।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 14.06 II Additional II
।। अध्याय 14.06 II विशेष II
।। प्रकृति त्रय गुण विचार -2 ।। गीता विशेष 14.6 ।।
पूर्व के अध्याय में हम ने जड़ और चेतन को पढ़ा, जब चेतन तत्व परब्रह्म का अंश है तो उसे नित्य, साक्षी, अकर्ता और अभोक्ता कहा गया। फिर इस जड़ प्रकृति में जो सुख और दुख का अहसास होता है या कर्म बंधन आदि से ले कर पुनर्जन्म की बाते है तो वह कौन हो सकता है?
भगवान कृष्ण ने परिचय दिया है और परिचयात्मक भाग में हमने देखा कि प्रत्येक व्यक्ति दो भागों का मिश्रण है; एक को साक्षी-अंश कहा जाता है, जो व्यक्ति का उच्चतर भाग है और दूसरा अहंकार-अंश है, जो व्यक्ति का निम्नतम भाग है। इन दो भागों में से, साक्षी भाग (उच्चतर भाग) में केवल चेतना होती है जो शुद्ध चैतन्यम है; जबकि अहंकार (निम्नतम भाग) में दो चीजें होती हैं, एक जड़- शरीर- मन- जटिल है, जो अहंकार का हिस्सा है, और यह जड़- शरीर- मन- जटिल, प्रतिबिंबित चेतना या उधार ली गई चेतना का आनंद लेता है और उस के कारण, शरीर- मन- जटिल संवेदनशील बन गया है। अतः शुद्ध चेतन को हम चेतन्य कह सकते है और उस के प्रतिबिंब में जो अहंकार में क्रियाशील है उसे चेतन कह सकते है।
तो यदि साक्षी मूल चेतना का नाम है; अहंकार शरीर- मन- जटिल और प्रतिबिंबित या उधार ली गई चेतना का नाम है। अहंकार शरीर- मन जटिल है, शरीर- मन जटिल प्रकृति है, अहंकार सगुण है। अहंकार चेतना तो है; लेकिन आंतरिक रूप से चेतना नहीं बल्कि इस ने उधार लिया हुआ चेतनात्व प्राप्त कर लिया है। तो अब इस शरीर को उधार ली गई चेतना मिल गई है; इसलिए यह एक जीवित शरीर है। यह प्रकृति है लेकिन एक जीवित प्रकृति है। इसी तरह, मन भी सूक्ष्म पदार्थ से ही बना है; केवल सूक्ष्म तत्वों से और इसलिए मन भी आंतरिक रूप से अचेतन है; लेकिन मन किस के कारण चेतन बना है? उधार ली गई चेतना, जिसे तकनीकी रूप से चिदभास कहा जाता है। तो इस प्रकार हमें एक जीवित शरीर मिला है; उधार ली गई चेतना के साथ, हमें एक जीवित मन मिला है। संक्षेप में, हमें एक जीवित प्रकृति मिली है, प्रकृति का अर्थ है शरीर मन परिसर, उधार ली गई चेतना के साथ।
बुद्धि और अहंकार उत्पन्न होने से पहले प्रकृति अखंडित और निरवयव थी। किंतु जब इस मूल और अवयव रहित एक ही प्रकृति में इन गुणों का प्रदुर्भाव हो जाता है, तब उसी को विविध और अवयव सहित द्रव्यात्मक व्यक्त रूप प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार अहंकार से मूल प्रकृति में भिन्न भिन्न पदार्थ बनने की शक्ति भी आ जाती है। यह वृद्धि को हम दो भागो में बांटते है।
1) पेड़, मनुष्य आदि सेन्द्रिय प्राणियों की सृष्टि
2) निरिंद्रीय पदार्थो की सृष्टि
सेन्द्रिय प्राणियों के जड़ देह का समावेश जड़ यानी निरिंद्रिय सृष्टि में होता है, इसलिए इंद्रिय शब्द का अर्थ इंद्रियवान प्राणियों की इंद्रिय शक्ति से लेना चाहिए। जड़ देह का समावेश निरिंद्रिय सृष्टि में है, इसलिए इंद्रिय विचार सांख्य में देह और आत्मा को छोड़ कर इंद्रियों के साथ किया गया है, इसलिए इन्हे इंद्रिय शक्ति कहते है।
संपूर्ण सृष्टि की रचना में सेन्द्रिय और निरिंद्रिय इंद्रियों के अतिरिक्त किसी तीसरे पदार्थ की आवश्यकता नहीं है। सेन्द्रिय इंद्रियों को शक्ति में हम पांच ज्ञान इंद्रियां, पांच कर्म इंद्रियां और मन को सम्मलित करते है। मन इन इंद्रियों का अधिनायक है, जिसे इन इंद्रियों की क्रियाओं का ज्ञान होता है।
