।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 14.18 II
।। अध्याय 14.18 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 14.18॥
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः ।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः॥
‘ūrdhvaḿ gacchanti sattva- sthā,
madhye tiṣṭhanti rājasāḥ..।
jaghanya- guṇa- vṛtti- sthā,
adho gacchanti tāmasāḥ”..।।
भावार्थ:
सतोगुण में स्थित जीव स्वर्ग के उच्च लोकों को जाता हैं, रजोगुण में स्थित जीव मध्य में पृथ्वी-लोक में ही रह जाते हैं और तमोगुण में स्थित जीव पशु आदि नीच योनियों में नरक को जाते हैं। (१८)
Meaning:
Those established in sattva go upwards, those in rajas stay in the middle. Those under the influence of the lowest guna, established in tamas, go downwards.
Explanation:
The Bhāgavatam says:
“Those who are in sattva guṇa reach the higher celestial abodes; those who are in rajo guṇa return to the earth planet; and those who are in tamo guṇa go to the nether worlds; while those who are transcendental to the three modes attain Me.” Therefore, the reincarnation of the souls in their next birth is linked to the guṇas that predominates their personality. Upon completion of their sojourn in the present life, the souls reach the kind of place that corresponds to their guṇas.
Parents are always watchful of their children’s behaviour, because the values that are inculcated in childhood stay with us throughout our life. If parents notice that their child is lazy and remains idle all the time, they will first motivate him through selfish desires. They will teach him that if he studies hard and works hard, he will be able to buy fast cars, electronic gadgets, a big house and so on. Once he has risen from a tamasic state to a rajasic state, and has made enough money, his parents will encourage him to slowly start transitioning from rajasic action to selfless, sattvic actions like donating money to charity, volunteering and so on.
Shri Krishna gives us a similar roadmap for our evolution in this shloka. He says that once we have determined our degree of rajas and tamas, we should consciously perform the actions necessary to uplift our mental state. If we are primarily tamasic in nature, we should perform rajasic actions. If we are primarily sattvic in nature, we should perform sattvic actions. He also puts the responsibility of self-improvement squarely on our shoulders. No other person can make this happen. The will to self-improve must come from within.
Let us imagine for a moment that we are able to uplift ourselves to the level of sattva, where we are able to remain in a sattvic state for a majority of the day, as a consequence of performing sattvic, selfless actions. Is this our goal, or is this yet another milestone in our spiritual journey? The thirteenth chapter taught us that we have become the individual soul, the jeeva, the Purusha, by forgetting our true nature as the eternal essence. We have further become entangled in Prakriti by identifying with a mind and body that are under the influence of the gunas. Once we are able to stay in sattva, and minimize the effects of rajas and tamas, how do we then disentangle ourselves from Prakriti? Shri Krishna picks up this topic next.
