।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 14.06 II
।। अध्याय 14.06 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 14.6॥
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् ।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ॥
“tatra sattvaḿ nirmalatvāt,
prakāśakam anāmayam..
sukha-sańgena badhnāti,
jñāna-sańgena cānagha”..।।
भावार्थ:
हे निष्पाप अर्जुन! सतोगुण अन्य गुणों की अपेक्षा अधिक शुद्ध होने के कारण पाप-कर्मों से जीव को मुक्त करके आत्मा को प्रकाशित करने वाला होता है, जिससे जीव सुख और ज्ञान के अहंकार में बँध जाता है। (६)
Meaning:
Of these, sattva is pure, bright and healthy. It binds through attachment to joy and attachment to knowledge, O sinless one.
Explanation:
In simple terms, our mind is in a state of sattva whenever we experience joy, peace and calmness. We are alert, our mind is able to think very logically, we are able to grasp the most complex statements that we read or hear, and we don’t feel the need to rush out into the world.
The word prakāśhakam means “illuminating.” The word anāmayam means “healthy and full of well-being.” By extension, it also means “of peaceful quality,” devoid of any inherent cause for pain, discomfort, or misery. The mode of goodness is serene and illuminating. Thus, sattva guṇa engenders virtue in one’s personality and illuminates the intellect with knowledge. It makes a person become calm, satisfied, charitable, compassionate, helpful, serene, and tranquil. It also nurtures good health and freedom from sickness. While the mode of goodness creates an effect of serenity and happiness, attachment to them itself binds the soul to material nature.
Shri Krishna says that sattva refers to purity, brightness and health. Our mind can be compared to the water in a glass cup. When the pond is free from agitation, and all the dirt has settled down, it is crystal clear and is able to reflect light beautifully. Similarly, when our mind is in a state of sattva, there is absence of dirt in the form of selfish desires. There is brightness because it is able to reflect the light of the self, the awareness of the self, without any hinderance. There is health because it enables us to get as close to our natural state of joy as is possible in the human body.
Now, no matter how enjoyable or pleasant this state is, Shri Krishna reminds us that sattva has the ability to bind us, to trap us, because anyone would like to remain in a state of joy and calmness. Furthermore, if we foresee that this state will go away, we would like to hold on to this state of joy tightly and not let it go. Sattva can also bind us through attachment to knowledge. Since sattva enables our mind to accumulate more and more worldly knowledge, read more books, attain more academic qualifications, and ultimately pump up our ego, we get attached to it even more.
Why is sattva able to bind us to joy and knowledge? We mistake the joy provided by sattva because we have not experienced what real joy is. That can only happen in meditation when we are able to access the joy that is inherent in the “I”, in the self. All other joys are in the realm of Prakriti – temporary, perishable, and illusory. True joy is in the subject, the “I”, not in the object. Sattva, though preferable to rajas and tamas, is to be used for getting us closer to the goal of liberation, and has to be ultimately discarded, just like the fire is turned off after we cook our meal.
।। हिंदी समीक्षा ।।
