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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  14.25 II

।। अध्याय      14.25 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 14.25

मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः ।

सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः सा उच्यते॥

“mānāpamānayos tulyas,

tulyo mitrāri- pakṣayoḥ..।

sarvārambha- parityāgī,

guṇātītaḥ sa ucyate”..।।

भावार्थ: 

जो मान और अपमान को एक समान समझता है, जो मित्र और शत्रु के पक्ष में समान भाव में रहता है तथा जिसमें सभी कर्मों के करते हुए भी कर्तापन का भाव नही होता है, ऐसा सर्वारम्भ परित्यागी पुरुष गुणातीत कहा जाता है। (२५)

Meaning:

Alike in honour and in dishonour, alike towards friend or foe, abandoning all activities, such a person is called one who has transcended the gunas.

Explanation:

Imagine that you are watching a stage production of Shakespeare’s King Lear. Suddenly, in the middle of the play, the actor playing King Lear starts speaking his own dialogue instead of following the script. After a few minutes of commotion, the curtain is lowered. Later, when asked as to why he spoke his own lines, the actor asserted that he thought his own lines were better than Shakespeare’s. It will be quite difficult for such an actor to get any more roles, or keep his existing roles, if he were to force his own views onto the script.

Shri Krishna says that the one who has truly renounced all activities, given all up notions such as “I am doing this, I am doing that”, such a person can be called the one who has gone beyond the three gunas. Like actors in a play, all activities in the world are nothing but the gunas interacting with the gunas. If we harbour the notion that our “I” is somehow involved in these activities, we have identified ourselves with our body, which is nothing but a product of the gunas. Through discrimination and detachment, we can see ourselves as distinct and separate from the gunas.

Such a person who can maintain this detachment from the gunas is indifferent to what the world thinks of him. Honour and dishonour are the same to him. If a friend helps him, he does not get elated. If a foe troubles him, he sees it as an opportunity to further increase his vairagya or dispassion towards the world. Any time the thought that “I did this” or “I earned this” enters his mind, he immediately discards it and brings back the awareness that everything is happening in Prakriti, the three gunas.

sarvārambhaparityāgī. ārambhaha means all the binding activities; ārambhaḥ means bandhaka karmāni and parityāgī means the one who has given up. What do you mean by binding activity? A binding activity is that by the fulfilment of which I consider that will become pūrnaḥ. When I expect pūrṇatvam through an activity, it is a binding activity, because there are expectations.

So, with this shloka and the previous one, Shri Krishna answers the question, what is the conduct of one who has transcended the gunas.

।। हिंदी समीक्षा ।।

पूर्वोक्त श्लोकों में चित्रित किये गये त्रिगुणातीत पुरुष के सामान्य चित्र को यहाँ और अधिक स्पष्ट किया गया है, जिससे हम उसका समीप से सूक्ष्म अवलोकन कर सकें। मान और अपमान में सम रहना ज्ञानी पुरुष का लक्षण है।

अपने दिव्य स्वरूप में दृढ़ निष्ठा प्राप्त किया हुआ पुरुष जीवन से भयभीत नहीं होता, क्योंकि जगत् की ओर देखने का उसका दृष्टिकोण अज्ञानियों से सर्वथा भिन्न होता है। जीवन का अहंकार केन्द्रित मूल्यांकन हमें मान और अपमान को क्रमश उपादेय (स्वीकार्य) और हेय (त्याज्य) मानने को बाध्य करता है। लौकिक जीवन में भी हम देखते हैं कि देश के लिये प्राणोत्सर्ग करने वाले पुरुष ऐसी स्थिति की कामना करते हैं जिसे अन्य लोग अपमान जनक समझते हैं। परन्तु समाज के मान और अपमान की ओर ध्यान दिये बिना ऐसे लोग पूर्ण उत्साह के साथ अपनी पीढ़ी से प्रेम और उसकी सेवा करते हैं।

आपेक्षिक सिद्धान्त की खोज के दिन आर्कमिडीज को विवस्त्र स्थिति में सड़क पर यूरेका, यूरेका चिल्लाते हुये दौड़ने में अपमान का अनुभव नहीं हुआ, परन्तु किसी और दिन यह बात नहीं होती मान और अपमान बुद्धि के निर्णय हैं, जो स्थान स्थान पर और समय समय पर बदलते रहते हैं। जो पुरुष अहंकार के स्तर से ऊंचा उठ गया है, उसे दोनों ही समान हैं, कांटो के मुकुट का उतना ही स्वागत है, जितना गुलाब के फूलों के मुकुट का ।