।। हिंदी समीक्षा ।।
श्रीमद भागवतम् पुराण में कहा गया है:
सत्त्वे प्रलीनाः स्वर्यान्ति नरलोकं रजोलयाः। तमोलयास्तु निरयं यान्ति मामेव निर्गुणाः।। (श्रीमद्भागवतम्-11.25.22)
“जो लोग सत्व गुण में हैं वे उच्च दिव्य धामों को प्राप्त करते हैं; जो लोग रजो गुण में हैं वे पृथ्वी ग्रह पर लौटते हैं; और जो लोग तमो गुण में हैं वे पाताल लोक में जाते हैं; जबकि जो लोग तीनों गुणों से परे हैं वे मुझे प्राप्त करते हैं।” इसलिए आत्माओं का अगले जन्म में पुनर्जन्म उनके व्यक्तित्व में प्रमुख गुणों से जुड़ा हुआ है। वर्तमान जीवन में अपने प्रवास के पूरा होने पर, आत्माएँ उस तरह के स्थान पर पहुँचती हैं जो उनके गुणों के अनुरूप होता है।
विकास के सोपान के तीन पाद हैं। न्यूनतम विकास की अवस्था में वनस्पति और पशु जगत् हैं। बुद्धि और प्रतिभा से सम्पन्न मनुष्य मध्य में स्थित है और वेदों से ज्ञात होता है कि स्वर्ग के देवतागण मनुष्य से उच्चतर अवस्था में रहते हैं। यहाँ विकास का अर्थ है अनुभवों का विशाल क्षेत्र और ज्ञान, विक्षेपों की न्यूनता और बुद्धि की प्रखरता का होना। विकास को नापने का मापदण्ड प्राणियों के द्वारा अनुभव की गई सुख, शान्ति और आनन्द की मात्रा है।इस दृष्टि से पाषाण का विकास शून्य माना जायेगा। तत्पश्चात् विकास की श्रेष्ठतर अवस्थाओं का क्रम है वनस्पति, पशु, मनुष्य और देवता। निसन्देह प्रखर बुद्धि युक्त मनुष्य पशुओं से श्रेष्ठ प्राणी है किन्तु उसकी,भी देशकाल की सीमाएं होती हैं। इन सीमाओं के टूट जाने पर मनुष्य देवताओं की श्रेष्ठतर योनि प्राप्त करता है।
जिन के जीवन में सत्त्वगुण की प्रधानता रही है और उस के कारण जिन्होंने भोगों से संयम किया है तीर्थ, व्रत, दान आदि शुभ कर्म किये हैं दूसरोंके सुखआरामके लिये प्याऊ,, अन्नक्षेत्र आदि चलाये हैं सड़कें बनवायी हैं पशु पक्षियों की सुख सुविधा के लिये पेड़ पौधे लगाये हैं गौशालाएँ बनवायी हैं, उन मनुष्यों को यहाँ सत्त्वस्थाः कहा गया है। जब सत्त्वगुण की प्रधानता में ही ऐसे मनुष्यों का शरीर छूट जाता है, तब वे सत्त्वगुण का सङ्ग होने से, सत्त्वगुण में आसक्ति होने से स्वर्गादि ऊँचे लोकोंमें चले जाते हैं।
जिस जगह व्यापार, घर गृहस्थी, देश, समाज, परिवार एवम मित्र आदि की चर्चा हो या धन-शक्ति- पद की लालसा के लिये कर्म हो वो स्थान रजोगुण युक्त होता है। यहाँ जीव को कष्ट ही कष्ट है, कुछ पाने का कष्ट, कुछ खोने का कष्ट, ज्यादा से ज्यादा करने का कष्ट, एक निर्रथक दौड़ जिस का कोई अंत नहीं।
जिन मनुष्यों के जीवन में रजोगुण की प्रधानता होती है और उस के कारण जो शास्त्र की मर्यादा में रहते हुए भी संग्रह करना और भोग भोगना ऐश आराम करना पदार्थों में ममता, आसक्ति रखना आदिमें लगे रहते हैं, उनको यहाँ राजसाः कहा गया है। जब रजो गुण की प्रधानतामें ही अर्थात् रजो गुण के कार्यों के चिन्तन में ही ऐसे मनुष्यों का शरीर छूट जाता है, तब वे पुनः इस मृत्युलोकमें ही जन्म लेते हैं।
जिस स्थान पर आमोद- प्रोमोद, खाने- पीने, मौज- मस्ती, लूट- पाट, आलस्य, निंद्रा, काम, क्रोध, निजी अनैतिक स्वार्थ या नशा आदि का वातावरण हो तो वो स्थान तमोगुण युक्त होगा। यहां अज्ञान है, प्रकृति जो करवाती है, वो कर रहे है, आपस मे घृणा, नफरत, ईर्षा, लालच एवम असुरक्षा का वातावरण। जब जीवन उद्देश्य हीन हो तो क्या और क्यों कर रहे है उस का कोई ज्ञान ही नही। मनुष्य हो या पशु, जीवन स्वतंत्र नही, हर समय एक निर्भरता एवम भय।