निरिंद्रिय में हम दो भाग करते है, इस का प्रथम भाग इंद्रिय शक्ति है, जिसे शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध की तन्मात्राये कहते है, यह भी इंद्रिय शक्ति ही है।
जड़ स्वरूप में निरिंद्रीय में पंच महाभूत आते है, जिन्हे हम पृथ्वी, आकाश, जल, अग्नि और वायु के नाम से जानते है। जीव का देह इन्ही पांच भौतिक जड़ पदार्थ से बना है।
ज्ञानेद्रीय पांच है और निरिंद्रिय के पांच गुण है, अतः प्रत्येक ज्ञानेद्रिय में निरिंद्रीय के एक एक गुण का समावेश होता है। कोई भी ज्ञानेद्री अपने गुण के अतिरिक्त अन्य के गुण का कार्य नहीं करती। प्रत्येक इंद्रिय की अपनी एक विशिष्टता होती है, वह जो क्रिया करती है, वह अन्य इंद्रियां नही कर सकती। जैसे आंख से हम देख सकते है, किंतु सूंघ या सुन नही सकते।
मूलतः पांच ज्ञान इंद्रियां, पांच कर्मेंद्रियां, मन, पांच निरिंद्रियो के गुण और पांच निरिंद्रियों के जड़ पदार्थ का समावेश बुद्धि युक्त अहंकार के होता है तो प्रकृति के स्वरूप में जीव दृश्यमान हो जाता है। मन ज्ञानेद्रियो और कर्मेंद्रियो का अधिनायक है, इसलिए वह इन के साथ बुद्धि के सम्मुख उस के आदेशानुसार काम करने को तैयार रहता है।
इंद्रिय शक्ति जिसे हम ने देह रहित पांच ज्ञानेद्रियो, पांच कर्म इंद्रियों और मन के साथ पांच निरिंद्रियो के गुण के साथ पढ़ा, सात्विक गुणों से युक्त होती है, जब ही निरिंद्रिय के पांच जड़ पदार्थ तामसी गुणों से युक्त होते है। जीव में यही सात्विक और तामसी गुणों के मध्य की स्थिति राजसी होती है। इसलिए सात्विक – राजसी – तामसी गुणों के संतुलन में यह देह द्वारा प्रकृति व्यापार करती है।
देह के बाद संपूर्ण होने के बाद अहंकार से विभिन्न प्रकार के जीव की रचना होती है, अहंकार तत्व इन इंद्रियों की अलग अलग परिमाण को निश्चित करता है, क्यों की मन बुद्धि के आधीन है और बुद्धि अपने संकल्प और विकल्प से बंधी हुई है, जिसे हम संस्कार भी कह सकते है, जीव के क्रियाओं और स्वरूप का संचालन करती है। इंद्रियों को शक्ति कहा गया है। उपनिषदों में इंद्रियों को “प्राण” भी कहा गया है। इन की संख्या सात, दस, ग्यारह, बारह और कहीं कही तेरह भी कही गई है, परंतु शंकराचार्य जी वेदांत सूत्रों में ग्यारह निश्चित कर के भेद का समाप्त किया।
क्योंकि इंद्रियों के व्यापार से क्रियाएं होती है, इसलिए प्राण तत्व को तत्व को सांख्य योग में भिन्न तत्व नहीं माना किंतु वेदांत ने पुरुष और प्रकृति को परमब्रह्म का अंश मानते हुए स्वतंत्र तत्व नहीं माना। इसलिए सांख्य और वेदांत में इसी स्थान पर जो भी अंतर है, उस के अतिरिक्त दोनो एक ही मत का समर्थन करते है।
इस प्रकार ब्रह्मांड के वंश वृक्ष को हम जान सकते है
1) पुरुष 2) प्रकृति – दोनो अव्यक्त, अनादि। प्रकृति सत्व, रज और तम गुणी।
3) महान अथवा बुद्धि (अव्यक्त एवम सूक्ष्म)
4) अहंकार (व्यक्त एवम सूक्ष्म)
5 – 15) सात्विक इंद्रिय शक्ति, व्यक्त एवम सूक्ष्म – पांच ज्ञानेंद्री, पांच कर्मेंद्री, मन
16 – 25) सात्विक निरिंद्रिय शक्ति अर्थात पांच तन्मात्राये और तामसी पांच महाभूत
