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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  14.04 II

।। अध्याय      14.04 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 14.4

सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः ।

तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता॥

“sarva-yoniṣu kaunteya,

mūrtayaḥ sambhavanti yāḥ..।

tāsāḿ brahma mahad yonir,

ahaḿ bīja-pradaḥ pitā”..।।

भावार्थ: 

हे कुन्तीपुत्र! समस्त योनियों जो भी शरीर धारण करने वाले प्राणी उत्पन्न होते हैं, उन सभी को धारण करने वाली ही जड़ प्रकृति ही माता है और मैं ही ब्रह्म (आत्मा) रूपी बीज को स्थापित करने वाला पिता हूँ। (४)

Meaning:

Of the many forms that are born from all wombs, O Kaunteya, the great brahman is their womb, I their seed-giving father.

Explanation:

We may be wondering, how does Ishvara split himself into his two aspects of awareness and matter or Prakriti? Doesn’t it sound farfetched? Something quite similar happens to us every night. When we dream, our minds splits, as it were, into two. One aspect becomes the watcher, and the other aspect projects our dreams. In other words, the mind watches its own show. The Mandukya upanishad provides a detailed comparison of our waking, dreaming and deep sleep states.

Shree Krishna states that prakṛiti is like the womb and the souls are like the sperms. He places the souls in the womb of Mother Nature to give birth to multitudes of living beings. Sage Ved Vyas also describes it in the same fashion in Śhrīmad Bhāgavatam: “In the womb of the material energy the Supreme Lord impregnates the souls. Then, inspired by the karmas of the individual souls, the material nature gets to work to create suitable life forms for them.” He does not cast all souls into the material world, rather only those who are vimukh.

Shri Krishna says that Ishvara, having divided himself into his two aspects, is both the mother and father of everything and every living being in the universe. After he deposits the seeds or the jeevas into Prakriti, he creates the state of Hiranyagarbha. This state contains the potential to generate an entire sequence of creation, sustenance and dissolution of several universes. It is comparable to a DVD that contains within it the potential to create an entire two-hour movie with several characters and locations.

Whatever living being is born; for all of them, father is brahma yoniḥ, māya is the universal mother. And therefore, we are all children of brahman plus māya. All means all male, female, animals, birds, insects, tree and plants etc. etc. Puruṣa plus prakr̥ti. Consciousness plus matter; nirguṇam plus saguṇam. And therefore, we also will have a mixture of both. We can say consciousness plus matter is equal to Īśvara tatvam and Īśvara paramātma is kāraṇam, jivātma is kāryam. If a kāraṇam is a mixture consciousness plus matter, kāryam is also a mixture of consciousness- principle- plus- matter- principle. We are told brahma Satya Jagat Mithiya, and in mixture as creation of God, we are both and now it is matter of understanding how we accept ourselves.

Also, the ultimate womb, the ultimate source of the birth of all beings is the great brahman or Prakriti, which is nothing but the three gunaas. If we have to remove the impact and influence that the three gunaas exert upon us, we need to study what they are, how they impact us, how we fall under their sway, and how does one remain unaffected by them. Shri Krishna, having summarized the relevance of the three gunaas, proceeds to analyze the three gunaas in significant detail from the next shloka.

।। हिंदी समीक्षा ।।

परमात्मा कहते है इस संसार मे अष्टधा प्रकृति के त्रियामी गुणों से जितने भी प्रकार के चर-अचर प्राणी अर्थात देव, पितर, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि जन्म लेते है, वो प्रकृति की योनि से ही जन्म लेते है एवम उन सब के जीव का बीज का निरूपण में ही एक पिता के समान करता हूँ। जन्म लेना का अर्थ ही व्यक्त रूप से जीव का उत्पन्न होना है। प्रकृति एवम जीव के संयोग से सृष्टि की समस्त प्रक्रिया निरंतर मेरे द्वारा चलती ही रहेगी, इस के लिये चाहे निमित्त कोई भी बने।

श्री कृष्ण कहते हैं कि प्रकृति गर्भ के समान है और आत्मा शुक्राणुओं के समान है। वे आत्माओं को प्रकृति के गर्भ में रखते हैं ताकि वे असंख्य जीवों को जन्म दे सकें। ऋषि वेद व्यास ने भी श्रीमद्भागवत में इसी प्रकार इसका वर्णन किया है:

दैवत क्षुभिता-धर्मिण्यं स्वस्यां योनौ परः पुमान्,आधात्त वीर्यं ससुता महत-तत्त्वं हिरण्मयम्। (3.26.19)[v1]

भौतिक ऊर्जा के गर्भ में परम भगवान आत्माओं को गर्भाधान करते हैं। फिर, व्यक्तिगत आत्माओं के कर्मों से प्रेरित होकर, भौतिक प्रकृति उनके लिए उपयुक्त जीवन रूपों का निर्माण करने के लिए काम करती है।” वह सभी आत्माओं को भौतिक संसार में नहीं डालता, बल्कि केवल विमुख आत्माओं को डालता है।

जरायुज (जेर के साथ पैदा होनेवाले मनुष्य, पशु आदि), अण्डज (अण्डे से उत्पन्न होनेवाले पक्षी, सर्प आदि), स्वेदज (पसीनेसे उत्पन्न होनेवाले जूँ, लीख आदि) और उद्भिज्ज (पृथ्वीको फोड़कर उत्पन्न होनेवाले वृक्ष, लता आदि) – सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति के ये चार खानि अर्थात् स्थान हैं। इन चारों में से एक एक स्थान से लाखों योनियाँ पैदा होती हैं। उन लाखों योनियों में से एक एक योनि में भी जो प्राणी पैदा होते हैं, उन सब की आकृति अलगअलग होती है। एक योनि में, एक जाति में पैदा होने वाले प्राणियों की आकृति में भी स्थूल या सूक्ष्म भेद रहता है अर्थात् एक समान आकृति किसी की भी नहीं मिलती।

चार खानि अर्थात् चौरासी लाख योनियाँ तो शरीरों के पैदा होने के स्थान हैं और उन सब योनियों का उत्पत्ति स्थान (माताके स्थानमें) महद्ब्रह्म अर्थात् मूल प्रकृति है।  चौरासी लाख योनियों के सिवाय देवता, पितर,गन्धर्व, भूत, प्रेत आदि को भी यहाँ सर्व योनिषु पद के अन्तर्गत ले लेना चाहिये। उस मूल प्रकृति में जीव रूप बीज का स्थापन करने वाला पिता मैं हूँ।भिन्न भिन्न वर्ण और आकृति वाले नाना प्रकार के शरीरों में भगवान् अपने चेतन अंशरूप बीज को स्थापित करते हैं – इस से सिद्ध होता है कि प्रत्येक प्राणी में स्थित परमात्माका अंश शरीरों की भिन्नता से ही भिन्न भिन्न प्रतीत होता है। वास्तव में सम्पूर्ण प्राणियों में एक ही परमात्मा विद्यमान हैं।

जो भी जीव पैदा होता है; उन सभी के लिए पिता ब्रह्म योनि है, माया सर्वव्यापक माता है। और इसलिए हम सभी ब्रह्म और माया की संतान हैं। सभी का अर्थ है सभी पुरुष, महिला, पशु, पक्षी, कीड़े, पेड़-पौधे आदि। पुरुष और प्रकृति। चेतना और पदार्थ; निर्गुण और सगुण। और ​​इसलिए हममें भी दोनों का मिश्रण होगा। हम कह सकते हैं कि चेतना और पदार्थ ईश्वर तत्व के बराबर है और ईश्वर परमात्मा कारण है, जीवात्मा कार्य है। यदि कारण चेतना और पदार्थ का मिश्रण है, तो कार्य भी चेतना-तत्व और पदार्थ-तत्व का मिश्रण है। हमें ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या कहा गया है, और ईश्वर की रचना के रूप में मिश्रण में, हम दोनों हैं और अब यह समझने की बात है कि हम अपने आप को कैसे स्वीकार करते हैं।

