।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 13.26 II
।। अध्याय 13.26 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 13.26॥
अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते ।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः॥
“anye tv evam ajānantaḥ,
śrutvānyebhya upāsate..।
te ‘pi cātitaranty eva,
mṛtyuḿ śruti- parāyaṇāḥ”..।।
भावार्थ:
कुछ ऎसे भी मनुष्य हैं जो आध्यात्मिक ज्ञान को नहीं जानते है परन्तु वह अन्य महापुरुषों से परमात्मा के विषय सुनकर उपासना करने लगते हैं, परमात्मा के विषय में सुनने की इच्छा करने कारण वह मनुष्य भी मृत्यु रूपी संसार-सागर को निश्चित रूप से पार कर जाते हैं। (२६)
Meaning:
But others, not knowing this, worship what they hear from others. Those who follow what they have heard, they too overcome death.
Explanation:
Whenever we want to learn something new, we do one of two things. We either listen to the advice of an expert, or read a book written by an expert. We study their teachings, we put their teachings into practice. Slowly, we begin to understand what they are talking about, and someday, become an expert ourselves. All this becomes possible only when we have faith in the teacher, and when we diligently follow their instructions. The forum in which we obtain knowledge through contact with knowers of that which is the ultimate reality, the “sanga” with the “sat”, is known as “satsanga”.
Shri Krishna says that if we are not qualified to follow any of the techniques mentioned in the previous shloka – dhyaana, saankhya or karma yoga – we need not worry. We can obtain the same result of those techniques if we find a competent guru and diligently follow the path prescribed by them. Just hearing the teaching is not enough. If the doctor gives you a list of foods to avoid eating, you will not improve your health unless you follow their instructions. Similarly, we must become “shruti paraayanaha”, uphold the teachings as the ultimate goal of our lives. Satsanga should become an integral part of our lives.
In the Vedic tradition, hearing from the saints has been highly emphasized as a powerful tool for spiritual elevation. In the Shreemad Bhagavatam, King Parikshit asked Shukadev the question: “How can we purify the undesirable entities in our hearts, such as lust, anger, greed, envy, hatred, etc.?” Shukadev replied:
śhṛiṇvatāṁ sva- kathāṁ kṛiṣhṇaḥ, puṇya- śhravaṇa- kīrtanaḥ, hṛidy antaḥ stho hy abhadrāṇi, vidhunoti suhṛit satām (Bhagavatam 1.2.17)
“Parikshit! Simply hear the descriptions of the divine Names, Forms, Pastimes, Virtues, Abodes, and saints of God from a saint. This will naturally cleanse the heart of the unwanted dirt of endless lifetimes.”
So then, what is the result of those who follow this path? They will be able to overcome death, in other words, they will achieve liberation. Death does not just refer to the loss of the physical body. Every time we get fascinated by the material world and rush to act with selfish desires, we forget our true nature and take on the role of a doer, an experience, a meritorious actor or “puntyaatmaa” or a sinner. Each time we forget our true nature as the blissful eternal essence to rush out into the world and eventually experience sorrow, we “die” as it were. So therefore, Shri Krishna says that one who simply follows the instructions of their guru diligently will overcome death.
In these two shlokas, Shri Krishna covered the types of spiritual techniques required to access the Purusha within. He now begins a new topic in the next shloka.
