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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  15.01 II

।। अध्याय      15.01 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 15.1

श्रीभगवानुवाच

ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्‌ ।

छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥

“śrī-bhagavān uvāca,

ūrdhva-mūlam adhaḥ-śākham,

aśvatthaḿ prāhur avyayam..।

chandāḿsi yasya parṇāni,

yas taḿ veda sa veda- vit”..।।

भावार्थ: 

श्री भगवान बोले- आदिपुरुष परमेश्वर रूप मूल वाले (आदिपुरुष नारायण वासुदेव भगवान ही नित्य और अनन्त तथा सबके आधार होने के कारण और सबसे ऊपर नित्यधाम में सगुणरूप से वास करने के कारण ऊर्ध्व नाम से कहे गए हैं और वे मायापति, सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही इस संसाररूप वृक्ष के कारण हैं, इसलिए इस संसार वृक्ष को ‘ऊर्ध्वमूलवाला’ कहते हैं) और ब्रह्मारूप मुख्य शाखा वाले (उस आदिपुरुष परमेश्वर से उत्पत्ति वाला होने के कारण तथा नित्यधाम से नीचे ब्रह्मलोक में वास करने के कारण, हिरण्यगर्भरूप ब्रह्मा को परमेश्वर की अपेक्षा ‘अधः’ कहा है और वही इस संसार का विस्तार करने वाला होने से इसकी मुख्य शाखा है, इसलिए इस संसार वृक्ष को ‘अधःशाखा वाला’ कहते हैं) जिस संसार रूप पीपल वृक्ष को अविनाशी (इस वृक्ष का मूल कारण परमात्मा अविनाशी है तथा अनादिकाल से इसकी परम्परा चली आती है, इसलिए इस संसार वृक्ष को ‘अविनाशी’ कहते हैं) कहते हैं, तथा वेद जिसके पत्ते (इस वृक्ष की शाखा रूप ब्रह्मा से प्रकट होने वाले और यज्ञादि कर्मों द्वारा इस संसार वृक्ष की रक्षा और वृद्धि करने वाले एवं शोभा को बढ़ाने वाले होने से वेद ‘पत्ते’ कहे गए हैं) कहे गए हैं, उस संसार रूप वृक्ष को जो पुरुष मूलसहित सत्त्व से जानता है, वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला है। (भगवान्‌ की योगमाया से उत्पन्न हुआ संसार क्षणभंगुर, नाशवान और दुःखरूप है, इसके चिन्तन को त्याग कर केवल परमेश्वर ही नित्य-निरन्तर, अनन्य प्रेम से चिन्तन करना ‘वेद के तात्पर्य को जानना’ है) ॥१॥

Meaning:

Shree Bhagavaan said:

With roots above and branches below, the Ashvattha tree is said to be imperishable, with the Vedas as its leaves. He who knows this, knows the Vedas.

Explanation:

Shri Krishna begins the fifteenth chapter describing an unusual sort of tree. It is “oordhvamoolam adhahashaakham”. It is upside down, with roots above and branches below. It is not as unusual as it sounds, because we encounter several trees that are inverted in our lives. A family tree, the map of an organization with the CEO on top, a decision tree in management sciences, all of these trees are upside down, with their root on top and branches below.

Such inverted trees have some interesting characteristics. The farther away one goes from the root, the greater is the loss of the substance or the essence. A junior employee has far less power than the CEO in an org chart, for instance. Also, these trees are never static. They keep changing. Hence, the tree described in this illustration is called “ashvattha”, which means not lasting for long. This is also the name of the tree known as Ficus religiosa, or the Peepul tree in India.

Now, let us examine the metaphors used in this illustration. The root of this tree is Ishvara, the saguna brahman, the eternal essence with form. Its branches have evolved from Ishvara, and are nothing but the hardening of Prakriti, the hardening of the three gunas due to their permutations and combinations. The process of the creation of the universe has been explained in detail in prior chapters. It is similar to a tender, subtle sapling hardening into a robust tree as it grows over time. It is termed as avyayam or imperishable because it is permanent after its reality has been ascertained, like the illusion of the blue sky. Even when we come to know that the sky is not really blue, but just looks that way, we still perceive the illusion.

In any complex system, there are rules that tell how what to do and what not to do. The Vedas are the rules of this universe and are metaphorically represented as the leaves of this ashvattha tree. Just like there are rules on how to get promoted in a corporation, there are rules in the Vedas that give us instructions on how to act in life, and how not to commit sins or errors. They are the storehouse of knowledge and actions needed to thrive in this world. One who knows the functioning of the universe in this manner, one who knows how to get to the source, which is Ishvara, needs to know nothing else.