वस्तु की, कार्य और कारण दो अवस्था है। कार्यावस्था में प्रकृति स्थूल रूप में व्यक्त रहती है एवम कारणावस्था में प्रकृति सूक्ष्म रूप से व्यक्त रहती है। प्रकृति महदब्रह्म है, यह अपनी कारणावस्था द्वारा समस्त जीवों को समिष्ट स्वरूप अर्थात विभिन्न स्वरूप मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष, पौधे आदि अपने त्रियामी गुणों के साथ प्रदान करती है इसलिये माता है। हर जीव परमब्रह्म का स्वरूप है जो उस के संकल्प के कारण जन्म लेता है। परब्रह्म ही प्रकृति के कारण स्वरूप अर्थात विभिन्न पशु, पक्षी मानव आदि में चेतन स्वरूप का संयोग कर देता है।  यह जीव एक बार प्रकृति के संयोग से व्यक्त स्वरूप में उत्पन्न होने के बाद, प्रकृति की क्रियाओं से भ्रमित हो कर कर्म बंधन में फस जाता है। अतः परब्रह्म ही जीव का निरूपण करने के पिता है। इस संसार मे माता-पिता बस यही दो है, जो निमित्त बनते है वो प्रकृति द्वारा रचित माया से ही माता-पिता दिखते है या माने जाते है।

तत्वविद ज्ञानी पुरुष समस्त जीव में परमात्मा को ही देखता है। क्षेत्रज्ञ के ज्ञान में भी समभाव होना एक लक्षण बताया गया था। प्रकृति द्वारा उत्पन्न हर देह में परमात्मा ही जीव के रूप में अपना अंश रखता है, इस को जान लेना ही ज्ञान है।

परमात्मा कहते है जब मै पिता एवम प्रकृति माता है तो सम्पूर्ण जगत में जो भी चर-अचर प्राणी दिखते है वो मूलतः एक तत्व के है। जो भी भेद दृष्टि से पृथक पृथक दिखता है वो प्रकृति की त्रियामी गुणों की माया है। जीव इसी त्रियामी गुणों की माया के कारण अपने को एवम संसार के समस्त प्राणियों को अलग अलग देखने लग जाता है। यह असंख्य जीव मूलतः एक ही परब्रह्म के स्वरूप है और सृष्टि के समस्त चर-अचर, जड़-चेतन मूलतः एक ही प्रकृति है। यह भेद दृष्टि प्रकृति की माया या प्रकृति के त्रिगुण सत्व-रज-तम के कारण है। मूलत: जीव की रचना का कारण प्रकृति और पुरुष का संयोग है किंतु यह संयोग क्यों और कैसे होता है इसके लिए परमात्मा का कथन है कि मैं ही प्रकृति स्वरूपि योनि में ब्रह्म स्वरूप बीज रख कर  संयोग को जन्म को जन्म देता हूं। जिस से कार्य – कारण सिद्धांत से प्रकृति अपनी योगमाया से उस  जीव से व्यवहार करती है। अर्थात परमात्मा के संकल्प में व्यवहार करती है। स्वयं को जगत के पिता समान घोषणा करने के बावजूद भी परमात्मा अकर्त्ता ही है। यह हम पहले ही जान चुके है।

सांख्य दर्शन प्रकृति और पुरुष को अनादि और प्रकृति को एक एवम पुरुष अनगिनत मानता है, इसलिए प्रकृति और पुरुष के संयोग से ही प्रकृति क्रियाशील हो कर अपना कार्य अपने नियमित नियमों के अनुसार स्वत: ही तो शुरू कर देती। वेदांत में क्योंकि पुरुष अनगिनत नही हो कर एक है और इसलिए प्रत्येक जीव में पुरुष अविभाजीय परब्रह्म का ही अंश या प्रतिबिंब है। प्रकृति अर्थात योगमाया भी परब्रह्म का ही स्वरूप है, इसलिए यह अपना कार्य परमात्मा के नियमित नियमों में करती है। इसलिए जो क्रियाएं स्वत: होती दिखती है, उस का नियामक परमात्मा ही है।

परमात्मा और उनकी शक्ति प्रकृति के संयोग से उत्पन्न होनेवाले जीव प्रकृतिजन्य गुणों से कैसे बँधते हैं — इस विषय का विवेचन आगे के श्लोको में पढ़ते हैं।

।। हरि ॐ तत सत ।। 14.04।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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