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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  14.10 II

।। अध्याय      14.10 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 14.10

रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत ।

रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ॥

“rajas tamaś cābhibhūya,

sattvaḿ bhavati bhārata..।

rajaḥ sattvaḿ tamaś caiva,

tamaḥ sattvaḿ rajas tathā”..।।

भावार्थ: 

हे भरतवंशी अर्जुन! रजोगुण और तमोगुण के घटने पर सतोगुण बढ़ता है, सतोगुण और रजोगुण के घटने पर तमोगुण बढ़ता है, इसी प्रकार तमोगुण और सतोगुण के घटने पर रजोगुण बढ़ता है। (१०)

Meaning:

Sattva rises, O Bhaarata, when it overpowers rajas and tamas, so does rajas overpower sattva and tamas, and also tamas overpowers sattva and rajas.

Explanation:

Now Bhagwan Shri Krishna says that everything and being is made up of three guṇas; because everything and being is born of prakr̥ti. From an inert object to the most intelligent human being, every blessed thing in the creation is the product of prakr̥ti and therefore, everyone has got all the three guṇas. But there is only one difference, and that difference is even though everything is made up of three guṇas, the proportion is not uniform. The proportion was uniform before the creation; during the pralaya avastha, the three guṇas were in equilibrium. In saṅkya philosophy, they called it guṇānām sāmya avastha pralaya. Once the creation has started, there is no more equilibrium; there is viṣamya avastha, viṣamyam means in equilibrium.

These three guṇas are present in the material energy, and our mind is made from the same energy. Hence, all the three guṇas are present in our mind as well. They can be compared to three wrestlers competing with each other. Each keeps throwing the others down, and so, sometimes the first is on top, sometimes the second, and sometimes the third. In the same manner, the three guṇas keep gaining dominance over the individual’s temperament, which oscillates amongst the three modes. Depending upon the external environment, the internal contemplation, and the sanskārs (tendencies) of past lives, one or the other guṇa begins to dominate. There is no rule for how long it stays—one guṇa may dominate the mind and intellect for as short as a moment or for as long as an hour.

Shri Krishna says that our mind can only be under the impact of one gunaa at a time. This happens when one gunaa assumes dominance, and consequently, asserts its authority over the others. If sattva guṇa dominates, one becomes peaceful, content, generous, kind, helpful, serene, and tranquil. When rajo guṇa gains prominence, one becomes passionate, agitated, ambitious, envious of others success, and develops a gusto for sense pleasures. When tamo guna becomes prominent, one is overcome by sleep, laziness, hatred, anger, resentment, violence, and doubt.

Having known this, we now would like to know which gunaa within us dominates more than others. This is not an easy question to answer, because we have to analyze ourselves and not anyone else. We need to look within. We need to understand what thoughts, feelings and emotions we should watch out for so that we can tie them back to a specific gunaa. If we conduct this analysis for a while, we will know which gunaa predominates. Shri Krishna expands on the topic of the marks or signs of each gunaa in the next shloka.

।। हिंदी समीक्षा ।।

भगवान श्री कृष्ण कहते है कि हर चीज़ और प्राणी तीन गुणों से बने हैं; क्योंकि हर चीज़ और प्राणी प्रकृति से पैदा होते हैं। जड़ वस्तु से लेकर सबसे बुद्धिमान मनुष्य तक, सृष्टि की हर धन्य चीज़ प्रकृति की उपज है और इसलिए, सभी में तीनों गुण हैं। लेकिन एक ही अंतर है और वह अंतर यह है कि भले ही सब कुछ तीन गुणों से बना हो, लेकिन अनुपात एक समान नहीं है। सृष्टि से पहले प्रलय अवस्था के दौरान तीनों गुण संतुलन में थे और इन का अनुपात एक समान था। सांख्य दर्शन में, उन्होंने इसे गुणानाम साम्य अवस्था प्रलय कहा है। एक बार सृष्टि शुरू हो जाने के बाद, कोई संतुलन नहीं रहता और यह विषम्य अवस्था होती है, विषम्यम का अर्थ है असंतुलन।

प्रकृति त्रिगुणायामी है इसलिये सत्व-रज-तम से ही प्रकृति का जीव से बंधन है। इसलिये कोई भी गुण किसी भी गुण के विस्तार से समाप्त नहीं हो सकता। यह बात अलग है कि किसी समय कोई गुण अधिक हो और किसी समय कोई गुण। किसी एक गुण की वृद्धि से अन्य दो गुण दबे या कम रहते है एवम जो गुण बढ़ा हुआ रहता है, उस समय प्रकृति के अनुसार जीव का व्यवहार उस गुण की बंधन प्रवृति का रहता है।