सांख्य के यह 25 तत्व है। इस में पुरुष और प्रकृति को छोड़ कर सांख्य सभी तत्वों को प्रकृति – विकृति कहते है। वेदांत पुरुष और प्रकृति को परमब्रह्म का ही अंश मानते है, इसलिए उन के लिए मूल तत्व परमब्रह्म ही है। यह ध्यान रहना चाहिए प्रकृति अपनी साम्य अवस्था में तीनो गुणों सहित उदासीन, अनादि और नित्य है, इसलिए प्रलय काल में प्रकृति अपने समस्त विस्तार को समेट कर मूल अवस्था में चली जाती है और विसर्ग अवस्था में इस के गुणों में हलचल होने से पुनः विस्तार होता है।
गीता में प्रकृति के सात वर्गीकरण में महान(बुद्धि), अहंकार और पांच तन्मात्राए है जिस में मन को जोड़ का अष्टधा प्रकृति कहा गया है। मन में ही कर्म और ज्ञानेद्रियो को शामिल किया गया है।
आधुनिक विज्ञान शास्त्र में अंड या। बिम्ब में जीव के विकास ने पंच भूतो के विकास का कारण त्वचा कहा गया है जो आंख, कान और मुंह, नाक में परिवर्तित होती है, इस में सांख्य को कोई मत भेद नहीं है। किंतु विज्ञान का मत, त्वचा से सब विकसित होता है तो प्रश्न यह भी है यह पंख वालो कीड़ों पर कैसे लागू होगा।
सृष्टि की रचना का विचार प्रकृति के गुणों के विस्तार को समझने के आवश्यक है। इंद्रिय शक्ति और देह का निर्णय अहंकार और बुद्धि के संकल्प और पुरुष से सूक्ष्म लिंग शरीर पर निर्भर है। यह लिंग का सूक्ष्म शरीर पूर्व जन्मों के कर्मो के फल और संस्कार पर तय होता है। समस्त क्रिया प्रकृति करती है और पुरुष अज्ञान में अपने आप को कर्ता समझने लगता है।
अव्यक्त प्रकृति में क्रिया शीलता तो बुद्धि से उत्पन्न हो जाती है किंतु वह क्रियाशील हो कर भी कुछ कार्य नही कर सकती, पुरुष अकर्ता और उदासीन हो कर साक्षी मात्र है, वह किसी भी क्रिया को करने में असमर्थ है। अतः से देह मिलने से वह कार्य कर पाता है। इसलिए दोनो की जोड़ी को लंगड़े और अंधे की जोड़ी कहते है। पुरुष के कंधे पर सवार हो कर प्रकृति समस्त क्रियाएं करती है।
संस्कृत भाषा में गुण शब्द के दो अर्थ हैं; एक अर्थ है गुण या विशेषता। और दूसरा अर्थ है ‘रस्सी’ या बेड़ी। तो गुण शब्द ही संकेत देता है कि यह एक ऐसी रस्सी है जो आपको संसार से बांध देगी और जो आपको कभी भी स्वतंत्र व्यक्ति नहीं बनने देगी। इसलिए, आपको तीन गुणों की बेड़ियों को तोड़ना होगा और मोक्ष की स्वतंत्रता की खोज करनी होगी। गुणों को समझने के लिए पांच प्रकार से अलग अलग कर के गुण को समझेंगे। ये पांच प्रकार है, ये पाँच विषय हैं। लक्षणम्, बंधन, लिंगम्, गति और फलम्। लक्षण तो गुण है, किंतु प्रकृति का कोई भी गुण बंधन रहित नही है। तो यह लिंग शरीर के चारो और कैसा बंधन तैयार करता है जिस से जीव की क्या गति होगी। गति अर्थात दशा और फिर किस गुण के अंतर्गत कार्य करने से क्या फल मिलते है।
इस अज्ञान का आभास सात्विक गुणों में होता अवश्य है किंतु गुण भी प्रकृति है, अत: मुक्त होने के लिए गुणातीत ही होना पड़ता है। इसलिए कहा जाता है कि इन तीनों से परे शुद्ध सत्व है जो सत्वगुण की चरम अवस्था है। यह भगवान की दिव्य शक्ति का गुण है जो प्राकृत शक्ति से परे है। जब आत्मा भगवद्प्राप्ति कर लेती है तब भगवान अपनी कृपा से आत्मा को शुद्ध सत्व प्रदान करते हैं तथा इन्द्रिय, मन और बुद्धि को दिव्य बनाते हैं।
।। हरि ॐ तत् सत् ।। गीता विशेष भाग 2 – 14.06 ।।
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