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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  13.27 II

।। अध्याय      13.27 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 13.27

यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्‍गमम्‌ ।

क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ॥

“yāvat sañjāyate kiñcit,

sattvaḿ sthāvara- jańgamam..।

kṣetra- kṣetrajña- saḿyogāt,

tad viddhi bharatarṣabha”..।।

भावार्थ: 

हे भरतवंशी अर्जुन! इस संसार में जो कुछ भी उत्पन्न होता है और जो भी चर-अचर प्राणी अस्तित्व में है, उन सबको तू क्षेत्र (जड़ प्रकृति) और क्षेत्रज्ञ (चेतन प्रकृति) के संयोग से ही उत्पन्न हुआ समझ। (२७)

Meaning:

Whatever being is born, inert or moving, know that to have come from the union of kshetra and kshetrajnya, O foremost among the Bharatas.

Explanation:

We now shift our attention from the nature of the “I” to the nature of the world. We may be able to experience our true nature as the saakshi, the witness, in deep meditation. But most of us still have to transact in this world, still deal with our friends, our relatives, our co-workers and so on. How should our attitude be towards the world after we have understood, at least in theory, what our true nature is? We cannot, and should not, think of ourselves as something special, and as everyone else as useless forms on an IMAX screen, per the illustration used in previous shlokas. Now, in this sequence of shlokas, we learn to develop the right attitude, the right vision towards the world.

In the early twentieth century, Sir J.C. Bose established through experiments that even plants, which are non-moving life forms, can feel and respond to emotions.  His experiments proved that soothing music can enhance the growth of plants.  When a hunter shoots a bird sitting on a tree, the vibrations of the tree seem to indicate that it weeps for the bird.  And when a loving gardener enters the garden, the trees feel joyous.  The changes in the vibrations of the tree reveal that it also possesses consciousness and can experience semblances of emotions.  These observations corroborate Shree Krishna’s statement here that all life forms possess consciousness; they are the combination of the eternal soul, which is the source of consciousness, and the body, which is made of the insentient material energy.

Shri Krishna begins this topic by asserting that every other being in the universe has come into existence just like we have. The kshetrajnya, the higher aspect of Prakriti, has identified itself with the kshetra, the lower aspect of Prakriti. Each such erroneous identification creates the Purusha, also known as the jeeva, the individual soul. Subsequently, each Purusha has developed attachment to the qualities of Prakriti, accumulating selfish desires or karmas in the process. Billions of Purushas live out their lives in this world trying to exhaust their karmas, but in most cases, end up accumulating more karmas, and therefore, take birth again.

For preparation of living many doors are there, but for mōkṣa, there is only one door: jñānam. As it says darkness can be removed only by light. Krishna says because samsāra is caused by ignorance and error. I am the Puruṣaḥ, this fact I am ignorant. Puruṣah means Vēdāntic Puruṣa that is the four things we ought to remember: Cētana, nirguṇa, nirvikāra, sathya, cētana tatvam Puruṣah, purṇa Puruṣaḥ aham; this fact I am ignorant of. This is called the ignorance problem.

And this ignorance has led to an error; Puruṣah ajñānam (ignorance) has led to Prakr̥ti identification means abhimānam (ego). You miss the original and take the wrong one; called mis take. I miss the Puruṣah and take the Prakr̥ti as myself.

And because of the dēha abhimāna (body identification), puruṣah leads to problem of misunderstanding i.e. I the immortal Puruṣah mistake myself to be the mortal body. And therefore apūrṇathvam (incompleteness) leads to kāma(desire); kāma leads to karma(work), karma leads to puṇya pāpam, puṇya pāpa leads to sukha duḥkha (sorrow and happiness), and later to punar janma (reincarnation). Infect entire cycle of birth and death is dēha abhimāna. Every living being is born; goes through the cycles of births and death. The only way to come out from the problem is gyanam.

We have spoken of this erroneous identification several times but have not delved into it deeply. The classic example to explain this erroneous identification is that of a burning hot iron ball. The iron ball has taken on heat, which is the property of fire. On the other hand, fire which is normally without shape, has taken on the property of the iron ball, which is round. Two things taking on each other’s properties is known as “anyonya adhyaasa” or mutual superimposition. The Purusha’s real nature is infinite, full of knowledge and bliss. Prakriti’s nature is finite, inert and sorrowful. Erroneous identification results in them exchanging their properties, as it were. This is how the Purusha assumes inertness of the body.

