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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  14.16 II Additional II

।। अध्याय      14.16 II विशेष II

।। त्रियामी गुण और कर्म फल  ।। विशेष – गीता 14.16 ।।

अभी तक के गीता के अध्ययन में कर्म फल और कर्तव्य धर्म को समझने के लिए, आज के श्लोक की समीक्षा कुछ लंबी है किंतु पूर्णतः व्यवहारिक एवम महत्वपूर्ण है। जब हम ने गीता का  अध्ययन शुरू किया था,  तो एक प्रश्न था कि अर्जुन द्वारा कर्तव्य धर्म के पालन करते हुए परिजनों की हत्या उसे पाप से मुक्त करती है या नही। यही प्रश्न का उत्तर है कि समस्त कर्म या क्रिया मन के संकल्प या विकल्प से फल के बंधन को तय करते है। अर्जुन तो निमित्त मात्र है, क्रिया प्रकृति में हो रही है। अर्जुन जिस भी मनोवृति या विचार या भावना से युद्ध लड़ेगा उसे वही फल मिलेगा। कर्तृत्त्व भाव में निष्काम एवम वैराग्य भाव होगा तो उसे किसी भी कर्म का बंधन नहीं होगा और वह मोक्ष का अधिकारी है, सिर्फ निष्काम है तो उच्च लोक है, मोह एवम राज्य प्राप्ति है तो पुनः जन्म है और लालसा एवम प्रमाद है तो मूढ़ योनि है।

अन्य दृष्टिकोण यह है कि कोई कैसे अपने ही स्वजनों की हत्या या आज के युग में तिरस्कार कर सकता है। इस के लिए भी अर्जुन को दुर्योधन के मना करने पर युद्ध नहीं करने की सोचना चाहिए। क्योंकि क्षत्रिय यदि युद्ध भूमि में उतर जाए तो उस का कर्तव्य धर्म ही है युद्ध करे अन्यथा जगत में निंदा और उपहास का कारण बने। अन्य पक्ष जब युद्ध के लिए उतर ही गया तो वह अर्जुन को जीवित छोड़ देगा, इस की भी कोई गारंटी नहीं है। इस के अतिरिक युद्ध का कारण दुर्योधन की महत्वाकांक्षा है, वह उन्हे कभी भी शांति से रहने नहीं देगा। इसलिए युद्ध वक्त या समय के अनुसार किया निर्णय है जो उस समय की परिस्थिति के लिए उपयुक्त भी था।

युद्ध में सभी सत्य और पांडवों के प्रति अन्याय से परिचित थे किंतु सभी अपने अपने व्यक्तिगत धर्म का पालन कर रहे थे। इसलिए यह सभी का धर्म युद्ध हुआ। यही स्थिति आज भी समाज की है। सभी जानते है कि यदि संगठित नहीं  रखे तो धीरे धीरे जैसे अन्य जगह से भगा या मार दिए गए,  वैसे ही आगे होगा किंतु आज भी लोग अपने मोह, लोभ, स्वार्थ और अहम में अपने अपने परिवार, जाति और मत के धर्म को निभा रहे है। भगवान कृष्ण भी इस प्रकार के समाज के पक्षधर नहीं थे, इसलिए उन्होंने स्वयं अपने भी वंश को नष्ट होने से नही रोका।और यह सब सृष्टि के नियम के अंतर्गत ही हुआ और अब भी होता जा रहा है। किंतु प्रयास वह भी आत्मशुद्धि से युक्त हो कर इस के लिए हो रहे है।

गीता में श्री कृष्ण द्वारा योग की शिक्षा दी गई है। योग का एक अर्थ युक्ति भी होता है। अर्थात युक्ति से किसी भी व्यक्ति को अपने उद्देश्य या कार्य के लिए तैयार करना।

आज यदि परिवार में दादा, पिता, भाई में झगड़े हो जाए तो हत्या की स्वतंत्रता नही होने के बावजूद, लड़ाई, मुकद्दमे शुरू हो जाते है। यदि उस में कोई व्यक्ति व्यक्तिगत स्वार्थ की अपेक्षा परिवार के कल्याण के लिए विरोध या झगड़ा करता है तो वह भी निष्काम कर्मयोग है, किंतु इस में उस का व्यक्तिगत स्वार्थ, लोभ, लालसा, विवेक, क्रोध या अज्ञान हो तो निश्चय ही उस की स्थिति दुर्योधन की होगी, और उस के विरुद्ध अर्जुन बनकर कोई निष्काम हो कर विरोध करे, तो वह प्रकृति की क्रिया में बिना संकल्प और विकल्प का योगदान होगा।

