात्विक गुणों की रक्षा हेतु की। जगत का समस्त ज्ञान समृद्ध एवम गौरव शाली जीवन के लिए है, इसलिए प्रथम कर्तव्य अपने प्रति, फिर परिवार, समाज, देश और विश्व के प्रति है। जाना तो सभी को है किंतु जो उपलब्ध है, उस का उपयोग किए बिना भी चले गए तो भी मोक्ष नही। कुछ तो परमात्मा के संकल्प में होगा, जिस के कारण मनुष्य जीवन और प्राकृतिक सौंदर्य को बनाया होगा। पीड़ा, प्रेम, द्वेष, धैर्य आदि गुण- अवगुण बनाए होंगे। अच्छे- बुरे लोग बनाए है तो विविधा भी रहेगी। जगत सत्य नही भी है तो भी जीवन के वर्तमान का सत्य अवश्य है। इसी को सात्विक बन कर जीना आवश्यक है। छत पर जाने के लिए आखिरी सीढ़ी तक चढ़ना ही पड़ता है। तभी उस को छोड़ कर छत मिलेगी। निर्वाण के लिए यह सब सीढियां ही तो है। इन के प्रति उदासीन कैसे हो सकते है। युद्ध भूमि में खड़े अर्जुन को युद्ध को जीतना किसी सन्यास लेने से कम नहीं, फिर युद्ध भूमि का त्याग क्यों करना चाहिए। मोक्ष जीवन का अंतिम सत्य भी हो तो इस का मार्ग जीव के लिए निष्काम कर्म के रास्ते से ही निकलेगा।

गीता के अनुसार आत्मा मूल रूप से स्वतंत्र है, तथापि मनुष्य एक जन्म में पूर्ण सिद्धि को प्राप्त नही कर सकता। क्योंकि पूर्व के कर्मो से अनुसार उसे मिली हुई देह का प्राकृतिक स्वभाव अशुद्ध होता है। इसलिए आप चाहो या न चाहो, कुछ विचार, आदत और आचरण स्वत: ही आप का स्वभाव बन जाते है। फिर एक ही जन्म में मुक्ति की चाह में इस जीवन को क्यो नष्ट करे। भगवान ने कहा भी है कि मुक्ति के लिए की गई कोशिश व्यर्थ नहीं जाती, अगले जन्म में जहां से कोशिश खत्म हुई थी, वहां से पुनः शुरू कर सकते है। फिर आत्मा को मुक्ति की जल्दी भी क्या है। धीरे धीरे ही सही, सात्विक जीवन को जीते हुए, अपने कर्तव्य कर्म को अनासक्त भाव में परिवर्तित करते हुए भी जीवन का आनंद ले तो भी मनुष्य योनि भी बनी रहेगी और मुक्ति की ओर यात्रा भी चलती रहेगी। बिना धैर्य को खोए, कर्म का क्षय किस प्रकार हो, कि जीवात्मा कर्मफल से मुक्त हो जाए, तो उस का उपाय निष्काम भाव से कर्म करते रहना ही होगा, और निष्काम भाव भी कोई कठोर तप या पतंजलि योग शास्त्र से कष्ट पूर्ण तरीके से  करते हुए, प्रकृति के आनंद से सात्विक भाव में करते रहने से भी प्राप्त हो जाएगा। अतः जरूरत अपने कर्मो पर ध्यान देने की ज्यादा है, जिस से शरीर और प्रकृति का सदुपयोग हो सके। आप का स्वल्प से स्वल्प सात्विक कर्म का फल आप के जीवन को मुक्ति ही ओर ही ले कर जाएगा। यदि यह कारण नहीं था तो कृष्ण अर्जुन से अधर्म के विरुद्ध युद्ध लड़ने को क्यों कहा और फिर सभी अजेय योद्धाओं को कूटनीति से मरवा भी दिया। यह कूटनीति किसी भी युद्ध का, धर्म शास्त्र का, अजेय वीर योद्धा का या न्यायशास्त्र का नियम नहीं था, यह केवल लोकसंग्रह के लिए किया हुआ , निष्काम कर्म योग था। जिस की आज भी अधर्म के विरुद्ध आवश्यकता है।

