।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 13.S II Summary II
।। अध्याय 13.S II सारांश II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ अध्याय: १३ सारांश॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगो नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥
|| ōṁ tatsaditi śrīmadbhagavadgītāsūpaniṣatsu brahmavidyāyāṁ yōgaśāstrē śrīkṛṣṇārjunasaṁvādē
kṣētrakṣētrajñavibhāgayōgō nāma trayōdaśō’dhyāyaḥ ||
भावार्थ:
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण- अर्जुन संवाद में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग- योग नाम का तेरहवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ ॥
Meaning:
Thus ends the thirteenth chapter called kṣētra kṣētrajña vibhāga yōga or Prakr̥ti Puruṣa yoga.
॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥
Summary of Bhagvad Gita Chapter 13:
Shri Krishna begins the chapter by describing what is meant by the field and the knower of the field, kshetra and kshetrajnya. He reminds us that this knowledge is not something new, that it has come directly from the Vedas and the Brahma Sutras. He then describes the field in detail by listing its modifications such as the great elements, the ego, the senses and so on. A list of attributes or qualities that are needed in order to escape the influence of the field is given. These qualities include humility, lack of arrogance and so on. These qualities are termed as “jnyaanam” or means of knowledge.
The topic of the supreme self, brahman, the knower of the field or kshetrajnya, is taken up next. The “sat” or existence aspect of brahman is indicated first with attributes such as hands, legs and so on. It is then indicated with negation of those same attributes, following the “adhyaaropa apavaada” technique used in Vedanta. Brahman, which can never become an object of our knowledge, is explained through a series of paradoxes – it is near, yet it is far and so on. The “chit” or awareness aspect of brahman is also highlighted using the phrase “it is the light of all lights”.
The field and its knower are now explained from the point of view of the individualized self, jeeva by using the terminology of Purusha and Prakriti. Shri Krishna first defines these terms, points out their beginningless nature, and also points out how they become the cause of enjoyership and doership respectively. The fall of the immaculate supreme self is explained by the apparent relationship of Purusha and Prakriti due to ignorance of our true nature as the supreme self that resides as Ishvara in all bodies. Release from this ignorance leads to liberation.
In order to get to a stage where we can discriminate or distinguish between the field and its knower, we have to go through a curriculum of saadhanaa or spiritual practice. Shri Krishna provides this roadmap of steps as karma, bhakti, raaja and saankhya yoga. The key thing, however, is to orient or attach us to the imperishable Ishvara, and to detach ourselves from identification with Prakriti, which is the storehouse of all action and diversity.