अतः यह कहा गया है कर्म और कुछ नही, मन के द्वारा संकल्प और विकल्प की क्रिया मात्र है। हम इसे यह भी कह सकते है कि संपूर्ण जगत में क्रियाशील प्रकृति ही है और जीव का भौतिक स्वरूप प्रकृति का ही अंश है। इस अंश में मन द्वारा संकल्प और विकल्प से जीव अपने को क्रिया से जोड़ता है और इसी संकल्प और विकल्प से जोड़ते समय वह प्रकृति के जिस गुण से प्रभावित हो कर जुड़ता है, उस के कर्म का फल अर्थात उस के संकल्प का फल उसे बंधन में बांध देता है।

कर्ण एवम भीष्म ने युद्ध सात्विक एवम निष्काम हो कर लड़ा, इसलिये मुक्त हुए एवम अपने अपने लोक में चले गए। उन्होंने अपने कर्तव्य धर्म का पालन किया किन्तु उन में कोई मोह, लालसा या तृष्णा नही थी। अर्जुन ने युद्ध कृष्ण को समर्पण भाव से लड़ा, इसलिये उस की परमगति का दायित्व परमात्मा ने योगक्षेम किया। भगवान कृष्ण ने जीवन मे हर प्रकार के कर्म करते हुए यही संदेश दिया कि कर्म से कुछ अच्छा बुरा नहीं होता। वह कर्म करते हुए जीव का कर्तृत्त्व भाव किस गुण का है, उस से कर्म का गुण तय होता है। जो कर्म हमे तामसी कर्तृत्त्व भाव की ओर ले जाता है, उसे संस्कार एवम ज्ञान द्वारा वर्जित माना गया है, जिस से मनुष्य तम गुण के कर्तृत्व भाव से बचा रहे। कंस एवम रावण का वध परमात्मा के हाथों हुआ, इसलिये वो परमगति को गये, क्योंकि अंतिम समय मे परमात्मा ही थे । किन्तु महाभारत में किसी को युद्ध से मोक्ष प्राप्त हुआ है तो वह बर्बरीक ही है जो परमात्मा में विलीन हो कर स्वयं परमात्मा हुए एवम खाटू श्याम कहलाये।

युधिष्ठर तक को भी स्वर्ग मिला वो भी नरक के रास्ते से हो कर जाना पड़ा। इसलिये कर्म कर्तृत्व भाव के गुण पर ही अच्छे या बुरे होते है।

आज के आधुनिक युग में जहां भौतिकवाद अधिक प्रभावशाली है, व्यक्ति का मूल्यांकन उस के ज्ञान की अपेक्षा, उस के रहन सहन, तड़क भड़क, उस की संपदा, पद आदि पर अधिक होता है। शब्दो का चयन अज्ञानी लोग अपात्रों के लिए इतने उच्च स्तर का करते है, कि लगता है शब्द भी शर्म से आत्महत्या न कर ले। विज्ञापन, चलचित्र, राजनीति और महत्वाकांक्षा के रहते भौतिक विज्ञान के युग में सत गुणों का वास्तविक जीवन शैली को भगवान श्री कृष्ण के जीवन की लीलाओं से सीखना चाहिए। जिन्होंने उस युग में जन्म लिया जब मानवीय मूल्यों का हास शुरू था। इसलिए उन्होंने वह सभी कार्य निष्काम भाव से बिना अहंकार के लिए।

जीवन में कर्म करना या नहीं करना, ऐसी कोई विकल्प नहीं है। कर्म करना अनिवार्य है किंतु विकल्प में कर्म को किस भाव, कामना या आसक्ति से करना या किस प्रकार अर्थात विधि से करना यह जीव के अधिकार में है। यदि लक्ष्य को साध कर लोकसंग्रह में कर्म किया जाए, तो वह भी निष्काम कर्मयोग का यज्ञ ही होगा। व्यक्तिगत लगन, निष्ठा, निपुर्णता और क्षमता जीव के अधिकार में है और उसे ही देख कर प्रकृति उसे निमित्त बनाती है। जिस में प्रमुख कारण में जीव की वृति अर्थात  भावना, कामना, राग – द्वेष, लोभ और मोह भी है। इसलिए जीव अपना भविष्य स्वयं तय करता है।

