।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 14.07 II।। अध्याय 14.07 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 14.7॥
रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् ।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम्॥
“rajo rāgātmakaḿ viddhi,
tṛṣṇā-sańga-samudbhavam..।
tan nibadhnāti kaunteya,
karma-sańgena dehinam”..।।
भावार्थ:
हे कुन्तीपुत्र! रजोगुण को कामनाओं और लोभ के कारण उत्पन्न हुआ समझ, जिसके कारण शरीरधारी जीव सकाम-कर्मों (फल की आसक्ति) में बँध जाता है। (७)
Meaning:
Know rajas to be of the nature of passion, the source of thirst and attachment. It binds the body dweller by attachment to action, O Kaunteya.
Explanation:
It is of the nature of attachment and passion; a rājasic mind is highly extrovert; and it always wants to relate with things and people. The nature of rajō guṇa is that the mind is always extrovert, and it always wants to have relationship with things and people. If satva is nivr̥ttiḥ pradhāna, seclusion and withdrawal; rajas make a person pravr̥tti pradhāna; interested in companionship; in people, in relationship, in interaction. And it never loves quietitude; all the time it wants to talk to someone or the other.
Rāgā means relationship, attachment, passion.Since it is an extrovert mind, a restless mind, a dynamic mind, it has got lot of ambitions and wants to achieve; always wants to achieve something or the other. It is an ambitious mind and therefore it has tṛṣṇa; tṛṣṇa means desire for external thing; Lot of possession and lot of people.
The mode of passion fuels the lust for sensual enjoyment. It inflames desires for mental and physical pleasures. It also promotes attachment to worldly things. Persons influenced by rajo guṇa get engrossed in worldly pursuits of status, prestige, career, family, and home. They look on these as sources of pleasure and are motivated to undertake intense activity for the sake of these. In this way, the mode of passion increases desires, and these desires further fuel an increase of the mode of passion. They both nourish each other and trap the soul in worldly life.
Rajas is our state of mind when it is agitated, like a glass of water that is being stirred. Imagine that we have to attend an extremely important meeting at 5 PM. It is 4:50 PM and the taxi is stuck in a traffic jam. Our mind will be in a state of rajas. A series of thoughts will suggest that we wait in the car, while another series of thoughts will suggest that we leave the taxi and start walking. Whenever our mind is agitated by a thought that propel us to act, we are in a state of rajas.
Shri Krishna says that rajas create trishnaa or thirst for what we do not possess, and sanga or attachment towards what we already possess. Furthermore, rajas create a vicious cycle. It fuels our desires, creates thoughts that compel us to act so that we can acquire objects, then it creates attachment to those objects which further increases rajas. Typically, rajas dominate our mind from sunrise until sunset.
To understand how rajas can bind, consider the case of a multi- millionaire who has recently married his young girlfriend. The millionaire is self-sufficient and does not need to work to support himself. But his wife’s brothers, relatives, friends and acquaintances slowly approach him for capital to start their business, connections to get them jobs, advice on their career and so on. Soon, the millionaire ends up working all day, every day. Even though the millionaire does not need to move a finger, he gets bound by his relationship to his wife.
Similarly, even though the self, the “I” does not act, rajas bind the self through attachment to action and its results. It makes us say “I am the doer” and “I am the enjoyer” whereas it is actually Prakriti that is acting and providing the results. Karma yoga helps us come out of this bondage and entrapment. It teaches us to continue to act in this world but do it in a way that removes our identification with Prakriti. We slowly start submitting the results of our actions to Ishvara, then we slowly start letting Ishvara take over the doership of our actions as well.
The way to break out of this is to engage in karm yog, i.e. to begin offering the results of one’s activities to God. This creates detachment from the world and pacifies the effect of rajo guṇa.
