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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  13.B II Preamble II

।। अध्याय      13.B II प्रस्तावना II

PREAMBLE – Chapter 13 “Nature, the enjoyer and consciousnes” KSHETRA- KSHETRGYA VIBHAG YOG”

Based on its content, the eighteen chapters of the Bhagavad Gita can be divided into three sections. The first six chapters describe Karm Yog or the path of duty.  The second set, from chapters seven to twelve, glorify the path of bhakti or loving devotion of God. They also describe the opulence of God as the divine nectar that nourishes devotion. The third set, starting from this chapter, expounds upon tattva jñāna or the of knowledge scriptural terms and principles.

In this chapter, Shree Krishna introduces two terms—kṣhetra (the field) and kṣhetrajña (knower of the field). In simple terms, the ‘field’ may be considered the body and the soul as the ‘knower of the field.’ However, the field is actually much more than just the physical body—it includes the mind, intellect, ego, and all other components of material energy that are part of our personality. In broader terms, except for the soul, who is the ‘knower of the field,’ all material aspects of our entire personality are considered—the ‘field’ of the body.

When a farmer sows’ paddy in his field, he can only harvest paddy and not wheat or maize from that field. Similarly, the good or bad thoughts and actions that we sow in our field, that is our body, we harvest the resultant destiny. The Buddha taught: “All that we are is the result of what we have thought; it is founded on our thoughts, and it is made of our thoughts.”  Thus, as we think, that is what we become.  The great American philosopher Ralph Waldo Emerson said: “The ancestor of every action is a thought.” Therefore, it is necessary to cultivate appropriate thoughts and actions in the field of our body. For this, we should be able to differentiate between kṣhetra, the field, and kṣhetrajña, the knower of the field.

Shree Krishna gives a detailed analysis of these two aspects of human existence. He starts by enumerating the material elements that encompass kṣhetra, the field of the human body. He calls the feelings, sentiments, emotions, etc., that arise in this field (body) as modifications, and the virtues and pious good qualities purify the field and illuminate it with knowledge. This knowledge helps us realize and understand the existence of our soul, which is the kṣhetrajña or the knower of the field. Shree Krishna then starts describing God, the supreme knower of the fields of all living creatures. He says that the Supreme Lord possesses opposite attributes at the same time, which seem contradictory.

Understand that God is all-pervading in His creation, yet He sits in the heart of every living being. Thus, He is the Supreme Soul.

After describing the Supreme Soul, the soul, and the material nature of the living beings, Shree Krishna explains which of these is responsible for their actions. Also, who is responsible for the cause and effect in the universe at large. Those who understand these differences and identify the correct causes of actions; are the ones who see the ultimate truth; and are situated in knowledge. They do not degrade themselves by the illusions of their minds and perceive the presence of the Supreme Soul in every living being. In the same material nature, they are able to identify a variety of living beings and look at all existence pervaded by a common spiritual substratum. With this knowledge, they attain consciousness of the Brahman or God-realization.

(Preamble- Courtesy: The Songs of GOD – Swami Mukundananda)

प्रस्तावना – त्र्योदशोSध्याय, क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग

गीता का प्रत्येक अध्याय एक कक्षा को पास उत्तीण करने के समान है। कर्म योग से ज्ञान योग, ज्ञान योग से कर्म सन्यास ज्ञानयोग फिर भक्ति योग हम ने पढ़ा। हर जगह यही कहा गया कि प्रारम्भ को छोड़ दे तो आगे चल कर प्रत्येक योग एक ही मार्ग पर चलता है, वह है अव्यक्त परमात्मा को प्राप्त करना। अतः अब जो अध्याय हम पढ़ने जा रहे, उसे हम स्नातक की पढ़ाई समझ कर पढ़े।

इसलिये अभी तक के मार्ग व्यक्ति के आत्मोत्थान का विभिन्न मार्ग है, जिस में व्यक्ति को अपने अंदर वो सब गुण प्राप्त कर लेने है जिस से वो परमात्मा को समझ सके एवम प्राप्त कर सके।

अनिर्देशय और अव्यक्त परमेश्वर का बुद्धि से चिंतन करने पर अंत मे मोक्ष मिलता है वही उस की अपेक्षा श्रद्धा से परमेश्वर के प्रत्यक्ष और व्यक्त स्वरूप की भक्ति करके प्रमेश्वरापर्ण बुद्धि से सब कर्मो को करते रहने पर, वही मोक्ष सुलभ रीति से मिल जाता है।