व्यवहारिक जीवन में, मेरे जैसे व्यवसायिक व्यक्ति के सामने परिवार, समाज, देश और धर्म को ले कर अनेक दुविधा उस समय उत्पन्न होती है जब किसी कार्य के हेतु अपने क्लाइंट के लिए भ्रष्टाचार के सामने समर्पित होना पड़ता है, या समाज में कुछ लोगो द्वारा व्यक्तिगत स्वार्थ में गलत कार्य करते हुए देखने के बाद भी औपचारिकता वश चुप बैठना पड़ता है या फिर घर में जब अपने ही लोग छोटा मोटा लाभ के लिए कुछ कार्य करते है जो परम्परा के अनुसार हमे उचित नही लगती, तो चुप बैठना पड़ता है। किसी संभाषण में अनुचित विचारो को सुनना या जिन विचारो को हम पसंद नही करते, उस को समर्थित करते अपने प्रियजनों को मिलना आदि अनेक कार्य कार्य है, जिन से मन दुविधा में फसा ही रहता है। मेरी व्यक्तिगत धारणा यही है कि उचित और अनुचित का फैसला प्रकृति करती है, मेरा कर्तव्य कर्म मुझे निषिद्ध कार्य करने को रोकता है, किंतु कर्तव्य धर्म के पालन में यदि सत्य या नियमोचित कार्य के लिए यदि सांसारिक नियमो में कुछ कर्म भ्रष्टाचार या व्यवहार में किया जाता है जिस में स्वयं का स्वार्थ, कामना, आसक्ति या अहंकार न हो, तो वह कर्तव्य धर्म का पालन ही होगा। इसी प्रकार पारिवारिक कलह में यदि निस्वार्थ, निष्पक्ष एवम सत्य के साथ बिना किसी के बहकावे में आ कर विरोध भी करना पड़े तो अनुचित नहीं होगा, किंतु विरोध में द्वेष, क्रोध, अहंकार के स्थान पर, कर्तव्य कर्म के पालन का तटस्थ भाव होना चाहिए। निष्काम भाव से किए कर्म का फल भी जीव को प्राप्त नहीं होता, इसलिए सत्व का मार्ग भी बंद नहीं होना चाहिए। किंतु वास्तव में कर्म निष्काम है, या कर्म का फल क्या होगा या नहीं होगा, इस का निर्णायक तो परमात्मा और उस की प्रकृति है, इसलिए उस के निर्णय के आगे जीव समर्पित ही है। अतः हम अपने सत्व का मार्ग को अपनाए तो शायद प्रकृति ही हमारी प्रवृति को सुधार कर ले कर आगे बढे़। मेरा निजी मत है कि सत्व की राह में चलने वालो का सुख, आनंद और मुक्ति का मार्ग स्वयं परमात्मा  खोलता है। क्योंकि वह अपने भक्त के प्रेम का बंधन स्वीकार भी करता है और उस का योगक्षेम भी वहन करता है।

आज के राजनैतिक परिपेक्ष में सनातन संस्कृति को हिंदू धर्म का पर्याय बना दिया है। सनातन संस्कृति लाखों वर्षों से  अनगिनत ऋषियों और मुनियों का चिंतन है जो ज्ञान – विज्ञान, सामाजिक व्यवस्था, सृष्टि, प्रकृति और जीव का विश्लेषण और धर्म अर्थात मानव को कैसे रहना और विचार करना चाहिए। यह हमारे पूर्वजों की देन है किंतु यह देन फलित तभी होगी, जब इस के लिए जीव स्वयं प्रयास करे। किंतु प्रकृति में क्रियाएं जब होती है तो मन ही संकल्प और विकल्प के आधार पर कार्य करता है। इसलिए सही मार्गदर्शन, ज्ञान के अभाव में यह मान तमो गुण की प्रवृति की ओर अग्रसर हो जाता है। सनातन संस्कृति और मत में अंतर विचारधारा की स्वतंत्रता का है। जब कुछ मत कट्टरता धारण कर लेते है और उस के लिए अनुयायी को सोचने और समझने की स्वतंत्रता नहीं देते तो वह मत भी तमो गुणी मत हो जाता है। मन के संकल्प और विकल्प की स्वतंत्रता और त्याग की स्वतंत्रता ही सनातन संस्कृति का मूल मोक्ष के लिए है। इसलिए हिंदू धर्म अर्थात सनातन संस्कृति में विचारो की स्वतंत्रता के कारण कभी कट्टरता नही हो सकती और इसी कारण इस में सत, रज और तमो गुण से प्रभावित लोग अपने अपने मत को ले कर चलते है और उसी के द्वारा दूसरो को प्रभावित करते है। मत में कट्टरता विचारो की संकीर्णता के कारण होती ही ही।

