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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  14.14 II

।। अध्याय      14.14 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 14.14

यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत्‌ ।

तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते॥

“yadā sattve pravṛddhe tu,

pralayaḿ yāti deha- bhṛt..।

tadottama- vidāḿ lokān,

amalān pratipadyate”..।।

भावार्थ: 

जब कोई मनुष्य सतोगुण की वृद्धि होने पर मृत्यु को प्राप्त होता है, तब वह उत्तम कर्म करने वालों के निर्मल स्वर्ग लोकों को प्राप्त होता है। (१४)

Meaning:

When sattva is predominant, and the body dweller reaches his end, then he attains the immaculate worlds of the knowers of the highest.

Explanation:

Let us recall, the earlier chapters for law of karma and fate of yogi who has not completed his devotion and corrupted. We get what we deserve is God’s law, the law of karma. Those who cultivated virtues, knowledge, and a service attitude toward others are born in families of pious people, scholars, social workers, etc. Or else, they go to the higher celestial abodes. Those who permitted themselves to be overcome by greed, avarice, and worldly ambitions are born in families focused on intense material activity, very often the business class. Those who were inclined to intoxication, violence, laziness, and dereliction of duty are born amongst families of drunks and illiterate people. Otherwise, they are made to descend down the evolutionary ladder and are born into the animal species.

Now, Shri Krishna explains the effects of each gunaa from the perspective of reincarnation. He says that one whose mind is in a sattvic state during the time of death travels to realms that are subtler than the human world. These realms are termed as “Brahmaloka”, the abode of Lord Brahma. Jñāni does not travel at all; all the three śarīrams are dissolved here and now; he is ONE with the all-pervading Brahman.  It is said that there is no room for any desire, sorrow or disease in such realms, given the complete absence of rajas or tamas. Such people, however, are still subject to the bondages caused by sattva, as discussed previously.

Let us revisit the example of the young child who has developed a strong identification with a television character played by the actor “ABC”. ABC’s run as an action hero in a popular TV show has ended. He has decided to play the role of a serious professor in his new TV series. The young child now has a choice. He can either continue to identify with ABC in his new role as a professor or find another TV show with an action hero to identify with. The choice depends on the young child’s mental state. If it is heavily rajasic, he will find another action hero. If it has some sattva, he will follow ABC as a professor.

Similarly, our desires and thoughts, which are driven by the gunaas that influence us, will determine our fate after this physical body drops. The subtle body, which is nothing but our desires and thoughts, will attract another physical body that enables it to carry out those desires. It is almost similar to DNA shaping a body based on the programming it contains. Therefore, if our subtle body harbours sattvic thoughts, it will gain entry into a highly sattvic body after death. But if it continues to harbour rajasic or tamasic thoughts, it will obtain a different destination.

Many people wonder whether having once attained the human form, it is possible to slip back into the lower species. This verse reveals that the human form does not remain permanently reserved for the soul. Those who do not put it to good use are subject to the terrible danger of moving downward into the animal forms again. Thus, all the paths are open at all times. The soul can climb upward in its spiritual evolution, remain at the same level, or even slide down, based upon the intensity and frequency of the guṇas it adopts.

All this is explained in the next shloka.

।। हिंदी समीक्षा ।।

आइए हम कर्म के नियम और योगी के भाग्य के बारे में पिछले अध्यायों को याद करें, जिन्होंने अपनी भक्ति पूरी नहीं की और भ्रष्ट हो गए। हमें जो मिलना चाहिए, वह ईश्वर का नियम है, कर्म का नियम। जो लोग सद्गुण, ज्ञान और दूसरों के प्रति सेवा भाव विकसित करते हैं, वे धर्मपरायण लोगों, विद्वानों, समाजसेवियों आदि के परिवारों में जन्म लेते हैं। या फिर, वे उच्च स्वर्ग में चले जाते हैं। जो लोग खुद को लालच, लोभ और सांसारिक महत्वाकांक्षाओं से ग्रसित होने देते हैं, वे तीव्र भौतिक गतिविधियों पर केंद्रित परिवारों में जन्म लेते हैं, अक्सर व्यापारी वर्ग में। जो लोग नशे, हिंसा, आलस्य और कर्तव्य की उपेक्षा के लिए प्रवृत्त होते हैं, वे शराबी और अशिक्षित लोगों के परिवारों में पैदा होते हैं। अन्यथा, वे विकास की सीढ़ी से नीचे उतर जाते हैं और पशु योनि में जन्म लेते हैं।