किन्तु ज्ञान-विज्ञान का निरूपण जो सातवे अध्याय में प्रारम्भ किया गया था वह परमेश्वर का पूर्ण ज्ञान होने के लिये बाहरी सृष्टि के क्षर-अक्षर विचार के साथ ही साथ मनुष्य के शरीर और आत्मा का अथवा क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का विचार भी जानना पड़ता है।

सभी व्यक्त पदार्थ जड़ प्रकृति से उत्पन्न होते है, तो यह जानना की प्रकृति के किस गुण से इस का विस्तार होता है , इस का क्रम क्या है ? अतः तेरहवें अध्याय से क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग अर्थात प्रकृति, पुरुष एवम चेतना तत्व, चतुर्दश अध्याय में गुणत्रय विभाग अर्थात प्रकृति के त्रियामी गुण सत-रज-तम, पञ्चदश अध्याय में पुरुषोत्तम योग, षोडश अध्याय में देवासुर सम्पद विभाग योग अर्थात देवी एवम आसुरी स्वभाव एवम सप्तदश में ॐ तत्सत व श्रद्धात्रय विभाग योग अर्थात श्रद्धा के विभाग की जान कारी लेंगे। इस के बाद अष्टादश अध्याय में गीता का समग्र विषय का उपसंहार पढेंगे।

सनातन का दर्शन शास्त्र, विश्वास और मान्यता यद्यपि वेदों से उत्पन्न हुआ है किंतु विश्वास यदि प्रमाणिक हो तो वह विज्ञान होता है और यदि प्रमाणिक न हो तो वह आस्था और विश्वास पर टिका होता है। आस्था और विश्वास पर टिका शास्त्र पर अधिकार तथाकथित कुछ लोगो जमा लिया जाता है, जिसे वे अपनी प्रकृति और विश्वास पर चलाते है और विभिन्न धर्म, संप्रदाय और मतों का चलन शुरू हो जाता है। यही अंधविश्वास, आपसी द्वेष कि मेरा मत या धर्म बढ़ा है और अज्ञान का कारण बनता है। यदि इसे किसी धर्मगुरु और व्यक्ति विशेष के साथ चलायमान रखा जाए तो उस व्यक्ति या उन के शिष्यों द्वारा कालांतर में अपने अपने स्वार्थ में इसे भ्रष्ट और असंगत बना दिया जाता है। यही कारण है कि वेदों की श्रुतियों को सुनने वाले ऋषि अपना परिचय नही देते हुए, सनातन सत्य को कहते है और सभी विचारधाराओं का सम्मान करते है। सनातन एक संस्कृति है, यह कोई धर्म या मत नहीं और संस्कृति में अभी तक 6 विचारधाराओं के दर्शन शास्त्र है। गीता वेदांत दर्शन शास्त्र के अद्वैतवाद को स्थापित ज्ञान और विज्ञान के साथ कहती है। अत: अब हम ज्ञान और विज्ञान को पढ़ने और समझने जा रहे है।

क्षेत्र (शरीर) और क्षेत्रज्ञ (आत्मा) परस्पर अत्यंत विलक्षण है। अज्ञान से ही इन दोनों की एकता सी हो रही है। क्षेत्र जड़, विकारी, क्षणिक और नाशवान है एवम क्षेत्रज्ञ चेतन, ज्ञानस्वरूप, निर्विकार, नित्य और अविनाशी है। इस अध्याय में क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ दोनो के स्वरूप का उपयुक्त प्रकार से विभाग किया गया है। इसलिये इस का नाम क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग रखा गया है।

क्षेत्र का शाब्दिक अर्थ खेत होता है और क्षेत्रज्ञ यानि किसान। इस खेत मे वही फसल उतनी ही तैयार होगी जिस की बुआई, रखवाली और देखभाल किसान यानि क्षेत्रज्ञ करेगा। अतः अर्थ जन सामान्य के लिये यही है कि जो बोयेंगे वही पाएंगे।

गीता का यह अध्ययन ज्ञान-विज्ञान के सूक्ष्म अध्ययन का विषय है जिस को समझना  अत्यंत कठिन है। इस विषय पर शायद ही कोई ठीक ठीक समझने के दावा कर सकता है, फिर भी हम कोशिश करते है।