जिन मनुष्यों के जीवन में तमोगुण की प्रधानता रहती है और उस के कारण जिन्होंने प्रमाद आदि के वश में होकर निरर्थक पैसा और समय बरबाद किया है जो आलस्य तथा नींद में ही पड़े रहे हैं आवश्यक कार्यों को भी जिन्होंने समय पर नहीं किया है जो दूसरों का अहित ही सोचते आये हैं जिन्होंने दूसरों का अहित किया है, दूसरों को दुःख दिया है, जिन्होंने झूठ, कपट, चोरी, डकैती आदि निन्दनीय कर्म किये हैं, ऐसे मनुष्यों को यहाँ जघन्यगुणवृत्तिस्थाः कहा गया है। जब तमोगुण की प्रधानता में ही अर्थात् तमोगुण के कार्यों के चिन्तन में ही ऐसे मनुष्य मर जाते हैं, तब वे अधोगतिमें चले जाते हैं।
अधोगति के दो भेद हैं — योनिविशेष और स्थानविशेष। पशु, पक्षी, कीट, पतङ्ग, साँप, बिच्छू, भूतप्रेत आदि योनिविशेष अधिगति हैं और वैतरिणी, असिपत्र, लालाभक्ष, कुम्भीपाक, रौरव, महारौरव आदि नरक के कुण्ड स्थानविशेष अधोगति है। जिन के जीवन में सत्त्वगुण अथवा रजोगुण रहते हुए भी अन्त समय में तात्कालिक तमोगुण बढ़ जाता है, वे मनुष्य मरने के बाद योनिविशेष अधोगति में अर्थात् मूढ़योनियों में चले जाते हैं। जिन के जीवन में तमोगुण की प्रधानता रही है और उसी तमोगुण की प्रधानता में जिन का शरीर छूट जाता है, वे मनुष्य मरने के बाद स्थानविशेष अधोगति में अर्थात् नरकोंमें चले जाते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि सात्त्विक, राजस अथवा तामस मनुष्य का अन्तिम चिन्तन और हो जाने से उनकी गति तो अन्तिम चिन्तन के अनुसार ही होगी, पर सुखदुःख का भोग उन के कर्मों के अनुसार ही होगा। जैसे – कर्म तो अच्छे हैं, पर अन्तिम चिन्तन कुत्ते का हो गया, तो अन्तिम चिन्तनके अनुसार वह कुत्ता बन जायगा परन्तु उस योनि में भी उस को कर्मों के अनुसार बहुत सुख आराम मिलेगा। कर्म तो बुरे हैं, पर अन्तिम चिन्तन मनुष्य आदि का हो गया, तो अन्तिम चिन्तन के अनुसार वह मनुष्य बन जायगा परन्तु उस को कर्मों के फलरूप में भयंकर परिस्थिति मिलेगी। उस के शरीर में रोग ही रोग रहेंगे। खाने के लिये अन्न, पीने के लिये जल और पहनने के लिये कपड़ा भी कठिनाई से मिलेगा।
जो भी जीव जिस भी वातावरण या आचरण में रहेगा, वह प्रकृति के उस गुण के कर्तृत्त्व भाव के प्रभाव एवम फल से मुक्त नहीं हो सकता।
जीवन मे अंतिम समय का स्मरण महत्वपूर्ण है इसलिये असमर्थ, लाचार, विक्षिप्त या अस्वस्थ जीव के लिए वातावरण सत्वगुणयुक्त का ही होना चाहिये जो सुख कारक एवम स्वास्थ्य कारक भी है और परमगति देने लायक भी है।
ऊर्ध्वगति में सत्त्वगुण की प्रधनाता तो है, पर साथ में रजोगुण तमोगुण भी रहते हैं। इसलिये देवताओं के भी सात्त्विक, राजस और तामस स्वभाव होते हैं। अतः सत्त्वगुण की प्रधानता होने पर भी उस में अवान्तर भेद रहते हैं। ऐसे ही मध्यगति में रजोगुण की प्रधानता होने पर भी साथ में सत्त्वगुण तमोगुण रहते हैं। इसलिये मनुष्यों के भी सात्त्विक, राजस और तामस स्वभाव होते हैं। अधोगति में तमोगुण की प्रधानता है, पर साथ में सत्त्वगुण रजोगुण भी रहते हैं। इसलिये पशु, पक्षी आदि में तथा भूत, प्रेत, गुह्यक आदि में और नरकों के प्राणियों में भी भिन्नभिन्न स्वभाव होता है। कई सौम्य स्वभाव के होते हैं, कई मध्यम स्वभाव के होते हैं और कई क्रूर स्वभाव के होते हैं। तात्पर्य है कि जहाँ किसी भी गुण के साथ सम्बन्ध है, वहाँ तीनों गुण रहेंगे ही। इसलिये भगवान् ने कहा है कि त्रिलोकी में ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है, जो तीनों गुणोंसे रहित हो।