अतः यह भी तय है कि भौतिक शरीर चाहे नश्वर हो। जन्म से मृत्यु तक वृद्धि और क्षय को प्राप्त हो, किंतु कर्म का अधिकार इसी देह को है। सूक्ष्म शरीर कितने भी लोकों में विचरण करे किंतु प्रकृति के सौंदर्य का आनंद और भोग के लिए शरीर जरूरी है। मैंने अनेक अवतारों को पढ़ा, सभी  देव कर्म से आसुरी कर्म इस देह द्वारा ही होते पाया अन्यथा नैसर्गिक कर्म को कोई दोष नही। और इसी लिए जिसे मृत्यु की संज्ञा दी गई, उसे इसी नश्वर शरीर का नाश करते ही देखा गया। फिर चाहे वह हिरणाकाश्यप, रावण या कंस या दुर्योधन कोई भी क्यों न हो। आत्मा तो नित्य, अकर्ता, साक्षी है तो मृत्यु का अर्थ ही है, कर्म करने के अधिकार का नष्ट हो जाना। इसलिए जीव कर्म भी करता है, कर्म के अधिकार का निर्माण और हनन भी करता है। शायद यही प्रकृति की योगमाया का सशक्त स्वरूप है। गीता भी जीव, जीवन, कर्म और ब्रह्म के इस मायाजाल में प्रत्येक कड़ी को स्पष्ट करते हुए, हमे प्रकृति और अपने कर्म के अधिकार का उपयोग कैसे करे, यही बतलाती है।

इसलिए यदि इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर के, कर्मफल के विषय में प्राणी मात्र की जो आसक्ति होती है, उस का क्षय किया जाए, तो भी ज्ञानी मनुष्य कर्म करता हुआ भी, उस के फल से मुक्त होगा। कर्म स्वभावत: अंधा, अचेतन और मृत होता है, वह न तो किसी को पकड़ता है और न ही किसी को छोड़ता है। वह स्वयं में अच्छा या बुरा भी नहीं होता। मनुष्य यानि जीव ही अपनी आसक्ति और अहम में इस कर्मो में फसा कर, अपनी आसक्ति और अहंकार में  अच्छा या बुरा, शुभ या अशुभ, निषिद्ध या निहित कुछ भी बना देता है। अतः कर्म स्वयं में फल भी निर्धारित नहीं करता, उस की आसक्ति उस के फल को निर्धारित करती है, वह तो किसी भी कार्य के कारण या परिणाम को बतलाता है।

संसार में कितने लोग महान हुए, उन का कार्य क्षेत्र भी भिन्न भिन्न था, कुछ वैज्ञानिक, अविष्कारक, दार्शनिक, समाज सुधारक, खिलाड़ी, अध्यापक, अधिवक्ता और कुछ कलाकार गायन, अभिनय, नृत्य आदि में प्रवीण थे, देश, धर्म और मानव जाति के बलिदान होने वीर पुरुष, जन कल्याण के साधु – संत, लेखक, कवि आदि हुए। कुछ ने राजनीति में देश का नेतृत्व किया तो कुछ ने नेतृत्व में कमी देखते हुए उसे परिवर्तित किया। इन्हे यह संसार उन के कर्मो से याद करता है। अतः आवश्यकता यही है कि सात्विक कर्मो का मार्ग अपना कर कर्मयोगी बने, अपने क्षेत्र में कर्मठ और परांगत हो। नर यदि ठान ले तो वह नारायण भी बन सकता है। इसलिए मुक्ति भी वही प्राप्त कर सकेगा जो योग्य होगा। योग्यता को पहले सिद्ध करना होगा।

जब मार्ग लंबा और घुमावदार हो, बीच में अनेक मार्ग भ्रमित कर के पुनः पीछे खड़ा कर दे, सांप – सीढ़ी के खेल की भांति अनेक कष्ट दायक स्थान हो तो यह अश्वत्थ वृक्ष का ज्ञान एक मार्ग दिग्दर्शक का काम करता है। यह अनंत, छोर रहित वृक्ष का मूल क्या है, हमे मूल की ओर जाना है या पल्लवो में ही उलझे रहना है या फिर इस वृक्ष से बाहर छलांग लगानी है। किंतु दिशा निर्देश देने वाला गति नही देता, गति और निर्णय तो जीव को ही तय करते हुए, निर्वाण के मार्ग पर विभिन्न पडाव को देखते हुए बढ़ना है।