प्रकाशकम’ शब्द का अर्थ ‘प्रकाशित करना’ है। ‘अनामयम्’ शब्द का अर्थ ‘स्वास्थ्य और अच्छाइयों से युक्त होना है।’ विस्तृत रूप से इसका अर्थ है-‘शांत स्वभाव’ अर्थात पीड़ा के आंतरिक कारणों, असहजता या दुखों से रहित होना है। सत्वगुण शांत और प्रकाशवान है। सत्वगुण किसी के व्यक्तित्व में सद्गुण उत्पन्न करते हैं और बुद्धि को ज्ञान से आलोकित करते हैं। यह मनुष्य को स्थिर, संतुष्ट, दानी, दयालु, सहायक, और शांत बनाते हैं। यह उत्तम स्वास्थ्य बनाए रखते हैं और हमें रोग मुक्त करते हैं। सत्वगुण शांति और प्रसन्नता के कारण उत्पन्न होते हैं और इनमें आसक्ति होने से ये आत्मा को प्राकृत शक्ति के बंधन में डालते हैं।
अष्टधा प्रकृति के मन, बुद्धि एवम अहंकार तीन सूक्ष्म एवम अव्यक्त तत्व है। बुद्धि से प्रकृति की शुद्धता का ज्ञान प्राप्त होने से जीव का मन निर्मल, स्वच्छ एवम शांत हो जाता है जिस से जीव को अपने प्रकृति के बंधन का ज्ञान होने लगता है। वह ज्ञानी एवम सुखी महसूस करता है इसे ही सत्व गुण कहा गया है। किंतु सत्त्व गुण प्रकृति ही है इसलिये सुख की खोज जीव सत्व को जानने के बाद भी प्रकृति में खोजता है। उसे लगता है कि वह ज्ञान में आगे एवम अन्य से श्रेष्ठ है। अक्सर वैज्ञानिक, दार्शनिक या ब्रह्म पूजक ब्राह्मण आदि इस गुण से प्रभावित हो कर अपने रहन सहन में सुधार कर के सुखी रहते है एवम अपने ही अहम एवम अहंकार में रहते है। ये लोग किसी को कष्ट नही देते किन्तु भौतिक सुखों में ही जीवन व्यतीत करते हुए जन्म-मरण के चक्र में फसे रहते है। सत्व गुण के कारण इन के अन्तःकरण और इंद्रियों में प्रकाश की वृद्धि होती है; एवम दुख, विक्षेप, दुर्गुण और दुराचारों का नाश हो कर शांति बनी रहती है।
जीव का ज्ञान मस्तिष्क में उपजता है, यह बुद्धि के विकास की प्रक्रिया है। जीव अकर्ता एवम साक्षी है अतः यह ज्ञान प्रकृति की एक क्रिया है जिस से जीव सत्वगुणी हो कर अपने की पहचान ले। यदि मस्तिष्क पर कोई प्रहार हो जाये तो यह ज्ञान भी लुप्त हो सकता है। इसलिये सत्वगुण प्रकृति का ही स्वरूप है।
विषय रूप सुख का विषयी आत्मा के साथ “मैं सुखी हूँ” इस प्रकार सम्बन्ध जो़ड़ देता है, जिस से यह आत्मा को मिथ्या ही सुख के भ्रम में विश्वास दिलाता है। यही अविद्या है क्योंकि विषय के धर्म विषयी के ( कभी ) नहीं होते और इच्छा से लेकर धृतिपर्यन्त सब धर्म विषयरूप क्षेत्र के ही हैं। अविद्या द्वारा ही सत्त्वगुण अनात्मस्वरूप सुख में ( आत्मा को ) मानो, नियुक्त आसक्त कर देता है, यानी जो ( वास्तव में ) सुख के सम्बन्ध से रहित है, उसे सुखी सा कर देता है। इसी प्रकार ( यह सत्त्वगुण उसे ) ज्ञान के सङ्ग से भी ( बाँधता है )। ज्ञान भी सुख का साथी होने के कारण क्षेत्र अर्थात् अन्तःकरण का ही धर्म है, आत्मा का नहीं । भ्रम में इसे आत्मा का धर्म मान लेने पर उस में आसक्त होना और उस का बाँधना नहीं बन सकता। इसलिये सुख की भाँति ही ज्ञान आदि के सङ्ग को भी ( बन्धन करनेवाला ) समझना चाहिये।
सत्त्वगुणके दो रूप हैं – (1) शुद्ध सत्त्व, जिसमें उद्देश्य परमात्माका होता है और (2) मलिन सत्त्व, जिस में उद्देश्य सांसारिक भोग और संग्रह का होता है। शुद्ध सत्त्वगुण में परमात्मा का उद्देश्य होने से परमात्मा की तरफ चलने में स्वाभाविक रुचि होती है। मलिन सत्त्वगुण में पदार्थों के संग्रह और सुख भोग का उद्देश्य होने से सांसारिक प्रवृत्तियों में रुचि होती है, जिस से मनुष्य बँध जाता है। मलिन सत्त्वगुण में भी बुद्धि सांसारिक विषय को अच्छी तरह समझने में समर्थ होती है। जैसे, सत्त्वगुण की वृद्धि में ही वैज्ञानिक नये नये आविष्कार करता है किन्तु उस का उद्देश्य परमात्मा की प्राप्ति न होने से वह अंहकार, मानबड़ाई, धन आदि से संसारमें बँधा रहता है। सत्त्वगुण रज और तम की अपेक्षा विकाररहित है। वास्तव में प्रकृति का कार्य होने से यह सर्वथा निर्विकार नहीं है। सर्वथा निर्विकार तो अपना स्वरूप अथवा परमात्मतत्त्व ही है जो कि गुणातीत है। परमात्मतत्त्व की प्राप्ति में सहायक होने से भगवान् के सत्त्वगुण को भी विकार रहित कह दिया है। अतः हम यह कह सकते है कि प्रकृति के तीनों गुणों में सत्व गुण से निर्मलता प्राप्त कर के जीव प्रकाशवान, विक्षेपशुन्य और अनघ अर्थात पाप रहित अवश्य हो जाता है किंतु उस का अहंकार समाप्त नहीं होता और उस की आसक्ति और बंधता सांसारिक सुखों में लगी रहती है।
