।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 14.01 II
।। अध्याय 14.01 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 14.1॥
श्रीभगवानुवाच,
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानं मानमुत्तमम् ।
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ॥
“śrī-bhagavān uvāca,
paraḿ bhūyaḥ pravakṣyāmi,
jñānānāḿ jñānam uttamam..।
yaj jñātvā munayaḥ sarve,
parāḿ siddhim ito gatāḥ”..।।
भावार्थ:
श्री भगवान ने कहा – हे अर्जुन! समस्त ज्ञानों में भी सर्वश्रेष्ठ इस परम-ज्ञान को मैं तेरे लिये फिर से कहता हूँ, जिसे जानकर सभी संत- मुनियों ने इस संसार से मुक्त होकर परम-सिद्धि को प्राप्त किया हैं। (१)
Meaning:
Shree Bhagavaan said:
I shall again speak of that highest knowledge which is superior to any other knowledge. Having known this, all the sages, (liberated) from here, have attained the highest accomplishment.
Explanation:
Shri Krishna described the fundamental ignorance of our true nature in the previous chapter. The supreme self, which is our true nature, mistakenly identifies itself with one body within Prakriti or Maaya and becomes the Purusha. It further gets trapped in Prakriti when it gets enchanted by play of the three gunaas of Prakriti. Shri Krishna uses this chapter to explain the nature of these three gunaas, their characteristics, their effects and their remedy in detail.
Shree Krishna had explained that all life forms are a combination of soul and matter. He had also elucidated that prakṛiti (material nature) is responsible for creating the field of activities for the puruṣh (soul). He added that this does not happen independently, but under the direction of the Supreme Lord, who is also seated within the body of the living being. In this chapter, he goes on to elaborate in detail about the three-fold qualities of material nature (the guṇas). By gaining this knowledge and imbibing it into our consciousness as realized wisdom, we can ascend to the highest perfection.
This shloka is in the form of “anubandha chatushtaya”, the four- fold curriculum covered in a text. It systematically lists the subject matter of the chapter, the student who is qualified to study this chapter, the goal of this chapter and the relationship of the subject to the goal. The subject matter is brahmavidyaa or the knowledge of brahman. One who is a muni, one who has a contemplative mind, is fit to study this chapter. The highest accomplishment one can aspire to – liberation from sorrow – is the goal of this chapter. When we know brahman as our our own self, the goal is attained. This is the prayojanam, the relationship of the subject matter to the goal of this chapter.
Before the topic is begun, however, we notice that Shri Krishna repeats the statement that he has made in earlier chapters about the glory of this knowledge. Lord Krishna knows which deserves repetition. He does so because knowledge for us usually means academic, professional or any other type of worldly knowledge. It is always knowledge about some person, object, substance, concept, technique, something that can be accessed with the senses and mind. However, the knowledge of the self is that knowledge that reveals what the subject is, what the “I” is. In order to remove this hard conditioning, this deep programming within us, Shri Krishna has to repeat the importance of this knowledge. We also read about 4 Ds, Discrimination, Dispassion, Discipline and Desire for mōkṣā. So the one who has got all these qualifications is called Muniḥ, in this context. Muni does not refer to the external qualifications like a flowing beard, etc. munayaḥ means Adhikārinaḥ. All those prepared seekers.