Shri Krishna concludes the chapter with two illustrations highlighting the existence and awareness, the sat and chit aspects of the supreme self. The analogy of space is used to illustrate the all- pervading, unattached, untainted and singular nature of the supreme self. The analogy of the sun is used to illustrate the knowledge, awareness and non- acting nature of the supreme self. The chapter ends by asserting that the fruit of knowing the true nature of the supreme self is moksha or liberation.
।। सारांश – अध्याय 13 ।।
द्वादश अध्याय में भगवान ने अपनी सगुण भक्ति की विधि, क्रम, लक्षण एवम फल का वर्णन किया, जिस के द्वारा उस के निर्गुण स्वरूप की प्राप्ति संभव होती है। इस अध्याय में उन्होंने भक्ति के फलस्वरूप अवगमन सगोचर अपने निर्गुण रूप का वर्णन किया और उपाधि रूप देहादि प्रपंच को क्षेत्र रूप से ग्रहण करके उपहित साक्षी स्वरूप निर्गुण आत्मा को क्षेत्रज्ञ रूप से बोधन किया।
वेद, उपनिषद, ब्रह्म सूत्र, गीता आदि प्रस्थान त्रयी केवल कल्पना से उपजा मानसिक विचार नही है। यह सृष्टि की रचना का ज्ञान और विज्ञान दोनो है, इसलिए इस पर अंधश्रद्धा या अंधविश्वास की बात नहीं करते हुए, इसे सिद्ध करने हेतु अभ्यास और वैराग्य द्वारा प्राप्त करने की विधि बताई गई है एवम जिस ने ब्रह्मसंध की अवस्था प्राप्त कर ली है, उस व्यक्ति या जीव के लक्षण भी बताए गए है। यह अवस्था इसी जीवन में भी प्राप्त हो सकती है, अतः जीव की मृत्यु या जन्म से इस अवस्था का कोई संबंध नहीं है।
जिस प्रकार धान्य की प्राप्ति भूसे से ही होती है, भूसे बिना नही। परंतु भूसे से धान्य को ले कर भूसे का परित्याग कर दिया जाता है; इसी प्रकार उपाधि रूप देहादि प्रपंच में ही क्षेत्रज्ञरूप धान्य को अन्वेषण करना चाहिए और फिर उस मे से सार रूप क्षेत्रज्ञ को ग्रहण करके असार रूप क्षेत्र का परित्याग कर देना चाहिये।
अध्याय के प्रारम्भ में हमे 24 तत्व से युक्त क्षेत्र को पढ़ा। नैय्यायिक वाद जिसे न्याय शास्त्र भी कहते है वो परमाणु वाद के सिंद्धान्त पर आधारित है। हर तत्व का एक मूल तत्व होता है एवम ऐसे उस ने 62 मूल तत्व खोजे एवम बाकी उस का मिश्रण। न्याय शास्त्र संपूर्ण सृष्टि की रचना प्रकृति से उत्पन्न मानते है, प्रत्येक जीव या जड़ पदार्थ की उत्पत्ति विभिन्न परमाणु के मिलने और मिलने के बाद उस के गुण धर्म के परिवर्तन से है। किंतु सांख्य वाद का मानना है कि जड़ या जीव की रचना तो प्रकृति कर सकती है, किंतु उस में चेतन तत्व प्रकृति नही ला सकती, अतः सांख्य वाद इस से आगे एक ही मूल तत्व को माना जिसे प्रकृति नाम दिया। जिस में 24 तत्व रखे- पांच भूत, पंच तत्व शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवम गंध, पांच पांच ज्ञानेंद्रियां एवम कर्म इंद्रियाए, पांच महाभूत आकाश, अग्नि, वायु, जल एवम पृथ्वी और मन, बुद्धि, कामनाएं, अहंकार और द्वितीय पुरुष।
नैय्यायिको के परमाणु वाद को आरंभ वाद भी कहते है, जिस में सर्व प्रथम प्रकृति के विषय में चिंतन किया गया है। समस्त सृष्टि परमाणु के संयोग से निमित्त है, इसलिए ईश्वर भी परमाणुओं का निमित्त कारण है। बौद्ध एवम परमाणुवादी यह मानते है कि पदार्थ का नाश हो कर उस से नया पदार्थ बनता है, जैसे बीज का नाश हो कर अंकुर, अंकुर का नाश हो कर पेड़ बनता है।