अध्याय एक से चौदह तक पढ़ने के बाद जब ब्रह्म ज्ञान का अध्याय  आया तो भगवान श्री कृष्ण स्पष्ट शब्दों में संसार की तुलना अनंत – सीमा रहित त्रय गुणों से युक्त अश्वत्थ वृक्ष से करते है और बताते है जो कुछ हम देखते, सुनते, सोचते है वह परब्रह्म के एक से अनेक होने के संकल्प का कारण है, जिस से महंत अर्थात बुद्धि, फिर अहंकार और उस के सूक्ष्म और स्थूल इंद्रियों, पंच महाभूतो से यह सृष्टि बनी। अर्थात बुद्धि, अहंकार, मन, इंद्रिया आदि सभी प्रकृति के त्रय गुणों से बंधे है। यही माया जाल है जो जब उपलब्ध है तो सत्य प्रतीत होता है किंतु स्थायी नही होने से मिथ्या है। हमारा अज्ञान हमे भ्रमित करता है कि हम जीवात्मा इस अश्वत्थ वृक्ष में उच्च लोक में जाने से मुक्त हो जाएंगे। जो वस्तु संकल्प के विकल्प के तौर पर बनी हो, वह तो माया या मिथ्या ही होगी। जिस बीज को परमात्मा ने प्रकृति में बोया है, वह मुक्त तो परमात्मा से मिल कर ही होगा। जिन महंत, अहंकार, मन से हम सोचते है, वह तो प्रकृति ही है। उस के पार ही परमात्मा है तो यात्रा की समाप्ति तो इन सब के त्याग से ही होगी। प्रकाशवान, ज्ञानवान, नित्य, साक्षी, दृष्टा और ब्रह्म के अंश स्वरूप जीव में प्रकृति की योगमाया से अज्ञान की परत इतनी अधिक गहरी है, कि उस में अपनी सुविधा से निर्गुण, निराकार, सत, एकमेव परमात्मा की रचना और कर्म भी अपनी सुविधा से रच दिए। नासदिय सुक्त में जिस को कोई जान नही सका, उस नेति – नेति परब्रह्म को वही प्राप्त कर सकता है, जो इस अश्वत्थ वृक्ष से परे जाने की कुशलता रखता है।

जिस को जानने के बाद कुछ भी जानना शेष नहीं रहता। जिस को प्राप्त करने के बाद पुनः इस जगत की योगमाया में नही आना होता। जो अपने नित्य, अनंत, स्वरूप में विलीन हो जाता है, वह ही मोक्ष है। जगत मिथ्या ही है, जिस का स्वप्न भंग हो जाता है, जो नींद से जाग जाता है, वही इस स्वप्न को समझ कर भूल जाता है, शेष जो भी, जिस प्रकार भी, जिस भी आस्था, विचार से यह जगत में चल रहा है, वह मिथ्या होते हुए भी सत्य लगता है। यही जगत के कर्म की अक्षर प्रक्रिया है, जहां कर्म भी अनिवार्य है और उस का फल भी। उस के परिणाम के कारण जन्म – मृत्यु का चक्कर भी सतत है। जो अनासक्त हो गया, जिस में निष्काम हो कर कर्म किया, जिस में निर्मम भाव से सब परमात्मा का है, इस भाव में कर्म किया, वही इस अश्वत्थ वृक्ष से बाहर मुक्ति को प्राप्त हुआ और जिस ने जगत में रहते हुए भी अनासक्त भाव से कर्म किया, संसार को भोगा, अपने कर्तव्य कर्म का पालन किया, अपने महंत से अहंकार, कामना और आसक्ति से निसंग हो कर जगत में व्यवहार किया, उस ने भी जगत में प्रकृति के आनंद के साथ अपनी यात्रा पूर्ण की। प्रकृति क्रियात्मक कर्म प्रधान ही है, कोई अपने को कर्म से मुक्त नहीं रख सकता, अतः कर्म को निसंग हो कर निमित्त मात्र हो करना ही, अश्वत्थ वृक्ष के बाहर का रास्ता खोलता है।

क्या आप भी कुछ ऐसा ही सोचते है ? मुझे भी बताए।

।। हरि ॐ तत् सत् ।। गीता विशेष 15.04 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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