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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  14.08 II

।। अध्याय      14.08 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 14.8

तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्‌ ।

प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत॥

*”tamas tv ajñāna-jaḿ viddhi,

mohanaḿ sarva- dehinām..।

pramādālasya- nidrābhis,

tan nibadhnāti bhārata”..।।

भावार्थ: 

हे भरतवंशी! तमोगुण को शरीर के प्रति मोह के कारण अज्ञान से उत्पन्न हुआ समझ, जिसके कारण जीव प्रमाद (पागलपन में व्यर्थ के कार्य करने की प्रवृत्ति), आलस्य (आज के कार्य को कल पर टालने की प्रवृत्ति) और निद्रा (अचेत अवस्था में न करने योग्य कार्य करने की प्रवृत्ति) द्वारा बँध जाता है। (८)

Meaning:

And know tamas to be born of ignorance, deluding all the body dwellers. It binds them through heedlessness, laziness and sloth, O Bhaarata.

Explanation:

Tamas is our state of mind when it is dull and inert. Like a glass of dirty water cannot let light shine through, tamas prevents our mind from thinking clearly. Our mind starts to operate in moha, which means confusion or error, mistaking one thing for another. Tamas can be triggered by an overpowering emotional situation like Arjuna seeing his family members and loved ones on the opposite side of the battlefield. A tamasic state can also be triggered by abusing our sense organs through excessive drinking, smoking, watching TV and so on.

Tamo guṇa is the antithesis of sattva guṇa. Persons influenced by it get pleasure through sleep, laziness, intoxication, violence, and gambling. They lose their discrimination of what is right and what is wrong, and do not hesitate in resorting to immoral behavior for fulfilling their self-will. Doing their duty becomes burdensome to them and they neglect it, becoming more inclined to sloth and sleep. In this way, the mode of ignorance leads the soul deeper into the darkness of ignorance. It becomes totally oblivious of its spiritual identity, its goal in life, and the opportunity for progress that the human form provides.

Tamo guna means there is no clear thinking and also often there is no goal in life; it is just moving along with the current. Since there is no goal and even if goals are there, the priorities are not clear i.e. how much money is important, how much health is important, how much knowledge is important, with regard to all these, there is no clarity and therefore Mōhanam sarvadēhinām; it causes delusion for all those people, and therefore what is the definition of tamō guṇa; mōhanātmakam of the nature of delusion.

After a long and tiring day, when we want to rush to get a good night’s sleep, we get a call from a friend who wants to catch up. Try as we might, we will not be able to understand what he is saying because the mind has switched to a tamasic state due to exhaustion. Our memory does not work properly, and our intellect’s logic is flawed. All we want to do is to rest our head on the pillow. When tamas reaches the height of its potency, we fall asleep.

Shri Krishna says that tamas is born out of ignorance. At its core, tamas keeps the Purusha, the jeeva, body dweller under the delusion that he is the body and not the self. When we forget our true nature as the self, the eternal essence, we assume that our body is who we are. This erroneous notion, this ignorance enables tamas to bind us, to trap us.

Tamas binds us in three ways, through heedlessness, laziness and sloth. Heedlessness is the performance of actions without intellectual focus or awareness. We either perform actions carelessly, such as dialing the wrong phone number, or perform actions that are futile, such as gambling or excessive alcohol consumption. Laziness is postponing or abstaining from our duties. Sloth is lying around in a state of stupor or sleep. Now, there is a place for resting and sleeping in our life, which is at the end of every day. But some of us derive joy from futile actions, from procrastination, from lazing around and so on. It is this joy through which tamas binds us.

।। हिंदी समीक्षा ।।

प्रकृति का तीसरा गुण तम है जिस का शाब्दिक अर्थ अंधकार होता है। तम प्रकृति की निकृष्ट अवस्था है जहाँ ज्ञान का प्रकाश नहीं है। बिना प्रकाश के कुछ भी दृष्यमान नहीं होता। मन एवम बुद्धि से आगे विवेक होता होता। विवेक ज्ञान, भावना एवम अनुभव के आधार होता है जिस के द्वारा निर्णय लेना अर्थात अपने कर्म या व्यवहार को करना संभव है। अतः  तम गुण में ज्ञान के प्रकाश का अभाव होने से जीव प्रकृति के अधीन हो कर इंद्रियाओ एवम मन के वशीभूत हो कर विवेकहीन जीवन जीता है। जड़ पदार्थ से ले कर पशु, पक्षियों एवम असंस्कृत लोगो का जीवन तमोमय होता है। तम गुण से प्रमाद, आलस्य एवम निंद्रा से पहचाना जाता है।