 So, our daily life is nothing but a Purusha interacting with several other Purushas, all of which are under the effect of this erroneous identification. There should be no hint of any arrogance that causes us to treat others differently just because we think that we have acquired more knowledge than them. In fact, whenever we emphasize differences between one another rather than similarities, even in worldly matters, we slip further away from liberation. But, developing an attitude of sameness towards everyone becomes difficult, especially when our minds are conditioned to differentiate rather than unify. Keeping this in mind, we learn to develop the correct attitude towards the world in the next shloka.

।। हिंदी समीक्षा ।।

इस प्रकार वेदांत में क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ का ज्ञान और सांख्य में प्रकृति – पुरुष का ज्ञान में सामंजस्य सिद्ध करते हुए, भगवान कहते है कि ज्ञानी पुरुष द्वारा इस ज्ञान को जानना प्रकृति के किसी भी सिद्धांत के लिए आवश्यक हैं, जिस से वह किसी के द्वारा भ्रमित  न हो जाए। परमात्मा ने भी यह भी कहा है, कि यह समस्त सृष्टि उस के द्वारा रची हुई है, वह समस्त जड़ – चेतन में निवास करता है। इसलिए यह संपूर्ण जगत परमात्मा की माया और चेतना का ही स्वरूप है।

20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में सर जी. सी. बोस ने एक खोज द्वारा यह सिद्ध किया था कि पेड़-पौधे जो अचर जीवन रूप हैं वे भी भावनाओं को अनुभव करते हैं और अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं। इनके अनुसंधान ने सिद्ध किया कि मधुर संगीत पौधों के विकास में वृद्धि कर सकता है। जब एक शिकारी वृक्ष पर बैठी चिड़िया को बंदूक की गोली से मारता है तब वृक्ष में प्रतीत होने वाला कम्पन्न यह दर्शाता है कि वृक्ष चिड़िया के लिए रोता है। जब किसी उद्यान का माली उद्यान में प्रवेश करता है तब पेड़ पौधे हर्षित होने लगते हैं। पेड़ के कम्पनों में होने वाले परिवर्तनों से ज्ञात होता है कि यह चेतनाशील है और यह भावनाओं के सादृश्य अनुभव करता है। ये सब टिप्पणियाँ यहाँ श्रीकृष्ण के इस कथन की पुष्टि करती हैं कि सभी जीवन रूपों में चेतना होती है तथा वे सभी ऐसी शाश्वत आत्मा के संयोग हैं जो चेतना और जड़ प्राकृतिक ऊर्जा से निर्मित शरीर का स्रोत है।

श्रीकृष्ण ने यहाँ ‘यावत् किञ्चित्’ शब्द का प्रयोग किया है जिसका अर्थ है ‘जो जीवन रूप अस्तित्त्व में हैं’ चाहे वह विशाल या अति सूक्ष्म ही क्यों न हो। सबका जन्म ‘क्षेत्रज्ञ’ अर्थात शरीर के ज्ञाता और क्षेत्र अर्थात कर्म क्षेत्र के संयोग से होता है। अब्राहिमक धर्म परम्परा मानव शरीर में आत्मा के अस्तित्त्व को स्वीकार करती है किन्तु अन्य जीवन रूपों में आत्मा के अस्तित्त्व को स्वीकार नहीं करती। यह विचारधारा अन्य जीवों के प्रति हिंसा को क्षम्य मानती है किन्तु वैदिक दर्शन में इस पर बल दिया गया है कि जहाँ भी चेतना का अस्तित्त्व है वहाँ आत्मा रहती है। इसके बिना कुछ भी चेतन नहीं रह सकता।

परमात्मा का यह भी कथन है कि इस संसार की प्रत्येक वस्तु, जीव, वनस्पति, जड़ – चेतन में क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ का संयोग है, इसलिए समभाव और सभी में परमात्मा को देखना चाहिए।

देव, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि चलने फिरनेवाले प्राणियों को स्थावर कहते है। वृक्ष, लता, पहाड़ आदि स्थिर रहने वाले प्राणियों को स्थावर कहते है। क्षेत्रज्ञ और ईश्वर की एकता विषयक ज्ञान मोक्ष का साधन है।