We now come to the fundamental question. Why has Shri Krishna started talking about this tree now? It is to cultivate dispassion or vairagya in us. Even a tinge of attachment to the world can derail our spiritual progress. Over the next few shlokas, we will learn more about this tree so that we can understand our entanglement in it, and consequently, learn how to release ourselves from it through dispassion.

।। हिंदी समीक्षा ।।

प्रस्तुत अध्याय के प्रथम पांच श्लोक में ब्रह्मवृक्ष अर्थात संसार -वृक्ष का वर्णन है। यहाँ पर संसार का यह संकुचित अर्थ विवक्षित नहीं है कि स्त्री-बाल-बच्चों में रह कर नित्य व्यवहार करते रहे। परंतु उस का यहाँ आंखों के सामने दिखाई देने वाला जगत अथवा दृश्य सृष्टि अर्थ है। इस संसार को ही सांख्य मतवादी ” प्रकृति का विस्तार ” और वेदांती ” भगवान की माया का पसार ” कहते है।

अनुगीता में इसे ही ब्रह्मवृक्ष या ब्रह्मवन (ब्रह्मारण्य) कहा है। यह कल्पना अथवा रूपक न केवल वैदिक धर्म मे ही है, कि प्रत्युत अन्य प्राचीन धर्मो में भी पाया जाता है, एक बिल्कुल छोटे से बीज से जिस प्रकार बड़ा भारी गगनचुंबी वृक्ष निर्माण हो जाता है। उसी प्रकार एक अव्यक्त परमेश्वर से दृश्य सृष्टि भव्य वृक्ष उत्पन्न हुआ है।

गीता में यह वर्णन कठोपनिषद के वर्णन से लिया है। परमेश्वर स्वर्ग में है और उस से उपजा हुआ जगद वृक्ष नीचे अर्थात मनुष्य लोक में है, अतः वर्णन किया गया है, कि इस वृक्ष का मूल परमात्मा ऊपर है और उसकी अनेक शाखाएँ अर्थात जगत का फैलाव नीचे विस्तृत है।

यूरोप की पुरानी भाषाओं में इस का नाम विश्व वृक्ष या जगतवृक्ष है। इस प्रकार ऋग्वेद में भी वरुण लोक के अलौकिक वृक्ष का वर्णन है।

विष्णुसहस्त्रनाम में इस को वारुणो वृक्ष कह कर विष्णु का नाम दिया है। ऋग्वेद वेद में यम एवम पितर जिस सुपलाक्ष वृक्ष के नीचे बैठ कर सहपान करते है एवम जिस से अग्र भाग में स्वादिष्ट पीपल है, जिस पर दो सुपर्ण पक्षी रहते है एवम जिसे मरुदगण हिलाते है वह भी यही है।

अर्थववेद में देवसदन अश्वत्थ वृक्ष तीसरे स्वर्गलोक अर्थात वरुण लोक में है।

तैत्तरीय ब्राह्मण में कहा जाता है कि पितृयाण काल मे यज्ञ प्रजापति देवलोक से नष्ट हो कर घोड़े के रूप में एक वर्ष इस वृक्ष में छिपा रहा, इसलिये यह अश्वत्थ वृक्ष कहलाया। एक अन्य मत के अनुसार सूर्य के घोडे यम लोक में रात्रि में इस वृक्ष के नीचे विश्राम करते थे।

अ=नही, श्व=कल और त्थ= स्थिर अर्थात जो कल तक नही रहने वाला है, किन्तु अव्यय शब्द का अर्थ होता है जो कभी नही मिटता। यह संसार नित्य परिवर्तनशील है, हर क्षण मिट रहा है किंतु फिर भी अव्यय है अर्थात पुनः पुनः स्थापित होता है। इसलिये हर क्षण परिवर्तनशील संसार हमे अव्यय अर्थात स्थिर या निरंतर दिखता है। इस संसार मे जो भी दिखता है, वह प्रत्येक क्षण बदल जाता है, इसलिये कठोपनिषद में इसे ब्रह्ममय अमृत अश्वत्थ वृक्ष कहा गया है।

कुछ लोग कहते है कि यह परमब्रह्म का वृक्ष है और जैसे तालाब में किनारे खड़ा वृक्ष में मूल ऊपर एवम पत्ते नीचे प्रतिबिम्ब में दिखता है, वैसे ही यह संसार के रूप में प्रतिबिम्ब दिखता है। जो प्रकृति से गुणों से युक्त है एवम आसक्त है वह पुनः पुनः जन्म लेता है जिस के कारण उस को यह अव्यय स्वरूप में लगता है एवम जो गुणातीत को कर अव्याभिचारणी भक्ति में लगा है वह इस प्रतिबिम्ब को समझ जाता है एवम परब्रह्म को प्राप्त होता है।

