।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 15.03 II
।। अध्याय 15.03 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 15.3॥
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा ।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ॥
“na rūpam asyeha tathopalabhyate,
nānto na cādir na ca sampratiṣṭhā..।
aśvattham enaḿ su- virūḍha- mūlam,
asańga- śastreṇa dṛḍhena chittvā”..।।
भावार्थ:
इस संसार रूपी वृक्ष के वास्तविक स्वरूप का अनुभव इस जगत में नहीं किया जा सकता है क्योंकि न तो इसका आदि है और न ही इसका अन्त है और न ही इसका कोई आधार ही है, अत्यन्त दृड़ता से स्थित इस वृक्ष को केवल वैराग्य रूपी हथियार के द्वारा ही काटा जा सकता है। (३)
Meaning:
Its form is not available here, neither its beginning nor its end, not its existence. Having cut this firm- rooted Ashvattha tree using the robust weapon of dispassion.
Explanation:
Shree Krishna says that the mystery of the aśhvatth tree is not easy to understand for the embodied souls, as they are deeply entangled in the continuous cycle of life and death. The buds of the tree, which are the objects of the senses lure them into developing desires. Ignorant souls keep working hard towards fulfilling these desires, which only keep increasing and nourish the tree to grow further. When such desires are fulfilled, they return with double the intensity forming greed. But when obstructed it causes anger, which fogs the intellect and further deepens the ignorance.
Here Krishna conveys some of very important technical information and that is when you try to probe into this universe and this life, and try to understand what this creation is, and what is this life; when did it begin; when will it end; the more you try to probe into this creation; the more mysterious it becomes. So, the whole creation is a mystery; a māya. So superficially seeing, it will appear as though you can understand the creation well. Scientists have been thinking that they will have clear explanation to every phenomenon. They are all working for a theory of everything. It is called the TOE. They want a theory of everything. And they solve certain mysteries and find that those smaller mysterious are replaced by further deeper mysteries. And therefore, Krishna says here; Asya rūpam na upalabhyate. rūpam means what svarūpam or the nature of the universe is not comprehensible. It is anirvacanīyam. The details we will get in Mandukya kārika. In the Upaniṣad class, very technical analysis of what is māya and what is anirvacanīyam? Here casually hints at that. More you probe, the more mysterious it becomes.
Most of us love to see the image of planet earth from space. The majesty of that image captured by countless satellites over the years never fails to attract us. But without those satellites, we would never know that the earth looks like it does, because we did not have the means to see the big picture by ourselves. Or take a factory worker employed in a multibillion-dollar multinational. All he gets to see is his machine for eight to ten hours a day. Except the CEO and a few other senior people, no one has the big picture view of the complex organization available.
Similarly, Shri Krishna says that most of us do not have the big picture view of our existence in this world. We simply live out our lives in the endless chain of attraction to sense objects, desire, action, result and further desire. To lift us out of this narrow view of life, he very compassionately gives us the illustration of the tree of samsaara in the previous two shlokas.
He very clearly states that no matter who we are, whether rich or poor, educated or uneducated, fit or sick, we are all entangled in this upside-down tree of samsaara. We never see our existence as it really is. We do not see its beginning, middle or end. It is in fact, a gigantic illusion that has been given reality due to the long-standing ignorance of our true nature.
So, this mysterious universe is samsāra. Never try to understand this. You only try to remove the samsāra by going to the root; you get rid of the samsāra. You need not know the details, only you have to get rid. How to get out of this vicious terrible uncontrollable, unpredictable samsāra chakra? And Krishna is going to talk about four methods or four disciplines; not optional but all the four are important. First one is vairāgyam. The second one is Brahma vicāra, the third discipline is śaraṇagathiḥ. Surrender or devotion and the fourth upāya is sad- gūṇāh. Developing a healthy refined mind.
The message of this shloka carries over into the next shloka.
