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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  13.31 II

।। अध्याय      13.31 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 13.31

यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।

तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा॥

“yadā bhūta- pṛthag- bhāvam,

eka- stham anupaśyati..।

tata eva ca vistāraḿ,

brahma sampadyate tadā”..।।

भावार्थ: 

जब जो मनुष्य सभी प्राणीयों के अलग-अलग भावों में एक परमात्मा को ही स्थित देखता है और उस एक परमात्मा से ही समस्त प्राणीयों का विस्तार देखता है, तब वह परमात्मा को ही प्राप्त होता है। (३१)

Meaning:

When he realizes that the variety of beings is established in the one, and it is only an evolution of that (one), he then attains brahman.

Explanation:

The ocean modifies itself in many forms such as the wave, froth, tide, ripples, etc.  One who is shown all these individually for the first time may conclude that they are all different.  But one who has knowledge of the ocean sees the inherent unity in all the variety.  Similarly, there are numerous forms of life in existence, from the tiniest amoeba to the most powerful celestial gods.  All of them are rooted in the same reality—the soul, which is a part of God, seated in a body, which is made from the material energy.  The distinctions between the forms are not due to the soul, but due to the different bodies manifested by the material energy.  Upon birth, the bodies of all living beings are created from the material energy, and at death, their bodies again merge into it.  When we see the variety of living beings all rooted in the same material nature, we realize the unity behind the diversity.  And since material nature is the energy of God, such an understanding makes us see the same spiritual substratum pervading all existence.  This leads to the Brahman realization.

Let us take another example. We came across the toddler who was fascinated by the phone ringing in the previous shloka’s discussion. Imagine that the same toddler sees a traffic signal for the first time. The signal turns bright red, then green, then orange. Sometimes, the orange light flashes for a few seconds. Sometimes it shows a left arrow, sometimes a right arrow. While the toddler is bewildered by the diversity of colours and lights generated by the traffic signal, we as adults are no longer fascinated by it. We know that the basis of the diversity is 3 bulbs, and some electronic circuit that switches these bulbs on and off.

Similarly, one who knows the workings of Prakriti knows that the whole universe is nothing but a play of the three gunaas or qualities of Prakriti. Inert substances have tamasic predominance. Movement is caused by rajasic predominance. Intelligence is caused by saatvic predominance. These three gunaas are the building blocks of the variety we see in the universe, and it is these three gunaas that have been evolving, changing, combining with each other throughout the timeline of the universe. This Prakriti, the three gunaas, is nothing but a power of Ishvara himself.

So then, how do we reduce our fascination for the three gunaas? Our attitude should be as follows. The variety of the universe, everything that I see, is a product of the three gunaas of Prakriti. This Prakriti is a machine, a mechanism that has been set in motion by Ishvara. But I also know that Ishvara in his purest form is infinite and all-pervading, and that he resides in everyone as the “I”, the self. Therefore, all of this variety and diversity is just an upaadhi, a conditioning of the self. When I see diversity, I am only seeing Ishvara, the self of all.

If we are able to develop this kind of attitude, this kind of knowledge, and stay rooted in it, we will shift our focus to Ishvara who is constant, and not the diversity of Prakriti that is ever changing. We will then attain unity with the eternal essence, with brahman, and achieve liberation.

।। हिंदी समीक्षा ।।

महासागर अपने को कई रूपों में परिवर्तित करता रहता है, जैसे कि लहर, झाग, ज्वार, छोटी लहर, इत्यादि। जब कोई इन सबको प्रथम बार व्यक्तिगत दृष्टि से देखता है तब वह यह निष्कर्ष निकालता है कि इन सब में भिन्नता है लेकिन अगर किसी को महासागरीय विषयों का ज्ञान होता है तब वह इन सभी विविधताओं में निहित एकत्व को देखता है। समान रूप से ब्रह्माण्ड में कई योनियाँ अस्तित्त्व में हैं-अणु से लेकर जन्तु (अमीबा) तक और अति शक्तिशाली स्वर्ग के देवता। ये सब एक ही यथार्थ से जन्मे हैं। आत्मा जो कि भगवान का अंश है और शरीर में वास करती है जो प्राकृत शक्ति से निर्मित है। योनियों में भिन्नता आत्मा के कारण से नहीं होती अपितु प्राकृत शक्ति द्वारा प्रकट विभिन्न शरीरों के कारण होती है। जन्म के समय सभी जीवों के शरीरों की रचना प्राकृत शक्ति द्वारा होती है और मृत्यु होने पर उनके शरीर उसी में विलीन हो जाते हैं। जब हम प्राणियों की विभिन्न योनियों को एक प्राकृत शक्ति से जन्मे हुए देखते हैं तब हमें इन विविधताओं के पीछे एकत्व की अनुभूति होती है। क्योंकि प्रकृति भगवान की शक्ति है, यह ज्ञान हमें सभी अस्तित्त्वों में व्याप्त एक जैसा आध्यात्मिक आधार देखने में समर्थ बनाता है। यह ब्रह्म की अनुभूति की ओर ले जाता है।