किसी परिवार या व्यावसायिक प्रतिष्ठान का संचालन व्यवस्था में सब से ऊपर पूर्वज, फिर दादा, पिता, आप स्वयं एवम नीचे पुत्र-पुत्री एवम पोते-पोती आदि होते है, अतः परिवार का मूल ऊपर की ओर एवम उस का फैलाव नीचे होता है। ऐसे ही व्यापारिक संगठन में मालिक- CEO- मैनेजर, अफसर -क्लर्क – कर्मचारी और वर्कर्स होते है, जिस का मूल ऊपर की ओर एवम वैसे ही अधिकार एवम दायित्व भी ऊपर से नीचे आता है। उन्नति का अर्थ के कालांतर में मेहनत से मूल की ओर बढ़ना।

यहाँ पहले वैराग्य के लिये वृक्षस्वरूप की कल्पना कर के, संसार के स्वरूप का वर्णन करते हैं क्योंकि संसार से विरक्त हुए पुरुष को ही भगवान् का तत्त्व जानने में अधिकार है, अन्य को नहीं। वृक्ष संसार का स्वरूप है।

अतः श्रीभगवान् कहते है ,  यह संसाररूप वृक्ष ऊर्ध्वमूल वाला है। काल की अपेक्षा भी सूक्ष्म, सब का कारण, नित्य और महान् होने के कारण अव्यक्त माया शक्ति युक्त ब्रह्म सब से ऊँचा कहा जाता है, वही इस का मूल है इसलिये यह संसार वृक्ष ऊपर की ओर मूलवाला है। ऊपर मूल और नीचे शाखावाला इस श्रुति से भी यही प्रमाणित होता है। पुराण में भी कहा है, अव्यक्त रूप मूल से उत्पन्न हुआ उसी के अनुग्रह से बढ़ा हुआ, बुद्धिरूप प्रधान शाखा से युक्त, बीचबीच में इन्द्रियरूप कोटरोंवाला, महाभूतरूप शाखा प्रति शाखाओंवाला, विषयरूप पत्तोंवाला, धर्म और अधर्मरूप सुन्दर पुष्पोंवाला तथा जिसमें सुख दुःखरूप फल लगे हुए हैं ऐसा यह सब भूतों का आजीव्य सनातन ब्रह्मवृक्ष है। यही ब्रह्मवन है, इसी में ब्रह्म सदा रहता है। ऐसे इसी ब्रह्मवृक्ष का ज्ञानरूप श्रेष्ठ खड्गद्वारा छेदन – भेदन कर के और आत्मा में प्रीतिलाभ कर के फिर वहाँ से नहीं लौटता इत्यादि।

ऐसे ऊपर मूल और नीचे शाखावाले इस मायामय संसार वृक्ष को, अर्थात् महत्तत्त्व, अहंकार, तन्मात्रादि, शाखा की भाँति जिस के नीचे हैं। ऐसे इस नीचे की ओर शाखावाले और कल तक भी न रहने वाले इस क्षणभङ्गुर अश्वत्थ वृक्ष को अव्यय कहते हैं। यह मायामय संसार, अनादि काल से चला आ रहा है, इसी से यह संसार वृक्ष अव्यय माना जाता है तथा यह आदिअन्तसे रहित शरीर आदि की परम्परा का आश्रय सुप्रसिद्ध है, अतः इस को अव्यय कहते हैं। उस संसार वृक्ष का ही यह अन्य विशेषण ( कहा जाता ) है। ऋक् यजु और सामरूप वेद, जिस संसार वृक्ष के पत्तों की भाँति रक्षा करने वाले होने से पत्ते हैं। जैसे पत्ते वृक्ष की रक्षा करनेवाले होते हैं, वैसे ही वेद धर्म अधर्म, उनके कारण और फल को प्रकाशित करने वाले होने से, संसाररूप वृक्ष की रक्षा करने वाले हैं। ऐसा जो यह विस्तारपूर्वक बतलाया हुआ संसार वृक्ष है।

इस को जो मूल के सहित जानता है। वह वेद को जानने वाला अर्थात् वेद के अर्थ को जाननेवाला है। क्योंकि इस मूलसहित संसार वृक्ष से अतिरिक्त अन्य जानने योग्य वस्तु अणुमात्र भी नहीं है। जो इस प्रकार वेदार्थ को जानने वाला है वह सर्वज्ञ है। इस प्रकार मूलसहित संसार वृक्ष के ज्ञान की स्तुति करते हैं। उसी संसार वृक्ष के अन्य अङ्गों की कल्पना कही जाती है।

।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 15.01।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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