तमोगुण सत्वगुण के विपरीत है। इससे प्रभावित व्यक्ति को निद्रा, आलस्य, नशा, हिंसा और जुआ खेलने जैसे कृत्यों से सुख मिलता है। वे क्या उचित है और क्या अनुचित है में अन्तर करने का विवेक खो देते हैं? वे अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए अनैतिक व्यवहार का आश्रय लेने में भी संकोच नहीं करते। अपने कर्त्तव्यों का पालन करना उनके लिए बोझ बन जाता है और वे उनकी उपेक्षा करते हैं। इसके अतिरिक्त आलस्य और निद्रा के प्रति उनका झुकाव और अधिक बढ़ जाता है। इस प्रकार से तमोगुण आत्मा को अज्ञानता के गहन अंधकार की ओर ले जाता है जिससे यह अपनी आध्यात्मिक पहचान, जीवन के लक्ष्य, मानव के रूप में प्रदत्त आत्म उत्थान के अवसर को भूल जाती है।

तमो गुण का अर्थ है स्पष्ट सोच नहीं होना और अक्सर जीवन में कोई लक्ष्य नहीं होता; बस धारा के साथ बहते रहना। चूँकि कोई लक्ष्य नहीं है और यदि लक्ष्य हैं भी तो प्राथमिकताएँ स्पष्ट नहीं हैं, यानि कि कितना पैसा ज़रूरी है, कितना स्वास्थ्य ज़रूरी है, कितना ज्ञान ज़रूरी है, इन सबके संबंध में स्पष्टता नहीं है और इसलिए मोहनं सर्वदेहिनाम; यह उन सभी लोगों के लिए भ्रम का कारण बनता है और इसलिए तमो गुण की परिभाषा क्या है; मोह की प्रकृति का मोहनात्मकम्।

यह तमोगुण प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा सम्पूर्ण देहधारियों को बाँध देता है। प्रमाद दो तरह का होता है – (1) करने लायक काम को न करना अर्थात् जिस काम से अपना और दुनिया का अभी और परिणाम में हित होता है, ऐसे कर्तव्य कर्मों को प्रमाद के कारण न करना और (2) न करने लायक काम को करना अर्थात् जिस काम से अपना और दुनिया का अभी और परिणाम में अहित होता है, ऐसे कर्मों को करना।

न करने लायक काम भी दो तरह के होते हैं । 1) – व्यर्थ खर्च करना अर्थात् बीड़ी सिगरेट, भाँगगाँजा आदि पीने में और नाटक सिनेमा, खेल आदि देखने में धन खर्च करना और 2) – व्यर्थ क्रिया करना अर्थात् ताश चौपड़ खेलना, अनावश्यक खेलकूद करना, बिना किसी कारण के पशु पक्षी जीव आदि को कष्ट देना, तंग करना, बिना किसी स्वार्थ के छोटेछोटे पेड़ पौधों को नष्ट कर देना आदि व्यर्थ क्रियाएँ करना।

आलस्य भी दो प्रकार का होता है – (1) सोते रहना, निकम्मे बैठे रहना, आवश्यक काम न करना और ऐसा विचार रखना कि फिर कर लेंगे, अभी तो बैठे हैं – इस तरह का आलस्य मनुष्यको बाँधता है और (2) निद्रा के पहले शरीर भारी हो जाना, वृत्तियों का भारी हो जाना, समझने की शक्ति न रहना – इस तरह का आलस्य दोषी नहीं है क्योंकि यह आलस्य आता है, मनुष्य करता नहीं।

निद्रा भी दो तरह की होती है — (1) आवश्यक निद्रा – जो निद्रा शरीर के स्वास्थ्य के लिये नियमित रूप से ली जाती है और जिस से शरीर में हलकापन आता है, वृत्तियाँ स्वच्छ होती हैं, बुद्धि को विश्राम मिलता है, ऐसी आवश्यक निद्रा त्याज्य और दोषी नहीं है। भगवान् ने भी ऐसी नियमित निद्रा को दोषी नहीं माना है, प्रत्युत योगसाधन में सहायक माना है और (2) अनावश्यक निद्रा – जो निद्रा निद्रा के लिये ली जाती है, जिस से बेहोशी ज्यादा आती है, नींद से उठने पर भी शरीर भारी रहती है, वृत्तियाँ भारी रहती हैं, पुरानी स्मृति नहीं होती, ऐसी अनावश्यक निद्रा त्याज्य और दोषी है। इस अनावश्यक निद्रा को भगवान् ने भी त्याज्य बताया है ।इस तरह तमोगुण प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा मनुष्य को बाँध देता है अर्थात् उसकी सांसारिक और पारमार्थिक उन्नति नहीं होने देता।