प्रकृति के दो रूप हैं, क्रिया और पदार्थ। क्रिया से सम्बन्ध विच्छेद करने के लिये पूर्व श्लोक में पढ़ा। अब पदार्थ से सम्बन्धविच्छेद के विषय मे पढ़ते है। जिस कालमें साधक सम्पूर्ण प्राणियों के अलगअलग भावों को अर्थात् त्रिलोकी में जितने जरायुज, अण्डज, उद्भिज्ज और स्वेदज प्राणी पैदा होते हैं, उन प्राणियों के स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों को एक प्रकृति में ही स्थित देखता है। उस काल में वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। त्रिलोकी के स्थावरजङ्गम प्राणियों के शरीर, नाम, रूप, आकृति, मनोवृत्ति, गुण, विकार, उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय आदि सब एक प्रकृतिसे ही उत्पन्न हैं। सम्पूर्ण प्राणियों के शरीर प्रकृति से ही उत्पन्न होते हैं, प्रकृति में ही स्थित रहते हैं और प्रकृति में ही लीन होते हैं। इस प्रकार देखनेवाला ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है अर्थात् प्रकृति से अतीत स्वतःसिद्ध अपने स्वरूप परमात्मतत्त्व को प्राप्त हो जाता है। 

जिस समय ( यह विद्वान् ) भूतों के अलग अलग भावों को, भूतों की पृथक्ता को, एक आत्मा में ही स्थित देखता है अर्थात् शास्त्र और आचार्य के उपदेश से मनन करके आत्मा को इस प्रकार प्रत्यक्ष भाव से देखता है कि यह सब कुछ आत्मा ही है। तथा उस आत्मा से ही सारा विस्तार, सब की उत्पत्ति  विकास देखता है अर्थात् जिस समय आत्मा से ही प्राण, आत्मा से ही आशा, आत्मा से ही संकल्प, आत्मा से ही आकाश, आत्मा से ही तेज, आत्मा से ही जल, आत्मा से ही अन्न, आत्मा से ही सब का प्रकट और लीन होना इत्यादि प्रकार से सारा विस्तार आत्मा से ही हुआ देखने लगता है उस समय वह ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है, ब्रह्मरूप ही हो जाता है।

सांख्य में प्रकृति और पुरुष दोनों अनादि है, जीव अनंत है, किंतु वेदांत प्रकृति और पुरुष दोनों को परमब्रह्म का ही अंश मानता है। इसलिए समस्त क्रियाएं, कर्ता और कर्म, जड़ – चेतन आदि सभी एक ही ब्रह्म को जो देख पाता है, वह ही अद्वैत भाव को प्राप्त ब्रह्म को पा जाता है।

जब भौतिक विज्ञान में यह ज्ञात होता है कि परमाणु पदार्थ की इकाई है, तब इस ज्ञान के साथ यह भी समझना चाहिए कि ये परमाणु ही विभिन्न संख्या एवं प्रकारों में संयोजित होकर असंख्य रूप और गुणों वाली वस्तुओं के इस जगत् की रचना करते हैं। इसी प्रकार समस्त नाम और रूपों के पीछे एक आत्मतत्त्व ही सत्य है, यह जानना मात्र आंशिक ज्ञान है। ज्ञान की पूर्णता तो इसमें होगी कि जब हम यह भी जानेंगे कि इस एक आत्मा से विविधता की यह सृष्टि किस प्रकार प्रकट हुई है। भौतिक या रसायन के छात्र को कुछ भी दिखाओ वो उस मे तत्व देखता है कि ये पदार्थ का मिश्रण है और इस मूल तत्व क्या है, उस से और क्या पदार्थ बन सकते है।