अतिभौतिकवाद जब भी धर्मोचित निर्णय अर्थात न्याय के विषय मे कहता है तो उस के अनुसार जो धर्मोचित निर्णयाक न्याय वही है जो सब के हित मे हो। किन्तु सब के हित का निर्णय हमेशा स्वीकार्य हो एवम सही हो जरूरी नही। धर्म, करुणा- परोपकार, सत्य आदि गुणों के आधार पर निर्णय लेने को कहता है किंतु न्यायाधीश सत्य एवम गुण- दोष एवम देश के नियम पर आधारित होगा, वहां करुणा या परोपकार को कोई स्थान नहीं। कभी निर्णय को ले कर असमंजस  की स्थिति हो तो यह भी कहा जाता है, कि वह करो जो मन कहे , अर्थात न्याय या सही वही है जो मन को सही लगे। शुद्ध, सात्विक, स्थिर, एकाग्र एवम ज्ञान युक्त मन के निर्णय कभी गलत  नही होते। अर्थात मनोनिग्रह से मन को यदि पूर्वाग्रह से मुक्त कर दे, वह शुद्ध एवम सात्विक मन ही जीव है, इसलिये यदि गलत कार्य हो तो मन ही सब से पहले कचोटता है। आगे के  अध्याय इसी मन को इतना शक्तिशाली बनाने के लिये है कि वह अपना सही निर्णय सत्य एवम धर्म के आधार पर विभिन्न परिस्थितियो में ले सके आदि आदि। महाभारत के समस्त पात्रों को भी हम इसी के द्वारा जान पाएंगे कि उन का निर्णय किंतना सही था या गलत।

प्राचीन समय मे इस बात का निरीक्षण सूक्ष्म रीति से किया गया है, मनुष्य को ज्ञान किस प्रकार प्राप्त होता है, और उस के मन का या बुद्धि का व्यापार किस तरह हुआ करता है। इसी निरीक्षण को क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार कहते है। क्षेत्र का अर्थ शरीर और क्षेत्रज्ञ का अर्थ आत्मा है। यह क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार अध्यात्म विद्या की जड़ है। एक बार इस का ठीक ठीक ज्ञान हो जाने से सद्विवेचन शक्ति से भी आगे मन को धर्म- अधर्म या सत्य- असत्य अथवा कार्य- अकार्य को समझना एवम विवेचन करना आ जाता है।

अध्याय 11 की प्रस्तावना में भी हम ने पढ़ा था कि गीता के अठाहरवे अध्याय को “तत त्वम असि” वेद में वाक्य के आधार पर 6-6 खंडों के तीन भागों में बांटा गया है। इस मे त्वम अर्थात जीव को अपना परिचय प्राप्त करने के लिये सांख्य, कर्म, ज्ञान और ध्यान योग का वर्णन है, जिस से जीव निष्काम कर्म सन्यास द्वारा अपनी इन्द्रियों, मन, बुद्धि को संयम तक ले जा सके। बिना सयंम को प्राप्त किये जीव को अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नही होता और वह प्रकृति से भ्रमित हो कर अपने को कर्ता और भोक्ता मान कर कर्म के फलों को भोक्ता रहता है। सयंम का वास्तविक अर्थ ही है कि इन्द्रिय, मन, बुद्धि, भावनाएं, कामनाये, आसक्ति और अहम सभी एकरूप हो।

अध्याय 7 से 12 तक तत अर्थात परब्रह्म के स्वरूप विभूतियो और उस के विराटरूपदर्शन को हम ने पढ़ा। परब्रह्म की विभूतियो और विराट रूप दर्शन से प्रकृति, माया और ब्रह्मांड में हम किस प्रकार उस तत स्वरूप परमात्मा को जाने जो हमारे मोक्ष का कारक है। इस खंड का अंतिम अध्याय भक्तियोग से समाप्त हो रहा है, जो इस बात का प्रतीक है कि जीव और परमात्मा का अटूट सम्बन्ध प्रेम, विश्वास और श्रद्धा का है। बिना अनुराग और श्रद्धा से कोई भी ज्ञान फलीफूत नही हो सकता। इस के पूर्ण समर्पण चाहिए और समर्पण बिना श्रद्धा और प्रेम के नही हो सकता।

