।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 14.03 II Additional II
।। अध्याय 14.03 II विशेष II
।। अध्यात्म और भौतिक वाद में ज्ञान और विज्ञान ।। विशेष 14.3 ।।
महत्तत्व प्रकृति से आशय परा प्रकृति और अपराप्रकृति से है, जिसे हम पहले पढ़ चुके है। यह श्लोक प्रकृति और सृष्टि के विकास का द्योतक है, क्योंकि परा प्रकृति के स्वरूप में ब्रह्म स्वरूपी बीज को अपराप्रकृति की योनि अर्थात जड़ प्रकृति से संयोग करवा कर के सृष्टि का रचियता परमब्रह्म ही है। वह इस संसार का पिता है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार यह अष्टधा प्रकृति अपराप्रकृति है एवम जीव परा प्रकृति है। सृष्टि की रचना जड़ और चेतन के संयोग से हुई है। जड़ और चेतन को मिला कर महत्तत्व ब्रह्म कहा गया है।
ज्ञान वह है जिस से यह बात मालूम हो जाती है कि सृष्टि के अनेक नाना प्रकार के व्यक्त पदार्थो में एक ही मूल अव्यक्त पदार्थ है और विज्ञान उसे कहते है जिस से यह ज्ञात हो कि एक अव्यक्त मूल पदार्थ से अनेक नाना प्रकार के व्यक्त पदार्थ किस प्रकार प्रकट होते है।
भगवतगीता का कथन है कि प्रकृति अपने कार्य के स्वतंत्र नही है, उसे परमब्रह्म के बनाए नियमो के अंतर्गत कार्य करना होता है। सांख्य मानते है कि प्रकृति किसी के बंधन में नही है, उसे सृष्टि की रचना के लिए मात्र पुरुष और प्रकृति के संयोग की आवश्यकता है। इसलिए जैसे ही संयोग होता है, प्रकृति अपना कार्य शुरू कर देती है। वसंत ऋतु में वृक्षों में नए पत्ते आना या पेड़ पौधों का विकसित होना स्वत: ही होता है। किंतु वेदांती अर्थात वेद, उपनिषद, स्मृति ग्रंथ कहते है कि सृष्टि का मूल परमब्रह्म है।
वेदांत के अनुसार सृष्टि का विस्तार में पहले हिरण्यगर्भ अर्थात सत्य की उत्पत्ति हुई, उस से सृष्टि की रचना हुई। हिरण्यगर्भ अर्थात सृष्टि की उत्पत्ति का कारण जल है। जल से एक अंडा उत्पन्न हुआ, उस से ब्रह्मा उत्पन्न हुए और ब्रह्मा अर्थ मूल अंडे से संपूर्ण सृष्टि की रचना हुई। यही ब्रह्मा अर्थात पुरुष अपने आधे हिस्से से स्त्री स्वरूप में परिवर्तित हुआ अर्थात जल उत्पन्न होने से पूर्व पुरुष तत्व ही था। इस के अतिरिक्त एक मत यह है कि पहले परब्रह्म से तेज, पानी और पृथ्वी अर्थात अन्न यही तीन तत्व और उन के मिश्रण से यह सब सृष्टि की रचना हुई। अतः वेदांत मत में प्रकृति चाहे स्वतंत्र न हो तो भी जब एक बार शुद्ध ब्रह्म ही में मायात्मक प्रकृति रूप विकार दृष्टिगोचर होने लगता है, तो सृष्टि का उत्पत्ति क्रम में उन का दृष्टि कोण सांख्य से मेल खाता है। इसलिए सांख्य का ज्ञान इतिहास, पुराण और अर्थशास्त्र में फैला हुआ है।
सांख्यों का सिद्धांत है कि इंद्रियों को अगोचर अर्थात अव्यक्त, सूक्ष्म और चारो ओर अखंडित भरे हुए एक ही निरवयव मूल द्रव्य से सारी व्यक्त सृष्टि उत्पन्न हुई है। यह सिद्धांत आज के आधुनिक विज्ञान एवम पश्चिम देशों के अर्वाचीन अतिभोतिकवादी देश के शास्त्रज्ञो को ग्राह्य है। वे भी मानते है इसी मूल द्रव्य की शक्ति का क्रमशः विकास होता आया है, और इस पूर्वापर क्रम को छोड़ अचानक या निरर्थक कुछ भी निर्माण नही हुआ है। इसी मत को उत्क्रांतिवाद या विकास – सिद्धांत कहते है।
ईसाई धर्म के अनुसार ईश्वर ने पंच महाभूतों को और जंगम वर्ग के प्रत्येक प्राणी की जाति को भिन्न भिन्न समय पर पृथक पृथक और स्वतंत्र निर्माण किया। किंतु जब पाश्चात्य संस्कृति में सांख्य के इस उत्क्रांतिवाद सिद्धांत को मान्यता मिली तो ईसाई धर्म के अनुसार ईश्वर द्वारा सृष्टि की अलग अलग समय पर रचना को असत्य ठहराया गया और इस कारण इस का विरोध आज भी न्युनाधिक है।