।। हिंदी समीक्षा ।।
देहधारी जीवात्माएँ ‘संसार’ में डूबी रहती हैं अर्थात निरंतर जन्म और मृत्यु के चक्र में घूमती रहती हैं और इस अश्वत्थ वृक्ष की प्रकृति को समझने में असमर्थ रहती हैं। वे इस वृक्ष की कोंपलों को अति आकर्षक समझती हैं अर्थात वे इन्द्रिय विषयों का भोग करने के लिए लालायित रहती हैं और इनके भोग की कामना को विकसित करती हैं। इन कामनाओं की पूर्ति के लिए वे यह जाने बिना कठोर परिश्रम करती हैं कि उनके प्रयास केवल इस वृक्ष को पुनः और अधिक विकसित करते हैं। जब कामनाओं की तृप्ति की जाती है तब वे लोभ के रूप में दोगुनी गति से पुनः उदय होती हैं। जब इनकी पूर्ति में बाधा आती है तब वे क्रोध का कारण बनती हैं जिससे बुद्धि भ्रमित हो जाती है तथा अज्ञानता गहन हो जाती है।
यहाँ कृष्ण एक बहुत ही महत्वपूर्ण तकनीकी जानकारी देते हैं और वह यह है कि जब आप इस ब्रह्मांड और इस जीवन की जांच करने की कोशिश करते हैं, और समझने की कोशिश करते हैं कि यह सृष्टि क्या है, और यह जीवन क्या है; यह कब शुरू हुआ; यह कब समाप्त होगा; जितना अधिक आप इस सृष्टि की जांच करने की कोशिश करते हैं; यह उतना ही रहस्यमय हो जाता है। तो पूरी सृष्टि एक रहस्य है; एक माया। इसलिए सतही तौर पर देखने पर ऐसा लगेगा कि आप सृष्टि को अच्छी तरह समझ सकते हैं। वैज्ञानिक सोचते रहे हैं कि उनके पास हर घटना का स्पष्ट स्पष्टीकरण होगा। वे सभी हर चीज के सिद्धांत के लिए काम कर रहे हैं। इसे TOE कहा जाता है। वे हर चीज का एक सिद्धांत चाहते हैं। और वे कुछ रहस्यों को सुलझाते हैं और पाते हैं कि उन छोटे रहस्यों की जगह और भी गहरे रहस्य आ गए हैं। और इसलिए, कृष्ण यहाँ कहते हैं; अस्य रूपं न उपलभ्यते। रूपं का अर्थ है जो स्वरूप या ब्रह्मांड की प्रकृति समझ में नहीं आती उपनिषद की कक्षा में, माया क्या है और अनिर्वचनीयम् क्या है, इसका बहुत ही तकनीकी विश्लेषण किया गया है? यहाँ सहज रूप से इसका संकेत दिया गया है। जितना अधिक आप जांच करेंगे, यह उतना ही रहस्यमय होता जाएगा।
सांख्य शास्त्र के द्वेत सिंद्धान्त की यह सृष्टि प्रकृति एवम जीव इन दो मूल तत्व के संयोग की टकसाल है। जैसे ही जीव का प्रकृति से संयोग होता है, तब महत आदि 23 गुणों से तत्व उत्पन्न होने लगते है और यह ब्रह्मांड वृक्ष बन जाता है। गीता इस मे वेदान्त के सिंद्धान्त का भी मेल करते हुए कहती कि सब जीवो का मूल एक ही है। इसलिये इस विशाल वृक्ष को ऊपर से नीचे एवम नीचे से ऊपर फैला हुआ बताया है और प्रकृति के त्रियामी गुणों से कर्म के सिंद्धान्त पर विभिन्न लोक बताए गए है। मोक्ष प्राप्ति के लिये त्रिगुणात्मक और ऊर्ध्वमूल के विस्तार से मुक्त हो जाना चाहिये।परन्तु यह वृक्ष इतना बड़ा है, कि इस के ओर-छोर का पता ही नही चलता।
गीता द्वारा यह स्पष्ट किया जा चुका है कि मृत्युलोक से ले कर ब्रह्म लोक तक सभी प्रकृति के त्रियामी गुणों का भाग है। जिस में मनुष्य या जीव अपने अपने कर्मो के फल के अनुसार कर्म फल भोगने जाता है एवम अच्छे कर्मों के फल भोगने के पश्चात पुनः मृत्यु लोक में आता है। यह दुष्चक्र अनन्त हीन चलता है जब तक जीव अहंता, ममता एवम कामना से जुड़ा है।
बचपन से अभी तक किसी भी लोक के सुख को ऐश्वर्य, भग विलास एवम शांति के रूप में दिखाया है। चाहे वो स्वर्ग हो या वैकुंठ किन्तु अनन्त परम अक्षय आनन्द कंही भी नही बताया है, जहां जन्म- मरण न हो। अतः इस वृक्ष या संसार मे सुख की खोज वैसी ही है जैसे कुएं में बैठ का समुन्द्र को नापना।