प्रकृति की समस्त क्रियाएं क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ के संयोग से उत्पन्न है एवम क्षेत्र के जितने भी स्वरूप है वह प्रकृति के मूल तत्व में त्रियामी गुण सत्व- रज- तम का विभिन्न मिश्रण है। इस विभिन्न क्षेत्रज्ञ का मूल चेतन तत्व एक आत्मा ही है।

ऐसे ही प्रकृति से उत्पन्न होने वाले जितने गुण, विकार हैं तथा उन में जो कुछ परिवर्तन होता है, घटबढ़ होती है वह सब की सब प्रकृति में ही होती है। तात्पर्य है कि जैसे पृथ्वी से पैदा होनेवाले पदार्थ पृथ्वीमें ही स्थित रहनेसे और पृथ्वीमें लीन होनेसे पृथ्वीरूप ही हैं, ऐसे ही प्रकृति से पैदा होने वाला सब संसार प्रकृति में ही स्थित रहने से और प्रकृति में ही लीन होनेसे प्रकृतिरूप ही है। इसी प्रकार स्थावरजङ्गम प्राणियोंके रूपमें जो चेतनतत्त्व है।

जिन चराचर समस्त प्राणियों की उत्पत्ति क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से बतलाई गई है तथा जिन समस्त भूतों में परमेश्वर को समभाव से देखने के लिये कहा गया है। उन समस्त प्राणियों को हम देहात्मबुद्धि के कारण हम किसी को देवता, किसी को मनुष्य, कुत्ता, बिल्ली आदि के रूप में देखते है। यह भौतिक दृष्टि है, वास्तविक दृष्टि नहीं है। भौतिक शरीर के विनाश के बाद आत्मा एक ही रहता है। यही आत्मा भौतिक प्रकृति के संपर्क से विभिन्न प्रकार से शरीर धारण करता है।

प्रकृति एवम पुरुष के ज्ञान के बाद अभी जो भी बाते कही जा रही है वो एक ज्ञानी अर्थात तत्वविद की दृष्टि के अनुसार कही जा रही है जिन्हें हम आगे के भी श्लोकों में भी पढेंगे। व्यवहारिक दृष्टिकोण से यह ज्ञान मानसिक शांति एवम निष्काम कर्म को प्रेरित करता है क्योंकि जब सब कुछ ईश्वर ही है, वो ही करता है और वो ही करवाता है तो विपरीत परिस्थितियो में भी हमारा विश्वास उस पर अडिग रहता है। जिसे हम व्यक्तिगत अपना भला बुरा समझते है वो वास्तव में ईश्वर प्रदत्त हमारे लिये हमारे कर्मो का फल है। जिसे हम किसी पर अहसान या सहायता समझते है वो ईश्वर द्वारा हमे सेवा का अवसर है। आज किसी के साथ अच्छा करते है तो ईश्वर ही किसी भी हाथ से हमे लौटाता है। क्योंकि जिस का भला किया वो भी ईश्वर है, जिस ने भला किया वो भी ईश्वर। व्यक्तिभेद हमारा ही देहात्मभेद है। जब कष्ट का अनुभव हो तो जानिये की सोना कुंदन बनने के लिये तप रहा है और जो कष्ट दे रहा है वो ईश्वर स्वरूप सुनार है। जो तप कर कुंदन बनेगा वो भी ईश्वर का ही रूप है। यही समभाव समस्त प्राणियों में उस ईश्वर को देखना है जो नित्य आत्मा है।

