।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 14.17 II
।। अध्याय 14.17 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 14.17॥
सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च ।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च॥
“sattvāt sañjāyate jñānaḿ,
rajaso lobha eva ca..।
pramāda-mohau tamaso,
bhavato ‘jñānam eva ca”..।।
भावार्थ:
सतोगुण से वास्तविक ज्ञान उत्पन्न होता है, रजोगुण से निश्चित रूप से लोभ ही उत्पन्न होता है और तमोगुण से निश्चित रूप से प्रमाद, मोह, अज्ञान ही उत्पन्न होता हैं। (१७)
Meaning:
From sattva arises wisdom, and rajas from greed. Heedlessness, error as well as ignorance arise from tamas.
Explanation:
Previously, we took the example of people who make it a habit to go to the gym every day, and eventually make it into an integral part of their lives. If we fast forward that example a few months further, we find that these people have lost weight, they are taking care of their body, they are eating healthy, avoiding smoking and so on. Their persistence in getting over the initial pain of going to the gym has paid off. They enjoy the state being healthy and being fit. Intelligent action has shaped their physical state, and consequently, the physical state gives its result.
Similarly, mental states that were shaped by intelligent actions give results as well. Shri Krishna says that sattvic mental state gives us access to material and spiritual knowledge, since our intellect improves its ability to think clearly and grasp information quickly. Sattva guṇa gives rise to wisdom, which confers the ability to discriminate between right and wrong. It also pacifies the desires of the senses for gratification and creates a concurrent feeling of happiness and contentment. People influenced by it are inclined toward intellectual pursuits and virtuous ideas. Thus, the mode of goodness promotes wise actions.
A rajasic mental state makes us act in the world to rush after objects. Rajo guṇa inflames the senses, and puts the mind out of control, sending it into a spin of ambitious desires. The living being is trapped by it and over- endeavours for wealth and pleasures that are meaningless from the perspective of the soul. We want objects we do not have and want more of objects that we already have.
Tamo guṇa covers the living being with inertia and nonscience. Shrouded in ignorance, a person performs wicked and impious deeds and bears consequent results. A tamasic mental state has the worst possible outcome. It keeps us steeped in ignorance of the material world, and of our true nature. We do not want to act at all, and even if we do, we perform furtive actions, or perform careless actions.
This shloka and the prior shloka point out the self-reinforcing nature of actions and gunaas. If we consciously perform sattvic actions day after day, we will generate a greater proportion of sattva in our mind, which will further spur sattvic actions. This is the logic behind karma yoga. By urging us to perform selfless actions, Shri Krishna wants us to rise from our rajasic and tamasic existence to one of greater sattva.
।। हिंदी समीक्षा ।।
पूर्व श्लोक में कर्तृत्त्व भाव से कर्म में गुणों के प्रभाव को हम ने जाना। तो इस श्लोक में भी यही विचार दोहराया गया है। यह इस जीवन में तीनों गुणों की प्रबलता का परिणाम है। यही त्रिगुण फल है। यहाँ भगवान गुणों की विशेषताएं बता रहे है।