।। हिंदी समीक्षा ।।
किसी भयंकर मनोवेग से विक्षुब्ध होने पर एक अत्यन्त बुद्धिमान पुरुष को भी बारम्बार सांत्वना की आवश्यकता होती है। जीव भाव को प्राप्त पुरुष अपने जीवन के दुखों के कारण उपदेश के पश्चात भी अपने सच्चिदानन्द स्वरूप को सरलता से नहीं ग्रहण कर पाता। इसलिए, जब तक शिष्यों की विद्रोही बुद्धि इस तत्त्व को समझ नहीं लेती, तब तक आचार्यों को इन आध्यात्मिक सत्यों का बारंबार पुनरावृत्ति करना आवश्यक हो जाता है। अपने छोटे से शिशु को भोजन करा रही माता इस का आदर्श उदाहरण है। जब तक वह शिशु पर्याप्त मात्रा में भोजन नहीं कर लेता, तब तक उस की माँ उसे बहलाती फुसलाती रहती है। इसी प्रकार, शिष्य को निश्चयात्मक ज्ञान हो जाने तक आचार्य को इस ज्ञान को बारंबार दोहराना पड़ता है। भगवान कृष्ण जानते हैं कि कौन सी बात दोहराने लायक है। जब विषय वस्तु सरल होती है, तो दोहराव दोष बन जाता है, इसे पुनर्रुचि दोष कहते हैं। लेकिन जब विषय वस्तु गहन होती है, तो पुनर्रुचि दोष नहीं होती, बल्कि यह शिक्षक के लिए एक आभूषण है। एक ज्ञानी प्रवक्ता भी जानता है कि कहां दोहराना है, कहां गर्भवती चुप्पी रखनी है, हर जगह दोहराना संभव नहीं है। हर जगह चुप भी नहीं रहना चाहिए।
श्रीकृष्ण ने यह व्यक्त किया था कि सभी जीवन रूप आत्मा और पदार्थ का संयोजन हैं। उन्होंने यह स्पष्ट किया था कि प्रकृति ही पुरुष (आत्मा) के लिए कर्म क्षेत्र सृजित करने के लिए उत्तरदायी है। वे आगे कहते हैं कि यह स्वतंत्र रूप से सम्पन्न नहीं होता अपितु उस परम प्रभु के निर्देशन के अंतर्गत होता है जो सभी जीवों के शरीर में वास करते हैं। इस अध्याय में वे प्राकृत शक्ति के तीन गुणों के संबंध में विस्तार से प्रकाश डालेंगे। इस ज्ञान को पाकर और इसे अनुभूत ज्ञान के रूप में अपनी चेतना में आत्मसात् कर हम परम सिद्धि की प्राप्ति की ओर अग्रसर हो सकते हैं।
अभी तक तेहरवें अध्याय में सांख्य एवम वेदान्त दृष्टि से क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ को पढ़ा। किन्तु मूल तत्व क्षेत्र ही है जो जीव को कर्तृत्त्व भाव से बांध कर रखता है। प्रकृति मात्र चर जीव न हो कर जंगम एवम स्थावर भी है। इसलिये प्रकृति को जानना एवम एक ही प्रकृति से विविध सृष्टि, विशेषतः सजीव सृष्टि कैसे और क्यों उत्पन्न हुई। जीव विभिन्न कर-अचर स्वरूप में क्यों बार बार जन्म लेता है। किस प्रकार अतिसूक्ष्म विमल अणु जीवात्मा को कैसे बांधते है। प्रकृति के कौन से गुण भेद के जो जानने से हम अपने व्यवहार, कर्म एवम कार्यो के कारणों की सही सही समीक्षा कर सकते है। किन उपायों से इन गुणों का संग अर्थात बंधन छूट सकता है।
क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ के ज्ञान में क्षेत्र के विस्तार में प्रकृति को समझना आवश्यक है, इस लिए यह अध्याय पूर्व अध्याय के ज्ञान का ही एक भाग है क्योंकि एक ही प्रकृति से विविध सजीव सृष्टि की उत्पत्ति कैसे होती है। परमात्मा योगमाया से कार्य – कारण का सिद्धांत के अनुसार प्रकृति को कार्य करने की स्वतंत्रता देता है, जिस से हम कर्म फलों को प्राप्त करते है और भोगने के लिए अगला जन्म प्राप्त करते है। इस के नियमो को समझना और इन से किस प्रकार मुक्त होना, ही ज्ञान है।
हम ने पूर्व में पढ़ा कि जिस पुरुष द्वारा संपूर्णता से आरंभ किया हुआ नियत कर्म का आचरण क्रमशः उत्थान होते होते इतना सूक्ष्म हो गया कि कामना और संकल्प का सर्वथा शमन हो गया, उस समय जिसे वह जानना चाहता है, उस की प्रत्यक्ष अनुभूति हो जाती है, उसी अनुभूति का नाम ज्ञान है।