सत्य को जानना और उस को स्वीकार करना, कभी संभव नही हुआ। लोग अपने मतों के अनुसार सत्य को बदलते रहते है, इसलिए स्वार्थी, लोभी और अज्ञानी लोग के साथ भी शास्त्र  के ज्ञाता खड़े हो जाते है। सत्य कभी सामूहिक नहीं हो सकता, इसलिए जीव को अपना सत्य स्वीकार कर के अकेले चलना होता है। युद्ध में, राजनीति में, धर्म में, या अन्य किसी भी मत में भीड़ सत्य से नही, अपने मन के संकल्प और विकल्प से जुड़ी रहती है। यही प्रकृति की क्रिया है, जिस से ब्रह्म सृष्टि का संचालन करता है।

अंत में यह भी समझना होगा कि दुर्योधन, कंस या फिर रावण आदि ये सभी ज्ञानी, महान योद्धा और कर्मयोगी थे। किंतु इन की तामसी प्रवृति ने इन का विवेक हरण इस हद्द तक कर लिया कि यह जानते हुए भी कि जो वे कर रहे है शास्त्रों के अनुसार न्याय संगत नहीं है, वे अपनी तामसी प्रवृति से विवश थे। अतः शास्त्र का अध्ययन या उच्च शिक्षा, पद या अधिकार किसी भी व्यक्ति को सात्विक नही बनाता। हिंदू धर्म पर बहस करे या उस को कितना भी समझाए, वह अपनी प्रवृति से विमुख नहीं होता क्योंकि यही उस की नियति है और यदि ये लोग अभ्यास और वैराग्य की धारण करे तो डाकू से ऋषि बाल्मिकी जैसे बन सकते है। तो इन का विरोध सात्विक और राजसी लोगो द्वारा किया जाना आवश्यक है। किंतु जब महंत से ले कर राज के लोग स्वार्थ में लिप्त हो जाए तो नियति ही कुछ कर सकती है। इसलिए जब भी धर्म की हानि होती है, ईश्वर किसी महापुरुष का अवतार ले कर प्रकृति के असंतुलन को दूर करता है।

इसी कारण भारत में मुगल, अंग्रेज और अब धर्म परिवर्तन और हिंसा करने या भ्रष्टाचार तय होने के बाद भी लोग उन के साथ खड़े हो जाते है। सत्य अविजित है किंतु असत्य कभी भी अकेला नहीं है। इसलिए भी कि साम्य अवस्था में प्रकृति के तीनों गुण निष्क्रिय और एक हो जाते है किंतु जैसे ही सृष्टि जाग्रत हो जाती है तो ये तीनों ही गुण विषम हो कर क्रियाशील हो जाते है और सृष्टि में गतिशीलता दृश्यमान हो जाती है।

गीता पढ़ने वाले प्रत्येक व्यक्ति की अपनी धारणा और वैचारिक शक्ति होती है, किंतु गीता जितनी बार पढ़ते है, वह हर बार अंतर्मन को विभिन्न तरीके से छूती है और उस का अर्थ पहले से अधिक स्पष्ट होने लगता है। प्रकृति गुणों का ही संयोग है, इसलिए गीता पढ़ते और मनन करते रहने से सत्व गुण का वर्चस्व स्वयमेव ही बढ़ता है। यह मेरा ही नहीं, अपितु जिन भी लोगो से मैं मिलता हूं, सभी का अनुभव है। यही प्रकृति के गुण का विस्तार है जो तमो गुण से सत गुण की ओर जाता है। आप का क्या विचार है?.

।। हरि ॐ तत सत।। गीता विशेष 14.16।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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