।। हिंदी समीक्षा ।।
परब्रह्म अकेला ही था। उसे एक से अधिक होने का संकल्प लिया और सृष्टि की रचना हुई। उस की यह इच्छा ही रजोगुण तत्व है। हम कह सकते है कि प्रकृति साम्यावस्था में अव्यक्त एवम सूक्ष्म होती है। जब उस के व्यक्त होने की इच्छा जन्म लेती है तो इन तीनो गुणों में हलचल शुरू हो जाती है। यही प्रकृति जीव के संयोग से विभिन्न पदार्थो की रचना करती है। अव्यक्त से व्यक्त सृष्टि की रचना ही रजोगुण है क्योंकि उस मे इच्छा तत्व छुपा है। यह इच्छा क्यों है इसे कोई नही जानता।
अतः हम यह कह सकते है कि सत्व गुण में जीव को अपने और प्रकृति की भिन्नता का ज्ञान होने से कर्म या उस के फल पर आसक्ति नही रहती। किन्तु उसे ऐष्वर्य प्राप्त है और वह सुखी भी है इसलिये प्रकृति से बंधा रहता है।
किन्तु प्रकृति की क्रियाशीलता एवम विस्तार के लिये आसक्ति, तृष्णा एवम संग आवश्यक है। यह होने से ही प्रकृति जीव को बांध कर अपने हिसाब से नचा सकती है। कुछ लोग जब गीता को ले कर प्रश्न करते है कि जब फल की इच्छा ही नही रहेगी तो वह कर्म किसलिये करेगा एवम कैसे प्रेरित होगा। इस का जवाब यही है कि उस ने प्रकृति के आनन्द को ही सर्वोपरि माना है। यहां के संबंधों में अपने को आसक्त रखा है एवम तृष्णा के कारण ही कर्म करता है क्योंकि वह रजोगुण प्रधान प्राणी है। अप्राप्त वस्तुकी अभिलाषाका नाम तृष्णा है और प्राप्त विषयों में मन की प्रीतिरूप स्नेह का नाम आसक्ति है, इन को तृष्णा और आसक्ति की उत्पत्ति के कारण रूप रजोगुण को रागात्मक जानना चाहिए। उस के ज्ञान का अर्थ तृष्णा, गति एवम संग अर्थात आकर्षण ही है। वह मंदिर जाता है, पूजा करता है, दान धर्म भी करता है, अपना व्यवसाय भी करता है, ध्यान, मनन, भजन सब करता है किंतु सब इस संसार मे पाने की लालसा या कामना के साथ, उस की सुख भी इसी लोक में प्रकृति जनित चाहिये क्योंकि उसे प्रकृति ने जकड़ लिया है और उस का कर्तृत्त्व भाव उस के अहम से उसे मुक्त नहीं होने दे रहा। उसे मुक्ति या मोक्ष सिर्फ बातों तक ही चाहिये, वास्तव में वह प्रकृति के साथ ही जीना चाहता है।
रजोगुण इन्द्रिय सुखों के लिए वासना को भड़काता है। यह शारीरिक और मानसिक सुखों के लिए कामनाओं को बढ़ाता है। यह सांसारिक पदार्थों में आसक्ति बढ़ाता है। रजोगुण से प्रभावित होकर मनुष्य पद, प्रतिष्ठा, भविष्य, परिवार और गृहस्थ के सांसारिक कार्यों में व्यस्त हो जाता है। वह इन्हें सुख के स्रोत के रूप में देखता है और इनकी प्राप्ति के प्रयोजन हेतु अथक परिश्रम करने के लिए प्रेरित होता है। इस प्रकार से रजोगुण कामनाओं को बढ़ाता है। ये कामनाएँ आगे और अधिक भड़कती हैं। ये दोनों एक-दूसरे का पोषण करते हैं और आत्मा को सांसारिक जीवन के जाल में फंसा देते हैं।
यह आसक्ति और जुनून की प्रकृति का है; राजसिक मन अत्यधिक बहिर्मुखी होता है; और यह हमेशा चीजों और लोगों से संबंध बनाना चाहता है। रजो गुण की प्रकृति यह है कि मन हमेशा बहिर्मुखी होता है और यह हमेशा चीजों और लोगों से संबंध बनाना चाहता है। यदि सत्व निवृत्ति: प्रधान, एकांत और वापसी है; तो राजस व्यक्ति को प्रवृत्ति प्रधान बनाता है; संगति में रुचि रखता है; लोगों में, रिश्तों में, बातचीत में। और यह कभी भी शांति पसंद नहीं करता; हर समय यह किसी न किसी से बात करना चाहता है। राग का अर्थ है संबंध, लगाव, जुनून। चूँकि यह बहिर्मुखी मन है, चंचल मन है, गतिशील मन है, इस में बहुत सारी महत्वाकांक्षाएँ हैं और यह कुछ न कुछ पाना चाहता है। यह महत्वाकांक्षी मन है और इसलिए इसमें तृष्णा है। तृष्णा का अर्थ है बाहरी चीज़ों की इच्छा, बहुत सारा अधिकार और बहुत सारे लोग। फिर कुछ नहीं छूटता, फिर चाहे बचपन की अनुपयोगी वस्तु हो, काम करने की आदत या कुछ न कुछ प्राप्त करने की लालसा। वह अकेला भी नहीं रह सकता।
