।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 13.29 II Additional II
।। अध्याय 13.29 II विशेष II
।।नासदीय सूक्त ।। विशेष 13.29 ।।
जीव में मनुष्य को परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ रचना कहा गया है, क्योंकि उसी में इंद्रियों, मन और चेतन के साथ बुद्धि है। बुद्धि होने से ही वह कर्म का अधिकार रखता है और इसी कारण उस में अहम और कामना उत्पन्न होती है। अन्य कोई भी जीव अपने पूर्वजन्म के फलों को भोगते है, किंतु कर्म फल का बंधन मनुष्य जन्म से होता है और मोक्ष के लिए भी यही मार्ग है। आप को यदि मनुष्य योनि प्राप्त है तो ज्ञान को प्राप्त होने के लक्ष्य की जगह यदि जीव अहम और कामना प्राप्त होता है तो यही माना जा सकता है की किसी को सोने की खान प्राप्त हो, वह उस से बड़ा सा मंदिर बना कर बाहर भीख मांग कर ही प्रसन्न है।
ज्ञान के क्षेत्र में आधुनिक युग में हिग्स बैंग और गॉड पार्टिकल पर पूरी दुनिया अनुसंधान पर लगी है,। किंतु इस का आधार हजारों वर्ष पूर्व ऋग्वेद में वर्णित 7 श्लोक है, जिन्हे हम नासदिय सुक्त कहते है। मानवीय अन्वेषण और उत्कंठा में ऋषि प्रजापति परमेष्ठी की यह रचना गॉड पार्टिकल के बारे में है। गीता में क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ एवम पुरुष – प्रकृति को समझने के इस को समझना उतना ही आवश्यक है, जितना जीव को मोक्ष को प्राप्त करना।
सृष्टि की उत्पत्ति के विषय मे अनेक सूक्त है, जिस में यह कहा गया है कि सब से पहले हिरण्यगर्भ था, अमृत एवम मृत्यु दोनों उस की छाया थी। कही यह कहा गया कि सर्वप्रथम विराट पुरुष हुआ और उसके यज्ञ से सारी सृष्टि की रचना हुई। कुछ जगह यह कहा गया कि सब से पहले आप यानि पानी था, उस से प्रजापति, फिर ऋत और सत्य, फिर रात्रि या अंधकार और उस के बाद समुन्द्र, सवंत्सर इत्यादि उत्पन्न हुए। कही अंतरिक्ष, अंतरिक्ष से आकाश, आकाश से जल और सृष्टि बनी। अतः माना गया कि पहले तम यानि चारो ओर अंधकार था, फिर रज एवम सत्व तत्व से सृष्टि बनी। हम कुछ सूक्तों को पढ़ते है। यह रोचक एवम ज्ञान वर्धक है कि हमारे पूर्वजों ने वेद एवम उपनिषद में सृष्टि की रचना के विषय मे क्या कहा है।
नासदीय सूक्त ऋग्वेद के 10 वें मंडल का 129 वां सूक्त है। इसका सम्बन्ध ब्रह्माण्ड विज्ञान और ब्रह्मांड की उत्पत्ति के साथ है। माना जाता है की यह सूक्त ब्रह्माण्ड के निर्माण के बारे में काफी सटीक तथ्य बताता है। इसी कारण दुनिया में काफी प्रसिद्ध हुआ है।
नासदीय सूक्त में ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का दार्शनिक वर्णन अत्यन्त उत्कृष्ट रूप मे किया गया है ऋषियों के अद्भुत् इस ज्ञान से सिद्ध होता है कि समस्त संसार मे सभ्यता की पराकाष्ठा भारत मे देखी जा सकती थी और यह अतिशयोक्ति नही होगी ।
नासदीय सूक्त के रचयिता ऋषि प्रजापति परमेष्ठी हैं। इस सूक्त के देवता भाववृत्त है। यह सूक्त मुख्य रूप से इस तथ्य पर आधारित है कि ब्रह्मांड की रचना कैसे हुई होगी।
प्रस्तुत हिंदी वर्णन बाल गंगाधर तिलक की पुस्तक गीता कर्म रहस्य से लिया है और गूगल से भी इसके अन्य हिंदी रूपांतर के साथ जोड़ा है, अतः कुछ बाते दो बार भी पढ़ी जा सकती है।
1. नासदासीन्नो सदासात्तदानीं नासीद्रजो नोव्योमा परोयत्। किमावरीवः कुहकस्य शर्मन्नंभः किमासीद् गहनंगभीरम् ॥१॥
अन्वय- तदानीम् असत् न आसीत् सत् नो आसीत्; रजः न आसीत्; व्योम नोयत् परः अवरीवः, कुह कस्य शर्मन् गहनं गभीरम्।
अर्थ- उस समय अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति से पहले प्रलय दशा में असत् अर्थात् अभावात्मक तत्त्व नहीं था। सत्= भाव तत्त्व भी नहीं था, रजः=स्वर्गलोक मृत्युलोक और पाताल लोक नहीं थे, अन्तरिक्ष नहीं था और उससे परे जो कुछ है वह भी नहीं था, वह आवरण करने वाला तत्त्व कहाँ था और किसके संरक्षण में था। उस समय गहन= कठिनाई से प्रवेश करने योग्य गहरा क्या था, अर्थात् वे सब नहीं थे।
तब अर्थात मुलरम्भ में असत नही था और सत भी नही था। अंतरिक्ष वही था और उस के परे का आकाश भी न था। ऐसी अवस्था मे किस ने किस पर आवरण डाला? कहा? किस सुख के लिये? अगाध और गहन जल भी कहा था?