प्राकृत शक्ति में ये तीनों गुण विद्यमान हैं और हमारा मन इसी शक्ति से निर्मित है इसलिए हमारे मन में तीनों गुण भी उसी प्रकार से विद्यमान होते हैं। इनकी तुलना एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करने वाले तीन पहलवानों से की जा सकती है। इनमें से प्रत्येक एक-दूसरे को परास्त करते रहते हैं और इसलिए कभी-कभी एक शीर्ष पर और कभी दूसरा और कभी तीसरा शीर्ष पर होता है। इस प्रकार से तीनों गुण मनुष्य के स्वभाव पर प्रभाव डालते हैं जो इन तीन गुणों के बीच घूमता रहता है। बाह्य परिवेश, आंतरिक चिन्तन और पिछले जन्मों के संस्कारों के प्रभाव के कारण एक या अन्य गुण हावी होना प्रारम्भ कर देते हैं। इन गुणों में से किसी गुण का प्रभाव कितने समय तक रहता है इसके लिए कोई नियम नहीं है। कोई एक गुण मन और बुद्धि पर एक क्षण की अल्पावधि के लिए या एक घंटे की अवधि या दीर्घ काल तक हावी रह सकता है।

यदि किसी पर सत्व गुण हावी होता है, तब वह मनुष्य शांतिप्रिय, संतोषी, उदार, दयालु, सहायक, सुस्थिर और सुखी हो जाता है। जब रजोगुण की प्रधानता होती है तब कोई मनुष्य कामुक, उत्तेजित और महत्वाकांक्षी हो जाता है। दूसरों की उन्नति से ईर्ष्या करता है और इन्द्रिय सुखों के लिए उत्साह विकसित करता है। जब तमोगुण प्रधान हो जाता है तब मनुष्य पर निद्रा, आलस्य, घृणा, क्रोध, असंतोष, हिंसा और संदेह हावी हो जाते हैं।तीनो गुणों में जो भी गुण अन्य दो गुणों से ज्यादा होगा, जीव का आचरण एवम व्यवहार, मानसिकता, इंद्रियां, मन एवम बुद्धि उसी के अनुसार कार्य करेगी, क्योंकि एक समय मे एक ही गुण क्रियान्वित रहेगा।

यहां यह बात भी सिद्ध होती है कि गुणों में रहने वाले कितने भी महान योगी हो, उन के अंदर पाप और भोग किसी न किसी मात्रा में रह ही जाता है और यदि धारणा या सयम में कोई चूक हो जाए तो योगी से भोगी बनते देर नही लगती। वैसे ही कितना भी बड़ा डाकू या भोगी हो, उस के अंदर सत गुण रहता ही है, कोई भी घटना उस का हृदय परिवर्तन कर के उसे योगी बना सकता है।

यद्यपि तीनो गुणों का परस्पर प्रभाव अलग अलग है किंतु कोई भी अकेले प्रभावित हो, यह सम्भव नही। सत्व गुण सम्पन्न यदि यज्ञ या धार्मिक अनुष्ठान करता है तो वो कर्म से प्रभावित होगा, अतः सत्व गुण में रज गुण का असर होगा ही। इसी प्रकार निरंतर कर्म करना सम्भव नही, उस के आराम करना तम गुण का असर होगा। अतः यदि गुणों पर इंद्रियाओ, मन, बुद्धि का ज्ञान से उपयोग हो तो प्रत्येक गुण जीव को गुणातीत होने का कारण बन सकता है। गुणातीत होना ही मोक्ष का मार्ग है।

उदाहरण से हम इसे इसप्रकार समझने की चेष्टा करते है कि आप को भागवद का निमंत्रण मिला और उस समय आप का सत्व गुण का स्तर बढ़ा हुआ है और आप भागवत सुनने चले गए। सुनते सुनते आप के मन मे ज्ञान का सुख बढ़ा तथा आप भागवत सुनते है इस का अहंकार भी बढ़ गया। इस समय आप का सत्वगुण ज्यादा होने से संसार की वस्तु के प्रति वैराग्य भी उत्पन्न हो गया किंतु तम का प्रभाव आ गया। वहाँ से निकल कर आप व्यापार में आ जाते है, अपने सामान की खरीदी- बिक्री एवम उधारी वसूलने में लग जाते है। आप का सारा वैराग्य अब व्यापार में लग गया और सत्व गुण पर  रजगुण भारी हो गया। व्यापार की गति विधि में आप आर्थिक व्यवहारों एवम उस की उन्नति एवम परिवार की आवश्यकताओ में खो गए और इस बात की चिंता करने लग गए कि ज्यादा से ज्यादा कैसे कमाए। अब आप रज प्रधान गुण में आ गए।