उत्तम लोक को प्राप्त करने वाले किसी प्रकार का क्लेश या दोष नहीं रखते एवम शुद्ध और सात्विक होते है इसलिये अमलान होते है। वे शास्त्रविहित कर्म एवम उपासना करते है इसलिये उत्तमविदाम कहलाते है। इसी प्रकार निष्काम भाव से लोक संग्रह के लिये कर्म करते है उन्हें हम उत्तमवित कहते है। यह सब लोक मृत्यु के बाद उत्तम लोक के अधिकारी है, इसी प्रकार जिस जीव में मृत्यु के समय सत्वगुण की वृद्धि हो जाती है, उस के इंद्रियाओ, मन एवम अन्तःकरण में प्रकाश एवम ज्ञान उत्पन्न हो जाता है, ऐसा प्राणी अहम एवम ममता से रहित देहभृत हो जाता है एवम मृत्यु के पश्चात उत्तम लोक को प्राप्त होता है। यहां यह भी समझना होगा कि जीव का एक भौतिक शरीर होता है, एक सूक्ष्म शरीर होता है और एक महंत शरीर होता है। जीव की यात्रा में भौतिक शरीर मृत्यु हम जिसे मानते है, वह यात्रा नही करता। यदि कुछ कामनाएं, लालसा या कर्म फल रह जाए तो सूक्ष्म शरीर यात्रा करता है और सत्व प्रधान जीव में जब कामनाएं और लालसा नहीं रहती तो महंत के साथ आत्मा यात्रा करती है। यही महंत के त्यागने से जीव परमात्मा में विलीन हो जाता है। इसी महंत के रहते ही जीव को अहम ब्रह्मास्मी का ज्ञान होता है। क्योंकि पूर्ण ब्रह्म में यह ज्ञान किस को होगा?

सत्वगुण प्रकृति का ही गुण है, यह जीव में प्रकाश एवम ज्ञान की वृद्धि अवश्य करता है किंतु जीव को सुख एवम अभिमान भी देता है। सांख्य योग कहता है कि जीव को मुक्ति के लिये सुख एवम अभिमान को त्याग कर यह ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है कि वह एवम प्रकृति पृथक पृथक है। इस प्रकार ही वह परब्रह्म में विलीन हो सकता है। उत्तम लोक की प्राप्ति अनित्य है अतः सदकर्मो के फल के उसे पुनः मृत्यु लोक ही प्राप्त होता है।

प्रस्तुत श्लोक मृत्यु के समय सत्वगुण के आचरण, विचार, व्यवहार और कर्म की श्रृंखला को कायम रखते हुए उस के प्रतिफल की व्याख्या है।

1 मरणसमय की अवस्था के द्वारा जो फल मिलता है, वह सब भी आसक्ति और राग से ही होनेवाला तथा गुणजन्य ही होता है। जीवन भर जीव किन गुणों में रहा उस का कर्मफल उसे भुगतना ही है परंतु यदि मरते समय जीव में सत्वगुण की वृद्धि हो जाती है, तो वह उत्तम गति को प्राप्त हो कर स्वर्ग से ले कर ब्रह्मलोक में अपने कर्मों के अनुसार जाता ही है।