रजोगुण रागात्मक है यानि राग का कारण स्वरूप है। स्त्री- पुरुष के परस्पर मिलन से उत्पन्न आकर्षण को राग कहते है। रजोगुण में तृष्णा एवम आसक्ति भी है। इसलिये पुत्र, मित्र, भाई, दामाद आदि संबंधों को अपने संग जोड़ता है और विषयक स्पृहा या संग तैयार करता है। इसलिये उस के प्रत्येक कर्म राग, तृष्णा आसक्ति एवम स्पृहा से प्रेरित होते है। इसलिये वह कर्मो से अपने को बांधता है और जन्म- मरण के चक्रव्यूह में फसा रहता है।
कामना और आसक्ति से रजोगुण बढ़ता है तथा रजोगुण से कामना और आसक्ति बढ़ती है। इन का परस्पर बीज और वृक्ष की भांति अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। बीज से वृक्ष उत्पन्न होता है और बीज भी वृक्ष से ही बनता है।
रजोगुण उत्पन्न होने से कर्ता भाव आ जाता है जिस से वह हर कर्म को कर्तृत्त्व भाव से करने लगता है एवम कर्म फल के प्रति आसक्त रहता है।
प्रवृत्ति अर्थात् क्रिया करने का भाव उत्पन्न होने पर भी गुणातीत पुरुष का उस में राग नहीं होता। तात्पर्य यह हुआ कि गुणातीत पुरुष में भी रजोगुण के प्रभाव से प्रवृत्ति तो होती है, पर वह रागपूर्वक नहीं होती। गुणातीत होने में सहायक होने पर भी सत्त्वगुण को सुख और ज्ञान की आसक्ति से बाँधनेवाला कहा गया है। इस से सिद्ध होता है कि आसक्ति ही बन्धनकारक है, सत्त्वगुण स्वयं नहीं।
रजोगुण कर्मों की आसक्ति से शरीरधारी को बाँधता है अर्थात् रजोगुण के बढ़ने पर ज्योंज्यों तृष्णा और आसक्ति बढ़ती है, त्यों ही त्यों मनुष्य की कर्म करने की प्रवृत्ति बढ़ती है। कर्म करने की प्रवृत्ति बढ़ने से मनुष्य नयेनये कर्म करना शुरू कर देता है। फिर वह रातदिन इस प्रवृत्ति में फँसा रहता है अर्थात् मनुष्य की मनोवृत्तियाँ रातदिन नये नये कर्म आरम्भ करने के चिन्तन में लगी रहती हैं। ऐसी अवस्था में उस को अपना कल्याण या उद्धार करने का अवसर ही प्राप्त नहीं होता। इस तरह रजोगुण कर्मों की सुखासक्ति से शरीरधारी को बाँध देता है अर्थात् जन्ममरण में ले जाता है। अतः साधक को प्राप्त परिस्थिति के अनुसार निष्कामभाव से कर्तव्य कर्म तो कर देना चाहिये, पर संग्रह और सुखभोग के लिये नये नये कर्मों का आरम्भ राग पूर्वक नहीं करना चाहिये।
रजोगुण कोई अवगुण नही है। रजोगुण कर्मठता का प्रतीक है। व्यक्ति लाभ के किसी भी हद्द तक परिश्रम करने को तैयार रहता है, उसे लालसा सम्मान, धन, परिवार आदि की रहती है जिस के लिये वो कर्म करने को तैयार रहता है। वो किसी को नुकसान नही करता। इसलिये रजोगुण कर्मशीलता, तृष्णा, आसक्ति एवम संग का प्रतीक है, इसे रक्त या लाल रंग से पहचाना जाता है।
देह से जीव क्रियाशील और कर्म करने योग्य है। सत्व गुण और रज गुण उस की क्रियाशीलता को करते है। दोष इन गुणों के लालसा, आसक्ति, बंधन और राग में है। निष्काम हो लोकसंग्रह हेतु करने की प्रेरणा का उद्देश्य इन के अवगुणों से दूर रह कर कर्म करते रहने में सहायक होता है।इस जाल को काटने का मार्ग भक्तियोग में तल्लीन होना है अर्थात अपने कर्म-फल भगवान को अर्पित करना आरम्भ करना है। यह संसार से विरक्ति उत्पन्न करता है और रजोगुण के प्रभाव को शांत करता है।
तमोगुण का स्वरूप और उसके बाँधने का प्रकार क्या है, इसको आगे के श्लोक में पढ़ते हैं।
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 14.07।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)