आत्मज्ञान में एकरस स्थिति और तत्व के अर्थ स्वरूप परमात्मा का प्रत्यक्ष दर्शन ज्ञान है। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के भेद को विदित कर लेने के साथ ही ज्ञान है। ज्ञान का अर्थ शास्त्रार्थ नही, शास्त्रों को याद कर लेना ही ज्ञान नहीं है। अभ्यास की वह अवस्था ज्ञान है, जहां वह तत्व विदित होता है। परमात्मा के साक्षात्कार के साथ मिलने वाली अनुभूति का नाम ज्ञान है, इस के विपरीत सब कुछ अज्ञान है।
जीव प्रकृति से बंधा है, प्रकृति की संगीति से उस मे मोह, कामना, अहंकार एवम कर्तृत्व भाव जन्म लेता है। अतः यह जानना आवश्यक है कि वे प्रकृति के गुण कौन कौन से है, वे किस प्रकार क्रिया करते है, किस प्रकार बंधन उत्पन्न करते है एवम किस प्रकार इन से मुक्त हो सकते है। जिस से परे और कुछ नही है, उस वस्तु को विषय करने वाला होने से यह ज्ञान परम ज्ञान कहा गया है।
इस अध्याय के ज्ञान को सर्वश्रेष्ठ ज्ञान भी माना गया है क्योंकि जीव जब एक बार प्रकृति के संयोग संसार मे आ जाता है तो उसे यह समझना आवश्यक की यह प्रकृति जो सत्व, रज और तम अपने तीन गुणों से कार्य, कारण एवम शक्ति द्वारा किस प्रकार जीव को बंधन में डाल कर रखती है एवम यह तीन गुणों के परिणाम एवम लक्षण क्या है और उस से मुक्त कैसे हो सकते है। जो मूल की स्वयं सिद्ध मुक्ति की स्थिति है, वही मोक्ष है। जिस के योग से हमे यह मोक्ष प्राप्त होता है, वही ज्ञान है और उस ज्ञान का अनुभव हो जाने पर विवेकिजन जीवन और मरण रूपी संसार को सिर ऊपर उठाने नही देते। जो लोग मन से मनोनिग्रह कर के स्वाभाविक विश्रांति प्राप्त कर लेते है, वे देह धारण करने पर भी देह के वशीभूत नही होते। वे देह से बंधन से मुक्त हो कर ब्रह्मसंध हो जाते है और परमात्मा की समकक्षता प्राप्त कर लेते है।
सिनेमा हॉल में पिक्चर देखते वक्त दो तरीके रहते है। प्रथम में हम उस की कहानी एवम कलाकारों के धारा प्रवाह में पूरी तरह डूब जाते है और अपनी भावनाओं को उस के अनुसार व्यक्त होने देते है, उस के सही या गलत को समझे बिना अंत मे हीरो की जीत के साथ प्रसन्न होते है।
द्वितीय हम अपने व्यक्तित्व को सजग रख कर हर क्रिया को ध्यान से देखते है। अपने अनुभव एवं ज्ञान से कहानी एवम हर पात्र की भूमिका का अध्ययन करते है एवम उस मे सही एवम गलत का आकलन कर के अपने ज्ञान एवम अनुभव में वृद्धि करते है। ऐसा करने से हम पिक्चर से दृष्टा रहते है एवम उस की भावनाओ में नही बहते। यही जीव का प्रकृति के साथ व्यवहार है।
तत्त्व का मनन करनेवाले जिस मनुष्य का शरीर के साथ अपनापन नहीं रहा, वह मुनि कहलाता है। मुनि के चार गुण विवेक, वैराग्य, अनुशासन और मोक्ष की इच्छा है, तो जिसके पास ये सभी योग्यताएँ हैं, उसे इस संदर्भ में मुनि कहा जाता है। मुनि बाहरी योग्यताओं जैसे कि लहराती दाढ़ी आदि का उल्लेख नहीं करता है। मुनयः का अर्थ है अधिकारिनः। और अधिकारी ही लौकिक और पारलौकिक जितने भी ज्ञान हैं अर्थात् जितनी भी विद्याओं, कलाओँ, भाषाओं, लिपियों आदि का ज्ञान है, उन सब से प्रकृति पुरुष का भेद बतानेवाला, प्रकृति से अतीत करनेवाला, परमात्मा की प्राप्ति कराने वाला यह ज्ञान श्रेष्ठ है, सर्वोत्कृष्ट है, पाने के लिए योग्य व्यक्ति है। जिस ज्ञान को जान कर अर्थात् जिस का अनुभव कर के बड़े बड़े मुनि लोग इस संसार से मुक्त होकर परमात्मा को प्राप्त हो गये हैं, उस को भगवान श्री कृष्ण बतानेवाले है। उस ज्ञान को प्राप्त करने पर कोई मुक्त हो और कोई मुक्त न हो – ऐसा होता ही नहीं, प्रत्युत इस ज्ञान को प्राप्त करने वाले सब के सब मुनि लोग संसार के बन्धन से, संसार की परवशता से छूट जाते हैं और परमात्मा को प्राप्त कर के मुक्त हो जाते हैं।
।। हरि ॐ तत सत ।। 14.01।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)