पूर्व श्लोक में  जीव का उद्गम क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ का संयोग कहा गया जिस में समस्त क्रियाएं प्रकृति कर रही है, उसे देह, आकार, स्वरूप से प्राकृतिक दृष्टिकोण से समझते हुए भी, जीव को उस के मूल नित्य तत्व को ध्यान में रखना चाहिए, जिस से उस में प्राकृतिक विकार जन्म न ले सके। प्राकृतिक देह नाशवान है, उस में राग – द्वेष को रखना अज्ञान है, इसलिए जीव को समस्त प्राणियों में नित्य आत्मा को पहचानना चाहिए। जब समभाव दृष्टिकोण उत्पन्न हो जाता है तो विभेद दृष्टि और राग – द्वेष का भी अंत हो जाता है। इस प्रकार वह जीव अपनी आत्मा के हनन को रोक लेता है और उस को सृष्टि की समस्त क्रियाएं प्रकृति द्वारा की जाती है, इस का ज्ञान हो जाता है। उस की आत्मा प्रकृति के अनित्य देह से कर्तृत्व एवम भोक्त्व भाव से मुक्त हो जाती है। जब जीव में विभेद दृष्टि न हो, तो वह प्रकृति के प्रत्येक प्राणी में ब्रह्म स्वरूप आत्मा को देखने लगता है। यहां देखने का अर्थ अपने अंदर उस ब्रह्म स्वरूप को सर्वत्र व्याप्त स्वरूप में देखना है। यह दृष्टिकोण आंतरिक है। जो मेरे अंदर है, वही बाहर सभी जगह विराजमान है। यही अवस्था ब्रह्मस्वरूप जीव की है।

व्यवहार में हम एक खाली हॉल को देखते है, तो यही सोचते है यह एक हाल है जो रिक्त है। किंतु वहां हाल और रिक्त स्थान दो वस्तु है। फिर आगे विचार करे तो हमे यह जान कारी मिलती है कि यह रिक्त स्थान हाल में भी है और बाहर भी। और आगे देखने से ज्ञात होता है कि यह रिक्त स्थान सभी वस्तुओं में भी बाहर और भीतर है। हमारे ज्ञान को आगे बढ़ाए तो हम स्वीकार करेंगे कि प्रत्येक वस्तु अलग अलग है किंतु उस में रिक्त स्थान एक जैसा ही है अर्थात आकाश सभी में एक जैसा भीतर और बाहर है। किंतु फिर और ध्यान से विचार करे तो हमे पता लगता है कि आकाश सभी में भीतर और बाहर नहीं हो कर सभी वस्तु ही आकाश में है। यही स्थिति कारण का ज्ञान है। और जब पूर्ण ज्ञान का प्रदुर्भाव होता है तो हम समझ जाते है कि सभी आकाश से उत्पन्न है और आकाश में हो विलीन होते है। आकाश से ही वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी की उत्पत्ति हुई है। अर्थात पदार्थ या विभिन्न शरीर में जो विभेद आकार या तत्व का है, वह मूल स्वरूप एक ही है। यह ब्रह्म स्वरूप को समझने की प्रक्रिया है। जैसे स्वप्न में हम विभिन्न वस्तुएं क्रियाएं करते हुए देखते और महसूस करते है वे जागने से नही रहती, वैसे ही ब्रह्म ज्ञान होने से प्रकृति की क्रियाएं  और वस्तु विभेद नही रहता। अर्थात जो विभेद प्रकृति अपने तीन गुणों से तैयार करती है, वह समाप्त हो कर समस्त सृष्टि में ब्रह्म स्वरूप ही रहता है। अतः राग – द्वेष, सुख और दुख , काम क्रोध आदि स्वप्न में होने वाली प्रक्रिया है, यही कार्य कारण कहलाता है। ज्ञान की पराकाष्ठा में ब्रह्म को जानना ही ज्ञान है, यह बिल्कुल वैसा ही है जैसा स्वप्न में विभिन्न पदार्थ और क्रियाएं हम करते और उस को महसूस  करते है किंतु जागने से समस्त  दृश्य, पदार्थ और क्रियाएं नही रहती। इसी प्रकार जागने से स्वप्न की कोई क्रिया या पदार्थ नहीं रहता और सिर्फ स्वप्न को देखने वाले एकमेव हम दृष्टा रहते है, वैसे ही इस दृष्टि स्वरूप स्वप्न के भंग होने से ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ नही होता, एकमेव ब्रह्म हो रहता है।

हिंदू धर्म में ब्रह्मसंध की अवस्था देह के रहते ही प्राप्त हो जाती है, अतः जिस ने ज्ञान प्राप्त कर लिया हो, जिस को देह से परे बताया है और  जिस का ब्रह्म को प्राप्त होना बताया है, उस पुरुष (चेतन) के वास्तविक स्वरूप का संसार में वर्णन आगे के श्लोक में पढ़ते हैं।

।। हरि ॐ तत सत।। 13.31।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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