।। हिंदी समीक्षा ।।
आज के युग मे सत्व और रज गुण प्रधान लोग अत्यंत गिनती के होंगे। अधिकतर लोग अपनी जीविका के चक्कर मे सत्व कम और रज एवम तम अधिक प्रधान ही होते है। इन का मूल उद्देश्य अर्थ और काम होता है, फिर धर्म और मोक्ष का पुरुषार्थ जीवन के अंतिम दिनों में करने की सोचते है।अतः ज्ञान प्राप्ति के लिये संसार मे होने वाली दिन प्रति दिन भौतिक क्रियाओं के बीच मे ध्यान, विवेक अर्थात सांख्य चिंतन एवम निष्काम कर्मयोगी होना, कठिन कार्य है। यह जीव मोह, लालसा, अहम में जीवन-मरण के कर्म बंधन में ही गोते लगाते रहता है।
पूर्व के श्लोक में योग साधना, निष्काम कर्मयोग साधना, भक्तियोग और ज्ञान योग में जीव स्वयं प्रयास करता है किंतु जीविका उपार्जन में लगा जीव न तो यह कर पाता है और न ही एकाग्रता रख पाता है। यह जीव मुक्ति ले लिए किसी महापुरुष, साधुसंत की बातो पर विश्वास करते हुए, श्रद्धा एवम प्रेम से उन के कहे वचन, मंत्र, जप या पूजा विधि अर्थात कर्म काण्ड का पालन भी अपनी लौकिक कामनाओं के लिए करता है।
इस के अतिरिक्त कुछ साधक मंद बुद्धि होते है, अतः उन के स्वयं ज्ञान प्राप्त करना दुष्कर है। वैसे भी नियम यही है कि हम जो नहीं जानते, वह हमारे व्यवहार और कार्य का हिस्सा नहीं होता, इस के लिए इन लोगों को अपनी प्रज्ञा के विकास के लिए उत्तम ज्ञानी पुरुष, पुस्तको, सत्संग, प्रवचन की आवश्यकता होती है। जिस के श्रद्धा, भक्ति और विश्वास के साथ समर्पण भाव आवश्यक है।
इस प्रकार के जीव का मुक्ति का मार्ग भक्ति ही है, पूर्ण समर्पण एवम अनन्य भाव से स्मरण। भक्ति को ज्ञान का योगक्षेम परमात्मा द्वारा प्राप्त होता है। किंतु इन तीन गुणों से युक्त जीव भक्ति की ओर एवम ज्ञान के मार्ग को कैसे पकड़ सकता है। इसलिये जब तक जीव के अंदर कण मात्र भी जिज्ञासा न उत्पन्न न हो, ज्ञान का द्वार नहीं खुलता।
अतः इस जीव के लिये चैतन्य महाप्रभु कहते है इस युग मे मनुष्य को अपना पद बदलने की आवश्यकता नही है, अपितु उसे चाहिये कि वह मनोधर्मिक तर्क द्वारा परमसत्य को समझने के प्रयास को त्याग दे। उसे उन व्यक्तियों का दास बनना चाहिये, जिन्हें परमेश्वर का ज्ञान है। यदि कोई इतना भाग्यशाली हुआ कि उसे शुद्ध भक्त की शरण मिल सके तो वह श्रवण एवम मनन से ज्ञान प्राप्त कर लेगा।
इस प्रकार के साधकों में श्रद्धा भाव भरपूर होता है, गुरु के प्रति अनन्य भाव से श्रद्धा होने से गुरु के बताए मार्ग पर यह चल कर स्वयं भी ज्ञान युक्त हो जाते है।
स्वामी विवेकानंद को ऐसे ही गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस मिले एवम शिवजी महाराज को स्वामी रामतीर्थ एवम स्वयं उन की माँ मिली आदि आदि।
राजा परीक्षित को ज्ञान शुकदेव जी की शरण मे जाने एवम उन से श्रीमद भागवद सुन कर हुआ था। दत्तात्रेय के उपदेश से पिंगला वैश्या भी श्रवण द्वारा पापों से रहित हो कर्मयोगादि कर के मृत्यु से तर गयी। अतः इस संसार मे यदि ज्ञानी पुरुष मिल जाये तो उस की शरण नहीं छोड़ना चाहिये क्योंकि जो स्वयं ज्ञान प्राप्त नही कर सकते, उन का उद्धार ज्ञानी पुरुष के प्रवचन सुन कर, मनन कर के हो जाता है। ज्ञानी हमारा मार्गदर्शन करते है, उन्हें नमन करते रहना चाहिये एवम उन की बातों को ध्यान लगा कर सुनना चाहिये, उस पर मनन कर के पालन करना चाहिए।
श्रीमद्भागवत् में परीक्षित ने शुकदेव से प्रश्न किया कि हम अपने हृदय में अवांछित विकारों को कैसे शुद्ध कर सकते हैं? जैसे कि काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या द्वेष आदि। शुकदेव उत्तर देते हैं
श्रृण्वतां स्वकथां कृष्ण:पुण्यश्रवणकीर्तनः।
हृद्यन्तःस्थो ह्यभद्राणि विधुनोति सुहृत्सताम् ।।
(श्रीमद्भागवतम्-1.2.17)