जब अन्तःकरण में सात्त्विक वृत्ति होती है, कोई विकार नहीं होता है, तब एक सुख मिलता है, शान्ति मिलती है। उस समय साधक के मनमें यह विचार आता है कि ऐसा सुख हरदम बना रहे। ऐसी शान्ति हरदम बनी रहे। ऐसी निर्विकारता हरदम बनी रहे। परन्तु जब ऐसा सुख, शान्ति, निर्विकारता नहीं रहती, तब साधक को अच्छा नहीं लगता। यह अच्छा लगना और अच्छा न लगना ही सत्त्वगुण के सुख में आसक्ति है, जो बाँधनेवाली है। जब सत्त्व, रज और तम – इन तीनों गुणों का, इन की वृत्तियों का विकारों का साफ साफ ज्ञान होता है और साधक को ऐसी बहुत सी आश्चर्यजनक बातों की जानकारी होती है, जो पहले कभी जानी हुई नहीं होती, तब साधक के मन में आता है कि यह ज्ञान हरदम बना रहे। यह ज्ञान में आसक्ति है, जो बाँधनेवाली है। मैं दूसरों की अपेक्षा अधिक (विशेष) जानता हूँ यह अभिमान भी बाँधनेवाला होता है।इस तरह सत्त्वगुण सुख और ज्ञान के सङ्ग (आसक्ति) से साधक को बाँध देता है अर्थात् उस को गुणातीत नहीं होने देता।
ज्ञान से बुद्धि शुद्ध होती है, शुद्ध बुद्धि होने से ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य आदि गुण उत्पन्न हो जाते है। जिस वस्तु को पाने की मनुष्य इच्छा उत्पन्न करें और वह उसे प्राप्त कर सके तो उसे ऐश्वर्य का सामर्थ्य कहेंगे। यह सात्विक गुण मनुष्य को स्वर्ग आदि लोको के सुख उपलब्ध करवा सकता है, किन्तु मुक्ति के लिये इस गुण के उत्कर्ष में जा कर वैराग्य द्वारा ही मोक्ष या कैवल्य पद प्राप्त होता है।
जब देहेंन्द्रियों और बुद्धि में पहले सत्व गुण का उत्कर्ष होता है, और जब धीरे धीरे उन्नत्ति होते होते अंत मे पुरुष को यह ज्ञान हो जाता है कि मै त्रिगुणात्मक प्रकृति से भिन्न हूँ, तब उसे सांख्य वादी त्रिगुणातित अर्थात सत्व- रज- तम गुणों से परे पहुंचा हुआ कहते है। इस त्रिगुणातीत अवस्था मे सत्व- रज- तम में से कोई भी गुण शेष नही रहता। कुछ सूक्ष्म विचार करने से मानना पड़ता है कि त्रिगुणातीत अवस्था सात्विक, राजसी और तामसी इन तीनो अवस्था से भिन्न है। इसी लिये भागवत में भक्ति के तामस, राजस एवम सात्विक भेद के पश्चात एक चौथा भेद किया गया है। तीनो गुणों को पार हो जाने वाला पुरुष निर्हेतुक कहलाता है और जो अभेद भाव से भक्ति की जाती है उसे निर्गुण भक्ति कहते है। गीता इस चौथे भेद के सत्वगुण का अत्यंत उत्कर्ष स्वरूप मानते हुए, सात्विक ज्ञान में सम्मलित करती है। गीता के अनुसार प्रकृति एवम पुरुष एक ही परब्रह्म के दो स्वरूप है जिसे हम ने भी क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के रूप में पढ़ा। अतः जो पुरुष ज्ञान से त्रिगुणात्मक माया को पहचान अपने को प्रकृति से पृथक कर लेता है, वो ही ज्ञानी है उसे ही कैवल्य माना जाता है।
हमे यह पूरा ध्यान रखना चाहिये कि जीव का प्रकृति के साथ संयोग ही बंधन है। इस बन्धन की सब से नजदीक की कड़ी सत्व गुण है जहां प्रकृति उसे अपने स्वरूप को बताती है एवम जीव के स्वरूप को भी। ज्ञान एवम सत्व गुण की वृद्धि से जीव प्रकृति से अलग हो कर मोक्ष को प्राप्त सकता है या फिर इस सत्व गुण के कारण संसार के सुखों का उपभोग कर के कर्म बंधन में रह सकता है। पहले भी बताया गया था सत्व गुण से ज्ञान का उत्कर्ष होने से मृत्यु नही होती, उसे अपना शेष जीवन इसी संसार मे निर्लिप्त हो कर, लोकसंग्रह के लिये कर्म करते हुए व्यतीत करना पड़ता है। जैसे कुम्हार का चक्का घड़ा उतारने के बाद भी स्ववाभिक गति से घूमते रहता है और धीरे धीरे बन्द होता है वैसे ही सत्व गुण में कैवल्य प्राप्त जीव अपना शेष जीवन इसी धरती पर व्यतीत कर के परमात्मा में विलीन हो जाता है।
सांख्य के अनुसार सत्व गुण से जीव को प्रकृति के बंधन का ज्ञान हो जाता है, जिसे कैवल्य की स्थिति कहते है। यह जीव अर्थात पुरुष अनंत है इसलिए सभी जीव अपने अपने भोगों को भोग रहे रहे है। वेदांत एवम गीता में प्रकृति और जीव स्वतंत्र न हो कर एक ही परमात्मा के स्वरूप है, इसलिए यह पृथकता केवल सृष्टि तक है, जो जीव गुणातीत हो जाता है, वह ब्रह्म में विलीन हो जाता है।
रजोगुण का स्वरूप और उसके बाँधने का प्रकार क्या है, इस को आगे के श्लोक में पढ़ते हैं।
।। हरि ॐ तत सत।।14.06।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)