तृतीय खंड अध्याय 13 से 18 ‘असिका है। जीव और परमात्मा ब्रह्म में कोई भेद नही है, आप अर्थात जीव ब्रह्म का ही अंश है। जैसे समुन्दर से लहर उठती है, तो हम लहर को पृथक स्वरूप में उस की गति, आकार और ऊँचाई से पहचानते है और सागर से अलग कर देते है। किंतु सागर और लहर दोनो में कोई अंतर नही है क्योंकि दोनो ही जल का स्वरूप है। इसी प्रकार जीव और ब्रह्म में कोई अंतर नही है, अंतर उस के अज्ञान, भोक्ता भाव और कर्तृत्व भाव का है। प्रथम खंड में यह स्पष्ट किया है कि जीव का अपने कर्म पर अधिकार है और द्वितीय खंड में यह भी दिखाया गया कि समस्त क्रियाएं प्रकृति द्वारा होती है, जीव  निमित्त है तो यह खंड यह बतलाता है कि कोई क्रिया किन किन अवस्था मे कैसे कैसे होती है, जिसे हम भाग्य कहते है, वह क्या है और कर्म में हमारा अधिकार कहाँ तक है। अध्याय 13 -18 को समझने के जीव का ज्ञान और श्रद्धा-विश्वास और प्रेम परब्रह्म के प्रति समर्पित भाव मे होना चाहिये। इन्द्रिय,मन और बुद्धि में संयम का होना आवश्यक है, क्योंकि गहनतम अध्ययन बिना प्रथम दोनो खंड को समझे समझ पाना कठिन है।

गीता के “तत त्वम असि” के आधार पर तीन 6 -6 अध्याय कर प्रभाग अवश्य किये है किन्तु कर्म योग मार्ग से मोक्ष की प्राप्ति और अपने कर्तव्य कर्मो का पालन करने के लिये योग्य बुद्धि की आवश्यकता है। योग्य बुद्धि की प्राप्ति बिना ज्ञान के प्राप्त नही की जा सकती। ज्ञान जो भी प्रदान करेगा उस के प्रति यदि श्रद्धा, प्रेम, विश्वास न हो तो ज्ञान नही मिलता। अतः कर्म योग का मार्ग भक्ति के द्वारा ज्ञान प्राप्त करने और निर्णय लेने का मार्ग है।  इसलिए अध्याय 12 में भक्तिमार्ग को आगे बुद्धि योग अर्थात ज्ञान मार्ग से जोड़ते हुए, भक्ति मार्ग को ही पूर्ण किया गया। हाथ मे तंबूरा ले कर भजन करते हुए यदि भक्ति मार्ग को बतलाना होता तो शायद गीता युद्ध भूमि में नही सुनाई गई होती। अतः गीता में जो लोग कर्मयोग, सांख्य योग, भक्ति योग की अलग अलग व्याख्या करते है, वह यही भूल करते है। गीता निष्काम कर्मयोग का सम्पूर्ण ज्ञान है, जिस में संपूर्णता के लिए ज्ञान-विज्ञान, प्रकृति, ब्रह्म के साथ साथ ज्ञान, बुद्धि और भक्तियोग का होना भी आवश्यक है।

अध्याय 13 में हम जड़-चेतन अर्थात प्रकृति और जीव के स्वरूप का वर्णन है और प्रकृति किस प्रकार से कार्य करती है, बताया गया है। इस के बाद के अध्यायों में प्रकृति के तीन गुण, संसार वृक्ष, देवी और आसुरी वृति, श्रद्धा फिर उपसंहार में 18वां अध्याय है। यह समस्त अध्याय वैज्ञानिक तथ्यों पर है, जिस पर नासा जैसी संस्था अनुसंधान भी कर रही है।

मुझे यह कहने में कोई संकोच नही की मैं स्वयं में कोई ब्रह्मसिद्ध व्यक्ति नही हूँ और न  ही आत्मशुद्ध।  मुझे संस्कृत भी नही आती, जो कुछ भी व्याख्या लिख पाता हूँ वह उन महान विभूतियों की मीमांसा है, जिन्हें मैं यहां लिख रहा हूँ। इसलिये इस गहनतम अध्ययन में परमात्मा की प्रेरणा से ही मै कोशिश यही करूंगा कि इस को समझने योग्य सरल भाषा मे लिखूं। विभिन्न मीमांसाओ के साथ मेरे अनुभव में जो विषय वस्तु आई, वह यही है कि जीव अपने संस्कार और भावनाओ के ज्ञान को प्राप्त करता है, इसलिए वह अपने को पूर्णतय तटस्थ नही रख पाता। और उस के संस्कार के कारण, वह अपने विचारों और साक्ष्य के पूर्वाग्रह से ग्रसित होता है और उन की व्याख्या में यह झलक दिखती है। इसलिए  संत ज्ञानेश्वर की गीता और बाल गंगाधर की गीता की मीमांसा में अंतर है। प्रयास इस अंतर को कम करने का अवश्य है किंतु मैं भी अपने संस्कारों और विचारों के पूर्वाग्रह से मुक्त नहीं हूं। अतः  व्याख्या को व्यवहारिक करने और उदाहरण द्वारा ज्यादा देने से कुछ लंबा भी हो जाये, किन्तु इस को जिस ने समझ लिया वही दावा कर सकता है कि उस ने गीता का अध्ययन किया है। पुनः दोहराते है कि मन के शुद्धिकरण के बुद्धि का प्रयोग होना जरूरी है, बुद्धि अर्थात ज्ञान स्वयं प्राप्त करे, किन्तु यह मार्ग क्लेश पूर्ण होने से सरल मार्ग प्रेम, श्रद्धा, विश्वास से ज्ञानी को समर्पित हो जाये और परमात्मा की शरण ले। किसी की शरण मे जाने का अर्थ है अपनी कामनाओं और अहम को त्याग देना। इस से जिस की शरण लेते है, वह ही ज्ञान का मार्ग भी खोलता है। यदि हम किसी भी पुस्तक या परमात्मा के नाम को रटते रहे किन्तु श्रद्धा, प्रेम और विश्वास के अभाव हो तो वह नाम लेना व्यर्थ है। इसी प्रकार ज्ञान का भंडार पुस्तको और आज के योग में कंप्यूटर में मेमोरी से भर भी दे, तो भी मन के सयंम के अभाव में वह ज्ञान भी व्यर्थ है।