तमोगुण अज्ञानजनित है तमोगुण के प्रभाव से सत्य और असत्य का विवेक करने की मनुष्य की बौद्धित क्षमता आच्छादित हो जाती है और फिर वह किसी संभ्रमित या मूर्ख व्यक्ति के समान व्यवहार करने लगता है। भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह तमोगुण जीवन के सत्य और दिव्य लक्ष्य के प्रति अनेक मिथ्या धारणाओं एवं मिथ्या आग्रहों को जन्म देकर मनुष्य को निम्न स्तर का जीवन जीने को बाध्य करता है। इसके वशीभूत होकर मनुष्य प्रमाद (असावधानी) और आलस्य (कार्य को टालते रहने की प्रवृत्ति) का शिकार बन जाता है। जीवनादर्शों और दिव्य महात्वाकांक्षाओं के प्रति मानो वह सुप्त रहता है। तमोगुणी पुरुष में न लक्ष्य की स्थिरता होती है और न बुद्धि की प्रतिभा उसमें न भावनाओं की कोमलता होती है और न कर्मों की कुशलता।

प्रमाद, आलस्य एवम निंद्रा गुण प्रतीक के जिस में जीने का अर्थ के खाओ, पियो और मौज करो। इन्हें भौतिक पदार्थो के प्रति इतना लोभ हो जाता है कि उसे प्राप्त करने के लिये नैतिकता नाम की कोई बंधन को स्वीकार नही करता था। दया, प्रेम एवम सहकार्य को त्याग कर स्वार्थ, लोभ एवम बल के प्रयोग से यह हिंसा में किसी की भी हत्या भी कर सकता है। इन के कर्तव्य या धर्म की परिभाषा इन की कामनाओं के अनुरूप हो कर बदलती रहती है। इन्हें असुर भी कहा जाता है एवम जो भी इन्हें भोजन, वस्त्र या गृह बिना कर्म किये दिलाने का वादा करे तो यह उस के उस के साथ हो कर किसी भी प्रकार नैतिक या अनैतिक कार्य करने को तैयार रहता है। इन के वाद विवाद तर्क या ज्ञान से रहित स्वार्थ से भरे रहते है। यदि इसे अतिशयोक्ति न समझे तो व्हाट्सएप्प या ट्विटर पर अनर्गल बातों का प्रचार या प्रसार करना, बिना सोचे समझे संदेशों को  आगे भेजना तमो अथवा गलत या सही पर विचार किये बिना गलत व्यक्ति को समर्थन देना तमो गुण के ही लक्षण है।

प्रकृति के यह तीनो गुण पृथक पृथक अवश्य बताएं गए है किंतु किसी जीव में ये तीनों गुण मिश्रित अवस्था में रहते है। इसलिए किसी कार्य को करते वक्त विवेक और कर्मठता का पालन करते समय यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि कोई कार्य पूर्ण स्वार्थ, किसी को हानि पहुंचाने के उद्देश्य या निषिद्ध कार्य तो नही है। यदि कार्य करते वक्त रिश्वत भी दे रहे हो अवैध कार्य के लिए तो नही दे रहे। क्योंकि जब सत्व या रज गुणी किसी तम गुणी से व्यवहार करेगा तो उसे नीतिगत उस कार्य को पूर्ण करने के व्यवहार तम गुणी के अनुसार ही करना होगा। चाणक्य नीति से शत्रु से सात्विक व्यवहार से नही जीता जा सकता, इसलिए लोकसंग्रह या स्वार्थ रहित निष्काम कर्म हेतु यदि राजसी व्यवहार में कोई कार्य विवेक पूर्ण किया जाए तो वह तमो गुण का कार्य नहीं कहलाता। गुण कार्य में नही, कर्म करने वाले के आसक्ति, कामना और अहंकार से निर्धारित होता है।

तीनों गुण के क्या प्रभाव एवम बन्धन है और यह सब गुण क्या करते हैं, इस को आगे के श्लोक में पढ़ते हैं।

।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 14.08।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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