संसार का यह वृक्ष किसी आरम्भ – परिणाम करके उत्पन्न नहीं हुआ, इस का मूल स्वरुप परमात्मा है उसे से इस संसार का न उत्पत्ति रूप, न स्थिति रूप और न नाश रूप विकार है। बल्कि संसार की उत्पत्ति, स्थिति व लय तीनो अवस्थाओ में वह उपादान परब्रह्म तो ज्यो का त्यों ही है। संसार के मूल में परब्रह्म रहता तो किंचित मात्र वह भी संसार के विकारों से युक्त होता। इसलिये गीता ने जीव एवम प्रकृति को परमात्मा की रचना मानते हुए, इस से परे परब्रह्म को रखा है।
लोहे के गोल घेरे में किंतनी ही जोर से या प्रकार से मोटरसाइकिल चला ले किन्तु उस के बाहर तो उस लोहे है गोल ग्लोबल से स्थिर हो कर गेट खोल कर ही बाहर आ सकते है। इसी प्रकार इस विशाल अश्वश्तथ वृक्ष से बाहर कैसे निकले जिस का आदि, अंत और मध्य का पता नही। कोई जीव संसार मे अपने उत्पन्न के मूल में जाना चाहे तो पिता के पिता, दादा के दादा और परपिता के परपिता खोजते खोजते ब्रह्मा तक पहुंच जाएगा क्योंकि सृष्टि का मूल तो वही है। वैसे ही शाखाएँ अनन्त है, इसलिये न तो हमे आदि पता है, न ही मध्य और न ही अंत। कर्म या कामनाएं किंतनी भी शुद्ध एवम सत्त्वगुण युक्त हो, उन के फलों से मुक्त नही हो सकते तो एक शाखा से दूसरी और दूसरी से तीसरी, चौथी या पुनः पहली में ही भटकना होगा। संसार मे रह कर जो नाम, प्रभाव, धन, परिवार, समाज, देश, दया धर्म से मुक्ति की बात सोचता है, वह इस विशाल वृक्ष की शाखाओं में उलझा रहेगा क्योंकि उस का संयोग इस त्रियामी गुण वाली प्रकृति से नही छूट सकता।
श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि अश्वत्थ वृक्ष की पहेली को केवल कुछ लोग ही समझ पाते हैं। जीवात्मा समझती है-“मैं राम प्रसाद सुपुत्र हरि प्रसाद इत्यादि हूँ और अमुक देश के नगर में निवास करता हूँ। मैं अधिक से अधिक सुख प्राप्त करना चाहता हूँ। इसलिए मैं अपनी शारीरिक पहचान के अनुसार काम करता हूँ किन्तु सुखों ने मुझे धोखे में रखा और मैं व्यथित हो गया हूँ।” वृक्ष की उत्पत्ति और प्रकृति को समझे बिना मनुष्य व्यर्थ के कार्यों और प्रयासों में संलग्न रहते हैं। भौतिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए मनुष्य कभी-कभी पाप कर्म करता है और निम्न योनियों में जन्म लेता है या भौतिक क्षेत्र के निम्न लोकों में जाता है। कभी-कभी भौतिक सुखों के भोग की प्रवृत्ति वृक्ष के पत्तों की ओर आकर्षित करती है जोकि वेदों में वर्णित धार्मिक अनुष्ठान हैं। इन धार्मिक कार्मकाण्डों में संलग्न होकर मनुष्य केवल कुछ समय के लिए ऊपर स्वर्ग लोक जाता है और अपने पुण्य कर्म समाप्त होने पर वह पुनः पृथ्वी लोक पर लौट आता है। इसलिए चैतन्य महाप्रभु कहते हैं
कृष्ण भूली सेइ जीव अनादि-बहिर्मुख, अतएव मायातारे देय संसार-दुख। कभु स्वर्गे उठाय, कभु नरके डुबाय, दण्ड जाने राजा येन नदित चुभाय।। (चैतन्य चरितामृत, मध्य लीला-20.117-118)
“आत्मा अनन्त काल से भगवान को भुलाए हुए है इसलिए प्राकृत शक्ति उसे संसार के दुख भोगने के लिए विवश कर देती है। कभी-कभी यह आत्मा को स्वर्ग लोक भेज देती है और दूसरी बार इसे नीचे नरक के लोकों में गिरा देती है।