सांख्य के शास्त्रीय सत्य में अधिक शक्ति होने से सृष्टि के उत्पन्न होने के सिद्धांत को अधिक मान्यता है, यह सिद्धांत का सारांश यह है कि सूर्यमाला में पहले कुछ एक ही सूक्ष्म द्रव्य था, उस की गति अथवा उष्णता का परिणाम घटता गया: तब उक्त द्रव्य का अधिक से अधिक संकोच होने लगा और पृथ्वी समेत सब ग्रह क्रमशः उत्पन्न हुए: अंत में जो शेष बचा वह ही वर्तमान में सूर्य है। पृथ्वी का भी ; सूर्य का सदृश्य: पहले पहल जो ऊष्ण गोला थी, परंतु ज्यों ज्यों उस की उष्णता कम होती गई, त्यों त्यों मूल द्रव्यो में से कुछ द्रव्य पतले और घने हो गए; इस प्रकार पृथ्वी के ऊपर की हवा और पानी और नीचे का पृथ्वी का जड़ गोला – यह तीन पदार्थ बने। इस के बाद इन तीनों पदार्थो मिश्रण अथवा संयोग से सब सजीव और निर्जीव सृष्टि उत्पन्न हुई। डार्विन जैसे अतिभौतिकवादी पश्चिम देशों के पंडितो ने भी माना मनुष्य भी छोटे कीड़ों से विकसित होते होते आज की वर्तमान अवस्था में पहुंचा है।
अतिभौतिकवादि और अध्यात्मवाद में विभेद आत्मा को ले कर है कि इसे भिन्न या स्वतंत्र तत्व मानना चाहिए कि नही। हैकल। जैसे कुछ विद्वानों का कहना है कि प्रकृति के विस्तार से ही आत्मा और चैतन्य की उत्पत्ति हुई है, इसलिए जो कुछ है वह जड़ ही है, अतः यह मत जड़ाद्वैत मत का प्रतिपादन है। किंतु कांट सरीखे अध्यात्म ज्ञानी पुरुषो का कहना है कि सृष्टि का ज्ञान जिसे होता है, वह स्वतंत्र तत्व ही होना चाहिए क्योंकि कोई अपने कंधे पर आप ही सवार नही हो सकता। अतः हम यह कह सकते है कि सृष्टि पश्चिम और सांख्य दोनो मतों से अव्यक्त, सूक्ष्म और एक ही मूल प्रकृति से सूक्ष्म एवम स्थूल विविध तथा व्यक्त सृष्टि का क्रम बद्ध निर्माण हुआ। सांख्य योग विविधा एवम सूक्ष्म और स्थूल प्रकृति का कारण सत – रज – तम गुणों के आपसी मेल और संयोग को मानता है, जो आज के विकसित पश्चिम जगत में और भौतिक शास्त्र में इस कारण गति, उष्णता और आकर्षण शक्ति के गुण बताए गए। आधुनिक तर्क शास्त्री या मनुष्य इन तीन गुणों से सरलता से विविध सृष्टि की रचना को आसानी से समझ लेते है।
प्रस्तुत विशेष लेख में अन्य धर्मों के मतों का तुलनात्मक अध्ययन नही किया क्योंकि वेदांत के अतिरिक्त परिवर्तित दर्शन और विचारो का समावेश और चिंतन सभी धर्मो में नही मिलता। वेदांत सत्य पर आधारित विचार धारा होने से समय के अनुसार न्याय शास्त्र, फिर सांख्य और अभी वेदांत के दर्शन शास्त्र में परिवर्तित हुई। जिस का और अधिक परिमार्जन गीता में हुआ। इसलिए हम कह सकते है सृष्टि का सृजन प्रकृति और पुरुष से हुआ, पुरुष जिसे गीता में क्षेत्रज्ञ, आत्मा और ब्रह्म कहा गया है और यह प्रकृति और पुरुष का कारक परमब्रह्म है जिसे परमात्मा कहते है। क्षेत्रज्ञ, आत्मा और ब्रह्म में कभी कभी अप्रसंगीता उत्पन्न होती है तो इस का कारण वेदों और उपनिषदों में इन्हे विभिन्न अर्थ में बताया गया है या फिर एक ही शब्द का अर्थ सांख्य और वेदांत में पृथक पृथक है। सांख्य में कैवल्य की स्थिति में प्रकृति और पुरुष में केवल पुरुष का कैवल्य ही गुणातीत अवस्था है जब की गीता में जिस अभेदात्मक ज्ञान से यह मालूम हो कि सब कुछ एक ही है, वही सात्विक ज्ञान है। गीता सांख्य के द्वैतवाद से परे अद्वैतवाद परमब्रह्म के सत्य का समर्थन करती है। इसलिए निर्गुण भक्ति का अर्थात प्रकृति के तीनों गुणों से परे चतुर्थ गुण को प्राप्त करना है।
दर्शन शास्त्र में सनातन संस्कृति का प्रादुर्भाव विभिन्न विचारकों एवम दार्शनिको के ज्ञान और अनुभव से हुए। यह विचार हमेशा नए विचारों और खोजो से जुड़ते रहे जिस से न्यायिक शास्त्र से वेदांत शास्त्र के मिला कर 6 दर्शन शास्त्र बने। इसी कारण वेद और उपनिषद आज भी मान्य शास्त्र है जबकि अन्य धर्म में विचारो की उदारता का अभाव होने से उन का मत एक ही विचार में अटक गया, और उन का अध्यात्म और विज्ञान में कोई भी सामजस्य दूर दूर नहीं है। उन की मान्यताएं विज्ञान के समक्ष ठीक नहीं पाती और अंधविश्वास से घिरी हुई है। जबकि सनातन संस्कृति ऋग्वेद के नासदिए सूक्त से हिंग्स बैंग या गॉड पार्टिकल के सिद्धांत का आधार है।
आगे भी यही हम चिंतन बढ़ाएंगे, इसलिए अभी यही समाप्त करते है।
।। हरि ॐ तत् सत् ।। विशेष 14.3 ।।
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