सांख्य शास्त्र का कथन है कि किसी भी वस्तु का नाश नहीं होता, उस का रूपांतर होता है, बीज धरती से और वायु से कुछ पदार्थ खीच कर अंकुर में रूपांतरित होता है। लकड़ी जल के राख, अग्नि और धुवें में बदल जाती है। अतः कोई नया पदार्थ उत्पन्न न हो कर जो द्रव्य उपलब्ध है उसी में रूपांतर होता है। शून्य से कुछ भी उत्पन्न नहीं हो सकता। कार्य के गुण से ही कारण उत्पन्न होगा। दूध से ही दही बन सकता है, पानी से नही। इस को सत्कार्यवाद कहा जाता है। क्योंकि प्रत्येक पदार्थ किसी न किसी मूल पदार्थ से बना है, इसलिए मनुष्य, जीव, पेड़, पहाड़ आदि सभी किसी मूल पदार्थ से बने होंगे। यहां तक सूर्य, चंद्र, तारागण भी उसी मूल पदार्थ के भाग होंगे जिनके तत्व अलग अलग हो सकते है, इस प्रकार उन्होंने 62 मूल तत्व खोजे, जो आज के रसायन शास्त्र में 108 है। इन सब का मूल पदार्थ या द्रव्य को प्रकृति कहते है। प्रकृति ही मूल है और उस से उत्पन्न पदार्थ विकृति है।
प्रकृति के विभिन्न स्वरूप में स्थूल – सूक्ष्म, व्यक्त – अव्यक्त, अक्षर – क्षर है। प्रलय काल में व्यक्त प्रकृति का नाश हो कर अव्यक्त स्वरूप आ जाता है। सृष्टि के स्वरूप के बाद आत्मा, मन, बुद्धि और अहंकार के स्वरूप का विभाग तय करना है। न्याय शास्त्र कहता है यह शरीर का भाग है क्योंकि जब मानसिक संतुलन बिगड़ जाए तो मन, बुद्धि, अहंकार सभी मनोधर्म भी बिगड़ जाते है। वे इस में आत्मा को भी शामिल करते है, इस से सारी सृष्टि का आधार प्रकृति रह जाती है।
सांख्य शास्त्र कहता है कि मन, बुद्धि, अहंकार पंच भूतात्मक जड़ प्रकृति का धर्म हो सकता है किंतु आत्मा अर्थात चैतन्य की उत्पत्ति जड़ प्रकृति से नही हो सकती। जो यह जानता है, वह जानने वाला, जानने योग्य पदार्थ से भिन्न ही होगा। कोई अपने ही कंधे पर सवार नही हो सकता, इसलिए यह चैतन्य प्रकृति से भिन्न है। यही प्रकृति और पुरुष है। प्रकृति और पुरुष दोनों अनादि है, इन से जो भी व्यक्त और अव्यक्त पदार्थ उत्पन्न होते है, वह सब नाशवान है। अतः सांख्य से सृष्टि के तीन पदार्थ मूल प्रकृति, व्यक्त प्रकृति और ज्ञ अर्थात पुरुष है।
वेदांती सांख्य के सिद्धांत को मानते है किंतु एक ही प्रकृति मूल को जानने वाले पुरुष असंख्य नही हो सकते। प्रकृति और पुरुष में पुरुष का मूल भी एक ही होगा, जिसे उन्होंने ब्रह्म का नाम दिया। क्योंकि पुरुष को निर्गुण, उदासीन और अकर्ता कहा गया है, इसलिए जब उस का प्रकृति से बंधन छूटता है तो उसे कैवल्य की अवस्था अर्थात केवलता, अकेला या प्रकृति के संयोग से मुक्त माना गया है। क्योंकि प्रकृति के संयोग में असंख्य पुरुष है तो कैवल्य की अवस्था में जो है वह एक ब्रह्म है। और इसलिए पुरुष कैवल्य हो कर ब्रह्म में विलीन हो जाता है।
वेदांती प्रकृति को भी सांख्य की भांति स्वतंत्र नही मानते, उनके अनुसार प्रकृति भी एक ही मूल अर्थात परमात्मा के अंतर्गत योगमाया से क्रिया शील है। अतः प्रकृति और पुरुष जिसे गीता में क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ की संज्ञा दी गई है, एक ही परमात्मा के संकल्प की अभिव्यक्ति है।
क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ का ज्ञान अत्यंत रोचक और दीर्घ है, इसलिए इसे इतना ही समझना पर्याप्त है।
क्षेत्र का ज्ञान विज्ञान है, विज्ञान जिसे अधिभौतिकवाद में सिद्ध किया जा सकता है। किंतु ज्ञान अनुभव है, इस के लिए ज्ञानी होना पड़ता है। इसलिए क्षेत्रज्ञ को जानने के लिये ज्ञान के 20 नियम को बताया गया । ज्ञान के लिये जो इन 20 गुणों से युक्त होगा, वही ज्ञानी होगा। इन्हे हम अमानित्व, अदम्भित्वम्, अहिंसा, क्षमा, आर्जवम्, आचार्य उपासना, इंद्रियाओ से वैराग्य, अनहंकार, सर्वगतः, शौच, जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्, असक्तिः, अनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु,चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी नाम से जाना। क्योंकि क्षेत्रज्ञ सर्वात्मा है, इसलिए वह क्रियासाध्य नही है, वह ज्ञान साध्य है। भगवान श्री कृष्ण क्षेत्र के ज्ञान के बाद ज्ञानी के लक्षण या गुण कहते है। क्योंकि जिस का वर्णन शब्दातीत है, जिसे नेति नेति कह कर बताया जाता है, उसे ज्ञानी ही जान सकता है।