फिर घर पहुचने से पहले आप दोस्त के यहाँ जाते तो वहाँ नाच-गाना एवम पार्टी चल रही होती है। दोस्त आप को उस मे सम्मलित होने को कहता है और आप न नहीं कहते हुए उस मे सम्मलित हो कर शराब, मांस एवम मसालेदार भोजन करते हुए नाच गाना करते है, यहाँ आप पर तम गुण का प्रभाव बढ़ गया और आप अपने कर्तृत्त्व भाव के कर्म घर जाने को भूल कर आमोद- प्रोमोद में लग जाते है। फिर देर से घर आ कर सब से झगड़ा कर के सो जाते है। अब आप तामसी प्रभाव में है। फिर अगले दिन आप की नींद खुलती है और आप को अपनी गलती का  अहसास होता है और आप पुनः ऐसी गलती नहीं करने की कसम खाने लगते है, अर्थात आप का सत्व फिर प्रभाव में आ रहा है।

अतः यह तय है कि तीनों गुण में जो भी गुण प्रभावशाली होगा, आप उस के अनुसार कार्य करेंगे। यदि अच्छे संस्कार न हो, शिक्षा दीक्षा न हो तो सत्व गुण पर बाकी गुण हमेशा भारी रहेंगे। गुणों पर नियंत्रण करने का कार्य इंद्रियाओ, मन बुद्धि का है। गुणों के प्रभाव का भी कोई क्रम भी नही है, कोई भी गुण किन्ही दो गुणों को दबा कर आगे आ सकता है, तीनो गुण समान या कोई दो गुण भी समान रूप से तीसरे गुण से अधिक हो।

गुणों के बार बार परिवर्तन की अधिकता हमारे विभिन्न परिस्थितियों में हमारे स्वभाव और मूड पर हमारे मानसिक नियंत्रण एवम परिपक्वता का परिचायक है। संयम के अभाव में परिस्थितियां गुणों को अधिक प्रभावित करती है, इसे पशुवत भी कहा जा सकता है।

व्यवहार में यह मान कर चले कि मूल स्वरूप में तम गुण की प्रधानता रहती है। जन्म लेते ही हमारे पास दूध पीना, रोना या निवृत होना ही काम रहता है। अतः रज गुण प्रयास से या प्रकृति के स्वभाव से वृद्धि के साथ शुरू हो जाता है। जैसे बीज से पौधा और पौधे से वृक्ष बनता है। किंतु सत्व गुण के अभ्यास और वैराग्य की आवश्यकता है। यह उच्च संस्कार, शास्त्रों की शिक्षा और गुरु एवम सत – संगत से मिलता है। यह सब रज गुण के लिए आवश्यक है किंतु रज में इस का अध्ययन या अभ्यास सांसारिक सुखों के लिए है और अपनी कामना, राग और लालसा के लिए है और यही द्वेष, क्रोध या घृणा आदि के लिए हो तो तामसी प्रवृति भी हो सकती है। इसलिए प्रकृति के गुण में स्वभाव और लक्ष्य से जीव अपने गुण का विकास करता है और तब एक व्यक्ति अंततः जांच करने के लिए आता है। भले ही मुख्य रूप से ज्ञान हो, उसे कोई पछतावा नहीं है, उसने पहले ही कर्म योग के माध्यम से समाज में योगदान दिया है। योगदान दें और फिर वापस ले लें, कोई अपराध बोध नहीं होगा। योगदान के बिना अगर मैं वापस ले लूँ, तो मुझे हमेशा अपराध बोध रहेगा। मैंने दुनिया के लिए क्या किया है? और इसलिए, योगदान दें, वापस लें, सीखें, जानें और मुक्त हों और इसलिए चरित्र को बदला जा सकता है या नहीं; और अंतिम चरित्र जो आवश्यक है वह है: सत्व गुण प्रधान। चौथे अध्याय की भाषा का उपयोग करने के लिए, हम सभी को गुण से ब्राह्मण बनना चाहिए; एक गुण शूद्र से गुण वैश्य, गुण क्षत्रिय से गुण ब्राह्मण।  गुण शूद्र आलसी और स्वार्थी होता है, गुण वैश्य स्वार्थी रूप से सक्रिय होता है और कामना और तृष्णा की ओर बढ़ता है। जब यह गुण लोक पर राज्य करने और अधिपत्य के साथ बढ़े तो क्षत्रिय गुण में प्रवेश करता है ।फिर यही गुण क्षत्रिय निःस्वार्थ भाव से कार्य करता है, तो निस्वार्थ भाव का कर्म उसे  ब्राह्मण गुण अर्थात ज्ञान की खोज करने वाला, अंतर्मुखी या चिंतनशील की और अग्रसर करता है, जिस से उस के कर्म निस्वार्थ और लोकसंग्रह के साथ साथ ज्ञान प्राप्ति के होते है, यही ब्राह्मण धर्म है और प्रत्येक जीव को ब्रह्म तत्व के ब्राह्मण होना होता है।

आगे हम सत्व गुण के बढ़े रहने के लक्षण और विस्तार से पढेंगे।

।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 14.10।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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