जीवन की तैयारी के लिए कई द्वार हैं, लेकिन मोक्ष के लिए केवल एक ही द्वार है; ज्ञानम। जैसा कि कहा जाता है कि अंधकार को केवल प्रकाश से ही हटाया जा सकता है। कृष्ण कहते हैं क्योंकि संसार अज्ञान और त्रुटि के कारण होता है। संसार अज्ञान और त्रुटि के कारण होता है। मैं पुरुष हूँ, इस तथ्य से मैं अज्ञानी हूँ। पुरुष: का अर्थ है वेदान्तिक पुरुष यानी चार चीजें जिन्हें आपको याद रखना चाहिए: चेतना, निर्गुण, निर्विकार, सत्य, चेतना तत्वम पुरुष, पूर्ण पुरुष: अहम्; इस तथ्य से मैं अज्ञानी हूँ। इसे अज्ञान समस्या कहा जाता है।

और इस अज्ञानता ने एक त्रुटि को जन्म दिया है; पुरुष अज्ञानम ने प्रकृति की पहचान अर्थात अभिमानम को जन्म दिया है। आप मूल को भूल जाते हैं और गलत को अपना लेते हैं; जिसे गलत पहचान कहते हैं। मैं पुरुष को भूल जाता हूँ और प्रकृति को ही अपना मान लेता हूँ।

और देह अभिमान के कारण, पुरुषः गलतफहमी की समस्या को जन्म देता है, अर्थात मैं अमर पुरुष स्वयं को नश्वर शरीर समझने की भूल करता हूँ। और इसलिए पूर्णत्वम काम की ओर ले जाता है; काम कर्म की ओर ले जाता है, कर्म पुण्य पाप की ओर ले जाता है, पुण्य पाप सुख दुःख की ओर ले जाता है, और बाद में पुनर्जन्म की ओर ले जाता है। वास्तव में जन्म और मृत्यु का पूरा चक्र ही देह अभिमान है। प्रत्येक जीव जन्म लेता है; जन्म और मृत्यु के चक्र से गुजरता है। समस्या से बाहर आने का एकमात्र तरीका ज्ञान है।

जो पुरुष इस ज्ञान को समझ जाता है कि प्रकृति, जीव, आत्मा,  सत्य, ब्रह्म, अक्षर, क्षेत्र एवम क्षेत्रज्ञ का आपसी संबंध क्या है, यह किस प्रकार कर्म अर्थात कार्य करते हैं, उन के अध्यास अर्थात भ्रम कौन कौन से हैं, वह ही जाग्रत पुरुष है, जिसे स्वप्न की अवस्था नही छू सकती। वह पुरुष  देव, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि जंगम और वृक्ष, लता, पहाड़ आदि स्थावर को क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ के संयोग से किस प्रकार उत्पन्न हो कर कर्म करते है, इस सत्य को जान लेता है, वही ज्ञानी है।

जो क्षेत्र को माया से रचे हुए हाथी, स्वप्न में देखी हुई वस्तु या गन्धर्वनगर आदि की भाँति यह वास्तव में नहीं है तो भी सत्य की भाँति प्रतीत होता है, ऐसे निश्चयपूर्वक जान लेता है।  उस का मिथ्याज्ञान उपर्युक्त यथार्थ ज्ञान से विरुद्ध होने के कारण नष्ट हो जाता है। पुनर्जन्म के कारण रूप उस मिथ्या ज्ञान का अभाव हो जाने पर य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह इस श्लोक से जो यह कहा गया है कि विद्वान् पुनः उत्पन्न नहीं होता सो युक्ति युक्त ही है।

क्षेत्र (प्रकृति) और क्षेत्रज्ञ (पुरुष) इन दोनों में ही स्वतन्त्र रूप से कोई एक ही तत्त्व इस चराचर जगत् का कारण नहीं है। इन दोनों के संयोग से जगत् उत्पन्न होता है परन्तु इन दोनों का संयोग वास्तविक नहीं, वरन् अन्योन्य धर्म अध्यासरूप है।अध्यास की प्रक्रिया में विद्यमान अधिष्ठान पर भ्रान्ति से किसी अन्य वस्तु की ही कल्पना की जाती है।

जैसे हम ने पहले भी पढ़ा था कि प्रकृति यानि क्षेत्र क्रियाशील है किंतु उस को साधन चाहिये और क्षेत्रज्ञ अकर्ता एवम साक्षी। जैसे ही क्षेत्रज्ञ एवम क्षेत्र मिलते है प्रकृति क्रियाशील हो जाती है और क्षेत्रज्ञ उस की क्रियाशीलता से भ्रमित। यह भ्रम टूट जाने से स्थिति पुनः यथावत हो जाती है, इसलिये यह समस्त क्रियाशीलता एक स्वप्न की भांति मिथ्या ही सिद्ध होती है।