क्योंकि क्षेत्रज्ञ सर्वात्मा है, इसलिये वह क्रियासाध्य नही, किन्तु केवल ज्ञान साध्य ही है। जानने योग्य वस्तु है, परात्पर ब्रह्म। वह न सत है न असत इन दोनों से परे है। वास्तव में समस्त क्रियाओं का आधार प्रकाश है, प्रकाश से वस्तु प्रकाशित होती है। जिस से वस्तु का ज्ञान होता है। परमब्रह्म स्वयं प्रकाशवान है, उस के प्रकाश से जगत प्रकाशित होता है। यही क्षेत्रज्ञ का स्वरूप भी है। ऋग्वेद में नासदिये 7 सुक्तो में परमब्रह्म के बारे अद्वितीय वर्णन किया गया है, जो नासा द्वारा अनुसंधान का माध्यम बना हुआ है। ऋग्वेद के नासदीय सूक्त बिग बैंग और गॉड पार्टिकल के सिद्धांत का आधार भी है।
सम्पूर्ण संसार प्रकृति एवम जीव के संयोग से बना है । प्रकृति क्रियाशील होते हुए भी बिना जीव के निष्क्रिय है। जीव साक्षी एवम अकर्ता है। किन्तु प्रकृति की क्रियाशीलता से कर्तृत्व भाव से जन्म मरण के दुखों को भोगता है।
यहाँ यह भी कथन आवश्यक है कि न्याय शास्त्र प्रकृति को पूर्ण जगत का उद्गम मानता है, क्योंकि जो कुछ कर रही है, वो प्रकृति ही है। सांख्य शास्त्र प्रकृति एवम पुरुष दो भिन्न भिन्न तत्व मानता है और यह जगत प्रकृति एवम पुरुष के संयोग से उत्पन्न मानता है। उन के अनुसार प्रकृति एक है और जीव असंख्य। यह जीव पुनः पुनः प्रकृति से संयोग कर के जन्म धारण करता रहता है। वेदान्त शास्त्र सांख्य शास्त्र को मान्यता देता हुआ भी अनेक जीव की बजाय एक परब्रह्म से समस्त जीवों की उत्पत्ति को मान्यता देता है। इस के अतिरिक्त प्रकृति एवम पुरुष अर्थात क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ दोनो ही परमात्मा का अंश है। इसलिये मोक्ष का अर्थ है, जीव को ज्ञान होना कि वह परब्रह्म का ही अंश है, इस ज्ञान से जीव प्रकृति से मुक्त हो कर पुनः परमात्मा में विलय हो जाता है। गीता का मानना है कि सम्पूर्ण प्रकृति के अतिरिक्त कोई शक्ति सम्पूर्ण ब्रह्मांड को भी संचालित करती है इसलिये वह वेदान्त एवम सांख्य सिंद्धान्त को मान्यता देते हुए सम्पूर्ण सृष्टि की रचना परमब्रह्म या परमात्मा से मानती है। यह सृष्टि परम ब्रह्म से ही उत्पन्न होती है और उसी में विलीन होती है। प्रकृति परमात्मा की योगमाया से सृष्टि के कार्य – कारण के नियम से कार्य करती है। किसी भी कर्म का फल उत्पन्न होता है, क्रिया ही प्रकृति है। यह कर्म अनादि है। इस से मुक्ति नहीं होती। मुक्ति का अर्थ है, कर्म से कर्तृत्व एवम भोक्त्व्व भाव से मुक्ति। जब कर्म के फल का अधिकार का अहंकार या कामना न हो, तो कर्म का बंधन नहीं होगा। यही मुक्ति है। सांख्य का परमात्मा एवम परब्रह्म एक ही तत्व के दो नाम समार्थक नाम हो गए। गीता के इस अध्याय में विभिन्न विचारधारों का समन्वय अत्यंत विवेकपूर्ण किया गया है।
यही भ्रम यदि न रहे तो जीव स्वतंत्र रहेगा। इसलिये इस भ्रम से ही बाहर होना ही ज्ञान है। अतः प्रकृति एवम आत्मा को पृथक पृथक जानना एवम सब को समभाव देखना ही प्रकृति एवम जीव का ज्ञान है। ज्ञानी पुरुष सभी नाशवान भूतो में अविनाशी परमात्मा को देखता है। इस प्रकार सभी में ईश्वरस्वरूप का दर्शन करते हुए अपनी आत्मा का हनन नहीं करता। वस्तुत: ज्ञान का अर्थ है अपने अज्ञान का अध्यास करना।
इस प्रकार इस अध्याय में निर्गुणस्वरूप परमात्मा का स्वरूप बोधन करने के लिये क्षेत्र ( प्रकृति), क्षेत्रज्ञ (पुरुष) और साधन रूप ज्ञान का निरूपण किया गया। हमने परमात्मा के परम गोपनिय स्वरूप को जाना जिस से मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है।