पूर्व अध्याय में हम ने गुणातीत हो कर अव्याभिचारणी भक्ति एवम निष्काम कर्म के बारे में पढ़ा था। इसी को परमात्मा ने आगे निःसंग या असंग होना बताया है अर्थात मन, बुद्धि एवम विवेक द्वारा चेतन स्वरूप प्रकृति में असंग अर्थात वैराग्य भाव का धारण करना। अर्थात लोहे के ग्लोबल में चक्कर काटने की बजाय स्थिर हो कर गेट खोल कर बाहर आ जाना। फिर अपनी आसक्ति, कामना एवम अहम अपने नाम, वंश, कीर्ति, सामाजिक कार्य या संस्था, पद आदि किसी से कोई भी किसी प्रकार का संग न हो कर वैराग्य भाव होना। अर्थात जब तक जगत या संसार मे है, निष्काम भाव से कर्तव्य समझ के प्रत्येक कार्य को गुणातीत को कर अव्याभिचारणी भक्ति के साथ करना एवम जब अपना कार्य काल समाप्त हो तो निःसंग हो कर इस संसार से विदा लेना।
अन्य उदाहरण में दर्पण के समक्ष खड़े हो कर प्रतिबिंब को जो हम देखते है, उस का कोई अस्तित्व नहीं होता। न ही वह प्रतिबिंब हटा सकते है। किंतु स्वयं ही दर्पण के सामने से हट जाए तो प्रतिबिंब भी हट जायेगा। अतः मोक्ष या निर्वृति का अर्थ है, स्वयं को इस संसार वृक्ष से हटा कर परब्रह्म में विलीन कर लेना। जिस के लिए गुणातित होने की आवश्यकता है।
यह वट वृक्ष इतना विशाल है कि इस का आदि और अंत का पता नही, इसलिए जिस ने इस वट वृक्ष को जीतने की कोशिश की, वह अन्त: इस वृक्ष में भटकता रह गया। इसलिए कर्तृत्व एवम भोक्त्व भाव में इस संसार वृक्ष में प्राणी इसी में उलझा रह जाता है।
जब आप सृष्टि की शुरुआत के बारे में बात करते हैं, तो हमें याद रखना चाहिए कि प्रश्न समय की शुरुआत से जुड़ा है। क्योंकि समय और सृष्टि अविभाज्य हैं। आप समय, स्थान और सृष्टि को कभी अलग नहीं कर सकते; इसलिए जब भी आप सृष्टि की शुरुआत के बारे में बात करते हैं, तो आप समय की शुरुआत के बारे में बात कर रहे होते हैं; समय की शुरुआत एक विरोधाभास है। क्योंकि समय की शुरुआत के बारे में बात करने के लिए आपको क्या चाहिए? एक और समय। समय की शुरुआत के बारे में बात करने के लिए आपको एक और समय की आवश्यकता होती है। दूसरे समय की समयानुसार शुरुआत का पता लगाने के लिए और स्वाभाविक रूप से सवाल आएगा कि समय की दूसरी श्रृंखला की उत्पत्ति कैसे हुई। समय के समय का पता लगाने के लिए आपको एक और समय की आवश्यकता होगी। आप पाएंगे कि बौद्धिक रूप से यह आश्चर्यजनक होगा। इसी तरह स्थान का उदाहरण समझ ले। तो इसलिए, आप कभी भी सृष्टि की शुरुआत या अंत के बारे में बात नहीं कर सकते; पहले कौन आया; नारियल का पेड़ या नारियल का बीज? या फिर मुर्गी या अंडा?
दृढ़ वैराग्य काम, आसक्ति, एवम सुख से प्राप्त नही होता। यदि धेय धन कमाना है तो जीव के सभी कर्म धन कमाने में लग जाते है, चाहे वह कितने भी तीर्थ करे, प्रवचन सुने या दान धर्म करे। इन का प्रभाव अल्प ही रहता है। अतः दृढ़ निश्चय धेय तो तय करने से होगा। यही अंतरात्मा का दृढ़ संकल्प है।
तो यह रहस्यमय ब्रह्मांड संसार है। इसे समझने की कभी कोशिश मत करो। तुम केवल जड़ तक जाकर संसार को हटाने की कोशिश करते हो; तुम संसार से छुटकारा पा लेते हो। तुम्हें विस्तार से जानने की ज़रूरत नहीं है, बस तुम्हें छुटकारा पाना है।
इस दुष्ट, भयंकर, अनियंत्रित, अप्रत्याशित संसार चक्र से कैसे बाहर निकला जाए? और कृष्ण चार विधियों या चार अनुशासनों के बारे में बात करने जा रहे हैं; वैकल्पिक नहीं, लेकिन चारों महत्वपूर्ण हैं। पहला है वैराग्य। दूसरा है ब्रह्म विचार, तीसरा अनुशासन है शरणागति:। समर्पण या भक्ति और चौथा उपाय है सद्गुण:। एक स्वस्थ परिष्कृत मन का विकास करना।
जब दृढ़ वैराग्य अर्थात निःसंग भाव से प्रकृति के इस वृक्ष से संबंध विच्छेद हो जाता
है तो क्या करना है, वह आगे पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 15.03।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)