सनातन संस्कृति में किसी भी जीव के चार पुरुषार्थ बताए गए है, जिन्हे हम धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष कहते है। धर्म उन सामाजिक नियमो और दायित्व को कहते है, जिस से समाज, परिवार, कुटुंब और देश और एक विचारधारा के लोग साथ में रह कर सहयोग करे और सुरक्षित हो कर उन्नति करे। अर्थ का आशय प्रकृति के संसाधनों का उपयोग करते हुए, अपने प्रकृति जीवन का आनंद ले। काम से आशय स्वाभाविक स्वरूप से उत्पन्न इच्छाओं को की पूर्ति करना एवम मोक्ष का आशय जीव का एक मात्र उद्देश्य अपने अज्ञान से मुक्त हो कर ब्रह्म में लीन होना है।

कालांतर में जब बाहरी आक्रमण होने लगे तो यहां की संस्कृति को हिंदू नाम दिया, यहां की सभ्यता और रहन के तरीके की हिंदू धर्म कहा गया। वास्तव में हिंदू धर्म कुछ भी नही है किंतु मुस्लिम और ईसाई कट्टरता ने यहां की संस्कृति और सभ्यता को हिंदू बना दिया। क्योंकि मुस्लिम और ईसाई धर्म में संस्कृति या अन्य पुरुषार्थ का अभाव था, इसलिए उन की कट्टरता के कारण भी हिंदू धर्म कहलाने लगा।

श्रद्धा, विश्वास और प्रेम के समर्पण से लोग अपनी संस्कृति के ज्ञान से दूर होते गए और सुनी सुनाई बातों को धारण कर के ज्ञानी बनने का आडंबर करने लगे। औसत हिंदू अपनी संस्कृति को नहीं पढ़ना चाहता या उस के लिए यह कठिन कार्य है, इसलिए वह जिन्हे ज्ञान है, उन से सुन सुनकर ज्ञानी होता गया। इसलिए जहां त्याग और निष्काम भाव से कर्म करने की प्रेरणा है, वहां लोभ, अहम और मोह ने स्थान ले लिया। इसलिए हिंदू धर्म में सहिंष्णुतात्याग, उदारता, दया और दान की संस्कृति में जीव इन गुणों का ज्ञान के अभाव में रज और तम गुणों से युक्त हो कार्य करने लगा। इसलिए अधूरे ज्ञान से अहंकार के साथ हिंदू ज्ञान और धर्म पर बहस भी करने लगे। किंतु फिर भी इस संस्कृति को यदि लाखो में एक ने भी निष्काम भाव से स्वीकार किया है, उस ने न केवल संस्कृति की रक्षा की, अपितु आने वाली पीढ़ी के लिए lamp post जैसे अंधकार से प्रकाश का मार्ग प्रज्वलित किया है।

गीता में ज्ञान के अब यह छह अध्याय पढ़ना शुरू करेंगे। किंतु जब तक हम मानसिक रूप में खुली विचारधारा और ज्ञान प्राप्ति की मुमुक्षु नहीं रखते, यह अध्याय समझना कठिन ही है। इसलिये परमेश्वर के नाम ले कर इस अध्याय को शुरू करते है।

।। हरि ॐ तत सत।। प्रस्तावना 13 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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