शत्रु और मित्र के पक्षों में सम जैसे हम अपने शरीर के किसी अंग को शत्रु और किसी अंग को मित्र नहीं मानते, वैसे ही आत्मैकत्व ज्ञान प्राप्त पुरुष भी किसी से मित्रता या शत्रुता नहीं रखता। तथापि अन्य लोग उससे अवश्य ही मित्र या शत्रु भाव रख सकते हैं, किन्तु वह दोनों के प्रति समान भाव से रहता है। आत्मानुभव की दृष्टि से ज्ञानी पुरुष जानता है वे सब मैं ही हूँ। शत्रु से सावधान रहना और द्वेष न करना, दोनो अलग अलग है। शत्रु और मित्र को समान समझने का अर्थ मन की सम स्थिति से है।

वह महापुरुष सम्पूर्ण कर्मों के आरम्भ का त्यागी होता है। तात्पर्य है कि धनसम्पत्ति के संग्रह और भोगोंके लिये वह किसी तरह का कोई नया कर्म आरम्भ नहीं करता। स्वतः प्राप्त परिस्थिति के अनुसार ही उस की प्रवृत्ति और निवृत्ति होती है अर्थात क्रियाओं में उस की प्रवृत्ति कामना, वासना, ममता से रहित होती है और निवृत्ति भी मानबड़ाई आदि की इच्छा से रहित होती है।  दृष्ट और अदृष्ट फल के लिये जानेवाले कर्मों का नाम आरम्भ है, ऐसे समस्त आरम्भों का त्याग करने का जिस का स्वभाव है वह सर्वारम्भपरित्यागी है अर्थात् जो केवल शरीरधारण के लिये  आवश्यक कर्मों एवम शास्त्र सम्मत कर्म के सिवा सारे निषिद्ध एवम आसक्त और कर्तृत्व भाव के कर्मों का त्याग कर देनेवाला है, वह पुरुष गुणातीत कहलाता है।

सर्वारम्भपरित्यागी। आरम्भः का अर्थ है सभी बंधनकारी कार्य; आरम्भः का अर्थ है बन्धक कर्माणि और परित्यागी का अर्थ है जिसने त्याग कर दिया है। बंधनकारी कार्य से आपका क्या अभिप्राय है? बंधनकारी कार्य वह है जिसके पूर्ण होने पर मैं समझता हूँ कि वह पूर्णः हो जायेगा। जब मैं किसी कार्य से पूर्णत्व की अपेक्षा करता हूँ, तो वह बंधनकारी कार्य होता है; क्योंकि अपेक्षाएँ होती हैं।

सर्वारम्भ परित्यागी आरंभ का अर्थ है कर्म। इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि त्रिगुणातीत पुरुष क्रियाशून्य हो जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि उसे अपने कर्मों में न कर्तृत्व का अभिमान होता है और न स्वार्थ का। आरम्भ शब्द में वे सब कर्म समाविष्ट हैं, जो अनेक वस्तुओं के अर्जन और संग्रह करने तथा उन पर अपना स्वामित्य स्थापित करने के लिये अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित होते हैं। अज्ञानी जीव के लिये ये कर्म स्वाभाविक हैं। अहंकार रहित आत्मज्ञानी पुरुष ईश्वर से अनुप्राणित होकर ईश्वरीय पुरुष के रूप में इस जगत् में कल्याणार्थ कार्य करता है।उपर्युक्त लक्षणों से पुरुष गुणातीत कहा जाता है।

क्रिकेट के मैच यदि सीरीज 5 मैच की हो जो टीम प्रथम तीन मैच जीत जाएगी, वह बाकी दो मैच को कुशलता से अवश्य खेलेगी किंतु हार जीत की अपेक्षा नहीं रहेगी।

उदासीनवत् यहाँ से लेकर गुणातीतः स उच्यते यहाँतक जो भाव बतलाये गये हैं, वे सब जबतक प्रयत्न से सम्पादन करने योग्य रहते हैं, तबतक तो मुमुक्षु – संन्यासीके लिये अनुष्ठान करने योग्य गुणातीतत्व प्राप्ति के साधन हैं और जब वे स्थिर हो जाते हैं, तो गुणातीत मनुष्य के लक्षण हो जाते है।

इन श्लोकों में अर्जुन के द्वितीय प्रश्न का उत्तर दिया गया है।श्री शंकराचार्य अपने भाष्य में लिखते हैं कि मोक्ष प्राप्ति के इच्छुक साधक को इन गुणों को साधन के रूप में अपनाना चाहिये। एक बार ज्ञान में निष्ठा प्राप्त कर लेने पर ये गुण उसके स्वाभाविक लक्षण बन जायेंगे, जो स्वसंवेद्य होते हैं। गुणातीत पुरुष के ये मुख्य लक्षण हैं।

अर्जुन का तीसरा प्रश्न यह था, किस प्रकार वह तीनों गुणों से अतीत होता है इस को हम आगे पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 14.25।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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