“परीक्षित संतों से केवल भगवान के दिव्य नामों, रूपों, लीलाओं, गुणों, धामों और उनके संतों के वर्णन का श्रवण करो। इससे तुम्हारे हृदय में अनंत जन्मों की अवांछित मैल स्वतः शुद्ध हो जाएगी।” जब हम किसी समर्थ स्रोत से श्रवण करते हैं तब हम आध्यात्मिकता के प्रमाणिक ज्ञान को विकसित करते हैं और इसके साथ जिस संत से हम यह श्रवण करते हैं उसके प्रति भी हमारे भीतर अटूट श्रद्धा उत्पन्न होने लगती है। संतों का श्रवण करना आध्यात्मिक सत्यों के प्रति श्रद्धा उत्पन्न करने का सरल मार्ग है। आध्यात्मिक क्रियाओं के लिए संतों से मिलने की उत्सुकता भी हमें निर्मल करती है। भक्ति के लिए उमंग ऐसा बल प्रदान करती है जो साधकों की लौकिक चेतना की जड़ता को एक ओर घसीटने और साधना के मार्ग के बीच की बाधाओं को दूर करने में सक्षम बनाती है। हृदय में श्रद्धा और उमंग ऐसी आधारशिलाएँ हैं जिन पर भक्ति रूपी भवन टिका रहता है।
जो लोग कुम्भ या गंगा स्नान द्वारा, राम कथा, भागवद या प्रवचको को बैठा कर पाप मुक्ति या ज्ञान को खोजते है, उन के किया भीष्म पितामह ने महाभारत में कहा है आत्मरूपी नदी के सयंम रूपी जल से भर कर सच्चे हृदय से ध्यान को ही तट आदि और तरंग बना कर उसी में स्नान करो, केवल जल स्नान से अंतरात्मा शुद्ध नही होती।
ज्ञान प्राप्ति का यह मार्ग सरल है किंतु योग्य गुरु के मिलने पर ही सिद्ध है। स्कूल या कॉलेज में पढ़ने जाने वाले छात्र अच्छे शिक्षण संस्थान एवम योग्य गुरु के कारण सफल वैज्ञानिक, व्यावसायिक व्यक्ति, डॉक्टर, इंजीनियर आदि बनते है। कोचिंग भी अच्छे गुरु के बिना संभव नही। फिर जीवन का मोक्ष भी ज्ञानी गुरु के बिना संभव नही।
ईश्वर किसी भी ज्ञान या मोक्ष की प्राप्ति के किसी एक जन्म की बात नही करते, क्योंकि यह पहले भी कहा है मोक्ष का मार्ग किसी भी जन्म में नष्ट नहीं होता एवम जीव उस ने आगे ही बढ़ता जाता है, यहाँ प्रश्न उस की गति का है, जो प्रयास करते है वो कुछ ही जन्मों में उसे प्राप्त कर लेते है और जो प्रयास नहीं करते वो युगों तक इस दुख को भोगते है।
श्री वसिष्ठजी कहते हैं:
‘परमात्मा का निरन्तर चिन्तन करना, जिज्ञासुओं के प्रति उस का वर्णन करना, आपस में ब्रह्मतत्त्व का बोध कराते रहना तथा एकमात्र ब्रह्म के परायण हो जाना – इसे ही विद्वान लोग ब्रह्मविषयक अभ्यास समझते हैं। जिनकी बुद्धि परिग्रह- त्याग रूपी सौंदर्य और वैराग्य के रास से रंजित हो आनन्द का स्पन्दन करनेवाली है, वे ही उत्तम अभ्यासी कहे गये हैं। जो कुछ प्रतीत हो रहा है, वह मैं ही हूँ- मुझ सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा से यह भिन्न नहीं है, ऐसे अभ्यास को ब्रह्मज्ञान अर्थात बोध का अभ्यास कहा गया है।।’
साधक में किञ्चिन्मात्र भी सांसारिक इच्छा नहीं है और उस का उद्देश्य केवल परमात्मा की प्राप्ति करना है, तो उस को भगवत्कृपा से परमात्मप्राप्ति हो जायगी क्योंकि भगवान् तो उस को जानते ही हैं।अगर किसी कारण वश साधक की संत महापुरुष के प्रति अश्रद्धा, दोषदृष्टि हो जाय तो उन में साधक को अवगुण ही अवगुण दिखेंगे, गुण दीखेंगे ही नहीं। इस का कारण यह है कि महापुरुष गुण अवगुणों से ऊँचे उठे (गुणातीत) होते हैं अतः उन में अश्रद्धा होने पर अपना ही भाव अपने को दिखता है। मनुष्य जिस भाव से देखता है, उसी भाव से उस का सम्बन्ध हो जाता है। अवगुण देखने से उस का सम्बन्ध अवगुणों से हो जाता है। इसलिये साधक को चाहिये कि वह तत्त्वज्ञ महापुरुष की क्रियाओं पर, उन के आचरणों पर ध्यान न देकर उन के पास तटस्थ होकर रहे। संत महापुरुष से ज्यादा लाभ वही ले सकता है, जो उन से किसी प्रकार के सांसारिक व्यवहार का सम्बन्ध न रखकर केवल पारमार्थिक (साधनका) सम्बन्ध रखता है। दूसरी बात, साधक इस बात की सावधानी रखे कि उसके द्वारा उन महापुरुष की कहीं भी निन्दा न हो। यदि वह उन की निन्दा करेगा, तो उस की कहीं भी उन्नति नहीं होगी।
।। हरि ॐ तत सत ।। 13.26।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)