2  इस प्रकार हमें वैचारिक जीवन में एक निरन्तरता और नियमबद्धता का स्पष्ट अनुभव होता है, जिस की अखण्डता भूत, वर्तमान और भविष्य में बनी रहती है। तब मृत्यु के समय अकस्मात् इस शृंखला के टूटने का कोई कारण सिद्ध नहीं होता है। मृत्यु एक अनुभव विशेष मात्र है, जो उत्तरकाल के अनुभवों को प्रभावित कर सकता है। परन्तु यह कोई नवीन विशेष बात नहीं है, क्योंकि प्रत्येक अनुभव ही अपने पश्चात् के अनुभव को अपने गुणदोष से प्रभावित करता रहता है। अत जीवन पर्यन्त के विचारों के संयुक्त परिणाम से ही देहत्याग के पश्चात् जीव की गति निर्धारित होती है। यद्यपि इस भौतिक जगत् से उसका सम्बन्ध समाप्त हो जाता है तथापि उसका वैचारिक जीवन बना रहता है।भगवान् कहते हैं कि सत्वगुण प्रवृद्ध हो और उस समय जीव देहत्याग करे, तो वह उत्तमवित् लोगों के निर्मल लोकों को प्राप्त होता है। ये स्वर्ग से लेकर ब्रह्मलोक तक के लोक हैं। ब्रह्मलोक में रज और तम का प्रभाव नगण्य होने के कारण वह लोक परम सुखी है।

3 सत्त्वगुण की वृद्धि में शरीर छोड़ने वाले मनुष्य पुण्यात्माओं के प्राप्तव्य ऊँचे लोकों में जाते हैं – इस से सिद्ध होता है कि गुणों से उत्पन्न होनेवाली वृत्तियाँ कर्मों की अपेक्षा कमजोर नहीं हैं। अतः सात्त्विक वृत्ति भी पुण्यकर्मों के,समान ही श्रेष्ठ है। इस दृष्टि से शास्त्रविहित पुण्यकर्मोंमें भी भाव का ही महत्त्व है, पुण्यकर्म विशेष का नहीं। इसलिये सात्त्विक भाव का स्थान बहुत ऊँचा है। पदार्थ, क्रिया, भाव और उद्देश्य – ये चारों क्रमशः एक दूसरे से ऊँचे होते हैं। रजोगुण और तमोगुण की अपेक्षा सत्त्वगुण की वृत्ति सूक्ष्म और व्यापक होती है। लोक में भी स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म का आहार कम होता है जैसे – देवतालोग सूक्ष्म होनेसे केवल सुगन्धि से ही तृप्त हो जाते हैं। स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म में शक्ति अवश्य अधिक होती है। यही कारण है कि सूक्ष्म भाव की प्रधानता से अन्त समय में सत्त्वगुण की वृद्धि, मनुष्य को ऊँचे लोकों में ले जाती है।

मरणोपरान्त जीव के अस्तित्व तथा उसकी गति का विषय इन्द्रिय अगोचर है। अत प्रस्तुत प्रकरण में प्रतिपादित सिद्धांत के सत्यत्त्व की पुष्टि इसी देह में रहते हुए इन्द्रियों के द्वारा नहीं हो सकती है किन्तु मनुष्य के वर्तमान जीवन के मानसिक व्यवहार का सूक्ष्म अध्ययन करने पर प्रस्तुत सिद्धांत की युक्तियुक्तता के विषय में कोई सन्देह नहीं रह जाता है।

बहुत से लोग आश्चर्य करते हैं कि क्या एक बार मानव शरीर प्राप्त करने के बाद, निम्न योनि में वापस जाना संभव है। यह श्लोक बताता है कि मानव शरीर आत्मा के लिए स्थायी रूप से आरक्षित नहीं रहता है। जो लोग इसका सदुपयोग नहीं करते हैं, वे फिर से पशु योनि में जाने के भयानक खतरे के अधीन होते हैं। इस प्रकार, सभी मार्ग हर समय खुले रहते हैं। आत्मा अपने आध्यात्मिक विकास में ऊपर की ओर चढ़ सकती है, उसी स्तर पर बनी रह सकती है, या यहाँ तक कि नीचे भी जा सकती है, जो उसके द्वारा अपनाए गए गुणों की तीव्रता और आवृत्ति पर आधारित है।

आगे हम रजोगुण तथा तमोगुण की प्रधानता में मृत्यु के फल को पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 14.14।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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