जैसे स्तम्भ में प्रेत का अध्यास। इस प्रकार के अध्यास में, भ्रान्त व्यक्ति स्तम्भ में वस्तुत अविद्यमान प्रेत के रूप, गुण और क्रियाओं को देखता है। यह स्तम्भ पर प्रेत के धर्म का अध्यास है। इसी प्रकार, स्वयं अविद्यमान होते हुए भी जो प्रेत उस व्यक्ति को सद्रूप अर्थात् है इस रूप में प्रतीत हो रहा होता है, उसकी सत्ता वस्तुत स्तम्भ की ही होती है। यह है स्तम्भ के अस्तित्व के धर्म का प्रेत पर आरोप।

गुणों के इस परस्पर अध्यास के कारण विचित्र बात यह होती है कि व्यक्ति को मिथ्या प्रेत तो दिखाई पड़ता है, परन्तु सत्य स्तम्भ नहीं मन की यह विचित्र युक्ति अध्यास कहलाती है। शुद्ध चैतन्य में क्षेत्र का सर्वथा अभाव है। क्षेत्र की अपनी न सत्ता है और न चेतनता। परन्तु, परस्पर विचित्र संयोग से इस चराचर जगत् की उत्पत्ति हुई प्रतीत होती है। इस अध्यास के कार्य को हम अपने में ही अनुभव कर सकते हैं। विचार करने पर विविधता पूर्ण सृष्टि निवृत्त हो जाती है और हमें यह ज्ञात होता है कि ब्रह्म ही वह परम सत्य अधिष्ठान है, जिस पर प्रकृति और पुरुष की क्रीड़ा हो रही है।

कोई एक व्यक्ति सामान्यत शान्त प्रकृति का है। परन्तु यदाकदा उस के मन में प्रबल कामना का उदय होता है। उस कामना से तादात्म्य करने के फलस्वरूप वह व्यक्ति कामुक बनकर ऐसा निन्द्य कर्म करता है, जिसका उसे पश्चात्ताप होता है इस उदाहरण में, कामना, कामुक व्यक्ति, पश्चात्ताप इन सबका अस्तित्व उस व्यक्ति में ही निहित होता है। यद्यपि वे उसमें हैं, किन्तु वस्तुत वह उसमें नहीं होता क्योंकि उनके बिना भी उस व्यक्ति का अस्तित्व बना रहता है। तथापि उस कामना वृत्ति से तादात्म्य करके वह पश्चात्ताप के योग्य कर्मों का कर्ता बन जाता है। इसी प्रकार आत्मा परिपूर्ण होने के कारण उसमें क्षेत्र या अनात्मा की संभावना रहती है। प्रकृति को व्यक्त कर उसके साथ तादात्म्य से वह जीवरूप पुरुष बन जाता है। यह पुरुष मिथ्या आसक्तियों के द्वारा अपने संसार को बनाये रखता है। इस स्थिति में स्वयं को मुक्त कर अपने पूर्ण स्वरूप का साक्षात्कार करने का यही उपाय है कि हम आत्मा और अनात्मा का प्रमाण पूर्वक विवेक करें और प्रकृति से विलग होकर उसके कार्यों के साक्षी बनकर रहें।

सरल शब्दों में किसी भी नाटक का प्रदर्शन उस के कलाकारो द्वारा किया जाता है किंतु प्रस्तुति दर्शकों के आने के बाद होती है। यह दर्शक नाटक को देखते हुए भी नाटक का हिस्सा नही है। यह बात जानना ही क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के संयोग से प्रकृति की रचना को समझना है कि क्षेत्रज्ञ मात्र दर्शक है, नाटक का कोई हिस्सा नहीं।

क्षेत्र (शरीर) के साथ सम्बन्ध रखने से, उस की तरफ दृष्टि रखने से यह क्षेत्रज्ञ यानि पुरुष जन्ममरण में जाता है, तो अब प्रश्न होता है कि इस जन्ममरण के चक्कर से छूटने के लिये उस को क्या करना चाहिये इस का उत्तर आगे के श्लोक में पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।। 13.27।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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