ऊर्ध्वगति में सत्त्वगुण की प्रधानता, रजोगुण की गौणता और तमोगुणकी अत्यन्त गौणता रहती है। मध्यगति में रजोगुण की प्रधानता, सत्त्वगुण की गौणता और तमोगुण की अत्यन्त गौणता रहती है। अधोगति में तमोगुण की प्रधानता, रजोगुण की गौणता और सत्त्वगुण की अत्यन्त गौणता रहती है। तात्पर्य है कि सत्त्व, रज और तम – तीनों गुणों की प्रधानतावालों में भी अधिक, मध्यम और कनिष्ठमात्रा में प्रत्येक गुण रहता है। इस तरह गुणों के सैकड़ो हजारों सूक्ष्म भेद हो जाते हैं। अतः गुणों के तारतम्य से प्रत्येक प्राणी का अलग अलग स्वभाव होता है।जैसे भगवान् के द्वारा सात्त्विक, राजस और तामस कार्य होते हुए भी वे गुणातीत ही रहते हैं, ऐसे ही गुणातीत महापुरुष के अपने कहलानेवाले अन्तःकरण में सात्त्विक, राजस और तामस वृत्तियों के आने पर भी वह गुणातीत ही रहता है। अतः भगवान् की उपासना करना और गुणातीत महापुरुष का सङ्ग करना – ये दोनों ही निर्गुण होने से साधक को गुणातीत करनेवाले हैं।
यह श्लोक कुछ कुछ श्लोक 14 और 15 की पुनर्वर्ती जैसा लगता है किंतु ध्यान से पढ़ने से यह ज्ञात होता है कि प्रथम 14 एवम 15 श्लोक में गति जीव के तीनो गुणों की ओर प्राप्ति अर्थात वृद्धि की ओर का वर्णन है और यह श्लोक जीव के तीनो गुणों की प्राप्ति की अवस्था है।
व्यवहार में कर्म को मन का संकल्प और विकल्प बताया गया है, क्रियाएं प्रकृति करती है और जीव मन से उस में कर्ता भाव से और भोक्ता भाव से जुड़ता है। यह भाव का स्वरूप ही तीन गुणों में विभाजित है। मृत्यु के बाद क्या होता है यह कोई नहीं जान सकता किंतु जो जीव गुणातित है, वह अपने होने वाले अनुभव से सभी कुछ वर्णन करता है। उर्ध्व या निम्न लोक किस ने देखे है। इन को यदि स्वप्न की होने वाली अवस्था से तुलना करे तो स्वप्न में होने वाली घटनाओं का स्थान और समय निश्चित नहीं होता। किंतु स्वप्न में हम जो देखते या महसूस करते उसे भी सत्य सा ही मानते हुए देखते है। अतः विभिन्न लोक की यात्रा भी स्वप्न की भांति स्थान और समय से परे है और किसी भी जगह पर कोई भी लोक को माने तो धरती पर ही स्वर्ग और नरक में जीवन को अनुभव हो जाएगा। इसी प्रकार विभिन्न योनियों में जन्म की बात को भी हम यदि सिद्ध पुनर्जन्म की याद नहीं रहने से, सिद्ध नहीं कर सकते तो भी विभिन्न योनियों में जीव के व्यवहार और उन की सुविधाओ से अंदाज लगा ही सकते है। और यदि जीव ने ब्रह्मसंध की स्थिति का उच्चतम स्तर प्राप्त कर लिया हो तो वह सभी पूर्वाग्रह से मुक्त होने से इस तथ्य की सत्यता को समझ और जान सकता है। इसलिए जीव जब तक उच्च स्तर को नहीं प्राप्त होता, महापुरुषों का अनुसरण करता है।
प्रकृति के ये गुण जीव के गुण नहीं है, किंतु प्रकृति और जीव के अज्ञान जनित संबंध अर्थात कर्तृत्व एवम भोक्त्व भाव को परिभाषित करते है। ज्ञान जीव की स्वाभाविक स्थिति है, उसे ज्ञान को प्राप्त नहीं करना है, उस को अज्ञान के अध्यास को समाप्त करना है। इसलिए प्रकृति के यह गुण बताते है कि अज्ञान किस स्तर तक जीव को प्रभावित किए हुए है।
जीव में यह तीनों गुण कम- ज्यादा मात्रा में रहेंगे ही, कोई किसी एक गुण से युक्त नही हो सकता। अतः प्रकृति से मुक्त होने एवम मोक्ष के लिये गुणातीत होना आवश्यक है, यह हम आगे पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।। 14.18।।
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