ज्ञान के बिना मोक्ष नहीं, मोक्ष के बिना जीव के दुखों का अंत नहीं। ज्ञान के लिए ध्यान, योग एवम निष्काम कर्म योग का मार्ग है किंतु मंद बुद्धि या इतना कुछ न करने के असमर्थ व्यक्ति के लिये भक्ति मार्ग एवम ज्ञानी पुरुषों को शरण का मार्ग बताया गया है।
शास्त्रों को बहुत रट कर दुहराना ज्ञान नही बल्कि अध्ययन तथा महापुरुषों का अनुशरण कर के उस कर्म को समझ कर, उस कर्म पर चल कर मन सहित इंद्रियाओ के निरोध और उस निरोध के भी विलयकाल में परमतत्व को देखने के साथ जो अनुभूति होती है, उसी को ज्ञान कहते है, इसी ज्ञान की प्राप्ति मोक्ष है। इसी ज्ञान से क्षेत्रज्ञ, प्रकृति एवम जीव का विस्तार समझा जा सकता है। यही जीव के सत और असत दोनों है। जो जीव अहंकार और कामना में जीवन व्यतीत करता है, वह अपने कर्मो के अनुसार जन्म – मरण के दुखों को भोगता है।
अध्याय 13, व्यवहारिक जीवन मे शांत हो लोक संग्रह हेतु कर्म करने की प्रेरणा देता है। यह स्पष्ट कहता है जीव जिसे मेरा मेरा कह कर प्रकृति प्रदत्त शरीर को सब कुछ मानता है, वह सब जड़ है एवम समस्त संग्रह के साथ इसी धरती पर छूट जाता है। जीव यदि कामनाओं से जीवन जिया है तो वह कर्म फल ही उन के पुनर्जन्म का कारण बनता है। इस कर्म बंधन से मुक्त होना ही जीवन का उद्देश्य होना चाहिए। गीता हमे निष्काम कर्म ज्ञान के लिए प्रेरित करती है, जिस से जीव प्रकृति में लोकसंग्रह के कर्म करता हुआ, निर्लिप्त भाव से जीवन जीने की प्रेरणा देती है, जिस से प्रकृति के सुखों का आनंद भोगते हुए किस प्रकार निष्काम कर्मयोग से जीना चाहिए। भगवान श्री कृष्ण ने व्यवहारिक जीवन में यह जीवन जी कर उदाहरण दिया कि बिना अहंकार और आसक्ति से किस प्रकार प्रकृति का आनंद लेते हुए जीना चाहिए और लोकसंग्रह के लिए कर्म करना चाहिए।
अध्याय का अंत इस संदेश से किया गया कि ज्ञानी वही है जिस ने प्रकृति और पुरुष को जान लिया। जान लिया शब्द का अर्थ, पठन नहीं है। जानना का अर्थ है कि जीव का अज्ञान का अंत हो जाना जिस से वह अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान कर स्वतंत्र हो जाए। इस में सब से बड़ी बाधा यदि है कि जीव का अज्ञान उस का महंत अर्थात अहंकार और बुद्धि है। क्योंकि मन जो कुछ भी ग्रहण करता है, उसे अपने विवेचन के अनुसार समीक्षा कर के बुद्धि को प्रस्तुत करता है। और बुद्धि महंत के अनुसार उस की कामनाओ, राग – द्वेष, स्वार्थ, लोभ और अहम के अनुसार निर्णय लेती है। अतः जब तक सत्त्व गुण बुद्धि और महंत में नहीं होंगे, निर्णय पक्षपाती और प्रकृति के बंधन में कर्मफल देने वाले ही होंगे। इसलिए आत्मशुद्धि जिस का मार्ग अभ्यास और वैराग्य से शुरू होता है, के बिना जीव का प्रकृति और पुरुष का ज्ञान आत्मसात नहीं होता। जब तक प्रकृति और पुरुष का ज्ञान आत्मसात नहीं होगा, केवल सिद्धांतिक ज्ञान होता है। हम तोते की भांति प्रकृति और पुरुष का ज्ञान का वर्णन तो कर देते है किंतु समझते कुछ नही। इसलिए हमारे सारे कर्म निष्काम और निर्लिप्त नही होते। इसलिए निष्काम कर्मयोग से ज्ञान को प्राप्त करे या ज्ञान से निष्काम कर्म योग को। गीता इसलिए मोक्ष के सभी रास्ते और उस का केंद्र व्याख्या कर रही है। हम इसे कैसे समझते है, यह हमारी प्रकृति के तीन गुणों से प्रभावित है, जिस का वर्णन अगले अध्याय में हम पढ़ेंगे।
प्रकृति के स्वरूप को अब अगले अध्याय में पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।। 13।।
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Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)