2. न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः। अनीद वातं स्वधया तदेकं तस्मादधान्यन्न पर किं च नास ॥२॥
अन्वय-तर्हि मृत्युः नासीत् न अमृतम्, रात्र्याः अह्नः प्रकेतः नासीत् तत् अनीत अवातम, स्वधया एकम् ह तस्मात् अन्यत् किंचन न आस न परः।
‘अर्थ – उस प्रलय कालिक समय में मृत्यु नहीं थी और अमृत = मृत्यु का अभाव भी नहीं था। रात्री और दिन का ज्ञान भी नहीं था उस समय वह ब्रह्म तत्व ही केवल प्राण युक्त, क्रिया से शून्य और माया के साथ जुड़ा हुआ एक रूप में विद्यमान था, उस माया सहित ब्रह्म से कुछ भी नहीं था और उस से परे भी कुछ नहीं था।
तब मृत्यु अर्थात मृत्युग्रस्त नाशवान दृश्य सृष्टि न थी, अतएव दूसरा अमृत अर्थात अविनाशी नित्य पदार्थ यह भेद भी न था। इसी प्रकार रात्रि और दिन का भेद समझने के लिये कोई साधन न था। जो कुछ था वह अकेला एक ही अपनी शक्ति आ स्वधा से वायु के बिना श्वासोच्छास लेता अर्थात स्फूर्तिमान होता रहा। इस के अतिरिक्त या इस के परे और कुछ भी न था।
3. तम आसीत्तमसा गूढमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदं। तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिना जायतैकं॥३॥
अन्वय -अग्रे तमसा गूढम् तमः आसीत्, अप्रकेतम् इदम् सर्वम् सलिलम्, आःयत्आभु तुच्छेन अपिहितम आसीत् तत् एकम् तपस महिना अजायत।
अर्थ –सृष्टिके उत्पन्न होने से पहले अर्थात् प्रलय अवस्था में यह जगत् अन्धकार से आच्छादित था और यह जगत् तमस रूप मूल कारण में विद्यमान था,अज्ञात यह सम्पूर्ण जगत् सलिल=जल रूप में था। अर्थात् उस समय कार्य और कारण दोंनों मिले हुए थे यह जगत् है वह व्यापक एवं निम्न स्तरीय अभाव रूप अज्ञान से आच्छादित था इसीलिए कारण के साथ कार्य एकरूप होकर यह जगत् ईश्वर के संकल्प और तप की महिमा से उत्पन्न हुआ।
जो (यत) ऐसा कहा जाता है, कि अंधकार था, आरम्भ में यह सब अंधकार से व्याप्त और भेदाभेद रहित जल था, आभु यानि सर्वव्यापी ब्रह्म पहले ही तुच्छ से अर्थात झूठी माया से आच्छादित था, वह (तत) मूल में एक ब्रह्म ही तप की महिमा से प्रगट हुआ था।
4. कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्। सतो बन्धुमसति निरविन्दन्हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ॥४॥
अन्वय-अग्रे तत् कामः समवर्तत;यत्मनसःअधिप्रथमं रेतःआसीत्, सतः बन्धुं कवयःमनीषाहृदि प्रतीष्या असति निरविन्दन
अर्थ – सृष्टि की उत्पत्ति होने के समय सब से पहले काम=अर्थात् सृष्टि रचना करने की इच्छा शक्ति उत्पन्न हुयी, जो परमेश्वर के मन मे सबसे पहला बीज रूप कारण हुआ; भौतिक रूप से विद्यमान जगत् के बन्धन-कामरूप कारण को क्रान्तदर्शी ऋषियो ने अपने ज्ञान द्वारा भाव से विलक्षण अभाव मे खोज डाला।
इस के मन का जो रेत अर्थात बीज प्रथमत निकला, वही आरम्भ में ( अर्थात सृष्टि निर्माण करने की प्रवृति या शक्ति) हुआ। ज्ञाताओं ने अन्तःकरण में विचार कर के बुद्धि से निश्चित किया, कि यही असत में अर्थात मूल परब्रह्म में सत का यानि विनाशी दृश्य सृष्टि का पहला सम्बन्ध है।
5. तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासी३दुपरि स्विदासी३त्। रेतोधा आसन्महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात्प्रयतिः परस्तात् ॥५॥
अन्वय-एषाम् रश्मिःविततः तिरश्चीन अधःस्वित् आसीत्, उपरिस्वित् आसीत्रेतोधाः आसन् महिमानःआसन् स्वधाअवस्तात प्रयति पुरस्तात्।