सत्त्वगुण से ज्ञान होता है अर्थात् सुकृत दुष्कृत कर्मों का विवेक जाग्रत् होता है। उस विवेक से मनुष्य सुकृत अर्थात सत्कर्म ही करता है। उन सुकृत कर्मों का फल सात्त्विक व निर्मल होता है। यदि अन्तकरण शुद्ध और शान्त अर्थात् सात्त्विक हो तो उसकी ज्ञानक्षमता अधिक होती है। ऐसे शुद्ध मन के द्वारा ही नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त आत्मा का अपरोक्षानुभव हो सकता है।
सत्व गुण से बुद्धि उत्पन्न होती है, जो सही और गलत के बीच अंतर करने की क्षमता प्रदान करती है। यह इंद्रियों की तृप्ति की इच्छाओं को भी शांत करता है, और खुशी और संतोष की एक साथ भावना पैदा करता है। इससे प्रभावित लोग बौद्धिक खोज और सद्गुणी विचारों की ओर प्रवृत्त होते हैं। इस प्रकार, सत्व गुण बुद्धिमानी भरे कार्यों को बढ़ावा देता है।
यह ज्ञान ईश्वरीय अनुभूति का ही नाम है क्योंकि परमात्मा का ज्ञान इसी से होता है। यह प्रकृति की विशुद्ध अवस्था है जिसे हम 24 carret का सोना भी मान सकते है।
ज्ञान के महत्व को तुलसी दास ने यह लिख कर कहा है ” धर्म ते विरति योग ते ज्ञाना। ज्ञान मोक्ष – प्रद वेद बखाना।।” गीता भी कहती है कि “न हि ज्ञानेन सदृश पवित्रमिह विद्यत्ते” । अतः यह कह सकते है जिस के द्वारा आत्मा को जाना जा सकता है, वह ज्ञान होता है।
गुणातित अवस्था की प्राप्ति सत्व गुण की पूर्णता से ही प्राप्त होती है।
रजोगुण से लोभ तथा तज्जनित अनेक प्रकार की स्वार्थमूलक प्रवृत्तियां और विक्षेप उत्पन्न होते हैं। रजोगुण प्रकृति की माध्यम अवस्था है। संसार मे रहने की एवम कर्म करने का कारक है। इसे हम सोने से स्वर्ण के आभूषण बनाने के लिये सत्व गुण के खोट मिलाना भी कह सकते है। खोट किंतनी मात्रा में मिली है यह आभूषण की गुणवंता पर निर्भर है। रजोगुणी लोग अपने लोभ में अनेक कष्ट उठाते हुए कर्म करते रहते है, यह अन्तःकरण से असंतुष्ट एवम विचलित एवम दुखी रहते है।
रजो गुण इंद्रियों को भड़काता है, और मन को नियंत्रण से बाहर कर देता है, जिससे यह महत्वाकांक्षी इच्छाओं के चक्कर में पड़ जाता है। जीव इसके जाल में फंस जाता है और धन और सुखों के लिए अत्यधिक प्रयास करता है जो आत्मा के दृष्टिकोण से अर्थहीन हैं।
विषय को किसी प्रकार से भी नहीं जानना अज्ञान है, जब कि दो वस्तुओं या कर्मों में विवेक का अभाव होना मोह कहलाता है।
तुलसीदास जी कहते है ” तात तीन अति प्रबल खल, काम, क्रोध अरु लोभ । मुनि विज्ञान धाम, मन, करहीं निमिष महु छोभ ।। “
तमो गुण अज्ञान का प्रतीक है। तमो गुण से ही अज्ञान एवम अज्ञान से तमोगुण उत्पन्न होता है। यह प्रकृति की निष्कृष्ट अवस्था है। इसलिये समस्त प्रकार के तामस भाव इसी से उत्पन्न होते है। यह असुर गुण भी कहलाता है इस मे खाओ, पियो और मौज करो। धन, स्वार्थ या मनोरंजन के लिये किसी को प्रताड़ित करना या हत्या करना इसी का गुण है। कुतर्क करने वाले या दुष्टों या गलत लोगो को साथ देने वाले या ज्ञान का गलत प्रयोग करने वाले तामसिक ही। होते है। इन को ज्ञान न होने से पशु तुल्य जीवन को भोक्तते है।
तमो गुण जीव को जड़ता और अज्ञानता से ढक देता है। अज्ञानता में लिपटा हुआ व्यक्ति दुष्ट और अपवित्र कर्म करता है और उसके परिणाम भुगतता है।
तमो गुण के बढ़ने से प्रमाद, मोह एवम अज्ञान का प्रदुर्भाव होता है, कर्तव्य कर्म को त्याग कर अकर्तव्य कर्म को ग्रहण करना ही प्रमाद है, यही आसुरी प्रवृति का द्योतक है, यही तमो गुण है।
सत से तम का मार्ग ज्ञान से अज्ञान का मार्ग है, अर्थात प्रकाश से अंधकार की ओर। इसलिए हमारे ऋषि मुनियों ने अपनी प्रार्थना में अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ने के लिए प्रार्थना की है “ॐ असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मा अमृतं गमय। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥”
सांख्य और वेदांत के मत को समझने के लिए पूर्व के श्लोक और आगे के श्लोक को समझना आवश्यक है। क्योंकि कैवल्य या मुक्ति की अवस्था सांख्य और वेदांत या गीता में मतों ही विभिन्नता से अलग अलग है एवम तीनो गुणों की विशेषताओं के क्या प्रभाव या क्या प्राप्त होता है, यह हम आगे पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।। 14.17।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)