अर्थ-पूर्वोक्त मन्त्रों में नासदासीत् कामस्तदग्रे मनसारेतः में अविद्या, काम-संकल्प और सृष्टि बीज-कारण को सूर्य-किरणों के समान बहुत व्यापकता उनमें विद्यमान थी। यह सबसे पहले तिरछा था या मध्य में या अन्त में? क्या वह तत्त्व नीचे विद्यमान था या ऊपर विद्यमान था? वह सर्वत्र समान भाव से भाव उत्पन्न था इस प्रकार इस उत्पन्न जगत् में कुछ पदार्थ बीज रूप कर्म को धारण करने वाले जीव रूप में थे और कुछ तत्त्व आकाशादि महान रूप में प्रकृति रूप थे; स्वधा=भोग्य पदार्थ निम्नस्तर के होते हैं और भोक्ता पदार्थ उत्कृष्टता से परिपूर्ण होते हैं।
यह रश्मि या किरण या धागा इन मे आड़ा फैल गया, और यदि कहे कि यह नीचे था तो यह ऊपर भी था। इन मे से कुछ रेतोधा यानि बीजप्रद हुए और बढ़ कर बड़े हुए। उन्ही की स्वशक्ति इस ओर रही और प्रयति अर्थात प्रभाव उस ओर व्याप्त हो रहा।
6. को आद्धा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः। अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव ॥६॥
अन्वय-कः अद्धा वेद कः इह प्रवोचत् इयं विसृष्टिः कुतः कुतः आजाता, देवा अस्य विसर्जन अर्वाक् अथ कः वेद यतः आ बभूव।
अर्थ – कौन इस बात को वास्तविक रूप से जानता है और कौन इस लोक में सृष्टि के उत्पन्न होने के विवरण को बता सकता है कि यह विविध प्रकार की सृष्टि किस उपादान कारण से और किस निमित्त कारण से सब ओर से उत्पन्न हुयी। देवता भी इस विविध प्रकार की सृष्टि उत्पन्न होने से बाद के हैं अतः ये देवगण भी अपने से पहले की बात के विषय में नहीं बता सकते इसलिए कौन मनुष्य जानता है जिस कारण यह सारा संसार उत्पन्न हुआ।
सत का यह विसर्ग यानी पसारा किस से या कहाँ से आया – यह इस से अधिक प्र यानि विस्तारपूर्वक कौन कहेगा? इसे कौन निश्चयात्मक जानता है? देव भी इस सत सृष्टि के विसर्ग के पश्चात हुए है। फिर वह जहां से हुई है, उसे कौन जानेगा ?
7. इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न। यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अंग वेद यदि वा न वेद ॥७॥
अन्वय- इयं विसृष्टिः यतः आबभूव यदि वा दधे यदि वा न। अस्य यः अध्यक्ष परमे व्यामन् अंग सा वेद यदि न वेद।
अर्थ – यह विविध प्रकार की सृष्टि जिस प्रकार के उपादान और निमित्त कारण से उत्पन्न हुयी इस का मुख्या कारण है ईश्वर के द्वारा इसे धारण करना। इसके अतिरिक्त अन्य कोई धारण नहीं कर सकता। इस सृष्टि का जो स्वामी ईश्वर है, अपने प्रकाश या आनंद स्वरुप में प्रतिष्ठित है। हे प्रिय श्रोताओं ! वह आनंद स्वरुप परमात्मा ही इस विषय को जानता है उस के अतिरिक्त (इस सृष्टि उत्पत्ति तत्व को) कोई नहीं जानता है।
सत का यह विसर्ग अर्थात फैलाव जहां से हुआ है अथवा निमित्त किया गया है या नही किया गया – उसे परम् आकाश में रहनेवाला इस सृष्टि का जो अध्यक्ष (हिरण्यगर्भ) है, वही जानता होगा या न भी जानता हो? कौन कह सकता है ?
सारे वेदान्तशास्त्र का रहस्य यही है, की नेत्रों को या सामान्यतः सन इंद्रियाओ को गोचर होनेवाले विकारी और विनाशी नाम रूपात्मक अनेक दृश्य के फंदे में फसे न रह कर , ज्ञान दृष्टि से यह जानना चाहिए, कि इस दृश्य के परे कोई न कोई एक और अमृत तत्व है।
मोक्ष कोई वस्तु नही है कि किसी स्थान में रखी हो अथवा यह भी नही कि उसकी प्राप्ति के लिये किसी दूसरे गांव या प्रदेश को जाना पड़े। वास्तव में हृदय की अज्ञान ग्रंथि के नाश हो जाने को मोक्ष कहते है।
।। हरि ॐ तत सत।। गीता विशेष 13.29 ।।
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